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से कहा जा सकता है कि साधना के रहस्य को समझे बिना कर्म के रहस्य को नहीं समझा जा सकता और कर्म के रहस्यको समझे बिना साधना के रहस्य को नहीं समझा जा सकता। हम कर्म-पुद्गल की जिन धाराओं को ग्रहण करते हैं, उन्हें अपनी क्रियात्मक शक्ति के द्वारा ही ग्रहण करते हैं उस समय हमारी चेतना की परिणति भी उसके अनुकूल होती है। आन्तरिक और बाह्य परिणतियों में सामंजस्य हुए बिना दोनों में सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता। जैन दर्शन ने कर्मवाद की मीमांसा की है, उनका मनोवैज्ञानिक अध्ययन अभी नहीं हुआ है। यदि वह हो तो मनोविज्ञान और योग के नये उन्मेष हमारे सामने आ सकते हैं तथा जैन साधना पद्धति का नया रूप भी प्रस्तुत हो सकता है। हम जैसी भावना करते हैं, वैसी ही हमारी परणति होती है। जैसी परणति होती है, वैसे ही पुद्गलों को हम ग्रहण करते है। उन पुद्गलों का अपने आप में परिपाक होता है। परिणाम के बाद उसकी जो परणति होती है, वह हमारी आन्तरिक परणति हो जाती है। यह एक श्रृंखला है। एक व्यक्ति ने ज्ञान के प्रति अवहेलना का भाव प्रदर्शित किया, ज्ञान की निन्दा की, ज्ञानी की निन्दा की, उस समय उसकी परिणति ज्ञान-विमुख हो गई उस परिणति काल में वह कर्म- पुद्गलों को ग्रहण करता है। वे कर्म पुद्गल आत्मा की सारी शक्तियों को प्रभावित करते हैं। किन्तु ज्ञान-विरोधी परिणति में गृहीत पुद्गल मुख्यतया ज्ञान को आवृत्त करेंगे। उनका परिपाक ज्ञानावरण के रूप में होगा। इस प्रकार हम सारे कर्मों की मीमांसा करते चलें।
(पृष्ठ ३८ का शेष)
५.
काय क्लेश : शास्त्रानुसार केश लोच करना, शरीर का ममत्व छोड़ना शरीर सेवा त्याग, आतापना लेना, धर्मध्यान, शुक्ल ध्यान ध्याना। यह तप निर्वेदका कारण है।
६. :संलीनता - कषाय भावों को रोकना, वर्जित स्थानों में नहीं रहना, इंद्रियों को दमन करना उनके विषयों को जीतना संलीनतातप कहलाता है।
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८.
प्रायश्चित:- मानव मात्र भूल का पात्र है की हुई मूल का अवांछनीय कर्म का समर्थ गीतार्थ गुरु के सामने पाप को प्रकट कर उचित दण्ड लेना व मन में पुनः ऐसी भूल न हो ऐसी कोशिश करना प्रायश्चित्त तप कहलाता है।
विनय तप अपने से बड़े पूज्य आचार्य भगवंत, साधु साध्वी ज्ञानवान तपवान को उचित आदर सन्मान देना विनय तप है, विनय ही धर्म का मूल है।
९. वैयावच्च तप :- गुरु, अपने से बड़े, साधु महाराज, बाल, म्लान रोगी साधु, साधर्मिक, कुल, गण संघ आदि की सेवा
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना
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जिसकी चेतना की परिणति यदि उगने की होती है तो उस समय ग्रहण किए जाने वाले कर्म-पुद्गल अनुभव दशा में उसके चरित्र को विकृत बनाते हैं। उसकी परिणति यदि दूसरे को कष्ट देने की होती है तो उस समय ग्रहण किए जाने वाले कर्म-पुद्गल अनुभव दशा में उसके सुख में बाधा डालते हैं यह परिणति का सिद्धान्त है। हम किस रूप में परिणत होते हैं, किस प्रकार की क्रियात्मक शक्ति के द्वारा पुद्गल धारा को स्वीकार करते हैं, इसका ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। इसके आधार पर ही वह जीवन की सफलता का निर्धारण कर सकता है, जीवन-संघर्ष में आनेवाली बाधाओं को पार कर सकता है।
जिस व्यक्ति को यह लगे कि मुझे ज्ञानावरण अधिक सता रहा है, उसको ज्ञानावरण को क्षीण करने की साधना का मार्ग चुनना चाहिए किसी को मोह अधिक सताता है, किसी की क्षमताओं का अवरोध पैदा होता है ये भिन्न-भिन्न समस्याएं हैं। साधना के द्वारा इनका समाधान पाया जा सकता है। क्रोध पर विजय प्राप्त करनी हो तो एक प्रकार की साधना करनी होगी और यदि मान पर चोट करनी हो तो दूसरे प्रकार की साधना करनी होगी। जिस समस्या से जूझना है, उसी के मूल पर प्रहार करने वाली साधना चुननी होगी। यह बहुत सूक्ष्म पद्धति है। रहस्य हमारी समझ में आ जाए तो जीवन की समस्याओं को सुलझाने में हम बहुत सफल हो सकते हैं।
भक्ति करना वैयावच्च तप है। यह तप दस प्रकार के योग्य पात्र की सेवा करना है।
१०. स्वाध्याय :- नित्यप्रति धार्मिक शास्त्रों का वाचन, सुनना
पढ़ाना, शंका समाधान करना, सूत्र व अर्थ का चिंतन करना, अनुशीलन करना और शास्त्रोपदेश देना यह पांच प्रकार का स्वाध्याय तप है।
११. ध्यान तप :- आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान का त्याग करना आत्मा को धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान का विचार करना, शुध्यान करना ध्यान तप है।
१२. कायोत्सर्ग तप: शरीर की ममता छोड़ अनशन करना, दीक्षा लेना कर्म बंध के हेतुओं को छोड़ना 'कायोत्सर्ग तप है।
ऐसे केवली प्ररूपित तप धर्म को जो कोई प्राणी अपनाता दूसरे को तप करने को उत्साहित करता है व तप करने वाले की अनुमोदना करता है वह कर्मों की निर्जराकर भविष्य में पुण्यानुबन्धीपुण्य का भी भागीदार होता है। अतः त्रिकरण त्रियोग से तप कराना व अनुमोदनकर जीवन का श्रेय प्राप्त करना चाहिये।
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खुद कुछ कर सकते नहीं, करे उसी पर द्वेष । जयन्तसेन दुर्गुण यह, देत सदा हि क्लेश ॥
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