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________________ की। एतदर्थ प्रथम-भंग का यह अर्थ होता है कि घट की अपेक्षा एक से अवक्तव्यत्व का दोष पैदा होगा, जो जैन दर्शन में मान्य नहीं है क्यों होती है, सभी से नहीं। और वह एक अपेक्षा है, स्व की, स्व चतुष्टय कि वह मिथ्या है। ऐसी स्थिति में हम घट को घट शब्द से अलग किसी भी दूसरे शब्द के द्वारा, यहाँ तक “अवक्तव्य" शब्द से भी नहीं द्वितीय भंग-स्यात् नास्ति घटः । कह पायेंगे। वस्तुत: वस्तु का शब्द-द्वारा प्रतिपादन करना भी असंभव हो जायेगा। इतना ही नहीं वाच्य-वाचक भाव की कल्पना को कोई "स्यात् नास्ति घटः" यह दूसरा भंग है, यहाँ पर घट की सत्ता स्थान ही न रह सकेगा। एतदर्थ स्यात् अवक्तव्य भंग सूचित करता का निषेध पर - चतुष्टय की अपेक्षा से किया गया है। प्रत्येक पदार्थ है कि यद्यपि विधि निषेध का युगपत्त्व विधि अथवा निषेध शब्द से विधि रूप होता है और निषेध रूप भी। अस्तित्व के साथ निषेध भी वक्तव्य, नहीं है अर्थात् अवक्तव्य है, परन्तु यह भी ज्ञातव्य है कि वह रहा हुआ है। घट में घट के अस्तित्व की विधि के साथ घट में अवक्तव्य सर्वथा अवक्तव्य नहीं हो सकता “अवक्तव्य" शब्द द्वारा तो अस्तित्व-नास्तित्व भी रहा हुआ है। परंतु वह सत्ता का निषेध, अर्थात् वह युगपत्त्व वक्तव्य ही है। नास्तित्व, स्वामिन्न अनन्त पर की अपेक्षा से है। यदि पर की अपेक्षा का पञ्चम भंग - स्यात् अस्ति अवक्तव्य घटः । के समान स्व की अपेक्षा से भी, अस्तित्व का निषेध स्वीकार किया "स्याद् अस्ति अवक्तव्यो घट”: यह सप्तभंगी का पाँचवाँ भंग जाए, तो घट नि:स्वरूप हो जाए। यदि नि:स्वरूपता स्वीकार करे है। यहाँ पर प्रथम समय में विधि और दूसरे समय में युगपत् तो स्पष्ट रूप से ही सर्वशून्यता का दोष उपस्थित हो जाता है । इसलिये विधि-निषेध की विवक्षा की गई है। इसलिये इस में प्रथमांश अस्ति द्वितीय भंग सूचित करता है कि घट कथंचित् नहीं है । घट भिन्न पटादि स्वरूपेण घट की सत्ता का कथन किया जाता है और दूसरे अवक्तव्य की,पर चतुष्टय की अपेक्षा से नहीं हैं. वस्तुत: पर रूपेण नहीं है, स्व अंश के द्वारा युगपत् विधि-निषेध का प्रतिपादन किया गया है, पंचम भंग का अर्थ है - घट है और अवक्तव्य भी है। रूपेण ही सर्वदा "स्व" है। सपा षष्ठ भंग - स्याद् नास्ति अवक्तव्य घटः । तृतीय भंग - स्यात् अस्ति नास्ति घटः । का “स्याद् नास्ति अवक्तव्य घट:” यहाँ पर प्रथम समय में विधि यहाँ प्रथम समय में विधि की और फिर द्वितीय समय में क्रमश: और दूसरे समय में युगपद् अर्थात् एक साथ विधि-निषेध की विवक्षा निषेध की विवक्षा की जाती है। इस में “स्व” की अपेक्षा सत्ता का होने से घट नहीं है और वह अवक्तव्य भी है- यह कथन किया गया और पर की अपेक्षा असत्ता का क्रमश: कथन किया गया है। प्रथम व द्वितीय भंग में विधि एवं निषेध का स्वतन्त्र रूप से पृथक् - पृथक सप्तम भंग स्याद, अस्ति नास्ति अवक्तव्यो घटः।। प्रतिपादन किया गया है किन्तु तृतीय भंग में क्रमश: विधि-निषेध का उल्लेख किया गया है। “स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्यो घट:" यहाँ पर क्रम से पहले चतुर्थ भंग- स्याद् अवक्तव्य घटः। समय में विधि और दूसरे समय में निषेध तथा तृतीय समय एक साथ "स्याद् अवक्तव्य घटः” यह चतुर्थ भंग है। यह सच है कि (युगपत्) में विधि-निषेध की अपेक्षा से घट है, घट नहीं है, घट अवक्तव्य शब्द की शक्ति सीमित है। जब घटास्तित्व के विधि और निषेध इन है। इस प्रकार कथन किया गया है। दोनों की युगपत् अर्थात् एक समय में विवक्षा होती है, तब दोनों को चतुष्टय की व्याख्या - एक कलावच्छेदेन एक साथ अक्रमश: व्यक्त करने वाला शब्द न होने प्रत्येक पदार्थ का नियत रूप में परिज्ञान विधि-मुखेन और के कारण घट को अवक्तव्य कहा गया है। जब हम वस्तुगत किसी निषेध-मुखेन होता है । स्वात्म से विधि है और परात्मा से निषेध है ।३२ भी एक धर्म की विधि का उल्लेख करते हैं उस समय उस का निषेध क्योंकि स्व चतुष्टयेन जो वस्तु सत् है वही वस्तु पर - चतुष्टयेन असत् रह जाता है और जब निषेध करते हैं तब विधि रह जाती है। यदि है।३३ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन को चतष्टय कहते हैं। घट विधि - निषेध का पृथक्-पृथक् अथवा क्रमश: एक साथ प्रतिपादन स्व-द्रव्य रूप में पुद्गल है चैतन्य आदि पर-द्रव्य नहीं है। स्व क्षेत्र करना है तो प्रथम के जो तीन भंग हैं, उनमें यथाक्रम “अस्ति" "नास्ति" के रूप में कपालादि स्वावयवों में है। तन्तु आदि पर अवयवों में और “अस्ति-नास्ति” शब्दों के द्वारा काम चल सकता है परन्तु यह नहीं। स्व काल रूप में वह अपनी वर्तमान पर्यायों में है, किन्तु पर - सच है कि विधि-निषेध की युगपद् वक्तव्यता में कठिनाई है ! उसका समाधान “अवक्तव्य" शब्द के द्वारा किया गया है। “स्याद् अवक्तव्य" पदार्थों की पर्यायों में नहीं है। स्वभाव रूप में स्वयं के रक्तादि गुणों भंग सूचित करता है कि घट की वक्तव्यता युगपद् में नहीं होती है; में है, पर-पदार्थों के गुणों में नहीं है। क्रम में ही होती है। स्यात अवक्तव्य भंग से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता इस सन्दर्भ में - एक तथ्य ज्ञातव्य है कि- व्यवहार दधिको हैं कि अस्तित्व-नास्तित्व का यगपद वाचक कोई भी शब्द नहीं है लक्ष्य में रखकर द्रव्य की अपेक्षा पाथिवत्त्व, क्षेत्र की अपेक्षा पाटलिपत्रत्त्व एतदर्थ विधि-निषेध का युगपत्त्व अवक्तव्य है, किन्तु यह स्मरण रखना काल की अपेक्षा शैशिरत्व और भाव की अपेक्षा श्यामत्व रूप लिखा चाहिये कि वह वक्तव्यत्व सर्वथा सर्वतो भावेन नहीं है। यदि सर्वथा सर्वतो भावेन अवक्तव्यत्व स्वीकार कर लिया जाए तो एकान्त प्रत्येक वस्तु स्व- चतुष्टय से सत् है और पर - द्रव्य, पर - क्षेत्र, पर - काल और पर - भाव की दृष्टि से असत् है। इस प्रकार एक ही पदार्थ सत् और असत् होने के कारण बाधा और विरोध की कोई बात श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथावाचनाः आज्ञा है संजीवनी, भाव रोग हरनार । जयन्तसेन जड़ी यही, देती जीवन सार ॥ www.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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