SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होता है उस पद के धारक व्यक्ति को उतना ही कठोर दण्ड दिया पाश्चात्य विचारकों ने दण्ड के तीन सिद्धान्त प्रतिपादित जाता था । उदाहरण के रूप में भिक्षुणियों का नदी-तालाब के किये हैं - किनारे ठहरना, वहाँ स्वाध्याय आदि करना निषिद्ध था । इस १- प्रतिकारात्मक सिद्धान्त, २-निरोधात्मक सिद्धान्त, नियम का उलंघन करने पर जहाँ स्थविर को मात्र षट्लघु, भिक्षुणी ३ - सुधारात्मक सिद्धान्त | प्रथम प्रतिकारात्मक सिद्धान्त यह को षट्गुरु, प्रायश्चित्त दिया जाता था । वहाँ गणिनी को देह और मानकर चलता है कि दण्ड के द्वारा अपराध की प्रतिशत की जाती प्रवर्तिनी को मल प्रायश्चित्त देने का विधान था । सामान्य साधु की है अर्थात अपराधी ने दसरे की जो क्षति की है उसकी परिपर्ति अपेक्षा आचार्य के द्वारा वही अपराध जाता है तो आचार्य को करना या उसका बदला लेना ही दण्ड का मुख्य उद्देश्य है । 'आँख कठोर दण्ड दिया जाता है। के बदले आँख' और दात के बदले दांत, ही इस दण्ड सिद्धान्त की बार-बार अपराध या दोष सेवन करने पर अधिक दण्ड - जैन मूलभूत अवधारणा है । इस प्रकार की दण्ड व्यवस्था से न तो परम्परा में प्रथम बार अपराध करने की अपेक्षा दूसरी बार या समाज के अन्य लोग अपराधिक प्रवृत्तियों से भयभीत होते हैं और तीसरी बार उसी अपराध को करने पर कठोर प्रायश्चित्त की न उस व्यक्ति का जिसने अपराध किया है, कोई सुधार ही होता व्यवस्था की गई है । यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी एक नियम का है । अपराध का दूसरा निरोधात्मक सिद्धान्त मूलतः यह मानकर बार-बार अतिक्रमण करते थे तो उस नियम के अतिक्रमण की चलता है कि अपराधी को दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि संख्या में जैसे-जैसे वृद्धि हो जाती थी प्रायश्चित्त की कठोरता भी उसने अपराध किया है अपितु इसलिए दिया जाता है कि दूसरे बढ़ती जाती थी । उदाहरण के रूप में सामान्यतया भिक्षु-भिक्षुणियों लोग अपराध करने का साहस न करें । समाज में आपराधिक को दिन में एक समय ही भिक्षा के लिए जाने का विधान था, प्रवृत्ति को रोकना ही दण्ड का उद्देश्य है, इसमें छोटे अपराध के किन्तु बिना विशेष कारण के यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी दिन में लिए भी कठोर दण्ड की व्यवस्था को समाज के दूसरे व्यक्तिओं एक से अधिक बार भिक्षा के लिए जाता था तो उसे प्रायश्चित्त को आपराधिक प्रवृत्ति से भयभीत करने के लिए साधन बनाया लेना होता था । अतिक्रमण की संख्या में वृद्धि होने के साथ ही जाता है । अतः दण्ड का यह सिद्धान्त न्यायसंगत नहीं कहा जा प्रायश्चित्त की गुरुता किस प्रकार बढ़ती जाती थी, उसे निम्न सकता । इसमें दण्ड का प्रयोग साध्य के रूप में नहीं अपितु साधन उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है: के रूप में किया जाता है। दिन में दो बार भिक्षा के लिए जाने पर मासलघु कवि दण्ड का तीसरा सिद्धान्त सुधारात्मक सिद्धान्त है, इस दिन में तीन बार भिक्षा के लिए जाने पर मासगुरु सिद्धान्त के अनुसार अपराधी भी इस प्रकार का रोगी है अतः दिन में चार बार भिक्षा के जाने पर चातुर्मासलघु उसकी चिकित्सा अर्थात् उसे सुधारने का प्रयल करना चाहिए । दिन में पाँच बार जाने पर चातुर्मासगुरु इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड का उद्देश्य व्यक्ति का सुधार होना चाहिए । वस्तुतः कारागृहों को सुधारगृहों के रूप में परिवर्तित दिन में छः बार जाने पर षट्मासलघु किया जाना चाहिए ताकि अपराधी के हृदय को परिवर्तित कर उसे दिन में सात बार जाने पर षट्मासगुरु सभ्य नागरिक बनाया जा सके। दिन में आठ बार जाने पर छेद यदि हम इन सिद्धान्तों की तुलना जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था से दिन में नौ बार जाने पर मूल करते हैं तो यह कहा जा सकता है कि जैन विचारक अपनी दिन में दस बार जाने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त या दण्ड व्यवस्था में न तो प्रतिकारात्मक सिद्धान्त को दिन में ग्यारह बार जाने पर पारांञ्चिक । और न निरोधात्मक सिद्धान्त अपनाते हैं अपितु सुधारात्मक सिद्धान्त प्रायश्चित्त देते समय व्यक्ति की परिस्थिति का विचार - जैन दण्ड से सहमत होकर यह मानते हैं कि व्यक्ति में स्वतः ही अपराधबोध या प्रायश्चित्त व्यवस्था में इस बात पर भी पर्याप्त रूप से विचार की भावना उत्पन्न कर उसे आपराधिक प्रवृत्तियों से दूर रहने को किया गया है कि यदि कठोर अपराध को करने वाला व्यक्ति भी अनुशासित किया जाये । वे यह भी स्वीकार करते हैं कि जब तक यदि रुग्ण हो, अतिवृद्ध हो, विक्षिप्तचित्त हो, उन्माद या उपसर्ग से व्यक्ति में स्वतः ही अपराध के प्रति आत्मग्लानि उत्पन्न नहीं होगी पीडित हो उसे भोजन-पानी आदि सविधापर्वकन मिलता हो तब तक वह आपराधिक प्रवृत्तियों से विमुख नहीं होगा । यद्यपि अथवा मुनि जीवन के आवश्यक सामग्री से रहित हो तो ऐसे इस आत्म ग्लानि या अपराधबोध का तात्पर्य यह नहीं है कि भिक्षुओं को तत्काल संघ से बहिष्कृत करना अथवा बहिष्कृत करके व्यक्ति जीवन भर इसी भावना से पीड़ित रहे अपितु वह अपराध शुद्धि के लिए कठोर तप आदि की व्यवस्था देना समुचित नहीं है। या दोष को दोष के रूप में देखे और यह समझे कि अपराध एक आधुनिक दण्ड सिद्धान्त और जैन प्रायश्चित्त व्यवस्था - जैसा कि सांयोगिक घटना है और उसका हमने प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया है कि दण्ड और प्रायश्चित्त की परिशोधन कर आध्यात्मिक विकास अवधारणाओं में एक मौलिक अन्तर है । जहाँ प्रायश्चित्त अन्तःप्रेरणा के पथ पर आगे बढ़ा जा सकता से स्वतः लिया जाता है, वहाँ दण्ड व्यक्ति को बलात् दिया जाता है । अतः आत्मशुद्धि तो प्रायश्चित्त से ही संभव है, दण्ड से नही । दण्ड में तो प्रतिशोध, प्रतिकार या आपराधिक प्रवृत्ति के निरोध का दृष्टिकोण ही प्रमुख होता है। श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education Interational विराट वैभव पास में, भरे हुए भंडार। जयन्तसेन परार्थ कर, पा लो जीवन सार brary.org. For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy