SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२) निर्वाण साधक | संसार साधक भौतिक साधनों को, ऐश्वर्य योग विंशिका, योग शतक और षोडशक प्रमुख ग्रंथ हैं ।"३ को प्राप्त करने की साधना करता है जब कि निर्वाण साधक की आचार्य हेमचन्द्र का प्रसिद्ध ग्रंथ "योग शास्त्र हैं । शुभचन्द्रजी ने साधना कैवल्य प्राप्त करने हेतु होती है | इस स्थिति में जो ध्यान "ज्ञानार्णव" की रचना और यशोविजयजी के ग्रंथों में अध्यात्मसार, किया जाता है वह दो प्रकार का होता है (१) धर्मध्यान और अध्यात्मोपनिषद, योगावतार बत्तीसी प्रमुख हैं। (२) शुक्लध्यान । शुक्लध्यान के भी चार भेद हैं - (१) पृथक्त्व आचार्य हरिभद्रसूरिने 'योग-दृष्टि समुच्यय' में ओघदृष्टि और वितर्क (२) एकत्व वितर्क (३) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति तिपाति आर योगदृष्टि पर चिंतन किया है । नथमल टाटिया उनकी पुस्तक और (४) व्यपरत क्रिया निवृत्ति । वैसे जैन धर्म में ध्यान के चार भेद 'Studies in Jaina Philosophy' में लिखते हैं कि प्रमुख किये जाते हैं (१) आर्तं (२) रौद्र (३) धर्म (४) शुक्ल | पंडित आध्यात्मिक और धार्मिक क्रियाएँ जो मोक्ष की ओर ले जाती हैं, कैलाश चंद्र शास्त्री इन ध्यानों पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि हरिभद्रसूरि के मतानुसार योग है।' इस ग्रंथ में योगिक विकास के आर्त और रौद्र को दुनि कहते हैं और धर्म तथा शुक्ल को आठ स्तर बताये हैं । सबसे महत्व पूर्ण सम्पर्क दृष्टि है, जिसका शुभ । इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग शारीरिक वेदना आदि आदि आठ स्तरोंपर विभाजन किया है - (७) मित्रा (२) तारा (३) बल सांसारिक व्यथाओं को कष्ट जनक मानकर उनके दूर हो जाने के (४) दीप्ता (५) स्थिरता, (६) कान्ता (७) प्रभा (८) परा । ये लिए जो संकल्प-विकल्प किये जाते हैं, उन्हें आर्तध्यान कहते हैं। आठ दृष्टिया हैं, जो कि पातंजल योगसूत्र के यम, नियम, आसन, जो प्राणी धर्म का सेवन करके उससे मिलने वाले ऐहलौकिक और प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि से साम्य रखती पारलौकिक सुखों की कल्पना में तल्लीन रहता है, जैनधर्म में उसे हैं । दूसरा वर्गीकरण, जो हरिभद्रसूरिने किया है, वह है - इच्छा भी आर्तध्यानी कहा गया है । हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और योग, शास्त्र योग, सामर्थ्य योग तथा तीसरा वर्गीकरण उन्होंने योगी परिग्रह इन पांचों के सेवन में ही जिसे आनन्द आता है वह रौद्र के भेदों द्वारा किया है, वह है - गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्त ध्यानी कहा जाता है । धर्म से संबंधित बातों के सतत चिंतन को चक्रयोगी और सिद्धयोगी । 'योग दृष्टि समुच्चय' में योग के तीन धर्मध्यान की संज्ञा दी गई है । इसके भेद हैं - 'पिण्डस्थ, पदस्थ, प्रकार बताये गये हैं । उद्देश्य द्वारा योग, जिसके बारे में उन्होंने रूपस्थ, रूपातीत । शुक्ल ध्यान का वर्णन ऊपर किया जा चुका है, लिखा है :जिसमें "प्रथम में वितर्क और विचार को पृथक अस्तित्व में देखना होता है, दूसरी स्थिति में दोनों को एकता के रूप में देखा जाता है, 19 "कर्तुमिच्छोः श्रुतार्थस्य, ज्ञानिनोऽपि प्रमादतः । तीसरी स्थिति में केवल मानस की सूक्ष्म क्रियाएं रहती हैं और विकलो धर्मयोगो यः इच्छा योगः स उच्यते ॥ चौथी स्थिति में वे भी समाप्त हो जाती हैं।" उपर्युक्त श्लोक द्वारा यह बताया गया है कि वह व्यक्ति, जो जैन धर्म की प्राचीन व्यवस्था के अन्तर्गत 'योग' शब्द के धर्मशास्त्र को सुनता है, उनके निर्देशों को जानता है और उसके स्थान पर 'ध्यान' पर अधिक बल दिया गया है । दिगम्बर जैन अनुसार चलना चाहता है, इस योग को उद्देश्य द्वारा योग कहा सम्प्रदाय के 'ज्ञानार्णव' नामक ग्रंथ में ध्यान का सुन्दर विवेचन जाता है। प्राप्त होता है। दूसरा प्रकार है धर्मशास्त्र द्वारा योग । इस संबंध में मुनिश्री नथमलजी "जैनयोग" की प्रस्तुति में लिखते हैं कि हरिभद्रसूरि का कथन है - "जैनधर्म की साधना-पद्धति में अष्टांग योग के सभी अंगों की "शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो, यथाशक्त्यप्रमादिनः' व्यवस्था नहीं है । प्राणायाम, धारणा और समाधि का स्पष्ट रूप स्वीकार नही है । यम, नियम, आसन, प्रत्याहार और ध्यान इनका शास्त्रस्यतीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तया ।। योग दर्शन की भांति क्रमिक प्रतिपादन नहीं है। इसी कारण वैदिक अर्थात् - वह व्यक्ति, जो शास्त्रों में श्रद्धा रखता हो और उसकी युग से चली आ रही प्राणायाम की मान्यता को जैन साहित्य में योग्यता के प्रति सचेत हो, धर्मशास्त्र को अच्छी तरह जानता हो समर्थन प्राप्त नहीं हुआ । हेमचन्द्र प्रभृति जैन दार्शनिकों ने और सब दोषों से मुक्त हो, उसे धर्म शास्त्र द्वारा योग कहा गया प्राणायाम का निषेध ही किया है। योग की दृष्टि से विचार करने है। तीसरे प्रकार का योग है "स्वयं के परिश्रम द्वारा योग", जो वाले आचार्यों में आचार्य हरिभद्रसूरि, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य सबसे उत्तम है । इस विषय पर जिमणाला शुभचन्द्र और उपाध्याय यशोविजयजी का नाम उल्लेखनीय है। हरिभद्रसूरिजी का कथन है - आचार्य हरिभद्रसूरि की रचनाओं में योग-दृष्टि समुच्यय योग बिन्दु, "शास्त्रसंदर्शितोपायस्तदतिक्रांतगोचरः ।। डॉ. एलरिक बारलो शिवाजी शक्त्युद्रोदविशेषेण, एम.ए., दर्शनशास्त्र, पी.एच.डी. सामर्थ्याख्याऽययुत्तमः ।।" विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा अभिनन्दन ग्रंथों में पचास 'स्वयं के परिश्रम द्वारा योग' दो लेखों का प्रकाशन | तीन ग्रंथ प्रकाशित। न प्रकार का है - (१) धर्म का सन्यास सम्प्रति - २७, रवीन्द्रनगर, उज्जैन. और (२) योग का सन्यास | धर्म श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण संकट औरन का हरे, परहित वारे प्राण । जयन्तसेन ऐसा नर, जग में बडा महान ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy