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________________ सम्यक्त्व की अद्भुत महिमा एवं सम्यक्त्व में स्थिरता (साध्वीश्री विज्ञानलताश्रीजी) -ॐ अर्हन्नम: दूसरा कोई भाई नहीं। सम्यक्त्व के "त्वमेव सच्चं नि:शंकं, जं जिणेहिं पईवेइयम् ।" मम लाभ के समान दूसरा कोई लाभ नहीं। श्री सर्वज्ञ कथित जीवजीवादि नव तत्त्वों तथा शुद्ध देव गुरु कनीनिकेव नेत्रस्य, कुसुमस्येव और धर्म, इन तीन तत्त्वों की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सौरभम् । सम्यक्त्वमुच्यते सारं, सर्वेषां सम्यक्त्व क्या है ? सम्यक्त्व देव गुरु और धर्म के प्रति दृढ़ता धर्मकर्मणाम् ॥२॥ रखना सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व जीवन का अमूल्य रल है। सम्यक्त्व रल से रहित जीवन निरर्थक है। जीवन के लिए दीपक है, सम्यक्त्व, - अध्यात्मसार प्रबंध ४, श्लो. ५ । जो तीनों लोकों में प्रकाशवान् है। सम्यक्त्व दुर्गति से बचानेवाला है, साध्वीश्री विज्ञानलताश्रीजी जैसे आँखों का सार कीकी है सम्यक्त्व के बिना जीव को निश्चय ही सिद्धि नहीं हो सकती। और पुष्पों का सार सुगंधि है, वैसे ही किसी भी शास्त्र में देखिये कोई भी आत्मा सम्यक्त्व प्राप्त किये सर्व धर्म का सार समकित है। बिना सिद्धि को प्राप्त नहीं हुई। सिद्धि को प्राप्त करना है तो जीवन वरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन समायुतः । में सम्यक्त्व को लाना ही पड़ेगा। सम्यक्त्व को लाये बिना कभी भी न तु सम्यक्त्वहीनस्य, निवासो दिवि राजते ॥३॥ सिद्धि नहीं हो सकती। “न भूतो न भविष्यति” सम्यक्त्व बिना जीव को कभी भी कहीं - तत्त्वामृत, श्लो. ४। पर भी सिद्धि न हुई और न ही होगी। जीवन में सम्यक्त्व को धारण समकित सहित नरक में रहना अच्छा है परंतु समकित रहित करना ही श्रेष्ठ जीवन है । सम्यक्त्व को पाये बिना जीवन निस्सार है, होकर स्वर्ग में भी रहना अच्छा नहीं। सम्यक्त्व को धारण कर जीवन में दृढ़ श्रद्धा रखे। कितनेक लोग कोऽप्यन्य एव महिमा ननु शद्धदष्टेर्यच्छेणिको आत्मधर्म पर प्रीतिवाले होते हैं दृढ़तावाले नहीं होते हैं। प्रीति और ह्यविरतोऽपि जिनोऽत्र भावी । दृढ़ता दोनों ही आवश्यक है। मन की मलिनता-पापवृत्ति कम होने से पुण्यार्गल: किमितरोऽपि न सार्वभौमोरूपच्युतोऽप्यधिक धर्म के प्रति श्रद्धा होती है और मन निश्चल-स्थिर होने से धर्म के ऊपर गुणस्त्रिजगत्रतच ॥४॥ दृढ़ता-स्थिरता प्राप्त होती है। सम्यक्त्व को दृढ़ बनाने के लिए ३- कर्पूरप्रकरण, श्लो. ५ । सांसारिक इच्छाओं से दूर करना होगा। तीनों योगों को एकतामय वास्तव में सम्यग्दृष्टि प्राणी की महिमा अजब है किसी अलग बनाकर पवित्र करना होगा। मन की चंचलता को दूर करना होगा। ही प्रकार की है, विरति धर्म को प्राप्त किये बिना जो श्रेणिक महाराजा देवगुरु और धर्म आदि का आलम्बन लेने से मन की स्थिरता इस भरतक्षेत्र में तीर्थंकर होने वाले हैं- क्या सामान्य मनुष्य भी स्वयं प्राप्त होगी। मन की चंचलता दूर होने पर आत्मा का स्वरूप प्रकट पुण्यबल से समस्त पृथ्वी का स्वामी नहीं बनता है? क्या रूप के होगा और आत्म निश्चय में स्थिरता होगी। जब अपने भीतर स्थिरता बिना भी अत्यन्त गुणवान मनुष्य तीनों जगत् में नहीं पूजा जाता है। प्राप्त होगी तब दूसरों को भी सम्यक्त्व में विशुद्ध बनाने की दृढ़ श्रद्धा अर्थात् इस जग में गुण की पूजा होती है, रूप, धन, यश, तन की की ज्योति जगेगी। कदापि नहीं। सम्यक्त्वरलान्न परं हि रलं, (१) सम्यग्दर्शन का अचिन्त्य प्रभाव है, अनादिकालीन आत्मा की सम्यक्त्वमित्रान्न परं हि मित्रम् । TS मलिनवृत्ति में सहसा परिवर्तन आता है । वृत्ति सहसा निर्मल सम्यक्त्वबंधोन परो हि बंधुः, बनती है- जैसे कतकवृक्ष के फल के चूर्ण से मलिन पानी सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभ: ॥१॥ स्वच्छ बन जाता है- वैसे ही सम्यग्दर्शन के संग से आत्मा -सूक्तमुक्तावलि, अधिकार ५५ श्लोक ८ । मलिन वृत्ति से स्वच्छ बन जाता है। समकितरूपी रत्न से कोई श्रेष्ठ रल नहीं, और सम्यक्त्वरूपी (२) “भवे तन मोक्षे मन" मित्र से बढ़कर कोई उत्तम मित्र नहीं। समकितरूपी भाई से बढ़कर सम्यग्दर्शन का शरीर संसार में, मन मोक्ष में होता है। श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना तिरे नहीं बिन धर्म के कागज की यह नाव । जयन्तसेन विभ्रम मति, कैसे करे बचाव ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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