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________________ उससे कलह उत्पन्न होने का प्रसंग ही नहीं आता, परंतु उन्होंने वस्तु या अकेला व्यवहार मिथ्या दृष्टि है। में रहे हुए अंशों का निषेध किया, अत: वह ज्ञान नयाभास बन गया, श्रीमल्लवादी कृत नयचक्र में नयके बारह प्रकार किये गए हैं। मिथ्या हो गया और उपद्रव का कारण बना। और उन पर अति गहन विचारणा की गई है, परंतु यहाँ विशेष इस जगत में अपनी स्थिति भी उक्त यात्रियों जैसी ही है। प्रचलित सात नयों का विचार करेंगे। अपनी अल्पमति से हम जो कुछ भी समझें, उसे ही पूर्ण सच्चा मान मि नय के मुख्य दो विभाग जिनमें एक द्रव्यार्थिक नय और दूसरा लेते हैं और अन्य व्यक्ति के ज्ञान को - अन्य की मान्यता को पर्यायार्थिक नय = "संभवनाथ के स्तवन में लिखा है।" असत्य घोषित कर देते हैं, परंतु दूसरे के कथन में भी अपेक्षा से चार द्रव्यार्थिकत्रण तथारे, पर्यायार्थिक धारा सत्य है, यह वस्तु हम भूल जाते हैं और इसी से झूठे विवाद, कलह जेहने नयमत मन वस्योरे, तेहिज जग आधार, प्रभुजी . अथवा युद्ध का आरंभ होता है। नैगम संग्रह व्यवहार छे रे, सूत्र ऋजु सुखकार। नयवाद कहता है कि दूसरे का कथन भी सत्य हो सकता है, शब्द समभिरूढ कहा रे, एवंभूत अधिकार, प्रभुजी....... परंतु उसकी अपेक्षा क्या है? यह जानना चाहिये। द्रव्यार्थिक नय के तीन प्रकार है: (१) नैगम (२) संग्रह और यदि आप इस अपेक्षा को जानेंगे तो उसे असत्य, झूठा अथवा (३) व्यवहार। पर्यायार्थिक नय के चार प्रकार है : (१) ऋजुसूत्र (२) बनावटी कहने का अवसर ही नहीं आएगा। शब्द (३) समभिरूढ और (४) एवंभूत। इन दोनों प्रकारों को साथ जो दूसरे के दृष्टिबिन्दु को समझने का इच्छुक है-वही सत्यप्रेमी गिनने पर नय की संख्या सात होती है और यही विशेष प्रसिद्ध है। इन सात नयों के विशेष प्रकार भी होते हैं। एक प्राचीन गाथा नय के प्रकार : में तो ऐसा भी कहा है कि सात नय में से प्रत्येक नय शतविध नय के मुख्य दो प्रकार हैं : द्रव्यार्थिक और दूसरा पर्यायार्थिक। अर्थात् सौ प्रकार का है, जिससे उसकी संख्या ७०० होती है। इनमें से द्रव्य को - मूल वस्तु को लक्ष्य में लेनेवाला “द्रव्यार्थिक" सातों नयों का सूक्ष्म अर्थ इस प्रकार बताते हैं । कहलाता है, और पर्याय को - रूपान्तरों को लक्ष्य में लेनेवाला सात नयों का संक्षिप्त अर्थ पर्यायार्थिक कहलाता है। नैगमनय- लोक व्यवहार में प्रसिद्ध अर्थ को ग्रहण करता है, यहाँ इतना स्पष्टीकरण कर दें कि जैन-दर्शन अनेकान्त को अर्थात् सामान्य विशेष उभय को स्वीकार करता है। माननेवाला होने से ज्ञानपूर्वक क्रिया और क्रियापूर्वक ज्ञान मानता है, संग्रहनय - विशेष को गौण मानकर सामान्य को ही प्रधान मानता निश्चय पूर्वक व्यवहार और व्यवहार पूर्वक निश्चय मानता है तथा शब्दपूर्वक अर्थ और अर्थपूर्वक शब्द मानता है, परंतु मात्र ज्ञान या मात्र क्रिया : मात्र निश्चय या व्यवहार, मात्र शब्द या मात्र अर्थ ऐसा व्यवहार नय- वस्तु के सामान्य धर्म को गौण करके जो विशेष है नहीं मानता। उसे ही प्रधानता देता है। वह प्रत्येक नय के प्रति न्यायदृष्टि रखता है और उसके समन्वय ऋजुसूत्र नय- वर्तमान कालीन अर्थ को ही ग्रहण करता है- जैसे में ही श्रेय स्वीकार करता है। एक मनुष्य भूतकाल में राजा था, परंतु आज भिखारी हो तो यह नय जैन शास्त्रों में निश्चय और व्यवहार का उल्लेख कई बार आता उसे राजा न कहकर भिखारी ही कहेगा, क्योंकि वर्तमान में उसकी है किसी भी वस्तु के दोनों दृष्टिकोण प्रस्तुत किये जाते हैं। 'भ्रमर का स्थिति भिखारी की है। रंग कैसा?' इस प्रश्न के उत्तर में निश्चय नय कहता है कि 'भ्रमर शब्दनय- पर्याय शब्दों का एक ही अर्थ ग्रहण करता है- जैसे पांचों वर्ण का है, क्योंकि उसका कोई भाग श्याम है उसी प्रकार अर्हत्-जिन-तीर्थंकर आदि। कोई भाग रक्त - नील, पीत, और श्वेत वर्ण का भी है। यहाँ व्यवहार समभिरूढ़ नय - पर्याय शब्द का भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करता है नय बताता है कि 'भ्रमर काले रंग का है' क्योंकि उसका अधिकांश अथवा रूढ़ अर्थ में भिन्न-भिन्न अर्थ की सम्मति दे। भाग काला है' अथवा उसका काला भाग व्यवहार में आता है। एवंभूतनय - एवं अर्थात् व्युत्पत्ति के अर्थानुसार, 'मूल' अर्थात् निश्चय की दृष्टि साध्य की ओर होती है, व्यवहार की दृष्टि एवंभूतनय कहलाता है। साधन की ओर होती है। इन दोनों दृष्टियों के मेल से कार्यसिद्धि इस नय की दृष्टि से अर्हत् शब्द का प्रयोग (तभी होगा) तभी होती है। जो मात्र निश्चय को ही आगे करके व्यवहार का लोप करते उचित माना जाये जब सुरासुरेन्द्र उनकी पूजा कर रहे हों, जिन शब्द हैं अथवा व्यवहार को आगे करके निश्चय का लोप करते हैं, वे जैन का प्रयोग तभी उचित गिना जाए, जब वे शुक्ल-ध्यान धारा में चढ़कर दृष्टि से सच्चे मार्ग पर नहीं। रागादि रिपुओं को जीतते हों और तीर्थंकर शब्द का प्रयोग तभी निश्चय को आगे करके व्यवहार लोप करने पर सभी धार्मिक उपयुक्त माना जाये जब वे समवसरण में विराजमान होकर चतुर्विध क्रियाएँ, धार्मिक अनुष्ठान- यावत् धर्मशासन और संघव्यवस्था निरर्थक संघ की और प्रथम गणधर की स्थापना करते हों। राजा तभी माना सिद्ध होती है। व्यवहार को आगे करके निश्चय का लोप करने पर जाये जब वे सिंहासन पर बैठे हों। शिक्षक तभी माने जायें जब छात्रों परमार्थ की प्राप्ति नहीं की जा सकती, और कार्य सिद्धि असंभव बन । को पढ़ाते हों, गुरु महाराज तभी माने जायें जब वे पाट पर विराजमान जाती है। हो, अनेक लोगों को धर्म का उपदेश देते हों, इस प्रकार एवंभूतनय निश्चय और व्यवहार का समन्वय जैन दृष्टि है, अकेला निश्चय अर्थ के अनुसार ही प्रवृत्ति ग्रहण करता है। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावावना अहंकार करता सदा, तन धन मति का नाश । जयन्तसेन वइनय विभव, देता ज्ञान प्रकाश ॥ ___www.jainelibrary.org, Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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