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अनर्थदण्ड व्रत
प्रयोजन - विहीन कार्यों का त्याग ही अनर्थदण्डव्रत/विरति है।
प्रयोजनवश कार्य करने से अल्प कर्मबन्ध होता है। और बिना प्रयोजन कार्य करने से अधिक कर्मबन्ध होता है। क्योंकि प्रयोजनपूर्वक कार्य में तो देश-काल आदि परिस्थितियों की सापेक्षता रहती है, लेकिन निष्षयोजन प्रवृत्ति तो नित्य ही अमर्यादित रूप से की जा सकती है।३८
सावय पण्णति में अनर्थदण्ड के चार भेद बताये हैं :-मा
१. अपध्यान २. प्रमादपूर्णचर्या ३. हिंसा के उपकरण आदि देना और ४. पाप का उपदेश। इन चारों अनर्थदण्डों का परित्याग अनर्थदण्डविरति नामक तृतीय गुणव्रत है।
योगशास्त्र में उल्लिखित है कि शरीर आदि के निमित्त होने वाली हिंसा अर्थ-दण्ड है। और निर्रथक-निष्पयोजन की जानेवाली हिंसा अनर्थदण्ड है। इस अनर्थदण्ड का त्याग करना गृहस्थ का तीसरा गुणव्रत है। मूल शब्दानुसार :
शरीराधर्थदण्डस्य, प्रतिपक्षतया स्थितः । योऽ नर्थदण्डस्तत्यागस्तृतीयस्तत गुणवतम् ॥३९
विरई अण्ग्तथदंडे, तच्चं चउव्विहो अवज्झाणों पमाययरिय, हिंसप्पयाण पावोवएसे य॥४०
अनर्थदण्ड विरतश्रावक को निम्न मर्यादाओं का अतिरेक नहीं करना चाहिए।
कन्दकौत्कुच्यमौखर्या समीक्ष्याधिकरणोपभोगाधिकत्वानि। १ अर्थात् कन्दर्प - हास्यपूर्ण अशिष्ट वचनों का प्रयोग, कौत्कुच्चशारीरिक कुचेष्टा, मौखर्य-व्यर्थ बकवास, समीक्ष्याधिकरण हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोगाधिकत्व भोग्य सामग्री का आवश्यकता से ज्यादा संचय। शिक्षावत
श्रावक का लक्ष्य है श्रमणधर्म की ओर बढ़ना। श्रमणधर्म की शिक्षा या अभ्यास हेतु इन व्रतों को शिक्षाव्रत कहते हैं। आतुर प्रत्याख्यान में निम्न चार शिक्षाव्रत बताएँ हैं- १. भोगों का परिमाण २. सामायिक ३. अतिथि संविभाग ४. पौषधोपवास -
भोगाणं परि संख्या सामाइय - अतिहि संविभागो य । पोसह विहीयसव्वो, चउरो सिक्खाउ बुताओं ॥४२
तत्त्वार्थ सूत्र में शिक्षाव्रत तो यही उल्लेखित है, किन्तु क्रम में भेद है, जो कि तुलनात्मक अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है। तत्वार्थ सूत्र के शिक्षाव्रतों का क्रम इस प्रकार है :- १.सामायिक व्रत २. पौषधोपवास व्रत ३. उपभोग - परिभोग व्रत ४. अतिथि संवित व्रत ३. धर्मबिन्दु में भोगोपभोग परिमाण व्रत के स्थान पर देशावकासिक व्रत को स्वीकार किया गया है ५ उक्त चारों शिक्षाव्रतों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है - ९/१ भोगोपभोग परिमाण - व्रत
भोगलिप्सा को नियन्त्रित करने के लिए इस व्रत को श्रावकाचार के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है। यह व्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत के पालन
में विशेष सहयोगी है। भोग तथा परिभोग की वस्तुओं के ग्रहण को सीमित करना ही भोग परिभोग परिणाम व्रत कहलाता है। भोगपरिभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का है। भोजन रूप तथा कार्य या व्यापार रूप। कन्दमूल आदि अनन्तकायिक वनस्पति, औदुम्बर फल और मद्य मांसादि का त्याग या परिमाण भोजन विषयक भोगोपभोग परिमाण व्रत है और हिंसापरक आजीविका आदि का त्याग व्यापार विषयक भोगोपभोग परिमाण व्रत है। ४५
हेमचन्द्राचार्य ने भोगोपभोग व्रत की व्याख्या करते हुए जो लिखा है उसका आशय यह है:
भोगोपभोगयोः संख्याश्क्त्यायत्र विधीयते। भोगोपभोगमानं तद् द्वेतीयीक गुणवतम् ॥ सकृदेव भुज्यते यः स भोग स्त्रादिकः । पुनः पुनः पुनर्नोग्य, उपभोगो नादिकः ॥
शक्ति के अनुसार जिस व्रत में भोगोपभोग के योग्य पदार्थों की संख्या का नियम किया जाता है, वह भोगोपभोग परिमाण व्रत है। जो वस्तु एक बार भोग के काम में आती है उसे भोग कहते हैं और जो वस्तु पुनः पुन: उपभोग में ली जाती है वह उपभोग कहलाती है। आचार्य हेमचन्द्र ने श्रावक के लिये निम्न वस्तुओं का सर्वथा अथवा यथाशक्य त्याग करने का निर्देश दिया है -
मद्यं मासं नवनीतं मधूदुंबरपन्चकम् । अनन्तकायमज्ञातफलं रात्रौ च भोजनम् ॥ आम गोरस संपृक्तं, द्विदलं पुष्पितौदनम् ।। दध्यहर्द्वितीयातीतं क्वथितान्नं विवर्जयेत् ॥
शराब, मांस मक्खन शहद, पंच उदम्बर फल, अनन्तकाय, अज्ञात फल रात्रि भोजन कच्चे दूध, दही तथा छाछ के साथ द्विदल खाना, बासी अनाज, दो दिन के बाद का दही तथा सड़े अन्न का त्याग करना चाहिए। १०/२ सामायिक
पापारम्भ वाले सम्पूर्ण कार्यों से निवृत्ति सामायिक है। सामायिक श्रमण जीवन का प्राथमिक रूप है और गृहस्थ जीवन का अनिवार्य कर्तव्य है। विशेषावश्यक भाष्य में स्पष्ट कहा गया है कि सामाइयम्मि उकए, समणो इव समावो हवई अर्थात सामायिक करने से सामायिक काल में श्रावक श्रमण के समान हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि सावद्ययोग अर्थात हिंसारम्भ से बचने के लिए केवल सामायिक ही प्रशस्त है। उसे श्रेष्ठ गृहस्थ धर्म जानकर बुद्धिमान लोगों को आत्महित तथा मोक्षप्राप्ति के लिए सामायिक करनी चाहिये।
सावज्जजोगपरिरक्खणट्ट, सामाइयं केवलियं पसत्थं । गिहत्त धम्मा पुरमं ति नच्चा, कुज्जा बुहो आयहियं परत्थो
वस्तुतः समभाव ही सामायिक है। निन्दा और प्रशंसा, मान और अपमान, स्वजन और परजन सभी में जिसका मन समान है, उसी जीव को सामायिक होती है, समभाव की साधना होती है।
निदपसंसासु समो, समो य माणावमाणं कारीसु ।। समसयण परयण मणो सामाइयं संगओ जीओ ।
जो त्रस और स्थावर सभी जीवों के प्रति समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा परमज्ञानी केवली ने परिभाषित
ओम जयतसनमरि अभिनंदन मथावाचना.
सोता तो खोता सदा, जागे वह कुछ पाय । जयन्तसेन प्रमाद तज, जीवन ज्योत जगाय ॥
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