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________________ शरीर के असंयम तथा गमन, भाषण, याचना, ग्रहण-निक्षेप एवं कहीं-कहीं गुरुक, लघुक और लघुष्वक. ऐसे तीन भेद भी मलमूत्र विसर्जन आदि से सम्बन्धित दोषों का प्रतिक्रमण श्रमण किये गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और साधकों को करना चाहिए । उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद किये गये हैं और फिर इनमें से प्रत्येक के तदुभय - तदुभय प्रायश्चित्त वह है जिसमें आलोचना और प्रतिक्रमण जधन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद किये गये हैं । दोनों किये जाते हैं । अपराध या दोष को दोष के रूप में स्वीकार व्यवहारसूत्र की भूमिका में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य प्रत्येक के करके फिर उसे नहीं करने का निश्चय करना ही तदुभय प्रायश्चित्त भी तीन तीन विभाग किये हैं । यथा उत्कृष्ट से उत्कृष्ट उत्कृष्ट है । जीतकल्प में निम्न प्रकार के अपराधों के लिए तदुभय मध्यम और उत्कृष्टजघन्य तीन विभाग हैं । ऐसे ही मध्यम और प्रायश्चित्त का विधान किया गया है - (9) भ्रमवश किये गये कार्य जघन्य के भी तीन-तीन विभाग हैं । इस प्रकार तप प्रायश्चित्तों के (२) भयवश किये गये कार्य (३) आतुरता वश किये गये कार्य ३ x ३ x ३ = २७ भेद हो जाते हैं । उन्होंने विशेषरूप से जानने (४) सहसा किये गये कार्य (५) परवशता मे किये कार्य (६) सभी के लिए व्यवहार भाष्य का संकेत किया है किन्त व्यवहार भाष्य व्रतों में लगे हुए अतिचार । मुझे उपलब्ध न होने के कारण मैं इस चर्चा के प्रसंग में उनके व्यवहारसुत्तं के संपादकीय का ही उपयोग कर रहा हूँ | उन्होंने इन विवेक - विवेक शब्द का सामान्य अर्थ यह है कि किसी कर्म के सम्पूर्ण २७ भेदों और उनसे सम्बन्धित तपों का भी उल्लेख नहीं औचित्य एवं अनौचित्य का सम्यक निर्णय करना और अनुचित किया है। अतः इस सम्बन्ध में मझे भी मौन रहना पड़ रहा है। कर्म का परित्याग कर देना । मुनि जीवन में आहारादि के ग्राहय इन प्रायश्चित्तों से सम्बन्धित मास, दिवस एवं तपों की संख्या का और अग्राहय अथवा शुद्ध और अशुद्ध का विचार करना ही विवेक उल्लेख हमें बृहत्कल्पभाष्य गाथा ६०४१-६०४४ में मिलता है । है । यदि अज्ञात रूप से सदोष आहार आदि ग्रहण कर लिया ही उसी आधार पर निम्न निवरण प्रस्तुत है - तो उसका त्याग करना ही विवेक है । वस्तुतः सदोष क्रियाओं का त्याग ही विवेक है । मुख्य रूप से भोजन, वस्त्र, मुनि जीव के प्रायश्चित्त का नाम तप का स्वरूप एवं काल अन्य उपकरण एवं स्थानादि प्राप्त करने में जो दोष लगते हैं उनकी यथागुरु - छह मास तक निरन्तर पाँच-पाँच उपवास शुद्धि विवेक प्रायश्चित्त द्वारा मानी गयी है। गुरुतर चार मास तक निरन्तर चार-चार उपवास व्युत्सर्ग - व्युत्सर्ग का तात्पर्य परित्याग या विसर्जन है । सामान्य गुरु एक मास तक निरन्तर तीन-तीन उपवास तया इस प्रायश्चित्त के अन्तर्गत किसी भी सदोष आचरण के लिए (तेले) शारीरिक व्यापारों का निरोध करके मन की एकाग्रता पूर्वक देह के शोक प्रति रहे हुए ममत्व का विसर्जन किया जाता है । जीतकल्प के १० बेले १० दिन पारणे (एक मास तक अनुसार गमनागमन, विहार, श्रुत अध्ययन, सदोषस्वप्न, नाव आदि निरन्तर दो-दो उपवास) के द्वारा नदी को पार करना तथा भक्त-पान, शय्या-आसन, लघुतर - २५ दिन निरन्तर एक दिन और एक दिन मलमूत्र विसर्जन, काल व्यतिक्रम, अर्हत् एवं मुनि का अविनय भोजन आदि दोषों के लिए व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । यथा लघु - २० दिन निरन्तर आयम्बिल (रूखा - सूखा जीतकल्प में इस तथ्य का भी उल्लेख किया गया है कि किस भोजन) प्रकार के दोष के लिए कितने समय या श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग किया जाना चाहिए । प्रायश्चित्त के प्रसंग में व्युत्सर्ग लघुस्वक १५ दिन तक निरन्तर एकाशन (एक समय और कायोत्सर्ग पर्यायवाची रूप में ही प्रयुक्त हुए हैं। भोजन) तप प्रायश्चित्त - सामान्य दोषों के अतिरिक्त विशिष्ट दोषों के लघुस्वकतर दस दिन तक निरन्तर दोपोरसी अर्थात् १२ लिए तप प्रायश्चित्त का विधान किया गया है । किस प्रकार के ज बजे के बाद भोजन ग्रहण काक दोष का सेवन करने पर किस प्रकार के तप का प्रायश्चित्त करना यथा लघुस्वकप- पांच दिन निरन्तर निर्विकृति (घी, दूध आदि होता है उसका विस्तारपूर्वक विवेचन निशीथ, कल्प और जीतकल्प कगारहित भोजन) में तथा उनके भाष्यों में मिलता है | निशीथ सूत्र में तप प्रायश्चित्त लघुमासिक के योग्य अपराध - दारुदण्ड का पादपोंछन बनाना, के योग्य अपराधों की विस्तृत सूची उपलब्ध है | उसमें तप पानी निकलने के लिए नाली बनाना, दानादि लेने के पूर्व अथवा प्रायश्चित्त के विविध प्रकारों की चर्चा करते हुए मासलघु, मासगुरु, पतटाता की प्रशंसा करना. चातुर्मासलघु, चातुर्मासगुरु से लेकर षट्मासलघु और षट्मासगुरु निष्कारण परिचित घरों में प्रवेश प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है | जैसा कि हमने पूर्व में संकेत करना, अन्य तीर्थिक अथवा गृहस्थ किया है, मासगुरु या मासलघु आदि का क्या तात्पर्य है, यह इन की संगति करना, शय्यातर अथवा ग्रन्थों के मूल में कहीं स्पष्ट नहीं किया गया है किन्तु इन पर लिखे आवास देने वाले मकान मालिक के गये भाष्य - चूर्णि आदि में इनके अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास यहाँ का आहार, पानी ग्रहण करना किया गया है, मात्र यह नहीं लघु के लघुतर और लघुतम तथा गुरु आदि क्रियाएं लघुमासिक प्रायश्चित्त की गुरु, गुरुतर और गुरुतम ऐसी तीन-तीन कोटियाँ निर्धारित की। के कारण हैं। ४EPTESशान कुछ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५१) यह संसार अनन्त है, अनन्त जीव प्रमाण । जजयन्तसेन सुमार्ग लो, ज्ञानी वचन सुजाण ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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