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________________ गया हैअतो न द्रव्यस्यकदाचिदागामापायोवा उपर्युक्त सूत्रों में उपस्कार एवं भाष्य का आशय यह है कि घर घटपटगवाश्व शुक्लरक्ताद्यवस्थानामेवागमापायौ - आह च - अपने निजी स्वरूप से तो है और पररूप से नहीं है अश्व अपने अश्व आविर्भाव - तिरोभाव - धर्मकष्वनुयायिमत् ।। स्वरूप से सत् है और गौ रूप से असत् है। इसका अर्थ यह हुआ तद् धर्मी तत्रच ज्ञानं प्रारधर्मग्रहणात् भवेत् ॥ कि घरादि प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप की अपेक्षा सत् और परादि तथा च यादशमस्मामिरभिहितं द्रव्यं तादृश प्रत्येक पर-रूप की अपेक्षा से असत् है इस कथन से यह सिद्ध हुआ स्यैव हि सर्वस्य गुणएव भिद्यते न स्वरूपम् । कि प्रत्येक पदार्थ स्व पर रूप की अपेक्षा सत्-असत् दोनों रहते हैं। अर्थात् द्रव्य की कभी उत्पत्ति और विनाश नहीं होता है, किन्तु इसी बात को अनेकान्तवाद भी व्यक्त करता है कि प्रत्येक पदार्थ उसके रूप और आकारादि विशेष का ही उत्पत्ति-विनाश होता है। स्व-पर रूपापेक्षा सदसदात्मक है। कहा है- उत्पत्ति और विनाशशील धर्मों में अन्वय रूप से जिसकी न्यायदर्शन में स्याद्वाद: उपलब्धि होती है, वह धर्मी और उसका ज्ञान प्राग्धर्म के ग्रहण से प्रत्येक वस्तु को न्याय की कसौटी पर कसना न्याय दर्शन है। होता है अत: उत्पाद-विनाश स्वभावी धर्मों में मिट्टी रूप द्रव्य-धर्मी इस दर्शन के आद्य प्रवर्तक महर्षि गौतम हैं। नैयायिक दर्शन में प्रमाण, सर्वत्र अनुगत रहता है। अन्य विद्वानों की अपेक्षा कुमारिलभट्ट ने स्पष्ट प्रमेय, संशय, प्रयोजन आदि १६ तत्त्व माने जाते हैं। महर्षि गौतम शब्दों में अनेकान्तवाद का समर्थन किया है। कुमारिल भट्ट का पदार्थों के अनुसार सोलह तत्त्व का ठीक-ठीक ज्ञान होने से मुक्ति होती है। को उत्पाद, स्थितिरूप सिद्ध करना, अवयव को स्वरूप एवं पर-रूप महर्षि गौतम के न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन ने पदार्थ विवेचन से सत् असत् स्वीकार करना तथा सामान्य विशेष को सापेक्ष मानना में निम्न प्रकार से अनेकान्तवाद का आश्रय लिया हैअनेकान्तवाद का समर्थन करना ही माना जाता है। इस प्रकार आचार्य विमृश्य पक्ष प्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय : कुमारिल भट्ट ने वस्तु विवेचन के लिए अनेकान्तवादात्मक शैली का एतच्च विरुद्धयोरेकधर्मिस्थयो बर्बोधव्यं, यत्र ...... अनुसरण किया है। दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते हैं कि आचार्य अर्थात् पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा विचार करके पदार्थ को जो निश्चय कुमारिल भट्ट जैन दार्शनिक हैं। किया जाता है, उसे निर्णय कहते हैं। परंतु यह विचार करने का वैशेषिक - दर्शन में स्याद्वाद: अवसर तभी आता है जब एक धर्मी में विरुद्ध धर्मों की स्थिति हो। यह दर्शन विशेष (परमाणु) से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है अतः लेकिन जहाँ धर्मी सामान्य में धर्मों की सत्ता प्रामाणिक रूप से सिद्ध इसका नाम वैशेषिक दर्शन है। इस दर्शन के आद्यप्रवर्तक कणाद हो वहाँ पर समुच्चय ही मानना चाहिये, क्योंकि प्रामाणिक रूप से ऋषि माने जाते हैं। वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ऐसा ही सिद्ध है। वहाँ पर तो परस्पर विरुद्ध दोनों ही धर्मों को प्रमाण स्वीकार किये गये हैं। वैशेषिक सूत्र के अनुसार द्रव्यत्व, गुणत्व स्वीकार करना चाहिये। इस प्रकार न्याय दर्शन में यथा प्रसंग अनेकांतवाद और कर्मत्व ये सामान्य भी हैं और विशेष भी। का आश्रय लेकर ग्रंथकारों ने अपने सिद्धान्त का पोषण किया है। प्रशस्तपाद - भाष्य में उक्तसूत्र की व्याख्या करते हुए जैन-दर्शन वेदान्त - दर्शन में स्यादवाद : के मंतव्य की तरह सामान्य-विशेष उभय रूप में मानकर स्पष्ट रूप इस दर्शन का निर्माण वेदों के अन्तिम भाग उपनिषदों के आधार में कहा है से हुआ। इस कारण वह वेदान्त - दर्शन कहलाता है। सर्व प्रथम "सामान्यं द्विविध परमपरं सद्विशेषाख्यामपि लभते ।। वेदान्त दर्शन उपनिषदों में पाया जाता है। वेदान्त का प्रधान सिद्धान्त सारांश यह है कि सामान्य सिर्फ सामान्य है रूप ही नहीं है को ब्रह्म द्वितीयं नास्ति' है। वेदान्त के अनसार व्यक्ति को सदा किन्त विशेष रूप भी है। द्रव्यत्व, गुणत्व आदि यद्यपि सामान्य रूप तत्त्वमसि का ही ध्यान करना चाहिए। हैं लेकिन सत्ता की अपेक्षा उनमें विशेषत्व और पृथ्वीत्वादि की अपेक्षा आमा प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों विरोधी धर्मों को प्रकृति में नहीं सामान्य रूपता यह दोनों ही धर्म रहते हैं। मानकर ईश्वर में स्वीकार करने के लिए शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद _ इस प्रकार महर्षि कणाद ने स्पष्ट रूप से अनेकान्तवाद का का ही आश्रय लिया है। परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों को प्रतिपादन किया है। भाष्यकार लिखते हैं सापेक्ष रूप से एक वस्तु में स्वीकार करना ही तो अनेकान्तवाद है। तदेवं रूपान्तरेण सदप्यन्येन रूपेण सद् भवतीत्युक्तम्.... शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के शंकर भाष्य में अनेक स्थलों पर अपेक्षावाद अश्वात्मना सन्नप्यश्वो न गवात्मनास्तीति । का आश्रय लेकर अपने मत को अभिव्यक्त किया है एवं उनका 'शास्त्रदीपिका पार्थसार मिश्र रचित पृ. १४६-१४७ अनिर्वचनीय शब्द तो अनेकान्तवाद के आशय को ही स्पष्ट करता २'द्रव्य व्वं गुणव्वकर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च ।' - वैशेषिक सूत्र १/२/५ ३ वैशेषिक भाष्य -पृ. ३१५ ५ न्याय सत्र ११४१ अचार श्रीमद् जयंतसेनहरि अभिनंदन ग्रंथावाचना X9 असभ्य बन कर मानवी, क्यों करता अभिमान । जयन्तसेन सभ्य बनो, जीवन बने महान Library.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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