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देखने में नहीं आता है। मौलिक तत्त्वों के बारे में उन्होंने सूत्र दिया इस प्रकार व्यावहारिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक आधारों से यह - उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवइ वा - तत्त्व उत्पत्ति, विनाश और स्पष्ट हो जाता है कि विश्व की संरचना विविध विरोधों का समन्वित धौव्य युक्त है। पदार्थ रूप से रूपांतरित होते हुए भी अपने अस्तित्व, रूप है और वे सब उसके धर्म हैं, स्वभाव हैं। उनके अतिरिक्त विश्व स्थायित्व से विहीन नहीं हो जाता है। हमारे जीवन और लोकव्यवहार का अन्य कोई रूप नहीं है। ये विरोध प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं, किंतु परस्पर का ताना-बाना भी इन त्रिपदों से गूंथा हुआ है। म
सापेक्ष हैं। उनका आधार एक है और वे आधार के प्रति एकनिष्ठ लोकव्यवहार में एक व्यक्ति के साथ अनेक संबंधों का जुड़ना हैं। इस तथ्य को स्वीकार करने पर वैचारिक संघर्ष और विवाद के काल्पनिक नहीं है। जैन साहित्य में कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता का लिए अवकाश ही नहीं रह जाता है। आख्यान प्रसिद्ध है, जन्मतः भाई-बहन थे लेकिन भाग्य दुर्भाग्य से लोकजीवन में स्यादवाद का योगदान अठारह संबंध, नाते वाले बन गए। वे सभी संबंध अपेक्षादृष्टि से लोकजीवन में अनेकान्तवाद-स्याद्वाद का क्या योगदान हो घटित हुए। जब इन प्रतीतिसिद्ध नातों का अपलाप नहीं किया जा सकता है? मोटे तौर पर योगदान के रूप होंगे - - सकता, तब अनन्तधर्मात्मक वस्तु में विद्यमान धर्मों के कथन के लिए (2) विवाद पराडमखता स्याद्वाद - अनेकान्तवाद का विरोध कैसे सम्भव है? अपनी एकान्तिक दृष्टि से हम कुछ भी मान लें, लेकिन सत्य को समझने के लिए (३) वैचारिक समन्वय और सह-अस्तित्व की स्थापना। वस्तु में अनन्त धर्मों की स्थिति को मानकर चलना ही पड़ेगा -
लोक विभिन्न रुचि वाला है। जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में इसके यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम्। (प्रमाणवार्तिक २/२९०) दर्शन होते हैं। एक परिवार के ही सदस्यों में देखें तो सभी में रुचि
आंशिक सत्य को ही जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है, तब वैभिन्य दिखाई देता है। खानपान से लेकर आध्यात्मिक दृष्टिकोण तक संघर्ष पैदा होना अवश्यम्भावी है। सत्य न केवल उतना है, जितना किसी भी बात में पूर्ण रूप से एकरूपता नहीं है। सभी को अपने हम जानते हैं अपितु वह तो अपनी पूर्ण व्यापकता लिए हुए है। वैयक्तिक विचार पहलू पर आसक्ति है लेकिन उन पहलुओं में भिन्नता इसीलिए मनीषी चिन्तकों को कहना पड़ा कि उसे तर्क, विचार, बुद्धि होने पर भी वे विवाद का कारण नहीं बनते हैं। क्योंकि वे सभी
और वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है। (नैषातर्केण मतिरापनेया। सदस्य मिल-जुलकर रहना चाहते हैं और अपनी विचार-विभिन्नता को - कठोपनिषद्) (नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन एक उच्च सीमा में आबद्ध रखते हैं जिससे उनकी पारिवारिक अस्मिता - मुण्डकोपनिषद्) सव्वे सरा निपत्तंते तक्का तत्थ न विज्जइ) - प्रभावित नहीं होती। आचारांगसूत्र) मानव बुद्धि सत्य को जानने में समर्थ अवश्य है, किन्तु परिवार में तो हम विवाद पराङ्मुखता के लिए वैचारिक दृष्टि पूर्णता प्राप्त किये बिना उसे पूर्ण रूप से नहीं जान सकती है। स्थिति को संयमित रखते हैं, लेकिन धार्मिक क्षेत्र में उसे स्वच्छन्द विहार के में जब तक हम अपूर्ण हैं, हमारा ज्ञान अपूर्ण है, तब तक अपूर्ण लिए छोड़ देते हैं। फलस्वरूप विभिन्न सम्प्रदाय बनते हैं। जैन धर्म ज्ञान से प्राप्त उपलब्धि को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। उसे आंशिक स्याद्वाद का मुखर प्रवक्ता होकर भी उसके अनुयायी कई संप्रदायों सत्य कहा जाएगा और सत्य का आंशिक ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त में विभाजित हुए। इन संप्रदायों ने धर्म को विवाद का केन्द्रबिंदु बना ज्ञान का निषेध नहीं कर सकेगा। इसलिए यह दावा करना मिथ्या दिया। इस विवाद को दूर करने का एक ही उपाय है कि आग्रह से होगा कि मेरी दृष्टि ही सत्य है, मेरे पास ही सत्य है।
एक कदम नीचे आ जायें। जब एकांगिक दृष्टिकोण, विवाद और ऐसी स्थिति में संघर्ष को समाधान व समन्वय में परिणत करने आग्रह नहीं होगा तभी भित्रता में समन्वय के सूत्र परिलक्षित हो सकते का एक ही मार्ग है कि सत्य को खण्ड-खण्ड न करके अखण्ड रहने हैं। दें और वस्तुगत अनंत धर्मों को जानने के लिए अपनी क्षमता के स्याद्वाद ने यही काम किया है। उसने आग्रह को एक कदम अनुसार विभेद भी कर लें लेकिन उनका विभाजन न कर दें, जिससे नीचे ला दिया। उसने विभिन्न संप्रदायों की समाप्ति का प्रयास नहीं वस्तु का यथार्थ स्वरूप बना रहे। तब दो भिन्न दृष्टियों के पारस्परिक किया किंतु समन्वय के सूत्र में बांधकर सुंदर बना दिया। साधना विरोधी तथ्य भी एक साथ सत्य हो जाएंगे। वे तथ्य सत्य के प्ररूपक पद्धतियों में यह अच्छी है या यह बुरी का निर्णय न देकर वैयक्तिक
रुचि, क्षमता, देशकाल की विभिन्नता को ध्यान में रखकर यही कहा ___आधुनिक विज्ञान ने भी अपने अनुसंधान से ही सिद्ध किया है कि - कि वस्तु अनेकांतात्मक है। प्रत्येक वैज्ञानिक सत्य का शोधक है। पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । इसीलिए यह दावा नहीं करता है कि मैंने सृष्टि के रहस्य का और युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः॥ वस्तु तत्व का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। वैज्ञानिक सापेक्षवाद का
(षड्दर्शन समुच्चय टीका) सिद्धान्त यही तो कहता है कि हम केवल सापेक्षित सत्यों को जान मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों सकते हैं, निरपेक्ष सत्य तो पूर्ण दृष्टागम्य है। अत: दूसरों के ज्ञात के प्रति द्वेष लेकिन यह आकांक्षा है कि जो भी वचन युक्ति-युक्त हो सत्यों को असत्य नहीं कहा जा सकता है और सापेक्षित सत्य अपेक्षाभेद उसे ग्रहण करूँ। स्याद्वाद के उक्त सूत्र का प्रयोग जीवन के प्रत्येक से सत्य हो सकते हैं। स्याद्वाद की भी यही दृष्टि है।
क्षेत्र में किया जा सकता है।
होंगे।
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना
अंजलि जल ज्यों जा रहा, क्षण क्षण जीवन काल । जयन्तसेन सुपथ चलो, पग पग पर सम्भाल ॥
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