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तं आप्पणा न गिण्हति, नो वि गिण्हावए परं ।।
देवदाणवगंधव्वा जक्खरक्खसकिन्नरा। अन्नं वा गिण्हमाणंवि, नाणुजाणंति संजया । (दश. सूत्र) वभयारि नमसंति, दुक्करं जे करेतिति ।। (उत्त. सू.)
अर्थात् कोई भी वस्तु चाहे सजीव हो अथवा निर्जीव, कम हो म अत्यन्त दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत की साधना करने वाले, ब्रह्मचारी या ज्यादा, यहाँ तक ही दांत कुतरने की सलाई की भांति भी छोटी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि सभी देवी देवता, से छोटी वस्तु क्यों न हो, उसे बिना उसके मालिक से पूछे नहीं नमन करते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में भी इस ब्रह्मचर्य व्रत की छूना चाहिए। यही नहीं बस कोई वस्तु न दूसरों से उठवायें, और वरीयता को बखानते हुए, मानवता के कल्याण हेतु इसे अपनाने न उठाने की प्रेरणा दे । इस प्रकार किसीभी व्यक्ति को किसी का की आवश्यकता पर बल दिया गया हैं।" कोई सामान नहीं लेना चाहिए।
तथ्यतः भगवान महावीर के उपदेशों और आदर्शों को पूर्णतः - अपरिग्रह की उत्तमता को आंकते हुए संग्रह की प्रवृत्ति को अपनाने और विश्वस्तर पर प्रचलित-प्रसारित करने की आज स्वयं के लिए व समाज के लिए घातक बताया गया है भगवान नितांत आवश्यकता है | मानवता का मंगल भगवान महावीर के महावीर ने अपरिग्रह के आदर्श को अपनाने का आव्हान करते हुए उपदेशों पर चलने से ही संभव है। कहा कि:जे पापकम्मेहि घणं मणूसा,
| मधुकर-मौक्तिक समाययत्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपयहिए नरे,
वस्तु का बन्धन ही संसार का बन्धन है, इसलिए वस्तु का
बन्धन छूटा तो संसार का बन्धन भी छूटा। संसार का बन्धन वेराणुवद्धा णरयं उवेत्ति । (उत्त.)
छूटा यानी हमने मुक्ति की और अपना कदम बढ़ाया। यदि हम जो मनुष्य धन को अमृत मानकर, अनेकविध पापकर्मों द्वारा सिद्ध-परमात्मा के विषय में कुछ सोचें तो हमें विदित होगा कि वे धनोपार्जन करता है वह कर्मों के दृढ़ पाश में बंध जाता है और सिद्ध हैं, हम असिद्ध हैं, वे छूट चुके हैं, हम बन्धन में हैं । हम अनेक जीवों के साथ बैरानुबन्ध कर अन्त में सारा धन ऐश्वर्य यहीं राग के बन्धन में बंधे हुए है, वे राग का बन्धन तोड़कर ऊपर पर छोड़ना पड़ता है अतः स्पष्ट होता है कि संग्रहकी प्रवृत्ति दुःखद
चले गये हैं।
भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य की वरीयता को बखानते हुए इसे स्वयं अपने जीवन में उतार कर समाज को अपनाने का आव्हान किया । ब्रह्मचर्य की महत्ता के मान में उन्होंने कहा कि - "बमचेर उत्तमतव-नियम-नाण-दंसण-चरियसम्मत विणयमूलं"
अर्थात् ब्रह्मचर्य, उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम और विनय का मूल है | ब्रह्मचर्य की इतनी महिमा है कि -
जैन शासन में व्यक्ति की बाय-शुद्धि का इतना महत्त्व नहीं है, जितना अंतरंग-शुद्धि का । यदि अंतरंग अशुद्ध है, तो केवल बहिरंग-शुद्धि से कोई लाभ नहीं | लक्ष्य अंतरंग-शुद्धि का होना चाहिये । अंतरंग-शुद्धि का लक्ष्य बना कर बहिरंग शुद्धि की
ओर ध्यान देना चाहिये । यदि ऐसा होगा तो जीवन अवश्य ही महान् बन जाएगा।
ज्ञानी कहते हैं कि यह जीव ज्ञाता-दृष्टा है । इसके ज्ञान और दर्शन पर आवरण छाया हुआ है। यदि यह आवरण हट जाए, तो जीव का मूल रूप प्रकट हो सकता है। यदि हम केवल देखें और जानें, तो हम भी ज्ञाता और द्रष्टा बन सकते हैं: पर हम देखने और जानने के अलावा इष्ट वस्तु के प्रति राग और अनिष्ट के प्रति द्वेष करने लगते हैं। ऐसा मोह और अज्ञान के कारण होता है; इसलिए हमारा जानना और देखना सही नहीं है, अतः आवश्यक है कि हम अपने को सुदृष्टा बनायें।
-जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर'
भारत तथा मारिशस की प्रमुख पत्रपत्रिकाओं में लगभग तीन हजार लेख, निबंध आदि प्रकाशित । विविध विधाओं पर बीस पुस्तकों का प्रकाशन, दस प्रकाशनाधीन । अ.भा.प्राच्यविद्या परिषद के विगत अधिवेशनों में संबंधित विश्वविद्यालयों से शोधपत्र प्रकाशित | शोध-प्रबंध 'भगवान महावीर' के चतुर्थ
संस्करण का हिंदी में प्रकाशन | डॉ. शोभनाथ पाठक
सम्प्रति - म.प्र. शासन के एम.ए., (संस्कृत हिंदी), हरिजन, आदिम, पिछडा वर्ग,
पी.एच.डी., साहित्यरल कल्याण विभाग के सांस्कृतिक साहित्यिक प्रतिष्ठान वन्या प्रकाशन भोपाल में पदस्थ । निवास पता : ४६, फतेहगढ़ भोपाल.
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श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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पवन वेग से जा रहा, पल पल जीवन जान । जयन्तसेन विज्ञ बनो, समझो काल वितान ||
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