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________________ यहां पर क्षयोपाशिका की सद्वस्तु के लिए काम में लिया जाता है। और योग शारीरिक क्रियाओं के रूप में, जिसमें मन, वचन और शरीर सम्मिलित हैं। आचार्य हरिभद्रसूरिने 'योगबिन्दु' १/३१ में योग के पांच सोपान अथवा स्तर बताये हैं- अध्यात्म, भाव, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षय इसके साथ ही योग के अधिकारी के रूप में चार विभाग किये हैं- अपुनवर्धक सम्यगदृष्टि, देश-विरति और सर्वविरति । योग बिन्दु के संबंध में "भारतीय संस्कृति में एवं विशेषतः जैन धर्म में निम्नलिखित वर्णन पाया जाता है : “योगबिन्दु में ५२७ संस्कृत पद्यों में जैन योग का विस्तार से प्ररूपण किया गया है। यहां मोक्ष व्यापक धर्म व्यापार को योग और मोक्ष को ही लक्ष्य बताकर चरम पुद्गल परावर्त-काल में योग की सम्भावना अपुनवर्धक, मित्रग्रंथि, देशविरत और सर्वविरत (सम्यगदृष्टि ) ये चार योगाधिकारियों के स्तर पूजा- सदाचार तप आदि अनुष्ठान, अध्यात्म, भावना आदि योग के पांच भेद; विष, गरलादि पांच प्रकार के सद् वा असद् अनुष्ठान तथा आत्मा का स्वरूप परिणामी नित्य बतलाया है। पांतंजल योग और बौद्ध सम्मत योग भूमिकाओं के साथ जैन योग की तुलना विशेष उल्लेखनीय है । योगविंशिका में हरिभद्रसूरि ने योग को पांच प्रकार का बतलाया है - (१) स्थान (२) उर्ण (३) अर्थ (४) आलम्बन (५) अनालम्बन स्थान योग में कायोत्सर्ग, पर्यक, पद्मासन आदि आसन आते हैं । उर्ण में शब्द का उच्चारण, मंत्र जप आदि का समावेश है । अर्थ में नेत्र आदि का वाच्यार्थ लिया जाता है । आलम्बन में, रूपी द्रव्य में मन को केन्द्रित करना होता है और अनालम्बन में चिन्मात्र समाधि रूप होता है । षोडशक ग्रंथ में 'हरिभद्रसूरि ने मस्तिष्क के प्राथमिक दोषों को बताया है, जिन को पृथक् करना आवश्यक होता है। वे आठ हैं :- (१) जड़ता (२) आकुलता (३) अस्थिरता (४) विचलिता (५) भ्रांति (६) किसी दूसरे को आकर्षित करना (७) मानसिक अशान्ति और (८) आसक्ति । आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी ने योगशास्त्र में पांतजल योगसूत्र के अष्टांग योग की तरह भ्रमण तथा श्रावक जीवन की आचार साधना को जैन आगम साहित्य के प्रकाश में व्यक्त किया है । इस में आसन, प्राणायाम आदि का भी वर्णन है। पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का भी वर्णन किया है और मन के विक्षुप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन इन चार भेदों का भी वर्णन किया है, जो आचार्यजी की अपनी मौलिक देन है । " आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् आचार्य शुभचन्द्र का नाम आता है । "ज्ञानार्णव" के सर्ग २९ से ४२ तक में आपने प्राणायाम और ध्यान के स्वरूप और भेदों का वर्णन किया है । - योगशास्त्र के विकास में यशोविजयजी का नाम भी उल्लेखनीय है । उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद, योगावतार बत्तीसी, पांतजल योग सूत्रवृति, योग विंशिका टीका, योग दृष्टि नी सजझाय आदि महत्वपूर्ण ग्रंथो की रचना की है । अध्यात्मसार ग्रंथ के BIFFB श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International योगाधिकार और ध्यानाधिकार प्रमाण में गीता एवं पांतजलि योग सूत्रों का उपयोग करके भी जैन परंपरा में विश्रुत ध्यान के विविध भेदों का समन्वयात्मक वर्णन किया है। अध्यात्मोपनिषद में चिन्तन करते हुए योगवाशिष्ठ और तैतरीय उपनिषदों के महत्वपूर्ण उद्धरण देकर जैन दर्शन के साथ तुलना की है। योगावतार बत्तीसी में पांतजल योग सूत्र में जो साधना का वर्णन है, उसका जैन दृष्टि से विवेचन किया है और हरिभद्र के विंशिका और षोडशक्ति ग्रन्थों पर महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखकर उसके रहस्यों को उद्घाटित किया है जैन धर्म में समाधि की भी चर्चा है। समाधि का अर्थ चित्त की चंचलता पर नियंत्रण करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। डॉ. भागचंद्र जैन का कथन है कि नायायम्म कहाओ (८, ६९ ) की अभयदेव टीका में समाधि का अर्थ चित्त स्वास्थ्य किया गया है । दशवैकालिक सूत्र (९-४-७-९) में समाधि मे दो भेद मिलते हैं तप समाधि और आचार समाधि । कर्म क्षय के लिए किया गया तप तप समाधि' है और कर्म-क्षय के लिए किया गया आचार का पाउन 'आचार-समाधि' है। जैन योग में कुंडलिनी के विषय में भी वर्णन किया गया है। इस संबंध में 'श्री नथमलजी टाटिया का कथन है कि "जैन परंपरा के प्राचीन साहित्य में कुंडलिनी शब्द का प्रयोग नहीं मिलता । उत्तरवर्गी साहित्य में इस का प्रयोग मिलता है। आगम और उसके व्याख्या साहित्य में कुंडलिनी का नाम तेजोलेश्या है।" एक विशेष तथ्य, जो जैन धर्म में दिखाई पड़ता है, वह यह है कि लौकिक फल की प्राप्ति के लिए योग की साधना करना निन्दनीय समझा जाता है । मसीहीयोग हिन्दू संस्कृति में विश्वास किया जाता है कि मनुष्य योग द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है भारतीय दर्शन के अनुसार योग का अर्थ जीव का परमात्मा से, ईश्वर से जुड़ना है, मिलना है । मसीही शास्त्र, बाइबल यह बताती है कि डेनियल, यहकेकलयशय्याह, संत पॉल और संत जॉन ने ईश्वर का दर्शन पाया था उनका प्रयास, उनका परिश्रम शारीरिक योगाभ्यास के द्वारा नहीं था । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि मसीही योग भारतीय योग से भिन्न प्रकार का है। वैसे योग न मसीही होता है, न बौद्ध, न जैन और न भारतीय योग तो उस क्रिया का नाम है जिसका अभ्यास करने पर चिन्तन, मनन पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है । संत पौलस इन शारीरिक क्रियाओं के बारे में जानता था और इसी कारण वह लिखता है कि "शारीरिक योगाभ्यास के भाव से ज्ञान का लाभ तो है परन्तु शारीरिक, छालसाओं को रोकने में इन से कुछ भी लाभ नहीं होता ।"" योग से देहसाधना की जाती है, प्रवृत्तियों पर नियंत्रण किया जाता है किन्तु प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर को जानने के लिए पौलस स्पष्ट शब्दों में कहता है कि "क्योंकि देह की साधना से कम लाभ होता है, (९४) For Private & Personal Use Only पर की ताकत अन्त में, करे सदैव निराश । जयन्तसेन निजात्म बल, पाओ सत्य प्रकाश ॥ www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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