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________________ गुरुमासिक योग्य अपराध - अंगादान का मर्दन करना, अंगादान था । वह केवल प्रायश्चित्त की तपावधि के लिए संघ से पृथक्करण के ऊपर की त्वचा दूर करना, अंगादान को नली में डालना, पुष्पादि था । संभवतः प्राचीनकाल में तप नामक प्रायश्चित्त दो प्रकार से सूंघना, पात्र आदि दूसरों से साफ करवाना, सदोष आहार का दिया जाता रहा होगा - परिहारपूर्वक और परिहाररहित । इसी उपयोग करना आदि क्रियायें गुरुमासिक प्रायश्चित्त के कारण हैं। आधार पर आगे चलकर जब अनवस्थाप्य और पारांञ्चिक प्रायश्चित्तों लघु चातुर्मासिक के योग्य अपराध - प्रत्याख्यान का बारबार भंग का प्रचलन समाप्त कर दिया गया तब प्रायश्चित्तों की दस संख्या करना, गृहस्थ के वस्त्र, शैय्या आदि का उपयोग करना, प्रथम प्रहर पूर्ण करने के लिए यापनीय परम्परा में तप और परिहार की गणना में ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, अर्धयोजन अलग-अलग की जाने लगी होगी । परिहार नामक प्रायश्चित्त की अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, विरेचन लेना अथवा भी अधिकतम अवधि भी छह मास मानी गई है क्योंकि तप औषधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को नमस्कार करना, प्रायश्चित्त की अधिकतम अवधि भी छः मास ही है। परिहार का वाटिका आदि सार्वजनिक स्थानों में मल-मूत्र डालकर गन्दगी छेद प्रायश्चित्त से अन्तर यह है कि जहाँ छेद प्रायश्चित्त दिये जाने करना, गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागर में पर भिक्षुणी संघ में वरीयता बदल जाती थी वहाँ परिहार प्रायश्चित्त प्रवेश करना, समान आचार वाले निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को स्थान आदि से उसकी वरीयता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था । मूलाचार में की सुविधा न देना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्यकरना, परिहार को जो छेद और मूल के बाद स्थान दिया गया है, वह अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के काल उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि कठोरता की दृष्टि से छेद औरमूल में स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना अथवा उससे की अपेक्षा परिहार प्रायश्चित्त कम कठोर था | वसुनन्दी की पढ़ना आदि क्रियाएं लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के कारण हैं। मूलाचार की टीका में परिहार की गण से पृथक् रहकर तप अनुष्ठान करना ऐसी जो व्याख्या की गई है वह समुचित एवं गुरुचातुर्मासिक के योग्य अपराध-स्त्री अथवा पुरुष से मैथुन सेवन श्वेताम्बर परम्परा के अनुरूप ही है । फिर भी यापनीय और के लिए प्रार्थना करना, मैथुनेच्छा से हस्तकर्म करना, नग्न होना, श्वेताम्बर परम्परा में मूलभूत अंतर इतना तो अवश्य है कि निर्लज्ज वचन बोलना, प्रेमपत्र लिखना, गुदा अथवा योनि में लिंग श्वेताम्बर परम्परा परिहार को तप से पृथक् प्रायश्चित्त के रूप में डालना । स्तन आदि हाथ में पकड़कर हिलाना अथवा मसलना, स्वीकार नहीं करती है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पशपक्षी को स्त्री अथवा पुरुष रूप मानकर उनका आलिंगन करना, दिगम्बर परम्परा यापनीय ग्रन्थ षटखण्डागम की धवला टीका मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, आचार्य की अवज्ञा करना, परिहार को पृथक् प्रायश्चित्त नहीं मानती है | उसमें श्वेताम्बर लाभालाभ का निमित्त बताना, किसी श्रमण-श्रमणी को बहकाना, परम्परा सम्मत दस प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ है जिसमें परिहार किसी दीक्षार्थी को भड़काना, अयोग्य को दीक्षा देना, अचेल होकर का उल्लेख नहीं है। सचेल के साथ रहना अथवा सचेल होकर अचेल के साथ रहना आदि क्रियाएं गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य है ।' छेद प्रायश्चित्त - जो अपराधी शारीरिक दृष्टि से कठोर तप-साधना करने में असमर्थ हो अथवा समर्थ होते हुए भी तप के गर्व से तप और परिहार का सम्बन्ध - जैसा कि हमने पूर्व में सूचितमें उन्मत्त है और तप प्रायश्चित्त से उसके व्यवहार में सुधार संभव किया है, तत्त्वार्थ और यापनीय परम्परा के ग्रन्थ मूलाचार में नहीं होता और तप प्रायश्चित्त करके पुनः पुनः अपराध करता है, नहीं होता और त प्रायश्चित्त परिहार को स्वतंत्र प्रायश्चित्त माना गया है | जबकि श्वेताम्बर । उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । छेद परम्परा के आगमिक ग्रन्थों और धवला में इसे स्वतंत्र प्रायश्चित्त न प्रायश्चित्त का तात्पर्य है भिक्ष या भिक्षणी के दीक्षा पर्याय को कम मानकर इनका सम्बन्ध तप के साथ जोड़ा गया है | परिहार शब्द कर देना जिसका परिणाम यह होता था कि अपराधी का श्रमण का अर्थ बहिष्कृत करना अथवा त्याग करना होता है । श्वेताम्बर संघ में वरीयता की दृष्टि से जो स्थान था, वह अपेक्षाकृत निम्न हो आगम ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि गर्हित जाता था अर्थात जो टीला पर्याय में उससे लघ थे वे उससे ऊपर अपराधों को करने पर भिक्षु या भिक्षुणी को न केवल तप रूप हो जाते थे । दूसरे शब्दों में उसकी वरिष्ठता (सीनियारिटी) कम प्रायश्चित्त दिया जाता था अपितु उसे यह कहा जाता था कि वे हो जाती थी और उसे इस आधार पर जो भिक्षु उससे कभी भिक्षु संघ या भिक्षुणी संघ से पृथक् होकर निर्धारित तप पूर्ण करें। कनिष्ठ थे उनको उसे वन्दन आदि करना होता है । किस अपराध यद्यपि निर्धारित तप को पूर्ण कर लेने पर उसे पुनः संघ में में कितने दिन का छेद प्रायश्चित्त आता है इसका स्पष्ट उल्लेख सम्मिलित कर लिया जाता था । इस प्रकार परिहार का तात्पर्य था मुझे देखने को नहीं मिला । संभवतः यह परिहारपूर्वक तप कि प्रायश्चित्त रूप तप की निर्धारित अवधि के लिए संघ से भिक्षु प्रायश्चित्त का एक विकल्प था । का पृथक्करण । परिहार की अवधि में वह भिक्षु भिक्षुसंघ के साथ अतः जिस अपराध के लिए जितने रहते हुए भी अपना आहार-पानी अलग करता था तथा संघस्थ मास या दिन के लिए तप निर्धारित अन्य दीक्षा पर्याय में लघु मुनियों द्वारा वन्दनीय नहीं माना जाता था, उस अपराध के करने पर उतने था | इससे यह भी स्पष्ट होता है कि परिहार प्रायश्चित्त म तथा दिन का दीक्षा छेद का प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य और पाराश्चिक प्रायश्चित्त में मूलभूत अन्तर था । दिया जाता था। जैसे जो अपराध अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त में जहाँ उसे गृहस्थ वेष धारण करवा कर पाण्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य होते संघ से पृथक किया जाता था, वहाँ परिहार में ऐसा कोई विधान न हैं उनके करने पर उसे हमास का छेद प्रायश्चित्त दिया जाता है। ' निशीथ सूत्र के आधार पर - उद्धृत जैनाचार, पृ. २१३-२१४ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण पग पग पर संकट खडा, पग पग पर है काल । जयन्तसेन सुसमझ ले, छोड सभी जंजाल || www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal use only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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