SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी यह आवश्यक है कि तपरूप ध्यान-स्थिति तक पहुँचने के लिए साधक अनशन आदि छ: बाह्य तप करता हुआ दोषों की विशुद्धि के लिए प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य और स्वाध्याय रूप अन्तरंग तप-साधना करे । जब तक यह भूमिका नहीं बनती, सच्ची ध्यान साधना संभव नहीं। आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान के त्याग तथा धर्म ध्यान की धारणा के लिए निम्न बातों का होना आवश्यक है - १. सम्यक्त्व-बोध २. व्रत-ग्रहण ३. प्रतिक्रमण ४. स्व-संवेदन (१) सम्यक्त्व-बोध - जब तक व्यक्ति इन्द्रिय स्तर पर जीता है, वह अनिष्ट के संयोग एवं इष्ट के वियोग पर दुःखी बेचैन और व्याकुल होता रहता है । इन्द्रिय-जन्य भोग की लालसा उसे चंचल बनाये रखती है । इस लालसा की पूर्ति कभी होती नहीं, वह उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । इसकी पूर्ति न होने पर व्यक्ति क्रंदन, रुदन, शोक, संतापरूप, नानाविध दुःखों में डूबा रहता है । शरीर से परे वह कुछ सोच नहीं पाता | शरीर-संबंधों को ही वास्तविक संबंध मानकर उन्हें निभाने में ही वह अपने पूरे जीवन को खो देता है । उसके सारे क्रियाकलाप देह-संबंधी भोगों के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटते रहते हैं । यह देह दृष्टि उसे कभी आत्मबोध नहीं होने देती । जब इन्द्रिय-भोगों के प्रति उसमें विरक्ति का भाव अंकुरित होने लगता है और अनुभूति के स्तर पर वह इन्हें नश्वर, नीरस और निरर्थक समझने लगता है तब कहीं उसका सम्यक्त्वबोध जाग्रत होपाता है । इस बोध के जाग्रत होने पर वह दुःख के कारणों से बचने का प्रयल करता है | धीरे-२ उसके विचारों मेंयह पैठने लगता है कि सच्चा सुख कामना-पूर्ति में नहीं । अतः इसके लिए क्यों हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और आसक्ति-संग्रह रूप पाप का व्यवहार किया जाय, दूसरों को कष्ट दिया जाय, दूसरों का हक छीना जाय । यह बोध उसे अंधकार से प्रकाश की ओर, जड़ता से चेतना की ओर, उच्छृखल भोगवृत्ति से मर्यादित जीवन की ओर ले जाता है। २. व्रत-ग्रहण - सम्यक्त्व बोध द्वारा जब अन्दर की जड़ता महसूस होती है तब उसे दूर करने के लिए पुरुषार्थ करने का भाव जाग्रत होता है । यह पुरुषार्थ भाव उसे विरति की ओर ले जाता है । इसमें अपनी शक्ति और संकल्प के अनुसार हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से बचने के लिए व्रत-ग्रहण का भाव पैदा होता है। अपने द्वारा दूसरों को दुःख देने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे कम होती है और ज्यों - २ व्रत-निष्ठा मजबूत होती है त्यों - २ यह भावना जाग्रत होती है कि दूसरों के दुःख को दूर करने में अपनी वृत्तियों का संकोच करना पड़े, तो क्या किया जाय । वृत्तियों के संकोच से इन्द्रिय-भोगों पर नियंत्रण होने के साथ ही निष्प्रयोजन हिंसक वृत्ति से बचाव होता है और दैनिकचर्या मर्यादित-संयमित बनती है। इससे समता का भाव पुष्ट होता है और आत्म-गुणों का पोषण होता है । पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रतरूप श्रावक के बारह व्रतों का विधान इसी भावना