SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-दर्शन में आत्मवाद सरकारसमक का डा. श्रीमती सरजमखी जैन IED 'दर्शन' शब्द दर्शनात्मक 'दृश्' धातु में करण अर्थ में ल्युट् संकोच विस्तार का गुण होने के कारण वह शरीर प्रमाण है।' प्रत्यय के योग से बना है जिसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है 'दृश्यते दीपक को जितने बड़े कमरे में रखा जाय, वह उस समपूर्ण कमरे अनेन इति दर्शनम्' अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाय, वह दर्शन है। को प्रकाशित करता है उसी प्रकार आत्मा को जितना बड़ा शरीर किन्तु देखना दर्शन शब्द का साधारण अर्थ है | दर्शनशास्त्र में मिलता है वह उसमें सम्पूर्ण रूप से व्याप्त होकर रहता है । मुक्त दर्शन शब्द का विशेष अर्थ है तत्त्व के प्रकृत स्वरूप का आत्मा उर्ध्व गमन स्वभाववाला है । निश्चय नय से आत्मा शुद्ध, अवलोकन ।' इस अनादि अनन्त संसार में संयोगवियोग सुख दुःख बुद्ध, मुक्त और ज्ञानी है, वह कर्ममल से रहित है अजर है, अमर की अविरत धारा में गोते लगाते हुए प्राणी थक कर शाश्वत सुख है ।" वह केवल अपने भावों का कर्ता है, वह रूप, रस, गन्ध, की खोज में जो हेय ज्ञेय उपादेय का अवलोकन करता है वही वर्ण से रहित निर्गुण निराकार है । वह मनरहित, इन्द्रिय रहित, दर्शन है। ज्ञानमय है, इन्द्रियागोचर है ।१२ वह ज्योतिस्वरूप है १३ , आनन्दमय डा. महेन्द्रकुमार जैन के अनुसार प्रत्येक दर्शनकार ऋषि ने पहले चेतन और जड़ के स्वरूप, उनका परस्पर सम्बन्ध तथा दृश्य स जैन दर्शन में आत्मा और शरीर दो भिन्नतत्त्व माने गये हैं। जगत की व्यवस्था के मर्म को जानने का अपना दृष्टिकोण बनाया, जिसप्रकार वस्त्र देह से सर्वथा भिन्न है, उसी प्रकार आत्मा भी पीछे उसीकी सतत चिन्तन और मनन धारा के परिपाक से जो शरीर से सर्वथा भिन्न है। जन्म, जरा, मरण, रोग तथा विभिन्न वर्ण तत्त्व साक्षात्कार की प्रकृष्ट और बलवती भावना हुई उसके विशद एवं लिंग आदि शरीर के होते हैं आत्मा के नहीं ।५ आत्मा शरीर और स्फुट आभास से निश्चय किया कि उनने विश्व का यथार्थ से सर्वथा भिन्न है । अतः शरीर के धर्म आत्मा के धर्म नहीं हो दर्शन किया है तो दर्शन का मूल उद्गम दृष्टिकोण से हुआ है और सकते हैं | मुनि रामसिंह कहते हैं कि आत्मा न गौरवर्ण है, न उसका अन्तिम परिपाक है आत्मसाक्षात्कार में | कृष्णवर्ण का न वह सूक्ष्म है, न स्थूल, न वह पंडित है न मूर्ख, न शि प्रज्ञाचक्षु पं. सुखलालजी ने दर्शन शब्द का अर्थ सबल प्रतीति वह किसीका गुरु है न शिष्य, न स्वामी है, न भृत्य, न वह ब्राह्मण किया है। जैन दर्शन के अनुसार तत्त्वों के दृढ़ श्रद्धान को सम्यक् है, न वैश्य न क्षत्रिय है, न शूद्र, न वह पुरुष है, न स्त्री, न दर्शन कहा है ।" तत्व नौ हैं - 'जीव, अजीव पुण्य, पाप, आश्रव नपुंसक । वह तरुण, वृद्ध अथवा बाल भी नहीं है, न वह शूर है बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । दर्शन का प्रमुख तत्त्व जीव न कायर, न वह बौद्ध आचार्य है न जैन साधु न जटाधारी अर्थात् आत्मा है, जो अनादिकाल से कर्मों के बन्धन में बन्धासन्यासी | वह शुभ अशुभ भावों से परे है, अतीत आगत और हुआ, संसार में भटक रहा है और संवर तथा निर्जरा के द्वारा अनागत की सीमासे ऊपर है ।१६ मोक्षप्राप्त कर अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य जीवो उवओगमओ अमुक्तिकत्ता सदेहपरिमाणो । का स्वामी बन सकता है । अतः जैन दर्शन में आत्मज्ञान तथा भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्स सङ्कगई ॥ आत्मस्वरूप की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है । द्रव्यसंग्रह, गाथा २ आत्मविचार करने से शाश्वत् सुख की प्राप्ति होती है तथा अपने प्रदेशसंहार विसर्पाभ्याम् प्रदीपवत् स्वरूप को जान लेने पर आत्मा जन्म मरण के दुःख से छूट जाता तत्वार्थसूत्र, पंचम अध्याय, १६ है । अतः इस आत्मतत्त्व का ज्ञान आवश्यक है। द्रव्यसंग्रह, गाथा २ " परमात्मप्रकाश, ६८ परमात्मप्रकाश, ३१ ॥ आणंदा, २९ जैन दार्शनिकों ने व्यवहारनय तथा निश्चय नय इन दो नयों पाहुड़दोहा, ५७ १५ परमात्मप्रकाश, ७०,७१ की अपेक्षा से आत्मतत्त्व का विवेचन किया है । व्यवहार नय से हंउ गोरड हंउ सामलउ, हंउ उजु विभिण्णउ वण्णु । संसारी तथा मुक्त दो प्रकार की आत्माएं हैं । संसारी आत्मा अपने हंउ हणु अंगउ थूलुहंउ, एहउ जीव म मण्णि || णवि तुहु मंडिउ मुक्खुणवि, णवि ईसरु णवि णीसु । कर्मों का कर्ता तथा कर्म फल का भोक्ता है । अपने प्रदेशों के णवि गुरु कोइवि सीसु णवि, सव्वई कम्मविसेसु ।। हंउ वरु वंभणु णविवइसु णउ भारतीय दर्शन - ग. बी. एन. सिंह पृष्ठ १ री खत्तिउं णवि सेसु । पुरिसुणउंसउ इत्थु णवि एहउ आचारांग वृत्ति - १,१ जाणि विसेसु ।। जैन दर्शन डा. महेन्दकुमार जैन, पृष्ठ ३४ तरुणउ बूढउ बाव्यु हंउ, सूरउ न्याय कुमुदचन्द्र, द्वितीय भाग का प्राक्थन पंडिउ दिव्यु । तत्त्वार्थसूत्र, प्रथम अध्याय सूत्र २ खवणउ बंदउ सेवउउ, एहउ चिंति तत्वार्थसूत्र, दशम अध्याय, सूत्र २ म सब्बु ।। जं मुणि लहइ अणंत सुहु णिय अप्पा झायेतु । पाहुड़दोहा, रामसिंह तं सुहु इन्दु वि णवि लहइ, देविहि कोडि रमन्तु ।। २६,२७,३१,३२ १२ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०३) समय बड़ा बलवान है, समझो चतुर सुजाण । जयन्तसेन जागृत रह, घरो हृदय शुभ झाण । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy