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________________ स्याद्वाद-दृष्टि (पं. शिवनारायण गौड़) है, पर यात्री है जिस र विज्ञान के स्व और पर कारण वह घोष व उद्भावना सकता है । इस का यह विस्तृन, विशाल संसार हमारे जीवन की चरम इकाई समदर्शन हो या विज्ञान इनके कार्य हवा में नहीं चलते वे इस है। इससे परे क्या है कौन जाने ? और हम न भी जान पावें तब संसार के सहारे चलते हैं, संसार में रहकर चलते हैं, अपने सीमित भी हमारा काम तो चल ही जाता है । प्रसन्नता की बात है कि साधनों से चलते हैं । इस कार्य में सहायता करते हैं हमारे शरीर, उसका आयाम दिन पर दिन बढ़ता जाता है और हमारी उसे उसकी इन्द्रियां, हमारे सहित यह पूरा संसार । एक प्रकार से हम देखने-समझने की शक्ति भी कई प्रकार के उपकरणों की सहायता संसार के द्वारा ही संसार को समझने का प्रयास करते हैं, विचारों से निरन्तर बढ़ती जा रही है। फिर भी संसार की तुलना में हमारी के द्वारा विचार और संसार को जानने का प्रयास करते हैं, इस पृथ्वी नगण्य है और उसकी तुलना में जीव जगत् तुच्छ है | पर बीच यह संसार भी हमारे जीवन, हमारे विचार और स्वयं अपने मनुष्य पर विचार करें तो उसकी एक प्रकार की तुच्छता दूसरे को प्रभावित करता रहता है। यह स्थिति वैसी ही है जैसे आंखों से प्रकार की उच्चता में बदलती दिखाई देती है । मनुष्य का शरीर आंखों को देखना, किसी पैमाने से खुद उस पैमाने को नापना, चाहे छोटा हो, उसकी शक्तियां चाहे सीमित हों अपने ज्ञान की विचार से विचार पर विचार करना । पूंजी के कारण वह बहुत बड़ा है और उसकी गुप्त संभावनाओं पर गनीमत है कि हममें और संसार में ऐसी क्षमता है कि वह विचार करें तो उसकी क्षमता देवों की कोटि तक पहुंचती दिखाई स्व को पर में और परको स्व में बदल सकता है । इस कार्य में देती है। उसे विचार, भाव कल्पना व उद्भावना से बड़ी सहायता मिलती अपने ज्ञान की कुंजी से ही वह संसार के रहस्य खोजने का है। इनके कारण वह धोखा भले ही खा जावे, इनकी सहायता से प्रयास करता है । इस रूप में उसे जो कुछ मिलता है उसे हम स्व और पर में आलोडन विलोडन करके संसार को (और अपने विज्ञान कहते हैं। पर विज्ञान क्या अन्तिम सच्चाई है ? विज्ञान के को भी) विविध दृष्टियों से, विविध प्रकार से समझने, परखने में इतिहास को देखें तो वह एक ऐसा यात्री है जिसकी यात्रा का सफल होता है। क्षितिज विस्तृत होता जाता है, पर मंजिल कहां है, अन्तिम लक्ष्य जा इस दार्शनिक विचारधारा के अनुसार सत्य एक है, उसके क्या है, इसे अनन्त का पथिक कैसे जान सकता है ? रूप अनेक हैं, भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न देशकाल के अनुसार पर मनुष्य भी कोई हार माननेवाला प्राणी नहीं है । एक सत्य के एक अंश को ही ग्रहण कर सकते हैं, जब सभी दृष्टियां यात्रा करता है तो दूसरा उसकी सहायता करता है और तीसरा आंशिक सत्य हैं तो पूर्ण सत्य को पाने का एक ही मार्ग है उनका उसका मार्गदर्शन करता चलता है । हमारा जीवन पारस्परिक योग । पर यह योग यदि बेमेल हो तो टांग सिर पर और सिर पेट सहयोग का एक अच्छा उदाहरण है । हरेक अपने योग्य काम चुन पर बिठा देने जैसी स्थिति बन सकती है । इसीलिए विरोध में लेता और जीवनक्रम को आगे बढ़ाता है, इसीलिए हरेक अलगअलग अविरोध की सम्यक् स्थापना करना ही स्याद्वाद की साधना है। काम-धंधे करता दिखाई देता है, पर अन्तिम रूप में सब एक ही संसार के विषय में दो अतिवादी दृष्टियां हैं - पहली वैदिक दर्शन उद्देश्य में लगे रहते हैं । इस सामूहिक एकलक्ष्यी जीवन को समझने के अनुसार के प्रयास को हम दर्शन कहते हैं । दर्शन की यात्रा भी बहुत लम्बी और व्यापक रही है, पर उसका अन्तिम उद्देश्य रहा है जीवन और सर्वं खल्विदं ब्रह्म,नेह नानाऽस्ति किंचन । उसके साथ जगत में एकरूपता खोजना, संसार की विषमताओं के जीर आरामं तस्य पश्यन्ति, न तत् पश्यति कश्चन ।। बीच एकता तलाशना, विरोधों के बीच समन्वय स्थापित करना । यह सारा संसार अलग-अलग दिखाई देकर भी मूलतः एक ही निश्चित ही यह कार्य विज्ञान से भी अधिक कठिन है । ब्रह्मसत्ता का विस्तार है, वैसे ही जैसे दुनिया भर का पानी कई विज्ञान संसार के विश्लिष्ट करते देखने का प्रयास करता है, पर स्थानों से कई रूपों में समुद्रतक पहुंच कर बादल बनता, बिजली व विश्लेषण से वस्तु की सत्ता लोप चाहे न हो । रूपान्तरित तो हो ही गर्जन में बदलकर फिर जल बन जाती है । हमारा जीवन ही नहीं । उसका आधार यह संसार भी जाता है । यही दशा मिट्टी (पृथ्वी), एक इकाई के रूप में, एकलक्ष्यी यात्री की भांति पूरी व्यवस्था के आग (अग्नि) आदि की भी है । ये साथ नियमित रूप से निरन्तर चल रहा है, चल ही नहीं रहा एक कई रूपधारण करके भी अन्ततः यात्रा कर रहा है, इसलिए उसके अंगों, उसके पथ या पड़ावों का एक ही ब्रह्म तत्त्व के आभास हैं, बिखरा विश्लेषण पूरी यात्रा व उसके जुड़े उद्देश्य का सम्पूर्ण चित्र परिवर्तितरूप हैं । वे ब्रह्म से उत्पन्न प्रस्तुत नहीं कर सकता । इस कार्य का सम्पादन दर्शन करता है। (परिणत) होते और ब्रह्म में ही लीन वह जीवन जगत का संश्लिष्ट चित्र देकर उसे जीवित रूप में हमारे होकर ब्रह्ममय बन जाते हैं । सामने रखने का प्रयास करता है। बिठा र योग यदि सत्य को पाने सकते हैं, जो यात्री की भांति नहीं रहा एक एक ही ब्रह्म तत्वव ब्रह्म से (३५) श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International द्विरद चले निज चाल से, श्वान भसत तस लार । जयन्तसेन फिकर तजो, अन्त श्वान की हार |Morary.org For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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