से किया गया प्रतीत होता है। इसमें श्रावक को, साधक को अपनी शक्ति और साधना - पथ पर बढ़ने की मानसिक तैयारी के अनुसार व्रत-नियम ग्रहण करने की व्यवस्था है। ३. प्रतिक्रमण : वास्तविक ध्यान वस्तुतः अपने स्वभाव में होना है, अपनी पहचान करना है । यह पहचान जब तक मन बहिर्मुख बना रहता है । तब तक नहीं होती । बहिर्मुख मन ग्रहण किये हुए व्रतनियमों की भी स्खलना करता है, विभाग में भटकता रहता है, नैतिक नियमों का अतिक्रमण करता रहता है । इस बहिर्मुख मन को अन्तुर्मख बनाने की साधना, ध्यान की प्रथम सीढ़ी/अवस्था है । मन बाहर से भीतर की ओर प्रवेश करे, यही प्रतिक्रमण है । इससे मन की सफाई होती है, साथ ही अशुभ विचारों का कचरा हटता है। प्रतिक्रमण साधक के लिए आवश्यक क्रिया है, कर्त्तव्य है । दिन में हुए अपने कर्मों पर सम्यक् चिन्तन करना दिन का प्रतिक्रमण है और रात में हुए कार्यों पर चिन्तन करना रात का प्रतिक्रमण है । जिसकी वृत्ति जितनी सरल होती है, वह तुरन्त अपने पापों का प्रायश्चित्त कर लेता है । यदि प्रतिदिन - प्रति रात पापों का प्रायश्चित्त/परिष्कार न हो सके तो पाक्षिक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिये । यदि पक्ष भटके अर्थात् १५ दिन के पापों का प्रायश्चित्त/परिष्कार भी न हो सके तो चातुर्मासिक प्रतिक्रमण इस दृष्टि से अपना विशेष साधनात्मक महत्व रखते हैं और यदि इतने पर भी मन की गांठें पूरी तरह न खुलें तो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के साथ दोषों को न दोहराने का संकल्प आवश्यक है। यदि दोष दोहराये जाते रहें और प्रतिक्रमण की प्रक्रिया चलती रहे तो समझना चाहिये कि साधना यांत्रिक हो गयी है । उसकी हार्दिकता गायब हो गयी है । ऐसी प्रतिक्रमण-प्रक्रिया जीवन में रूपान्तरण नहीं ला पाती। जिसे हम प्रतिक्रमण कहते हैं, शास्त्रीय भाषा में उसे आवश्यक कहा गया है, जिसके छः प्रकार हैं :१. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वन्दन ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान सामायिक समताभाव की साधना है। इसमें प्राणिमात्र के प्रति मैत्री और प्रेमभाव दर्शाते हुए हिंसाकारी प्रवृत्तियों से बचने का संकल्प किया जाता है । चतुर्विंशतिस्तव में उन २४ तीर्थंकरों राजस्थान विश्वविद्यालयसे 'राजस्थानी वेलि साहित्य' पर पी. एच. डी. उपाधि प्राप्त की । लगभग ५० पुस्तकों तथा १०० से अधिक शोध निबन्धों का प्रकाशन | 'जिनवाणी' 'वीर-उपासिका' के सम्पादक एवं 'स्वाध्याय शिक्षा' 'स्वाध्याय संदेश' 'राजस्थानी-गंगा', 'वैचारिकी' के सम्पादक मंडल के सदस्य । अ. भा. जैन विद्वत् परिषद के महामंत्री । अ. भा. जैन पत्रकार परिषद के केन्द्रीय कार्य समिति के सदस्य । श्रेष्ठ वक्ता, कुशल लेखक, सिद्धहस्त शब्द शास्त्री। वर्तमान में आप राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी के वरिष्ठ एसोशिएट प्रोफेसर एवं हिन्दी प्राध्यापक समिति के संयोजक हैं। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (११) देव गुरू धर्म की, भक्ति सदा दिल घार | जयन्तसेन पवित्र हो, जीवन पथ संसार Ilyorg. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy