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________________ भारतीय साहित्य में जैन वाङ्मय का स्थान | (डॉ. पंडित श्री विष्णुकान्त) भारतीय वाङ्मय की धारा अनेक रूपों, अनेक भाषाओं में अजस्र रूप से प्रवाहित होती हुई अनन्त काल से विश्व में 'अपना अप्रतिम स्थान बनाए हुए है ।' अनेक मत, संप्रदाय और धर्मों के संपूर्ण साहित्य का हस्तलिखित और अप्रकाशित भण्डार अनुमान से भी कहीं अधिक है । भारतीय मनीषा विज्ञापन से दूर रही है, तटस्थता और अध्यवसाय से उसे प्रेम रहा है । यही कारण है कि अनेक विश्वविश्रुत लेखक - कवि आचार्य एकांत साधना में तो लीन रहे, किंतु अपने विषय में खुलकर कुछ भी कह नहीं सके । विदेशी लेखक - इतिहासकारों ने उनके विषय में जो कुछ लिखा, उसकी सीमा ईसा पूर्व और ईसा के पश्चात् की सीमाओं के आसपास ही मिलती है । (यद्यपि इस समय-सीमा से सहमति सभी स्थलों पर होना आवश्यक नहीं है।) भारत में इतिहास लेखन की परंपरा बहुत प्राचीन नहीं रही। संस्कृत प्राकृत-पालि-अपभ्रंश और हिंदी के साहित्य इतिहास ग्रंथों की संख्या आज भी सीमित ही है । जैन साहित्य के प्रति संस्कृतइतिहासकारों की आरंभिक दृष्टि उदासीनता को पूर्णतः छोड नहीं पायी । इसमें या तो उनकी अन्वेषक बुद्धि की मंथरगति कारण हो सकती है, या फिर "हस्तिना ताड्यमानोऽपि" ... जैसी संकीर्ण उक्तियाँ कारण हो सकती हैं । धर्म को लेकर अपने देश में भी अनाचार कम नहीं हुए । हो सकता है उसी धर्मान्धता ने उन लेखकों को जैन-साहित्य के प्रचार-प्रसार की ओर न जाने दिया हो। पिछले चार-पाँच दशकों में जैन धर्म, दर्शन और साहित्य का परिचय अनेक संस्थाओं और प्रकाशनों के माध्यम से लोगों तक पहुँचा है । और उन ग्रंथों से ही जैन साहित्य की अक्षुण्ण परंपरा की सूचना मिलती है । इस प्रकाशित साहित्य के अतिरिक्त अनेक ग्रंथ हस्तलिखित रूप में विविध ग्रंथ भण्डारों में रखे हुए हैं । वस्तुतः भारतीय वाङ्मय की पूर्णता जैन साहित्य के बिना मानी ही नहीं जा सकती । यहाँ जैन साहित्य का संक्षिप्त परिचय देकर अपनी बात स्पष्ट करना चाहेंगे । सुविधा की दृष्टि से जैन साहित्य को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है :- धर्म-दर्शन विषयक आगम साहित्य और आगमेतर साहित्य | आगम साहित्य में धार्मिक उपदेश, कर्म साहित्य, आचार, तत्व विचार, ज्ञानमीमांसा, दर्शन आदि पर विस्तारपूर्वक और स्पष्टरूप से विचार प्रस्तुत किये गये हैं। पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैनाश्रम, हिंदुयुनिवर्सिटी वाराणसी द्वारा प्रकाशित साहित्य इस दृष्टि से अच्छी पहल है । "जैन धर्म का प्राचीन इतिहास" (पंडित परमानंद शास्त्री द्वारा लिखित) समग्र रूप में जैन धर्म और साहित्य की सूचना देने वाला ग्रंथ है। आगमेतर साहित्य की दृष्टि से जैन साहित्य का भण्डार किसी भी साहित्य की तुलना में हेय नहीं है । महाकाव्य, पुराण एवं पौराणिक महाकाव्य, गद्य काव्य, चंपू काव्य, कथाकाव्य - किसी भी विद्या में जैन साहित्य पीछे नहीं रहा । संस्कृत प्राकृत, एवं अपभ्रंश तीनों भाषाओं में अबाध गति से जैन लेखकों ने लिखा है । आधुनिक काल में भी जैन साहित्य लिखा जा रहा है। करामकाव्य एवं कृष्णकाव्य परंपरा में जैन साहित्य का अमूल्य योगदान रहा है । विमलसूरिकी परंपरा में उनका 'पउमचरिय' (प्राकृत, जैन महाराष्ट्री) रविषेण का 'पद्मपुराण' या 'पद्मचरित' शीलाचार्यकृत 'चउपन्नमहापुरिसचरिय' के अंतर्गत 'रामलक्खणचरिय' भद्रेश्वरकृत कहावली के अंतर्गत 'रामायणम्' भुवनतुंग सूरिकृत 'सीया चरिय' तथा 'रामलक्खणचरिय' हेमचंद्रकृत 'त्रिषष्ठीशलाकापुरुषचरित' के अंतर्गत "जैन रामायण" हेमचंद्रकृत 'योगशास्त्र की टीका' के अंतर्गत “सीतारावणकथानकम्" जिनदासकृत "रामायण" अथवा "रामदेवपुरान" पद्मदेव विजयगणिकृत 'रामचरित' सोमसे नकृत 'रामचरित' आचार्य सोमप्रभकृत, 'लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' प्रमुख है । अपभ्रंश में स्वयंभूदेव कृत 'पउमचरिउ' अथवा "रामायण पुराण" और रइधूकृत 'पद्म पुराण' (अथवा बलभद्रपुराण), कन्नड में नागचंद्र (अभिनवपम्प) कृत "पम्परामायण" अथवा "रामचंद्रचरितपुराण' कुमुदेन्दुकृत "रामायण" देवप्पकृत 'रामविजय चरित' देवचंद्रकृत 'रामकथावतार' चंद्रसागरवर्णीकृत 'जिनरामायण' प्रमुख हैं। गुणभद्र की परंपरा में उनके 'उत्तरपुराण' कृष्णदास कविकृत 'पुण्यचंद्रोदयपुराण' अपभ्रंश में पुष्पदंतकृत "तिसढीमहापुरिसगुणालंकार' कन्नड में चामुंडरायकृत 'तिसष्टिशलाका पुरुषपुराण' बंधुवर्माकृत 'जीवन संबोधन' नागराजकृत 'पुण्याश्रवकथासार' के नाम लिये जा सकते हैं। यद्यपि यह निर्विवाद है कि रामकथा (भारतीय संस्कृत साहित्य में) सर्वप्रथम वाल्मीकि द्वारा निबद्ध की गयी, किंतु उपर्युक्त जैन कवियों द्वारा इसका विस्तार हुआ और आचार्य रविसेणने 'पद्मपुराण' लिखकर आगे आनेवाली कविपरंपरा को प्रभावित किया है । डॉ. रमाकान्त शुक्ल ने 'पद्मपुराण और रामचरितमानस' का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए अनेक बिंदुओं पर विचार किया है और तुलसीको 'क्वचिदन्यतोऽपि' के प्रकाश में रविषेण से प्रभावित माना है। यही नहीं आगे चलकर बीसवीं शताब्दी में हिंदी कवि मैथिलीशरणगुप्त के साकेत पर भी (सुलोचना प्रसंग में) रविषेण का प्रभाव दीख पड़ता है। कृष्णकाव्य परंपरा में जैन साहित्य का स्थान स्तुत्य रहा है। कृष्णचरित संबंधी आगमिक कृतियों . 'समवायांग सूत्र', ज्ञातृधर्मकथा, श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (११०) अवसर को समझा नहीं, किया न उस का ज्ञान । जयन्तसेन गया समय, कभी न आता जान || www.jainelibrary.org Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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