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________________ कनिष्ठा व अनामि मिका बड़ी पूछा- दोनों में बडी है । अनेकांतवाद के अनुसार एक ही वस्तु में उत्पत्ति विनाश एवं प्रति एक अनूठी प्रवृत्ति है । वस्तुओं के संग्रह की वृत्ति एवं ध्रुवता जैसे परस्पर विरोधी धर्म विद्यमान रह सकते हैं । इस प्रकार अधिकारों के संग्रह की वृत्ति ही जब अपना अतिरूप लेकर प्रकट यह कहा जा सकता है कि वस्तु तत्व के निरूपण में या निर्णय में । होती है तब विवाद एवं परस्पर वैमनस्य की भावना बलवती होती जो वाद अपेक्षा की प्रधानता पर बल देता है वह स्याद्वाद या है और हमारी वैयक्तिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय व्यवस्था को अनेकांतवाद है। परिग्रह की यह प्रवृत्ति अव्यवस्थित कर देती है। आज चीन इसी वास्तव में स्याद्वाद या अनेकांतवाद नयों की बहुमुखी है, परिग्रह प्रवृत्ति की चपेट में आ गया है | अपरिग्रह का क्षेत्र भी जो मुख्य रूप से निश्चय नय एवं व्यवहार नय के आधार पर वस्तु मात्र भौतिक स्तर पर यथाशक्य संपत्ति के अल्पीकरण एवं के तात्विक एवं लोकव्यवहार में प्रचलित अर्थ को प्रतिपादित करता परित्याग पर ही आधारित न होकर वैयक्तिक, पारिवारिक एवं है। अनेकांतवाद को आचार्यों ने सरल रूप में इस प्रकार समझाया सामाजिक स्तर के परिसीमित दायरे में वस्तु एवं व्यक्ति विशेष के प्रति “ममत्व-विसर्जन" के रूप में भी हमारे सामने एक आदर्श स्थिति प्रस्तुत करता है । इस प्रकार सहज रूप से संपत्ति का "यथा अनामिकायाः कनिष्ठा दीर्घत्वं, विसर्जन, ममत्व का विसर्जन अपरिग्रह की देन है । अपरिग्रह भाव मध्यमामधिकृत्य इस्वत्वम् । न्यून परस्पर भौतिक एवं भावनात्मक स्तर पर समानता तथा समन्वयात्मकता - प्रज्ञासूत्रवृत्ति प्रस्थापित करता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- जब आचार्यों से पूछा गया कि सण जैन धर्म के ये तीनों सिद्धान्त “अहिंसा", "अपरिग्रह" एवं आपका अनेकांतवाद क्या है तो आचार्यों ने कनिष्ठा व अनामिका "अनेकांतवाद" आज प्रत्येक राष्ट्र के लिए अनुकरणीय है । सामने करते हुए पूछा - दोनों में बड़ी कौनसी है ? प्रत्युत्तर था - "अहिंसा" जहाँ शांति एवं आत्मिक तेज प्रदान कर जीवन को अनामिका बड़ी है । कनिष्ठा को समेटकर और मध्यमा को नया मोड़ देती है वहीं “अपरिग्रह" पूर्ण समानता एवं सहयोग की फैलाकर पूछा - 'दोनों अंगुलियों में छोटी कौन-सी है ? उत्तर भावना के साथ जीवन-पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है तथा मिला - अनामिका । आचार्यों ने कहा - 'यही हमारा स्यावाद या अनेकांतवाद या स्याद्वाद मानव के पारस्परिक समस्त वाद-विवादों अनेकांतवाद है जो तुम एक ही अंगुली को बड़ी भी कहते हो और का एक सही हल प्रदान कर किसी वस्तु को, किसी धर्म को, किसी छोटी भी । उपर्युक्त उदाहरण से अनेकांतवाद सहजगम्य है। कथ्य को देखने-सुनने एवं उसके निरूपण हेतु एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है | संप्रति आज की परिस्थिति में यह आवश्यक है 1 जैन आगमों में अनेकांतवाद के बीज उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, कि जैन धर्म अपने सिद्धांतों को सही रूप से प्रतिपादित करे । स्यादस्ति, द्रव्य, गुण, पर्याय, सप्तनय आदि विविध रूपों में बिखरे अहिंसा को सिर्फ "किचन पालिटिक्स" (खाद्याखाद्य) तकही सीमित पड़े हैं । भगवान महावीर ने अपने अनेकांतवाद के अन्तर्गत इन्हें न रख विश्व स्तर पर 'मनसा, वाचा, कर्मणा' के रूप में समन्वित एवं सुस्पष्ट रूप में रखकर इसे इस रूप में प्रतिपादित क्रियान्वित करे साथ ही अनेकांतवाद एवं अपरिग्रह के द्वारा एक किया है कि हम व्यावहारिक-जीवन में अनेक विवादों से बचकर नया दृष्टिकोण एवं एक नवीन व्यवस्था की स्थापना का प्रयास कर एक ऊर्ध्व-पथ की ओर गमन करें । भारतीय दर्शन को विवादों के जैन धर्म के वास्तविक रूप की सक्रिय स्थापना करे । आसन पर बैठकर काफी क्षति पहुँची है । जैन धर्म ने अपने अनेकांतवाद द्वारा समन्वय की भावना को सुदृढ़ता प्रदान कर एक माम अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह दरअसल एक सिद्धान्त के वैचारिक संतुलन की स्थापना की है। तीन पहलू हैं - अहिंसा का आचार, अनेकांत का विचार और अपरिग्रह का व्यवहार मनुष्य के जीवन को चेतना के ऊर्ध्वमुखी अपरिग्रह जैन धर्म की सामाजिक समानता की भावना के सोपानों पर स्थापित करता है | साधक की यह जीवनी शक्ति है जो सामान्य व्यक्ति के लिए जीवन शैली (way of life) है । महावीर जिन तत्वों की चर्चा करते हैं उन्हें उन्होंने अपनी जीवन साधना की कसौटीपर कसकर देखा है इसलिए काल की धूल और लेखिका : भाषाविज्ञान तथा राख उन सिद्धान्त वचनों की आग को ढक नहीं सकती । समय के शैलीविज्ञान में विशेष अध्ययन । परिवर्तन और प्रत्यावर्तन के साथ उसके नित नए अर्थ उद्घाटित सम्प्रति : व्याख्याता होते रहते हैं। (हिन्दी), विद्यालय, शहादा (धुलिया), महाराष्ट्र. डॉ. दिव्या एस. भट्ट एम.ए., पी.एच.डी. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (१०२) समय गया आता नहीं, समझ मनुज नादान । जयन्तसेन सचेष्ट हो, कर जीवन उत्थान ।। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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