SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मोक्ष' विवेचन (साध्वीश्री पुण्यदर्शनाश्रीजी महाराज) सम्पूर्ण ऐहिक एवं पारलौकिक मुक्ति के लिये श्री वीतराग सर्वज्ञ मोक्ष इच्छाओं की पूर्ण समाप्ति तीर्थंकर प्रभुने अपने अन्तिम पुरुषार्थ अर्थात् संपूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति है। जब हम इच्छाओं का त्याग करते का जो मार्ग बतलाया है उसे हमें जानना एवं उस पर आचरण कर हैं तब मोहनीय कर्म उग्र हो जाता है अपने जीवन को धन्य बनाना है। इन्द्रियाँ आत्मा को बाँधने का प्रयत्न मोक्षपथ का ज्ञान, उसे जीवन में अंगीकार करना और उसी का करती हैं अत: मोहनीय वस्तुओं का ध्यान करना सम्याज्ञान सम्यग्दर्शन एवं सम्यग् चारित्र कहा जाता है। त्याग ज्ञानपूर्वक करना मोक्ष मार्ग है। सत् ज्ञान सत् मान एवं सत्कार ही मोक्ष-मार्ग है। महान् आचार्य श्री “मुत्ताणं मोअगाणं" उमास्वाती के मोक्ष-शास्त्र का यही मंगल है। “सम्यग् दर्शन - देवेन्द्र का कहना है प्रभु मुक्त है ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गाणि" मोचक हैं, अत: मुक्ति दे सकते हैं। “ज्ञान - क्रियाभ्यां मोक्षः" साध्वीश्री पुण्यदर्शनाश्रीजी स्वतंत्र व्यक्ति ही स्वतंत्रता दे सकता हमें चिंतन करना है कि मोक्ष के विषय में क्या जानें, क्या माने? है। जो स्वयं वासनाओं के बंधन में जकड़ा है उससे दूसरे बंधन को क्या आचरण करें ! जिसमें हमारा साध्य सिद्ध हो जावे। निर्ग्रन्थ के छुड़ाने की इच्छा करें तो अरण्य में रोदन के समान है। प्रवचन ही आदरणीय हैं निम्रन्थ के प्रवचन ही ध्येय हैं। निर्ग्रन्थ के वस्त्रों की मलिनता साबुन पानी से दूर होती है उसी प्रकार चित्त प्रवचन ही ज्ञेय हैं। उन्हीं को जानें, मानें तथा उन्हीं पर जीवन को की मलिनता वीतराग पुरुषोत्तम के वचनों का ज्ञान, श्रद्धा और क्रिया आचरित करें। वचन बोलना मात्र है किन्तु प्रवचन प्रकृष्ट वचन है। से उपयोग करना मोक्ष प्रक्रिया है। हजारों पुस्तकों का ज्ञान वैसे ही मोक्ष-मार्ग में उत्कृष्ट वचनों का ही उपयोग है एवं ऐसे वचन निरर्थक है। जैसे पानी साबुन शब्द बोलने से उसकी क्रिया नहीं हो निर्मंथ के ही हो सकते हैं। जिनके मन में मनसा, वाचा एवं कर्मणा सकती वैसे ही जीवन में उसका आचरण नहीं करने पर ज्ञान भी राग द्वेष की ग्रंथियां हैं उनके वचनों का मोक्ष-पथ में कोई महत्त्व नहीं। निरर्थक हो जाता है। श्रद्धा से आचरण ही चित्त शुद्धि की प्रक्रिया गुणदोषों का ज्ञान करने के लिए वीतरागी हृदय होना आवश्यक है। है। निर्ग्रन्थ के प्रवचन चाहिये। और निष्पक्ष पुरुषोत्तम की आत्मासे मोक्ष क्या है? संसार की वासनाओं, इच्छाओं, धारणाओं से ही सत्य प्रकाश प्रकाशित हो सकता है। सुखेच्छा से मुक्त होना। वैसे आत्मा का स्वरूप शुद्ध, बुद्ध एवं मुक्त ज्ञाने मोक्षः । ज्ञानात् ऋते न मोक्षः । है किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से हम अपनी मिथ्यात्वमयी धारणा से जो आशाओं के दास हैं वे संसार को जीत नहीं सकते जिनकी अनादिकाल से बंधे हैं । उस मिथ्यात्वमयी धारणा से छूटना ही सम्यग् आशा दासी है वही जगत को जीत सकता है। ज्ञान के अभाव में हम दर्शन है। जो मोक्षपथ का प्रथम सोपान है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, आशाओं के दास बन जाते हैं। माया, लोभ और काम के त्याग का अभ्यास प्रारंभ करना इसका दूसरा ज्ञान को एकत्रित करके हम आशाओं के जाल से मुक्ति पा सोपान है। परिग्रह, त्याग तीसरा सोपान है। अज्ञान-मिथ्यात्व का सकते हैं । इच्छा को समझने तथा समझाने से आत्म-कल्याण का मार्ग त्याग चतुर्थ सोपान है। मोह त्याग मोक्ष का पंचम सोपान है। सरल बन जाता है। जब हमें संपूर्ण अनुभव होगा कि कर्म की श्रृंखलाओं के साथ पांच इंद्रियों के विषय एवं कषायों का साम्राज्य इच्छा पर शासन जड़ तत्वों का जाल भी कट गया है। तब मन-वचन तथा काया की करता है । दूध में विष विषमता उत्पन्न करता है। उसी प्रकार संसार सारी प्रवृत्तियां आचरित शुद्धता के प्रकाश का आलोक करेगी। एक में विषय वासना चारित्र के शुद्ध दूध को विषमय बना देती है। हम असीम शान्ति की अनुभूति हृदय में होगी। जब यह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तो संसार के प्रति विरक्ति हो जाती है हमारे मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय एवं योग रूप पांच आश्रवों विषय-वासना में डूबने से अनंतकाल समाप्त हो जाता है। का परित्याग स्वत: ही हो जायेगा। यही मोक्ष का प्रभा मंडल है। इसके विपरीत जब ज्ञान दशा जाग्रत हो जाती है तो संसार आत्मा शुद्ध प्रकाश में ज्योतिरूप होती हुई मोक्ष सुख की ओर प्रवृत्त सागर को पार करने का उपाय मिल जाता है। अत: अन्तर में यह होगी। ज्ञान सतत कहो, “तू तारामां डूबीश, तो तने तृप्ति थशे, तो ज तू संसार सेयंबरोय आसंबरोय, बुद्धोअ अहव अन्तोवा । ने तरी शकीश" म समभाव भावि अप्पा, लहेइ मुक्खं न संदेहो । अनुभव कहता है एक इच्छा समाप्त होती है तो हजार इच्छाओं श्वेताम्बर, दिगम्बर या बुद्ध हो कोई भी हो जिसकी आत्मा को उत्पन्न करती है। जब तक संसार है इच्छाओं को विराम नहीं है समभाव में भावित हो उसे मोक्षप्राप्ति में कोई संदेह नहीं। अत: मनमें संसार को नष्ट करो। अत: धर्म क्रियानुष्ठान इष्ट वस्तु की आशा बिना मोक्ष प्रगति प्राप्ति हेतु आगे बढ़े। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना धर्म बड़ा संसार में, दया क्षमा अरु दान । जयन्तसेन यही धरो, स्वपर होत कल्याण ॥ www.jainelibrary.org. Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy