SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अच्छी-बुरी या शुभाशुभ है । शब्द तरंगों को पकड़ने की क्षमता इसकी जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है वह पराश्रित, बाधा सहित, जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट एक योजन से १२ बंध का कारण और विषम होने के कारण वास्तविक सुख नहीं, योजन पर्यन्त रही है। शब्दावली कभी शभ रूप में तो कभी अशुभ दुःखरूप है। रूप में परिवर्तित होती है। तत्पश्चात राग और द्वेष की परिणतियों में इन्द्रिय रूपी चपल घोड़े नित्य दुर्गति मार्ग पर दौड़ते हैं । जिस परिणत होकर १२ विकारी भेदों में फैल जाती हैं। कहा भी है - तरह काठ में जन्म लेने वाले घूण जंतु काठ को भीतर ही भीतर शब्दों में मूर्छित हुआ प्राणी, मनोहर शब्द वाले पदार्थों की कमजार कर देते है। उसी प्रकार मनुष्यों के चरित्र को इन्द्रियाँ भीतर प्राप्ति, रक्षण एवं व्यय में तथा वियोग की चिंता में लगा रहता है, वह ही भीतर असार कर देती है। संभोग काल में भी अतृप्त ही रहती है। फिर उसे सुख कहाँ है? ज्ञान-ध्यान और तपोबल से इन्द्रिय-विषयों-कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिये। जैसा कि लगाम के द्वारा घोड़ो को बलपूर्वक रोका 'जे गुणे से आवट्टे जो आवट्टे से गुणे' (आचारांगसूत्र) जाता है। वश किया हआ बलिष्ट घोड़ा जिस प्रकार बहुत लाभदायक अर्थात-शब्द-रूप-रस-गंध और स्पर्श, उक्त पांचों इंन्द्रियों के मौलिक होता है उसी प्रकार धैर्य रूपी लगाम द्वारा वश की हुई स्वयं की गुण हैं । संसार का भयंकर भ्रमण शील यह जाल है। जिसके प्रभाव से पामर प्राणी भवोदधि में जन्म-मरण किया करते हैं। पांचों इन्द्रियां इन्द्रियाँ तेरे लिये लाभदायक होगी। अतएव इन्द्रियों का निग्रह होना चाहिये। और मन, दोनों शब्दादि गुणों से प्रभावित होते रहते हैं और इसीसे उत्तेजना और तमोगुण की वृद्धि होती है । इन्द्रिय जन्य विषयों में एक उसी का इन्द्रिय निग्रह प्रशस्त होता है, जिसका मन ऐसा लुभावना मोहाभिभूत करने वाला आकर्षण रहा हुआ है कि शब्द-रूप-गंध-रस और स्पर्श में न तो अनुरक्त होता है और न द्वेष देहधारी भ्रमित हुए बिना नहीं रहता। इन्द्रियों और शब्दादि विषयों करता हैं। का एक ऐसा सम्बन्ध है जहां इन्द्रियों की सत्ता का सद्भाव है। वहाँ स इन्द्रिय सम्बन्धी इस निबन्ध का अध्ययन करके प्रबुद्धआत्माओं शब्द रूप-गंध-रस-स्पर्श इत्यादि गुण रहेंगे। दोनों के बीच देहधारी को अनासक्त भाव का आलंबन लेना चाहिये। अनासक्त भाव, भवजंतु के शिकार होते रहे हैं। यथार्थ जानकारी के अभाव में जीवात्माओं को जितेन्द्रिय बनाने वाला राजमार्ग, धर्म मार्ग है और मुर्ख-अज्ञानी आत्माएँ इन्द्रिय जन्य सुखों को ही असली सख मानती मोक्ष-प्राप्ति में पूर्ण सहयोगी भी। रही हैं - जैसा कि कहा भी है मधुकर मौक्तिका स्वार्थ अधम प्रकृति है। स्वार्थपना अधम प्रवृत्ति है और आत्मा की अवनति का उपाय है। ऐसा मलिन स्वभाव-ऐसी मलिन प्रवृत्ति भव को नि:शेष समाप्त होने नहीं देती। इसमें कोई शक नहीं है कि जहाँ स्वार्थ है, वहाँ भवस्थिति अपना साम्राज्य मजबूत करके रहती जागृति के दिनमणि का प्रकाश फैलते ही आधि, व्याधि और उपाधि की रोगत्रयी पलायन कर जाने में ही अपना भला मानती है और फिर जीव को परम अर्थ की अनुभूति होने लगती है। यह अनुभूति उसे स्वभाव के शिखर पर बिठा देती है। तो ऐसी है स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ की पगडंडी। प्रार्थना प्रार्थनीय से की जाती है। जो प्रार्थनीय है, उसका विश्लेषण भी आवश्यक है। सेवक-स्वामित्व के भाव को समझ कर हृदय में उसे मूर्तरूप प्रदान करना भी वांछनीय है। कूड़ा-करकट दूर किये बिना रंग कर्म टिक नहीं सकता। वस्तु में जो तेज आना चाहिये-वह आ नहीं सकता। इसलिए साफ सफाई करके धरातल को समतल बना लेना अत्यन्त आवश्यक है। प्रार्थना तो जन्म जन्म से करते आये हैं, फिर भी वह आज तक प्रबल न हो सकी। कारण इतना ही है कि हमने भाव-स्वभाव को ध्यान में लेकर नहीं की, अपितु भव की तरफ ध्यान में रख कर की। **** 'वीतराग ! जगत में परमोत्तम ! पुरुषोत्तम देव ! आपकी जय हो। इसीलिए कि आप जेता हैं, विजेता हैं, त्राता हैं और संसार के प्राणी मात्र को विजेता बनने का प्रबल सामर्थ्य प्रदान करनेवाले हैं। श्रीमद जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना देश काल का जगत में, नहीं जिसे सद् नाण । जयन्तसेन मिले नहीं, उस को उत्तम ठाण ॥ www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy