SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४) कवि एवं कथाकार :- इस आत्मलाघक के उपरांत भी कवि ग्रन्थकार की लेखनी से जन्मी है । इन कथाओं में कथाकार ने की रचनाओं को देखने से स्पष्ट है कि वे आगमों के ज्ञाता, विभिन्न कथातत्वों, कथानक-रूढ़ियों, लोकतत्वों का समावेश किया साहित्यशास्त्र में पारंगत और सूक्ष्मदर्शी कथाकार थे । उनकी सभी है | ग्रंथकार की यह विशेषता है कि कथाओं में कौतूहल तत्व रचनाओं में उनके अगाध काव्यत्व की झलक स्पष्ट रूप से देखी निरंतर बना रहता है, जो कि कथा का प्राण है। उनकी कथाओं जा सकती है | नेमिचंद्रसूरि ने प्राकृत गाथा छंद का सर्वाधिक में सोद्देश्यता भी विद्यमान है । इस कारण से नेमिचंद्रसूरि ने अपनी प्रयोग किया है तथा साहित्य में प्रयुक्त होने वाले प्रायः प्रमुख कथाओं के माध्यम से मानव जीवन को सार्थकता प्रदान की है अलंकारों का प्रयोग उनकी रचनाओं में प्राप्त होता है । ये गद्य- और परंपरा में सुरक्षित कथाओं को जीवित रखा है। शैली के प्रयोग करने में भी सिद्धहस्त थे । रयणचूड में प्रायः सभी म इस प्रकार नेमिचंद्रसूरि ने प्राकृत कथा और चरित्र साहित्य प्रकार के गद्य उपलब्ध हैं। उनकी रचनाओं का काव्यात्मक की परंपरा में अपनी रचनाओं के द्वारा विशिष्ट स्थान बनाया है। विवेचन भी प्रस्तुत किया है । जिससे ग्रंथकार के कवित्व का पता चंद्रकुल के वृहद्गच्छ के आचार्यों की परंपरा में नेमिचंद्र चमकते चलता है। वर्गों के लिए उपयोगी हैं । अपने इस कृतित्व के माध्यम से आचार्य नेमिचंद्रसूरि ने परंपरा से आगमिक एवं तात्विक ज्ञान नेमिचंद्र अपने कवि और कथाकार के व्यक्तित्व की अमिट छाप भी प्राप्त किया था । इस बात की सूचना उनकी रचनाओं में पद- छोड़ने में सक्षम हैं। पद पर प्राप्त होती है। जहां कहीं भी वे नैतिक आदर्श उपस्थित संदर्भ :करने का अवसर देखते हैं, वहां उन्होंने अवश्य ही तत्वज्ञान संबंधी अपने ज्ञान का उपयोग किया है । ग्रन्थकार ने अधिकतर तत्वज्ञान (१) देविंदसाहुमहियं अइरा लहइ अपवग्गं । और सुभाषितों का प्रयोग गाथाओं में किया है । कर्मफल, भाग्य मुनि पुण्यविजय द्वारा संपादित और पुरुषार्थ, साहस और धैर्य, अहिंसा, शील और नैतिक आदर्शों 'आरकानकमणिकोश' (प्रस्तावना) प्रा. टॅ. सो. के जो उदाहरण ग्रंथकार ने दिये हैं उनमें कवि के विस्तृत ज्ञान वाराणसी, १९६२ और सतत अध्ययन का परिचय मिलता है | कवि ने केवल जैन हुकमचंद, 'रयणचूडराय चरियं का आलोचनात्मक स्वरचित ही सुभाषितों का प्रयोग अपनी रचनाओं में नहीं किया है, सम्पादन एवं अध्ययन' शोधप्रबन्ध १९८३, अनुच्छेद ९९, अपितु परंपरा से प्राप्त कई सुभाषितों के संदर्भ यत्र-तत्र दिये है। गण ९२. ग्रन्थकार शास्त्रीय ज्ञान के अतिरिक्त लौकिक शिक्षा में भी देसाई, जैन साहित्यनु इतिहास, पृ. १९१ से २१०. निष्णात थे । यही कारण है कि ग्रंथकार ने तत्कालीन समाज शास्त्री, देवेंद्रकुमार, अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध संस्कृति, कला, शिक्षा एवं जनजीवन आदि का सूक्ष्मता से विश्लेषण प्रवृत्तियां पृ. १८८. किया है। मातापिता के प्रति अनुराग, पति-पत्नी में अगाध प्रेम, अणहिलवाड पुरम्मि सिरिकन्नराहिवम्मि विजयन्ते ।" मित्रता का अटूट संबंध, राजा का प्रजा के प्रति उत्तरदायित्व, साधु महावीर चरियं (नेमिचंद्रसूरि) आत्मानंद सभा भावनगर वि. एवं संतों के प्रति श्रद्धा एवं विनयभाव तथा नैतिक मल्यों के प्रति स. १९७३ निष्ठा इन समस्त मानव मूल्यों के संबंध में नेमिचंद्रसूरि ने अपने (६) (क) गेरोला, वाचस्पति, संस्कृत साहित्य का इतिहास, अनुभव और ज्ञान को प्रकट लिया है । अतः वे सच्चे अर्थों में प्र. ९१५ लोकविद् थे । आचार्य नेमिचंद्रसूरि के व्यक्तित्व का एक पक्ष (ख) देसाई, वही, पृ. २२०. जैन हुकमचंद वही अनु. १ गा. उनका सशक्त कथाकार होना है । इसका प्रमाण इसीसे ज्ञात होता १२. है कि उनकी पांचों रचनाओं में से चार रचनाओं में विभिन्न कथाएँ (८) महावीर चरियं (नेमिचंद्र) ग्रंथ प्रशस्ति, गा. १४-१५. नई शैली में प्रस्तुत की गई हैं । लगभग तीन-चारसौ कथाएं (९) वही, ग्रंथ प्रशस्ति, गा. ७. (१०) जैन, हुकमचंद, "रयणचूडरायचरियं का आलोचनात्मक संपादन एवं अध्ययन अनु. ५ गा. ८४ बी.ए., ऑनर्स (संस्कृत), एम.ए. (११) वही, अनु. ३०, गा. ५५. (संस्कृत, इतिहास, प्राकृत (१२) वही, अनु. २६, पेराग्राम ४ गा. ४६. पी.एच.डी., बी.एड्., डीप्लोमा (प्राकृत एण्ड जैनोलॉजी) (१३) वही, अनु. ५६ पेरा १ गा. जन्म दिनांक : ५ फरवरी १९५२ ८६-८७ सम्प्रति - सहायक प्रोफेसर, जैन (१४) वही, अनु. २०, पेरा ८ विद्या एवं प्राकृतविभाग, सुखाडिया (१५) वही, अनु. २४, पेरा ३ विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.) (१६) वही, अनु. ८४ । (१७) वही, अनु. २४, पेरा ३. डॉ. हुकमचन्द जैन श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (९१) चिंता चोरी चाकरी, चंचल चतुरा चित । जयन्तसेन हरे सदा, तन मन वाणी वित्त ।। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy