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________________ दूसरे छोर पर बौद्धौं का वह क्षणिकवाद है जिसके अनुसार समष्टि व व्यष्टि दोनों ही रूपों में इस प्रकार परिभाषित किया जा संसार या उसके पदार्थ - सकता है कि, अनिरुद्धमनुत्पादं-मनुच्छेदम शाश्वतम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तम् सत् । या प्राकृत में उप्पन्नेइवा विमेइ अनेकार्थमनानामिनाराममनिमम । इसीको टमरे भन्नों में वा धुवेइ वा । पदार्थ, वस्तु या द्रव्य उत्पन्न होता, नष्ट होता, इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि दिखाई देता है फिर भी मूलरूप में बना भी रहता है या इतने परिवर्तनों, रूपान्तरों के बीच भी स्थिर रहता है, मूलरूप में नष्ट न सद्, नासद्, न सदसत्, न चानुभयात्मकम् । रिट नहीं होता। चतुष्कोटि विनिर्युक्तं सत्वं माध्यमिका विदुः ।। - माध्यमिकावृत्ति या परिवर्तनशील संसार में पदार्थों के रूपान्तर होते रहते हैं, उनके मतानुसार तो - परमार्थो हि आर्याणां तूष्णीभावः । मा.वृ. उनके गुणधर्म बदलते रहते हैं, एक ही व्यक्ति बाल, युवा, वृद्ध यह संसार क्या है, पदार्थ क्या है आदि प्रश्नों पर चुप्पी होता है, वह भले-बुरे कर्म करता है, पदार्थ के रूप, रंग, रस, कार्य साध लो | बुद्ध ने दार्शनिक प्रश्नों को अव्याकृत कहकर छुट्टी बदलते जाते हैं । इस प्रकार वस्तु अनेक धर्मात्मक है, जिनमें से पाली। कुछ समान होते हैं तो कुछ विरोधी । इन विशेषताओं को इन दोनों ध्रुवों के बीच और भी कई विचारधाराएं हैं जो समझकर वस्तुस्थिति का परिचय पा लेना ही ज्ञान है । उसकी ओर भेद, अभेद, एक अनेक, स्थायी-अस्थायी आदि रूपों में इस संसार आगे बढ़ने का प्रारम्भिक साधन है। का वर्णन करती हैं। पर जैन मत में वे सब एकांगी हैं. एकांशी हैं. विरोधी धर्मों का निषेध न करते हए वस्तु के एक अंश या खण्डित या एकाग्रही हैं । सत्य को पूर्णरूप में समझने के लिए धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता है। उनमें समन्वय और सभी का समादर करने की आवश्यकता है। (अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः।) प्रमाणसे निश्चित इसी अनाग्रही, सर्वांगीण, सामञ्जस्यपूर्ण दृष्टि को स्याद्वाद या किये हुए पदार्थों के एक अंश के ज्ञान करने को नय कहते हैं। अनेकान्तवाद का नाम दिया गया । (प्रमाण परिच्छिन्नास्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तु नि एक सत्य एक है किन्तु उसको समझने के दृष्टिकोण अनेक हैं। देशग्राहिणस्तदितरांशोऽप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नयाः । अथवा विभिन्न दृष्टिकोणों में अनाग्रहपूर्वक सत्य का साक्षात्कार करना और प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशपरामर्शो नयः । उसका सम्यक् निर्वचन करना यही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है। . नि नय का अर्थ है अभिप्राय, दृष्टि, विवक्षा, या अपेक्षा तथा विश्व की संरचना विविध विरोधों का समन्वित रूप है और अपेक्षाभेद से होनेवाले वस्तु के विभिन्न अध्यवसाय । नय कथन वे सब उसके धर्म हैं, स्वभाव हैं । उनके अतिरिक्त विश्व का अन्य करने की एक प्रक्रिया है, वचन-विन्यास है। वे ज्ञान की ओर ले कोई रूप नहीं है । ये विरोध प्रतिद्वन्द्वी नहीं हैं, किन्तु परस्पर जाते हैं, नयन्तीतिनयाः । नय का अभिप्राय यही है कि सभी पक्ष, सापेक्ष हैं । उनका आधार एक है और वे आधार के प्रति एकनिष्ठ सभी मत पूर्ण सत्य को जानने के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। किसी एक हैं । इस तथ्य को स्वीकार करने पर वैचारिक संघर्ष और विवाद प्रकार की इतनी प्रधानता नहीं कि वही सत्य है और दूसरा सत्य के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता है। नहीं हैं । सभी पक्ष अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य हैं । इसीलिए दृष्टियां भी अनेक हो सकती हैं । जावइआ वयणपदा तावइआ चेव "स्याद्वाद दृष्टि अनाग्रही होती है । उसका लक्ष्य सत्य की हुँति नयवादा । सत्य के जितने कथन हो सकते हैं उतने दी नय खोज करना है इसीलिए उसकी एक ही आकांक्षा रहती है यत्सत्यं वाद हैं । नय एक ही वस्तु को अपेक्षाभेद से या अनेक दृष्टिकोणों तन्मदीयम् । जो सत्य है वही मोक्ष है । उसका मानना है कि, से ग्रहण करने वाले विकल्प हैं। सयं सयं प्रसंसंता, गरदंता, परं लखं । प्रमाण और नय में यह अन्तर है कि प्रमाण में अनन्त जे उ तत्थ विडस्यन्ति, संसारे ते विडस्सिया ॥ धर्मात्मक वस्तु के सभी धर्मों के ज्ञान का समावेश हो जाता है और जो अपने को पंडित मान कर अपनी ही प्रशंसा करते और नय वस्तु के किसी एक अंश को मुख्य और अन्य अंशों को गौण दूसरों की निन्दा करते हैं वे संसार में चक्कर लगाते रहते हैं। करके ग्रहण करता है, किन्तु उनकी उपेक्षा या तिरस्कार नहीं करता । स्याद्वाद दृष्टि का मानना है कि सत्य एक है, उसके रूप अनेक हैं । देशकाल के अनुसार वे सत्य के एक अंश को ही ग्रहण नय के व्यापक क्षेत्र को सुविधा के विचार से निम्नलिखित कर सकते हैं । अतएव परस्पर विरोधी दिखाई देती हुई भी वे सभी सात क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया दृष्टियां सत्य हैं। है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । नाम जैनदर्शन के अनुसार सम्यक् दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः के साथ इनके क्रमों का भी महत्त्व है । ज्ञान की उपलब्धि के दो साधन हैं, प्रमाण और नय । प्रमाण है । ये एक दूसरे से तो जुड़े हैं ही का अर्थ है सकलादेश और नय का विकलादेश - सकलादेशः पर क्रम से स्थूल से सूक्ष्म या सामान्य प्रमाणाधीनो, विकलादशो नयाधीन इति (सर्वार्थसिद्धि १-६) से विशिष्टता की ओर बढ़ते जाते यह ज्ञान पदार्थ पर आधारित होता है । सत्य सत् या सत्ता पर निर्भर करता है । यह संसार विविध पदार्थों का संग्रह है जिन्हें श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण धर्म पैर्य शुभ ध्यान घर, घी धन धारण हार । जयन्तसेन पुरुष रतन, करत जगत उद्धार ॥ . Jain Education Intematonal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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