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जैन दृष्टिकोण से अनन्त आत्माएं हैं जो सभी परमात्मा बनने मिथ्यात्व के कारण वह तत्त्व को विपरीत समझता है और कर्मों से की क्षमता रखते हैं | द्रव्यदृष्टि से सभी आत्माएं परमात्मा हैं किन्तु निर्मित भावों को अपने समझता है | वह शरीर के सुख दुःख को पर्यायदृष्टि से उनमें अवस्था भेद होता रहता है । सामान्य तया अपने सुख दुःख तथा शरीर के सम्बन्धियों को अपने सम्बन्धी वह पौगलिक पदार्थों से घिरा रहने के कारण उनमें इतना आसक्त समझता है । अपने इस अज्ञान के कारण वह नाना योनियों में हो जाता है कि वह अपनी शक्ति और स्वरूप को भूल जाता है, भटकता तथा अनेक दुःख सहन करता है । साधारणतया प्रत्येक भेदज्ञान होने पर वह आत्मा और शरीर के अन्तर को समझने । आत्मा इसी स्थिति में रहता है । इसीसे सृष्टिक्रम चलाता है। लगता है और एक समय वह स्थिति आ जाती है कि वह स्वयं
आत्मा की द्वितीय अवस्था का नाम अन्तरात्मा है । इसके परमात्मा बन जाता है । जैन दर्शन में किसी भिन्न नियामक
तीन भेद हैं - उत्तम, मध्यम और जघन्य । अन्तरंग तथा बाह्य अथवा परमात्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है और न
परिग्रह रहित शुद्धोपयोगी, आत्मध्यानी, मुनि उत्तम अन्तरात्मा है, यह माना गया है कि आत्मा अपने अस्तित्व को समाप्त कर
देशव्रती श्रावक मध्यम अन्तरात्मा तथा अविरत सम्यक्दृष्टि जघन्य परमात्मा में मिल जाता है । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा
अन्तरात्मा हैं । ये तीनों ही मोक्षमार्ग पर आरूढ़ माने गये हैं। की स्वतन्त्र स्थिति है और यह आत्मा ही ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा बन जाता है | अनन्त आत्माएं हैं | अतः परमात्मा भी अनन्त बन
आत्मा की तृतीय अवस्था को परमात्मा कहा गया है । सकते हैं । उस अवस्था में भी प्रत्येक की अपनी स्वतंत्र सत्ता बनी
परमात्मा के दो भेद हैं - सकल परमात्मा तथा विकल परमात्मा । रहेगी । सभी आत्माएं अनन्तप्रदेशी हैं, एक का प्रभाव दूसरे पर
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय चार घातिया कर्मों किंचित् भी नहीं पड़ता।
को नष्ट करने वाले शरीर सहित अर्हन्त भगवान सकल परमात्मा हैं
और ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों को नष्ट कर सभी देहादि परद्रव्यों शुद्ध निश्चय नय से तो सभी आत्माएं परमात्मा ही हैं किन्तु
को छोड़कर नित्य, निरंजन, ज्ञानमय, परमानन्द स्वरूप, केवलज्ञान, व्यवहारनय से आत्मा की तीन अवस्थाएं मानी गयी हैं - बहिरात्मा,
केवलदर्शन, केवलसुख तथा केवलवीर्य स्वभाववाला आत्मा विकल अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा आत्मा की प्रथम अवस्था है, परमात्मा है।" विकल परमात्मा ही सर्वाधिक विशद्ध और ध्यातव्य जिसमें आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को न पहिचान कर देह तथा इन्द्रियों को ही आत्मा एवं उनके सुख दुःख को ही अपना सुख दुःख समझता है तथा उन्हीं के पालन पोषण में रत रहता है ।
इस प्रकार पर्यायदृष्टि से आत्मा के तीन भेद हैं । किन्तु,
निश्चयदृष्टि से वह एक ही है । एक ही आत्मा जबतक कर्ममल से दव्वसहावे णिचु मुणि, पज्जड विणसइ होई।
आच्छादित रहता है, वह बहिरात्मा कहलाता है, वह स्वपर भेद को परमात्म प्रकाश, ५६
जानकर अन्तरात्मा हो जाता है और वही पूर्ण ज्ञानप्राप्त कर तथा एहु जु अप्पा सो परमप्पा, कम्म विसेसें जाणइ जप्पा ।
पूर्ण चारित्र का पालन कर परमात्मा बन जाता है । अतः आत्मा जामई जाणइ अप्पे अप्पा, तामइ सो जिसेव परमप्पा ।।
परमात्मा में कोई तात्विक भेद नहीं है। परमात्म प्रकाश १७४ ते वंदउं सिरि सिद्ध गण, होसहिं जे वि अणंतु ।
(शेष भाग पृष्ठ १०९ पर) परमात्म प्रकाश २ तिपयारो अप्पा मुणाहि पउ अन्तरु बहिरप्पु ।
मैं सूखी दुखी मैं रंक राव मेरे धन गृह गोधन प्रभाव। स योगसार पृष्ठ ३६, ६
मेरे सुततिय मैं सवल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण ।। देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्व मुधा है।
तम उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान | छहढाला, तृतीय ढाल दोहा ४ :
रागादि प्रगट जे दुःख दैन, तिनहीको सेवत गिनत चैन ।
छहढाला, द्वितीय ढ़ाल ४,५ कुशाग्र बुद्धि, सर्वतोमुखी
उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के अन्तर आतम सानी । प्रतिभासम्पन्न, मृदुव्यवहार तथा
द्विविध संग विन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी ॥ कुशल प्रशासन से युक्त
मध्यम अन्तर आतम हे जे देशव्रती अनगारी। व्यक्तित्व । जैन स्थानकवासी गर्ल्स
जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी || डिग्री कॉलेज बडौल के प्राचार्य
नावि छहढाला, तृतीय ढाल, ४,५ पद का सुशोभन । 'बालादर्श'
णिधु णिरजणु ण णमउ, परमाणं दसहाउ । पत्रिका का संपादन 'भारत छोडो
जो एहउ सो संतु सिउ, तासु मुणि
जहि माउ ॥ आंदोलन' में हिस्सेदारी | 'सादा
के वलदं सण णाण माउ - जीवन - उच्च विचार' पर
केवलसुक्खसहाउ। जीवन शैली | आपकी रचनाओं
जो दंसणणाणमउ, केवलसूक्खसहाउ। का विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में
केवलवीरिउ सोमुणहि, जो जिपराव डॉ. श्रीमती सूरजमुखी जैन प्रकाशन | वर्तमान में मुजफ्फर
माउ । नगर में सरस्वती आराधना तथा एम.ए., पी.एच.डी.
परमात्मप्रकाश, १७,२४ शोधकार्य में संलग्न ।
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ | विश्लेषण
(१०४)
गया समय सत्कार्य में, वही सफल सुविचार । जयन्तसेन सफल समय, सुख दायक संसार ।।
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