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कर्मवाद
(युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी महाराज)
कर्मवाद की पृष्ठभूमि
कुछ प्राणी संवेदन करते हैं, जानते नहीं; कुछ प्राणी जानते हैं, संवेदन नहीं करते। कुछ प्राणी जानते भी हैं और संवेदन भी करते हैं। अचेतन न जानता है और न संवेदन करता है। ये चार विकल्प
पहले विकल्प में संवेदन है, ज्ञान नहीं। यह चेतना का निम्नस्तर है। यह वृत्ति का स्तर है। इसके आधार पर जीवन जीया जा सकता है, पर चैतन्य का विकास नहीं किया जा सकता। दूसरा विकल्प शुद्ध ज्ञान का है। इसमें संवेदन नहीं है, कोरा ज्ञान है। संवेदन का माध्यम शरीर है। मुक्त आत्मा के शरीर नहीं होता. जिसके शरीर नहीं होता, वह प्रिय और अप्रिय - दोनों का स्पर्श नहीं करता। तीसरे विकल्प में ज्ञान और संवेदन - दोनों हैं। यह मानसिक और बौद्धिक विकास का स्तर है। इस स्तर में चैतन्य के विकास की पर्याप्त संभावना होती है। जैसे-जैसे हमारा ज्ञान विकसित होता चला जाता है, वैसे-वैसे हम संवेदन के धरातल से उठकर ज्ञान की भूमिका को विकसित करते चले जाते हैं। जैसे-जैसे हमारी ज्ञान की भूमिका विकसित होती है, वैसे-वैसे हम आत्मा के अस्तित्व में प्रवेश पाते हैं। हम अपने अस्तित्व में तब तक प्रवेश नहीं पाते, जब तक संवेदन का धरातल नीचे नहीं रह जाता है। आचार्य अमितगति के शब्दों में - “अज्ञानी संवेदन के धरातल पर जीते हैं। ज्ञानी मनुष्य जानते हैं किन्तु संवेदन नहीं करते। जो घटना घटित होती है, उसे जानते - देखते हैं, किन्तु उसका संवेदन नहीं करते, भार नहीं ढोते। अज्ञानी मनुष्य जानते नहीं, संवेदन करते हैं। वे स्थिति का भार ढोते हैं। वेदान्त का साधना-सूत्र है कि साधक द्रष्टा होकर जीये. वह घटना के प्रति साक्षी रहे, उसे देखे, किन्तु उससे प्रभावित न हो, उसमें लिप्त न हो।
ज्ञान होना और संवेदन न होना - यह द्रष्टा का जीवन है। मेरे हाथ में कपड़ा है। मैं इस कपड़े को जानता हूं, देखता हूं। मैं इस कपड़े को कपड़ा मानता हूं। इससे अधिक कुछ नहीं मानता। यह ज्ञान का जीवन है, यह आत्म-दर्शन है। प्रश्न हो सकता है - “यह आत्म-दर्शन कैसे? यह तो वस्त्र-दर्शन है। वस्त्र-दर्शन को हम आत्म-दर्शन कैसे मान सकते हैं? इसका उत्तर बहुत साफ है। मैं वस्त्र को जानता हूं। मैं केवल जानता हूं, उसके साथ कोई संवेदनात्मक सम्बन्ध स्थापित नहीं करता। इसका अर्थ है मैं ज्ञान को जानता हूं और ज्ञान को जानने का अर्थ है, मैं अपने आपको जानता हूं। ज्ञान और संवेदन सर्वथा अभिन्न नहीं और सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं। बहत सारे लोग आत्म-दर्शन करना चाहते हैं। आत्म-दर्शन का उपाय बहुत जटिल माना जाता है; मैं आपको बहुत सरल उपाय बता रहा हूं। आप इस वस्त्र को देखें। यह आपका आत्म-दर्शन है। आप वस्त्र को
देख रहे हैं, तब केवल वस्त्र को नहीं देख रहे हैं। जिससे वस्त्र को देख रहे हैं, उसे भी देख रहे हैं, अपने ज्ञान को भी देख रहे हैं। जहाँ केवल ज्ञान का प्रयोग होता है वहां अपने अस्तित्व का अनुभव होता है। अपने अस्तित्व का अर्थ है - केवल ज्ञान का अनुभव। ज्ञानमें किसी दूसरी भावना का मिश्रण
हुआ कि वह संवेदन बन गया। ज्ञान श्री महाप्रज्ञजी महाराज का धरातल छूट गया। केवल ज्ञान का अनुभव करना, अपने अस्तित्व का अनुभव करना है। अपना अस्तित्व उससे पृथक् नहीं है। मैं ज्ञान का अनुभव कर रहा हूं, इसका अर्थ है कि जहां से ज्ञान की रश्मियां आ रही हैं उस आत्म-सत्ता का अनुभव कर रहा हूं। क्योंकि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं। केवल ज्ञान का प्रयोग करने का अर्थ है - अपने आपको जानना और अपने आपको अपनाने का अर्थ है - केवल ज्ञान का प्रयोग करना। इस अर्थ में केवल ज्ञान का प्रयोग और आत्म-दर्शन एक ही बात है।
ज्ञान की निर्मल धारा में जब राग और द्वेष का कीचड़ मिलता है, अहं और मोह की कलुषता मिलती है, तब वह केवल ज्ञान या शुद्ध ज्ञान की धारा संवेदन की धारा बन जाती है। इस धारा में न शद्ध चैतन्य का अनुभव होता है और न आत्म-दर्शन होता है।
ज्ञान और संवेदन-यह कर्मवाद की पृष्ठभूमि है।
अविभक्त बंगाल में चौबीस परगना जिला था। उस जिले में एक गांव है - कोल्हू। वहां एक व्यक्ति रहता था। उसका नाम था भूपेश सेन। वह बंगाली गृहस्थ था बहुत बड़ा भक्त । इतना बड़ा भक्त कि जब वह भक्ति में बैठता तब तन्मय हो जाता। बाहरी दुनिया से उसका सम्बन्ध टूट जाता। एक दिन वह भक्ति में बैठा और तन्मय हो गया। बाहर का मान समाप्त हो गया। अन्तर में पूरा जाग्रत, किन्तु बाहर से सुप्त एक व्यक्ति आया और चिल्लाया, “भूपेश! क्या कर रहे हो? उठो और संभलो।" वह बहुत जोर से चिल्लाया, किन्तु भूपेश को कोई पता नहीं चला। उसने भूपेश का हाथ पकड़ झकझोरा, तब भूपेश ने आंखें खोली और कहा, “कहिए, क्या बात है?" आगन्तुक बोला, "मुझे पूछते हो क्या बात है? यहां आंखें मूंदे बैठे हो। तुम्हें पता नहीं, तुम्हारे इकलौते बेटे को सांप काट गया और वह तत्काल ही मर गया।" भूपेश ने कहा “जो होना था सो हुआ।"आगन्तुक बोला, “अरे! तुम कैसे पिता हो? मैंने तो दुःख का संवाद सुनाया और तुम वैसे ही बैठे हो? लगता है कि पुत्र से तुम्हें प्यार नहीं है। तुम्हें शोक क्यों नहीं हुआ? तुम्हें चिन्ता क्यों नहीं
श्रीमद् जयंतसेनहरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना
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ईर्ष्या द्वेष बढ़ा जहाँ, बात -बात में क्लेश । जयन्तसेन मिले नहीं, वहाँ आत्म सुखक्लेश Abrary.org
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