SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 'नास्तिको वेदनिन्दकः' - कितना सार्थक? | - जैन साध्वी श्री चारित्रप्रभाजी महाराज (दर्शनशास्त्री, साहित्यरत्न, जैन सिद्धान्ताचार्य) भारत में कितने दर्शन 'भारतीय' हैं, यह निश्चय करते समय, जो उल्लेख है। ये सारे परिगणन-प्रयास, किसी एक निश्चित संख्या के शब्द सबसे पहिले सामने आता है, वह है - 'षड्दर्शन' । इस शब्द अनुसार नहीं किये गये, न ही इनमें परिगणित दर्शनों के नामों में के अन्तर्गत कौन कौन से दर्शन आ सकते हैं, कौनसे नहीं? इस विषय 'एकरूपता' या 'शब्द साम्य' है। इस स्थिति में 'षड्दर्शन' शब्द का में किसी भी दो दार्शनिक, विद्वानों की सम्मति, एकसी नहीं मालूम अभिप्राय क्या लिया जाये? यह निश्चय कर पाना सहज-सुकर नहीं पड़ती। वस्तुत:, भारतीय दर्शनों की संख्या न तो कभी सुनिश्चित हो है। वस्तुत: यह 'षड्दर्शन' शब्द ही, अपना कोई खास - अभिप्राय सकती है, न ही हो पायेगी। इसलिये, 'षड्दर्शन' शब्द के अन्तर्गत नहीं रखता। क्योंकि, और कोई ऐसा प्रामाणिक सिद्धान्त नहीं है, जो आने वाले दर्शनों का सार्वकालिक निर्धारण सुनिश्चित कर पाना सहज इस छः संख्या के निर्धारण में सहयोगी भूमिका निभा सके। नहीं है; क्योंकि, यह निश्चय करनेवाला विद्वान, जिन छ: दर्शनों के प्रति, भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण मुख्यत: आस्तिक' और 'नास्तिक अनुकूल मनोभाव रखता होगा, उन्हीं का परिगणन, उक्त छ: संख्या के । नाम के दो वर्गों में किया जाता रहा है। कुछ विद्वान 'वैदिक' और बोधक शब्द की अर्थ सीमा में कर लेगा। अथवा जिन दर्शनों के प्रति 'अवैदिक' इन दो विभागों में वर्गीकृत करते हैं। इस वर्गीकरण में उसकी प्रतिकूल मन:स्थिति होगी, उन्हें उक्त संख्या से बाहर रखने में 'वैदिक' शब्द से 'आस्तिक' दर्शनों का और 'अवैदिक' शब्द से ही उसके विद्दत्ता-गर्व की सन्तुष्टि होगी. इसलिए, सर्वप्रथम यह जानना 'नास्तिक' दर्शनों का ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित होगयी है। आवश्यक है कि प्राचीन ग्रंथकारों ने 'षडदर्शन' के अन्तर्गत किन तथापि, यह सुनिश्चित हो जाता है कि भारतीय दर्शन के मूलत: दो दर्शनों का समावेश किया है। विभाग हैं। प्राचीनतम ग्रंथों में शङ्कराचार्य का 'सर्वसिद्धान्त संग्रह' मुख्य उक्त विभागो में से 'नास्तिक' विभाग के अन्तर्गत ही जैन दर्शन' ग्रंथ है । इसमें क्रमश: लोकायत, आर्हत. बौद्ध (चारों सम्प्रदाय), वैशेषिक, का समावेश, प्राय: किया गया है । इस निर्धारण का आधार, मनु आदि न्याय, मीमांसा, सांख्य, पातञ्जल, व्यासवेदान्त को मिलाकर कुल स्मृतिकारों की मान्यता का माना जाता है। इसी मान्यता को अधिकांश दशदर्शनों की चर्चा है। हरिभद्रसूरि के 'षड्दर्शन समुच्चय' में बौद्ध, भारतीय, और पश्चिमी विद्वानों ने भी अपना समर्थन दिया है। किन्तु नैयायिक, कपिल, जैन वैशेषिक और जैमिनी दर्शनों की विवेचना है। इसी सिद्धान्त के आधार पर, अन्य दर्शनों के सैद्धान्तिक - विवेचनों जिनदत्तसूरि के षड्दर्शन समुच्चय में जैन, मीमांसा, बौद्ध, सांख्य, शैव पर जब दृष्टिपात किया जाता है, तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिन दर्शनों और नास्तिक नामसे छ: दर्शनों का परिगणन पूर्वक विवेचन किया को 'आस्तिक' वर्ग में परिगणित किया जाता है, उनकी 'आस्तिकता' गया है। राजशेखरसूरि ने जैन, सांख्य, जैमिनि, योग-(न्याय), वैशेषिक, और जैन दर्शन की 'नास्तिकता' के निर्धारण में, अपनाये गये सिद्धान्त और सौगत, कुल छ: दर्शनों का विवेचन किया है । सुविख्यात टीकाकार की मानक-धारणा, कसौटी पर खरी नहीं उतरती। मल्लिनाथ के पुत्र ने पाणिनि जैमिनि, व्यास, कपिल, अक्षपाद और 'मनुस्मृति' के अनुसार 'नास्तिक' वह है, जो वेदनिन्दक' है। कणाद के दर्शनों का विश्लेषण 'षड्दर्शन' के रूप में किया है। इस सिद्धान्त की सार्थक-अन्विति, जैनदर्शन द्वारा 'वेदों' का 'पौरुषेयत्व' 'हयशीर्षपञ्चरात्र' में और 'गुरुगीता' में भी जिन दर्शनों का उल्लेख मानने के आधार पर करलीगयी। क्योंकि - जैनदर्शन, वेदों की 'षड्दर्शन' के रूप में है, उनके नाम हैं - गौतम, कपिल, पतञ्जलि, व्यास 'अपौरुषेयता' को प्रामाणिक नहीं मानता। बुद्धि का प्रयोग करने पर और जैमिनि। यह सिद्ध भी हो जाता है कि वेद 'अपौरुषेय' नहीं है। इसलिए, इस 'शिवमहिम्नस्तोत्र' में सांख्य योग पाशपत और वैष्णव दर्शनों लेख में, मात्र यही परीक्षण करना है कि 'आस्तिक' वर्ग के अन्तर्गत का; कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सांख्य, योग, लोकायत, दर्शनों का; मान्य दर्शन, वेदनिन्दक' की परिधि में आते हैं, या नहीं। माधवाचार्य के 'सर्वदर्शन संग्रह' में चार्वाक, बौद्ध, आईत, रामानुज, शङ्कराचार्य का कथन है कि 'दार्शनिकों में वस्तुत: बादरायण पूर्णप्रज्ञ (माधव), नकुलीश पाशुपत, शैव, रसेश्वर, औलूक्य, अक्षपाद, और जैमिनि, दो ही दर्शनिक ऐसे हैं, जिन्होंने वेदमंत्ररूपी फलों को, जैमिनि, पाणिनि, सांख्य, पातञ्जल, शाङ्कर आदि का; मधुसूदनसरस्वती अपने सूत्रों के द्वारा गूंथकर, वैदिक आचार्यों की एक सुव्यवस्थित के 'सिद्धान्त बिन्दु' में और 'शिवमहिम्न स्तोत्र' टीका में भी माला, अपने दर्शन के रूप में उपस्थापित की है। शेष दार्शनिक तो न्याय-वैशेषिक, कर्ममीमांसा - शारीरिक मीमांसा, पातञ्जल, पाञ्चरात्र, 'तार्किक' भर हैं। उनका वैदिकदर्शन में प्रवेश नहीं है। इन दोनों पाशुपत, बौद्ध, दिगम्बर, चार्वाक, सांख्य और औपनिषद् दर्शनों का प्रमुख दार्शनिकों के साथ, अन्य आस्तिक दर्शनों के आचार्यों का भी श्रीमद् जयंतसेनासूरि अभिनंदन पंथ/वाचना ७१ अहिंसा सत्य अचौर्य हि, ब्रह्मचर्य सन्तोष । जयन्तसेन धर्म यही, करता जीवन पोष ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy