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हुई? तुम्हें दुःख क्यों नहीं हुआ? तुम्हारी आंखों से दो आंसू क्यों नहीं छलक पड़े?" भूपेश ने कहा, "जिस दिन बेटा आया था तो मुझे पूछकर नहीं आया था और आज वह लौट गया तो मुझे पूछकर नहीं लौटा। उस दिन मैंने कुछ नहीं किया था, आज भी मुझे कुछ नहीं करना है। यह जन्म और मरण की अनिवार्य श्रृंखला है, जिसमें मेरा हाथ नहीं है। मनुष्य आता है, चला जाता है। तुम्हें इतनी क्या चिन्ता है?' आगन्तुक चुप हो गया उसके पास बोलने के लिए कुछ नहीं बचा। कुछ क्षण रुक कर वह बोला, अब उसकी चिता जलानी है, साथ चलो। भूपेश उसके साथ गया। पुत्र की अर्थी श्मशान में पहुंची चिता में पुत्र को सुलाकर, आग लगाकर कहा, "बेटे, तुम जिस घर से आए थे, उसी घर में जा रहे हो। आज से हमारा सम्बन्ध विछिन्न हो गया।"
यह घटना का केवल ज्ञान है। इसके साथ संवेदना का कोई तार जुड़ा हुआ नहीं है। जो घटित हुआ, उसी रूप में स्वीकार किया गया है। मनुष्य जब इस स्थिति में पहुंच जाता है, तब ज्ञान की भूमिका प्रशस्त हो जाती है। भगवान् महावीर की वाणी में इसी का नाम संवर है। जहां केवल ज्ञान रहता है, केवल आत्मा की अनुभूति रहती है, वहां विजातीय तत्त्व का आकर्षण बन्द हो जाता है। कर्म का वर्तुल
आत्मा की दो स्थितियां हैं- एक अस्वीकार की और दूसरी स्वीकार की। केवल ज्ञान का अनुभव होना अस्वीकार की स्थिति है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव की अवस्था में विजातीय तत्त्व का कोई प्रवेश, संक्रमण या प्रभाव नहीं होता। संवेदन स्वीकार की स्थिति है। संवेदन के द्वारा हमारा बाह्य जगत के साथ सम्पर्क होता है। हम बाहर से कुछ लेते हैं और उसे अपने साथ जोड़ते हैं। जोड़ने की भावधारा का नाम “आश्रव" और विजातीय तत्त्व के जुड़ने का नाम "बंध" है। आत्मा के साथ जुड़ा हुआ विजातीय तत्त्व परिपक्व होकर अपना प्रभाव डालता है, तब उसका नाम “कर्म” हो जाता है। वह अपना प्रभाव दिखाकर विसर्जित हो जाता है। कोई भी विजातीय तत्त्व आत्मा के साथ निरन्तर चिपका नहीं रह सकता। या तो वह अवधि का परिपाक होने पर अपना प्रभाव दिखलाकर स्वयं चला जाता है या प्रयत्न के द्वारा उसे विलग कर दिया जाता है। यह विलग करने का प्रयत्न " निर्जरा" है। तपस्या से कर्म निर्जीर्ण होते हैं, इसलिए उसका (तपस्या का) नाम निर्जरा है। निर्जरा का चरमबिन्दु मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है - केवल आत्मा । आत्मा व पुद्गल का योग है, वह बन्धन है, संसार है केवल आत्मा के अस्तित्व का होना, पुद्गल का योग न होना ही मोक्ष है। इसकी अनुभूति धर्म के हर क्षण में की जा सकती है।
आश्रव और संवर, बंध और निर्जरा इन चारों तत्त्वों के समझने पर ही कर्म की वास्तविकता को समझा जा सकता है। केवल चैतन्य का अनुभव होना संवर है। चैतन्य के साथ राग-द्वेष का मिश्रण होना आश्रव है। उसके द्वारा कर्म परमाणु आकर्षित होते हैं। वे चैतन्य को आवृत्त करते हैं ज्ञान और दर्शन की क्षमता पर आवरण डालते हैं। वे आत्मा के सहज आनन्द को विकृत कर, उसके दृष्टिकोण और
श्रीमद जयंतसेनरि अभिनंदनाचा
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वे आत्मा की शक्ति को स्खलित निर्माण और पौद्गलिक उपलब्धि के हेतु बनते हैं इस प्रकार आश्रव बंध का निर्माण करता है और बंध पुण्य कर्म और पाप कर्म के द्वारा आत्मा को प्रभावित करता है। जब तक आत्मा केवल ज्ञान के अनुभव की अवस्था को प्राप्त नहीं होता तब तक वह वर्तुल चलता ही रहता है। जीव में भी अनन्त शक्ति है और पुद्गल में भी अनन्त शक्ति है। जीव में दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं -
चरित्र में विकार उत्पन्न करते हैं। करते हैं। कुछ कर्म-परमाणु शरीर
(१) लब्धिवीर्य (२) करणवीर्य
योग्यतारूप शक्ति | क्रियात्मक शक्ति ।
गौतम ने भगवान महावीर से पूछा, "भंते जीव क्या मोहनीय कर्म का बंध करता है? " भगवान “करता है।" "भंते! कैसे?"
" प्रमाद से।"
"भंते! प्रमाद किससे होता है?"
“योग (मन, वचन और काया की प्रवृत्ति) से।"
"भंते योग किससे होता है?"
"वीर्य (प्राण) से।"
"भंते! वीर्य किससे होता है?" "शरीर से।"
"भंते! शरीर किससे होता है?" “कर्म शरीर से।"
"भंते! कर्म "जीव से।"
शरीर किससे होता है?"
आप उल्टे चलिए। जीव से शरीर, शरीर से क्रियात्मक शक्ति, क्रियात्मक शक्ति से योग, योग से प्रमाद और प्रमाद से कर्म-बंध यह वर्तुल है।
कर्म का कर्ता आत्मा है या कर्म? इस प्रश्न पर दो अभिमत हैं सूत्रकार की भाषा में कर्म का कर्ता आत्मा है। आचार्य कुन्दकुन्द । की भाषा में कर्म का कर्ता कर्म है। ये दोनों सापेक्ष दृष्टिकोण है। इनमें तात्पर्य-भेद नहीं है। मूल आत्मा (चिन्मय अस्तित्व) और आत्मपर्याय (मूल आत्मा के निमित्त से निष्पन्न विभिन्न अवस्थाएं ) ये दो वस्तुएं हैं। इनमें हम अभेद और भेद दोनों दृष्टियों से देखते हैं। जब हम अभेद की दृष्टि से देखते हैं, तब कहा जाता है आत्मा कर्म का कर्ता है और जब भेद की दृष्टि से देखते हैं, तब कहते हैं - कर्म कर्म का कर्ता है। कर्म का कर्ता काय आत्मा है वह मूल आत्मा का एक पर्याय है। यदि मूल आत्मा कर्म का कर्ता हो तो वह कभी भी कर्म का अकर्ता नहीं हो सकता। उसका स्वभाव चैतन्य है, इसलिए वह चैतन्य का ही कर्ता हो सकता है। कर्म पौद्गलिक अचेतन है। वह उसका कर्ता नहीं हो सकता। मूल आत्मा के आयतन में कषाय- आत्मा (राग और द्वेष) का वलय है। उससे कर्म - पुद्गलों का आकर्षण होता है। वे कवाय को पुष्ट करते हैं। इस प्रकार कवाय से कर्म और कर्म से कषाय चलता रहता है। मिथ्या दृष्टिकोण,
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भेदभाव को छोड़कर, संप सूत्र दिल धार । जयन्तसेन रहो सदा, हिल मिल कर संसार ॥ www.jainelibrary.org