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आकांक्षा और आत्मविस्मृति ये तीनों आत्म-पर्याय भी कर्म के कर्ता हैं किन्तु वास्तव में ये सब कषाय के उपजीवी हैं मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति भी कर्म की कर्ता है किन्तु उसमें कर्म-पुद्गलों को बांधकर रखने की क्षमता नहीं है। कषाय के क्षीण हो जाने पर केवल प्रवृत्ति के द्वारा जो कर्म-पुद्गल का प्रवाह आता है, वह पहले क्षण में कर्म शरीर से जुड़ता है, दूसरे क्षण में मुक्त होकर तीसरे क्षण में निर्जीर्ण हो जाता है ठीक इसी तरह जैसे सूखी रेत भीत पर डाली गई, भींत का स्पर्श किया और नीचे गिर गई।
कर्म की तीन अवस्थाएं होती हैं स्पृष्ट, बद्ध और बद्ध-स्पृष्ट कषाय का वलय टूट जाता है तब कोरी प्रवृत्ति से कर्म आत्मा से स्पृष्ट होते हैं। कर्म का दीर्घकालीन या प्रगाढ़ बंध कषाय के होने पर ही होता है। हमारी बहुत सारी अनुभूतियां कषाय-चेतना की अनुभूतियां हैं। आवेश, अहंकार, प्रवंचना, लालसा ये सब कषाय की उर्मियां हैं। भव, शोक, घृणा, वासना ये सब कषाय की उपजीवी उर्मियां हैं। इन उर्मियों की अनुभूति के क्षण क्षुब्ध और उत्तेजनापूर्ण होते हैं। जिस क्षण हम केवल चेतना की अनुभूति करते हैं, वह शांत-कषाय का क्षण होता है। जिन क्षणों में हम संवेदन करते हैं, उनमें प्रत्यक्षतः या परोक्षत: चेतना कषाय मिश्रित होती है।
सन्त रविया के घर एक फकीर आया। उसने मेज के पास पड़ी पुस्तक को देखा। उसके पत्रे उलटने शुरू किए। एक पत्रे में लिखा था "शैतान से नफरत करो" रविया ने उसे काट दिया। फकीर बोला, "यह क्या?” सन्त रबिया ने कहा, "यह मैंने काटा। " फकीर ने पूछा, 'क्यों?' रबिया ने कहा, “अच्छा नहीं लगा।"
"यह कैसे हो सकता है कि पवित्र पुस्तक की बात अच्छी न लगे? क्या यह सही नहीं है?" फकीर ने पूछा। सन्त रबिया ने कहा, “एक दिन मुझे भी सही लगता था, किन्तु आज लगता है कि सही नहीं है। "
"वह कैसे?"
फकीर ने पूछा
सन्त रबिया ने कहा, जब तक मेरा प्रेम जाग्रत नहीं था, मेरी प्रेम की आंख खुली नहीं थी, मुझे भी लगता था कि शैतान से नफरत करो, प्यार नहीं यह वाक्य बहुत सही है। किन्तु अब मैं क्या करूँ? मेरी प्रेम की आंख खुल गई है। अब घृणा करने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं बचा है। मैं घृणा कर नहीं सकता। प्रेम की आंख यह भेद करना नहीं जानती कि इसके साथ प्रेम करो और इसके साथ घृणा।”
हम जब कषाय-चेतना में होते हैं तब किसी को प्रिय मानते हैं और किसी को अप्रिय । किसी को अनुकूल मानते हैं और किसी को प्रतिकूल । हमारी कषाय-चेतना शान्त होती है, तब ये सब विकल्प समाप्त हो जाते हैं। फिर कोरा ज्ञान ही हमारे सामने शेष रहता है। उसमें न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय । न कोई इष्ट होता है और न कोई अनिष्ट। न कोई अनुकूल होता है और न कोई प्रतिकूल इस स्थिति में कर्म का बंध नहीं होता। कषाय चेतना पर पहला प्रहार तब होता है, जब भेद-ज्ञान का विवेक जाग्रत होता है। आत्मा मित्र है और शरीर भिन्न है यह विवेक जब अपने वलय
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श्रीमद अभिनंदनाचा
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का निर्माण करता है तब कर्म शरीर से लेकर कषाय तक के सारे वलय टूटने लग जाते हैं आचार्य अमृतचन्द्र ने बहुत ही सत्य कहा है
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भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा थे किल केचन । तस्यैवाभावतो बद्धाः, बद्धा ये किल केचन ॥
- इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं, जिनमें भेद-विज्ञान का अभाव है। आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है, जिनका भेद विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ
गई।
ऐसा करते ही कर्म का मूल हिल उठता है। जिसने अचेतन और चेतन का भेद समझ लिया उसने कर्म और कषाय को आत्मा से भिन्न समझ लिया। समझ कर्म के मूल स्रोत पर प्रहार करती है। जिस कषाय से कर्म आ रहे हैं, उसके मूल पर कुठाराघात करती है।
कर्म-बंधन को तोड़ने का मूल हेतु भेद का विज्ञान है, तो कर्म-बंध का मूल हेतु भेद का अविज्ञान है। आचार्य अमृतचन्द्र की भाषा को उलटकर कहा जा सकता है।
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भेदाविज्ञानतो बद्धाः, बड़ा ये किल केचन । तस्यैवाभावतः सिद्धाः, सिद्धा ये किल केचन ॥
इस संसार में वे ही लोग कर्म से बद्ध हैं जिनमें भेद-विज्ञान का अभाव है। आत्मा की उपलब्धि उन्हीं व्यक्तियों को हुई है जिनका भेद - विज्ञान सिद्ध हो गया, अचेतन से चेतन की सत्ता अनुभव में आ गई।
मूल आत्मा और उसके परिपार्श्व में होने वाले वलयों का भेद ज्ञान जैसे-जैसे स्पष्ट होता चला जाता है, वैसे-वैसे कर्मबंधन शिथिल होता चला जाता है जिन्हें भेद-ज्ञान नहीं होता, मूल चेतना और चेतना के वलयों की एकता की अनुभूति होती है, उनका बंधन तीव्र होता चला जाता है। कर्म पुद्गल है और अचेतन है अचेतन चेतन के साथ एक रस नहीं हो सकता। हमारी कषाय- आत्मा ही कर्म-शरीर के माध्यम से उसे एक रस करती है। मुक्त आत्मा के साथ-साथ पुद्गल एक रस नहीं होता, क्योंकि उसमें केवल शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होती है। शुद्ध चैतन्य की अनुभूति का क्षण कर्म शरीर की विद्यमानता में "संवर" कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध को रोकने वाला और उसके (कर्म शरीर के अभाव में आत्मा का स्वरूप होता है। कषाय मिश्रित चैतन्य की अनुभूति का क्षण आश्रव है। वह कर्म- पुद्गलों को आकर्षित करता है। यहां जातीय सूत्र कार्य करता है सजातीय सजातीय को खींचता है। कषाय-चेतना की परिणतियां पुद्गल - मिश्रित हैं। पद्गल पुद्गल को टानता है। यह तथ्य हमारी समझ में आ जाए तो हमारी आत्म-साधना की भूमिका बहुत सशक्त हो जाती है। हम अधिक से अधिक शुद्ध चैतन्य के क्षणों में रहने का अभ्यास करें जहां कोरा ज्ञान हो संवेदन न हो। यह साधना की सर्वोच्च भूमिका है। इसीलिए जैन आचार्यों ने ध्यान के लिए "शुद्ध उपयोग" शब्द का प्रयोग किया है। “शुद्ध उपयोग" अर्थात् केवल चैतन्य की अनुभूति साधना के अभाव में कर्म का प्रगाढ़ बंध होता है और साधना के द्वारा उसकी ग्रन्थि का भेदन होता है। इस दृष्टि
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पर के छिद्र न देख तू, अपनी कमियां देख । जयन्तसेन विमल सदा, लगे लेख पर मेख ॥
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