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________________ मिथ्यादृष्टि आत्माओं के सम्पर्क से बदल जाता है । परिणामस्वरूप होता । जीवन भर अनन्त वस्तुओं का उपभोग करते रहने पर भी उनका फल भी भिन्न-भिन्न हो जाता है । सार यह कि जीवन का मनुष्य दुःखमय व्यवस्था में बँधा हुआ ही वापस लौटता है, बल्कि लक्ष्य ही धर्म और अधर्म का स्रोत है। उसे और मजबूत कर लेता है । सांसारिक वस्तुओं के उपभोग या लक्ष्यभ्रम क्यों? सम्पर्क से जीवनयापन का स्तर तो ऊँचा उठता है, लेकिन अविद्या, माया या मिथ्यात्व के प्रभाव से मनुष्य को जीवन इंसानियत का स्तर ऊँचा नहीं उठता । ऐसा कोई फल या मिष्ठान्न, के वास्तविक लक्ष्य का बोध नहीं हो पाता । सांसारिक वस्तुओं में ऐसा कोई वस्त्र या आभूषण, ऐसा कोई पद या आसन धरतीपर ही उसे आकर्षण दिखाई देता है, सुख का आभास होता है । नहीं है, जिसे खा लेने, पहन लेने या जिस पर बैठजाने से मनुष्य इसलिए उनकी प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मान लेता है । किन्तु इंसानियत की ऊँचाई पर पहुँच जाय । इसलिए सांसारिक वस्तुओं सांसारिक वस्तुओं का आकर्षण मायावी है, माया (मोह) के द्वारा की प्राप्ति जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकती । मिथ्यात्व के प्रभाव से उत्पन्न किया गया होता है। इसका प्रमाण यह है कि वह अस्थायी ही वे जीवन का लक्ष्य प्रतीत होती हैं। होता है । शुरु में वे आकर्षक दिखाई देती हैं, लेकिन कुछ ही हम जीवन का लक्ष्य तो वही वस्तु हो सकती है, जो जीवन के समय बाद उनका आकर्षण समाप्त हो जाता है । जो वस्तु पहले दुःखों का शाश्वत उपचार हो, जिससे परमसंतोष की उपलब्धि हो, रसमय प्रतीत होती है बाद में वह रसहीन हो जाती है। किसी भी जिससे जीवनयापन का स्तर नहीं, स्वयं जीवन का स्तर ऊँचा उठे, वस्तु का आकर्षण, किसी भी वस्तु की सुखमयता अन्त तक नहीं जिससे मनुष्य अपनी क्षुद्र सांसारिक अवस्था से मुक्ति पाकर टिकती । यौवन और सौन्दर्य अच्छे लगते हैं, लेकिन वे चार दिन सर्वोच्च परमात्म अवस्था में प्रतिष्ठित हो जाय । वह वस्तु लौकिक के ही मेहमान होते हैं । दुनिया की कितनी चीजें हम प्राप्त करते नहीं हो सकती, क्योंकि जैसा पूर्व में कहा गया है, लौकिक वस्तुओं हैं ! किन्तु प्राप्त होने के बाद उनका आकर्षण खत्म हो जाता है। से दुःखों का शाश्वत उपचार नहीं होता, न ही व्यक्ति का गुणात्मक और नई चीजों में आकर्षण दिखाई देने लगता है । और जब वे उन्नयन होता है । यह किसी अलौकिक वस्तु से ही संभव है। वह नई चीजें प्राप्त हो जाती हैं तब उनका भी यही प्रश्न होता है। ती... अलौकिक वस्तु एक ही है - स्वयं का सर्वोच्च स्वरूप । वह स्वयं में हर वस्तु की आकर्षणक्षमता सामयिक ही होती है, शाश्वत आनन्दमय है और शाश्वत है । अतः उसकी उपलब्धि से हम नहीं । जो चीजें युवावस्था में आकर्षक लगती हैं, वे वृद्धावस्था में शाश्वत रूप से आनंद में प्रतिष्ठित हो जाते हैं । स्वयं के सर्वोच्च आकर्षण खो देती हैं । जिन वस्तुओं में वृद्धावस्था में आकर्षण स्वरूप की प्राप्ति का अर्थ है शरीर से सदा के लिए छुटकारा । प्रतीत होता है वे युवावस्था में आकर्षणहीन होती हैं । धन भी सदा शरीर सम्बन्ध ही दुःखों का कारण है । अतः उससे सदा के लिए आकर्षक नहीं रहता, कभी कोई अन्य वस्तु उससे भी अधिक छुटकारा मिल जाने पर दुःखों का शाश्वत उपचार हो जाता है। आकर्षक हो जाती है। जो व्यक्ति भयंकर व्याधि से पीड़ित होता जब स्वयं की सर्वोच्च अवस्था जीवन का लक्ष्य होती है, है उसके लिए व्याधि से छुटकारा ही दुनिया की सर्वाधिक स्पृहणीय तब दैनिक जीवन की क्रियाएँ भी धर्म बन जाती हैं। आज मनुष्य वस्तु होती है । अन्धे के लिए नेत्र ही संसार की सर्वाधिक को कर्मकाण्ड में लगाने की बजाय उसके जीवनलक्ष्य को बदलने आकर्षक चीज है । जिस व्यक्ति को जीवन भर धन प्रिय रहा है की, उसे सम्यक् बनाने की जरूरत है, ताकि मनुष्य का साँस लेना उसे बुढ़ापे में शायद यौवन ही सबसे ज्यादा प्रिय प्रतीत होता होगा भी धर्म बन जाय, उसका चलना-फिरना, उठना-बैठना, सोचना और मरते हुए आदमी को संभवतः जीवन से अधिक प्रिय और विचारना, हंसना-रोना, जीविकोपार्जन करना इत्यादि सम्पूर्ण कोई चीज न होगी । अर्थात् दुनिया में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जीवनपद्धति ही कर्मकाण्ड का रूप धारण कर ले । विडम्बना यह जो ऐकान्तिक और आत्यन्तिक रूप से आकर्षक और सुख देनेवाली है कि अधिकांश लोगों के जीवन में थोथा कर्मकाण्ड तो जोरशोर हो । यही कारण है कि दुनिया से कोई भी आदमी सन्तुष्ट नहीं से आ जाता है, लेकिन जीवनपद्धति धर्म से अनुप्राणित नहीं हो रहता । हर आदमी को दुनिया से शिकायत रहती है। इससे सिद्ध पाती, जिससे धर्म के ढोल पीटते रहते हैं, लेकिन धर्म का परिणाम है कि सांसारिक वस्तुओं का आकर्षण मायावी है। परिलक्षित नहीं होता। इसके अलावा सांसारिक वस्तुओं की केवल जीवनयापनगत उपयोगिता है । उनसे जीवन के दुःखों का शाश्वत उपचार नहीं जन mamm डॉ. श्री रतनचंद्र जैन जैन दर्शन तथा संस्कृत का विशेष अध्ययन । 'जैन दर्शन के निश्चय एवं व्यवहार नयों का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर शोध प्रबंध। सम्प्रति - रीडर (संस्कृत और प्राकृत) विश्वविद्यालय, भोपाल. संपर्क : ई,७/१५, चार ईमली, भोपाल-४६२०१६. muTMLM wak श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६७) कहना सो कह दीजिये, अपने दिल को खोल। जयन्तसेन मलीन मन, मिलना मात्र मखोल || www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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