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________________ लावारिस समझकर सरकारी खजाने में जमा करा दिये जायेंगे। चलाते रहे और आप देखते रहे । यह कोई साधारण बात नहीं है, आकाशवाणी की उस घोषणा को रिक्शे पर बैठेबैठे उसनी जो ऐसे ही छोड़ दी जावे, आपको इसका जवाब देना ही होगा।" सुनी, अपने साथियों को भी सुनाई, पर विश्वास के अभाव में कोई "तुम्हारे पिताजी मना कर गये थे ।" लाभ नहीं हआ | इसीप्रकार अनेक प्रवक्ताओं से इस बात को आखिर क्यों ? सुनकर भी कि हम सभी स्वयं भगवान हैं, विश्वास के अभाव में बात वहीं की वहीं रही । जीवनभर जिनवाणी सुनकर भी, पढ़कर "इसलिए कि बीस वर्ष पहले तुम्हें रुपये मिल नहीं सकते थे। भी, आध्यात्मिक चर्चायें करके भी आत्मानुभूति से अछूते रह गये । चर्चायें करके भी आत्मानमति से आठते रह गये। पता चलने पर तुम रिक्शा भी न चला पाते और भूखों मर जाते ।" समाचारपत्रों में प्रकाशित एवं आकाशवाणी से प्रसारित उक्त या "पर उन्होंने ऐसा किया ही क्यों ?" समाचार की ओर जब स्वर्गीय सेठजी के उन अभिन्न मित्र का क "इसलिए कि नाबालिगी की अवस्था में कहीं तुम यह ध्यान गया, जिन्हें उन्होंने मरते समय उक्त रहस्य की जानकारी दी सम्पत्ति बर्बाद न कर दो और फिर जीवनभर के लिए कंगाल हो थी, तो वे तत्काल उस युवक के पास पहुंचे और बोले - जावो । समझदार हो जाने पर तुम्हें ब्याज सहित तीन करोड़ रुपये "बेटा ! तुम रिक्शा क्यों चलाते हो?" मिल जावें और तुम आराम से रह सको | तुम्हारे पिताजी ने यह सब तुम्हारे हित में ही किया है । अतः उत्तेजना में समय खराब उसने उत्तर दिया - "यदि रिक्शा न चलायें तो खायेंगे। मत करो । आगे की सोचो ।" क्या ?" जरा इसप्रकार सम्पत्ति सम्बन्धी सच्ची जानकारी और उस पर पूरा उन्होंने समझाते हुए कहा - "भाई, तुम तो करोड़पति हो, तुम्हारे विश्वास जागृत हो जाने पर उस रिक्शेवाले युवक का मानस तो करोड़ों रुपये बैंक में जमा हैं।" एकदम बदल जाता है, दरिद्रता के साथ का एकत्व टूट जाता है अत्यन्त गमगीन होते हुए युवक कहने लगा - एवं 'मैं करोड़पति हूँ' - ऐसा गौरव का भाव जागृत हो जाता है, "चाचाजी, आपसे ऐसी आशा नहीं थी, सारी दुनिया तो आजीविका की चिन्ता न मालूम कहाँ चली जाती है, चेहरे पर हमारा मज़ाक उड़ा ही रही है, पर आप तो बुजुर्ग हैं, मेरे पिता के सम्पन्नता का भाव स्पष्ट झलकन लगता है। बराबर हैं, आप भी - " इसीप्रकार शास्त्रों के पठन, प्रवचनों के श्रवण और अनेक वह अपनी बात समाप्त ही न कर पाया था कि उसके माथे युक्तियों के अवलम्बन से ज्ञान में बात स्पष्ट हो जाने पर भी पर हाथ फेरते हुए अत्यन्त स्नेह से वे कहने लगे - अज्ञानीजनों को इसप्रकार का श्रद्धान उदित नहीं होता कि ज्ञान का घनपिण्ड, आनन्द का रसकन्द, शक्तियों का संग्रहालय, अनन्त "नहीं भाई, मैं तेरी मज़ाक नहीं उड़ा रहा हूँ | तू सचमुच ही गुणों का गोदाम भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ । यही कारण है कि करोड़पति है | जो नाम समाचारपत्रों में छप रहा है, वह तेरा ही श्रद्धान अभाव में उक्त ज्ञान का कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। नाम है" काललब्धि आने पर किसी आसन्नभव्य जीव को परमभाग्योदय अत्यन्त विनयपूर्वक वह बोला - "ऐसी बात कहकर आप से किसी आत्मानुभवी ज्ञानी धर्मात्मा का सहज समागम प्राप्त होता मेरे चित्त को व्यर्थ ही अशान्त न करें । मैं मेहनत मजदूरी करके है और वह ज्ञानी धर्मात्मा उसे अत्यन्त वात्सल्यभाव से समझाता हैं दो रोटियाँ पैदा करता हैं और आराम से जिन्दगी बसर कर रहा कि हे. आत्मन् ! तू स्वयं भगवान है, तू अपनी शक्तियों को हूँ । मेरी महत्वाकांक्षा को जगाकर आप मेरे चित्त को क्यों पहिचान, पर्याय की पामरता का विचार मत कर, स्वभाव के उद्वेलित कर रहे हैं । मैंने तो कभी कोई रुपये बैंक में जमा कराये सामर्थ्य को देख, सम्पूर्ण जगत पर से दृष्टि हटा और स्वयं में ही ही नहीं । अतः मेरे रुपये बैंक में जमा कैसे हो सकते हैं ?" समा जा, उपयोग को यहाँ-वहाँ न भटका, अन्तर में जा, तुझे निज अत्यन्त गद्गद् होते हुए वे कहने लगे - "भाई तुम्हें पैसे परमात्मा के दर्शन होंगे। जमा कराने की क्या आवश्यकता थी? तुम्हारे पिताजी स्वयं बीस ज्ञानी गुरु की करुणा-विगलित वाणी सुनकर वह भव्य जीव वर्ष पहिले तुम्हारे नाम एक करोड़ रुपये बैंक में जमा करा गये हैं, कहता हैजो अब ब्याज सहित तीन करोड़ हो गये होंगे | मरते समय यह बात वे मुझे बता गये ये ।" "प्रभो ! यह आप क्या कह रहे हैं, मैं भगवान कैसे हो सकता हूँ? मैंने तो जिनागम में ___ यह बात सुनकर वह एकदम उत्तेजित हो गया । थोड़ासा बताये भगवान बनने के उपाय का विश्वास उत्पन्न होते ही उसमें करोड़पतियों के लक्षण उभरने लगे। अनुसरण आजतक किया ही नहीं वह एकदम गर्म होते हुए बोला - "यदि यह बात सत्य है तो है । न जप किया, न तप किया, न आपने अभी तक हमें क्यों नहीं बताया ?" ... व्रत पाले और न स्वयं को जानावे समझाते हुए कहने लगे - "उत्तेजित क्यों होते हो ? अब पहिचाना-ऐसी अज्ञानी-असंयत दशा तो बता दिया । पीछे की जाने दो, अब आगे की सोचो ।" में रहते हुए मैं भगवान कैसे हो “पीछे की क्यों जाने दो? हमारे करोड़ों रुपये बैंक में पड़े रहें और हम दो रोटियों के लिये मुंहताज हो गये । हम रिक्शा (१७) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education Interational पवन बुझावत दीप को, करता आग प्रचंड । जयन्तसेन सबल बचे, निर्बल पावत दण्ड || For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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