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(३) करोड़ों रुपये का दान दो, जीवन भर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन (३) दीक्षा संयम मार्ग लेने से क्या फायदा? ऐसे वचन बोलने
करो, लाखों पूर्व का तप करो, करोड़ोंबार नवकारमंत्र का जाप से। करो, साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान पढ़ो, दीक्षा स्वीकार करो, उपविहार
जिन मंदिर जिनमूर्ति का विरोध करने से। करो, वीर आतापना लें, परिषह सहें तो भी एक सम्यग्दर्शन
५) त्यागी, वैरागी, पंच महाव्रतधारी साधुओं का अपमान, अवज्ञा, बिना मन का परिभ्रमण रुकता नहीं। जब सम्यग्दर्शनवासी
निन्दा आदि करने से। महाराजा का पदार्पण हृदयमंदिर में होता है, तब ही भव का परिभ्रमण सहसा मर्यादित बनता है, एवं सहसा संसारचक्र का
देव, द्रव्य एवं गुरुद्रव्य का भक्षण करने से। जोर रूकता है।
(७) उन्मार्ग का उपदेश देने से, एवं सन्मार्ग को रोकने से। सम्यग्दर्शनी आत्मा त्यागी वैरागी तत्त्वज्ञानी गुरुओं के चरणों
जिनवचन ऊपर अश्रद्धा एवं जिनागमों के असत्य कहने से। की सेवा करता है एवं साथ ही श्रद्धा और आचारभ्रष्ट कुगुरुओं (९) जिनागमों के विरुद्ध लिखने से, बोलने से या सन्मति देने से को त्याग करता है।
एवं जिनपूजा का निषेध करने से, मिथ्या देव-देवियों की मान्यता सम्यग्दर्शनी आत्मा संसार को कैदखाना मानकर दु:खी हृदय
पूजा-वगैरह करने से। से संसार में रहता है, दीन दुःखियों को देखकर करुणा से इन (१०) नि:संकोच अत्यंत कषाय करने से। का हृदय आर्द्र होता है, (पिघलता है)।
(११) नि:संकोच अत्यंत विषयासक्ति रखने से। (६) सम्यग्दर्शन में मोक्ष देने की ताकत है, दूसरे गुणों में कदापि (१२) मिथ्यात्विओं के बहुत सहवास से। नहीं।
भार
(१३) मिथ्या पर्यों को मानने उसकी आराधना करने से। सम्यग्दर्शन के बिना साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान भी अज्ञान कहलाता
(१४) मोक्ष का इन्कार करने से। है, चारित्र भी द्रव्य चारित्र कहलाता है, उग्र तप एवं दीर्घकालीन
(१५) व्रत नियम क्रिया को न मानने से। तप भी कायकष्ट कहलाता है। (८) सम्यग्दर्शन बिना क्रियाएँ बेचारी वन्ध्या स्त्री के समान है,
(१६) जिनागमों, जिनमूर्ति, जिनमंदिर की जान बूझकर आशातना
करने से। मोक्षरूपी पुत्र को जन्म नहीं दे सकती।
(१७) साधु संस्था का नाश करने से व नीचे गिराने के प्रयत्ल करने जैसे हाथी को एक अंकुश की जरूरत होती है। घोड़े को लगाम की, चालक को (ड्रायवर को) ब्रेक की ठीक इसी तरह
इस प्रकार सम्यग्दर्शन पाने से लाभ और नहीं पाने से भव आत्मा को संसार के परिभ्रमण को अंकुश में लाने के लिए
भ्रमण बढ़ता है। ऐसा जानकर सम्यक्दर्शन पाने के बाद अपने सम्यग्दर्शन की आवश्यकता है।
सम्यक्त्व में दृढ़ रहनेवाली नाग सारथि की पत्नी सुलसा श्राविका (१०) सम्यग्दर्शन की उपस्थिति में जीवात्मा आयुष्य का बन्ध करे
स्त्री होते हुए भी प्रभु महावीर के मुख से प्रशंसा को प्राप्त हुई। सुलसा तो अवश्य वैमानिक देवलोक का ही बन्ध करता है। चाहे
श्राविका धर्मप्रिय और दृढ़धर्मी थी। स्वयं आत्ममार्ग में बहुत ही दृढ़ फिर एक व्रत भी क्यों न हो, सम्यग्दर्शन सहित चारित्र प्राप्त थी. और उसने अंबड परिव्राजक को भी प्रभु के मार्ग में आत्ममार्ग में करे तो जीवात्मा अधिक से अधिक आठ भव में अवश्य मोक्ष दृढ़ बनाया, उस सुलसा श्राविका का दृष्टान्त निम्नांकित है। प्राप्त करता है। सम्यग्दर्शनी आत्मा विरति धर्म का प्रेमी
का राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा के नाग नाम का एक सारथि बनता है।
था। उसकी पत्नी पतिव्रता सती सुलसा नाम की थी, उसने भगवान् सम्यग्दर्शन पतन के कारण:
महावीर के समीप धर्म श्रवण कर धर्म को अंगीकार किया। सुलसा
धर्म में दृढ़ बनी। उसका आत्म निश्चय अलौकिक था, देवता भी उसको चैत्यद्रव्यहृति: साध्वी - शीलभङ्गर्षिघातिने ।
चलायमान करने में असमर्थ थे। वह आत्मा को ही परमात्म स्वरूप तथा प्रवचनोद्दाहो, मूलग्निबोंधिशाखिनः ॥
मानती थी, अज्ञान दूर करने हेतु स्वस्वरूप में स्थित रही। उत्तम गुरु -त्रिषष्ठी, पर्व ८, सर्ग १०, श्लो. २८ । की पर्ण आवश्यकता है ऐसा मानकर सद्रुओं के देवाधिदेव तीर्थंकर जिन मंदिर के द्रव्य का हरण करना, साध्वी के साथ शीलभंग अपने को सत्य मार्ग बतलाते हैं, उपदेश द्वारा जाग्रत करते हैं तथापि करना व साधु का घात करना, तथा प्रवचन की (आगम के अपने में योग्यता नहीं तो उनका कोई दबाव नहीं चलता। शास्त्रा का) निन्दा करना, य सब समाकतरूपा वृक्ष क मूल म जैसे रेत में तेल नहीं तो उसे हजारों मन एक साथ पीलने में अग्नि समान है।
आये तो उनका एक बूंद भी तेल का नहीं निकलता है। (२) मिथ्यात्वी देव देवियों की मान्यता और मिथ्यात्वी पर्व मानना।
(२)
से।
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना
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धर्म सहायक चलन में, धर्म विधायक जान । जयन्तसेन विदितवान्, करते निज उत्थान ॥
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