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________________ जाता है किन्तु वह एक सीमित समय के लिए होता है और उसका अपराध की समानता पर दण्ड की समानता का प्रश्न - वेष परिवर्तन आवश्यक नहीं माना जाता। जबकि अनवस्थाप्य मा प्रायश्चित्तों की चर्चा के प्रसंग में यह भी विचारणीय है कि प्रायश्चित्त के योग्य भिक्षु को पूर्णतः संघ से बहिष्कृत कर गृहस्थ क्या जैन संघ में समान अपराधों के समान दण्ड की व्यवस्था है या वेष प्रदान कर दिया जाता है और उसे तब तक पुनः भिक्षु संघ में एक ही समान अपराध के लिए दो व्यक्तिओं को अलग-अलग प्रवेश नहीं दिया जाता है जब तक कि वह प्रायश्चित्त के रूप में दण्ड दिया जा सकता है । जैन विचारकों के अनुसार एक ही निर्दिष्ट तप-साधना को पूर्ण नहीं कर लेता है । और संघ इस तथ्य प्रकार के अपराध के लिए सभी प्रकार के व्यक्तिओं को एक ही से आश्वस्त नहीं हो जाता है कि वह पुनः अपराध नहीं करेगा । समान दण्ड नहीं दिया जा सकता । प्रायश्चित्त के कठोर और मृदु जैन परम्परा में बार-बार अपराध करने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के होने के लिए व्यक्ति की सामाजिक स्थिति, वह विशेष परिस्थिति लोगों के लिए यह दण्ड प्रस्तावित किया गया है । स्थानाङ्ग सूत्र के जिसमें वह अपराध किया गया है भी विचारणीय है। उदाहरण के अनुसार साधर्मियों की चोरी करने वाला, अन्य धर्मियों की चोरी लिए एक ही समान प्रकार के अपराध के लिए जहाँ सामान्य भिक्षु करने वाला तथा डण्डे, लाठी आदि से दूसरे भिक्षुओं पर प्रहार या भिक्षुणी को अल्प दण्ड की व्यवस्था है वहीं श्रमण संघ के करने वाला भिक्षु अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य माना जाता है। पदाधिकारियों को अर्थात् प्रवर्तिनी, प्रवर्तक, गणि आचार्य आदि प्रायश्चित्त देने का अधिकार : को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था है । पुनः जैन आचार्य यह भी सामान्य प्रायश्चित्त देने का अधिकार आचार्य या गणि का मानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वतः प्रेरित होकर कोई अपराधमाना गया है । सामान्य व्यवस्था के अनुसार अपराधी को अपने करता है और कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बाध्य होकर अपराध अपराध के लिए आचार्य के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट करना करता है तो दोनों के लिए अलग-अलग प्रकार के प्रायश्चित्त की चाहिए और आचार्य को भी परिस्थिति और अपराध की गुरुता का व्यवस्था है । यदि हम मैथुन सम्बन्धी अपराध को लें तो जहाँ विचार कर उसे प्रायश्चित्त देना चाहिए । इस प्रकार दण्ड या बलात्कार की स्थिति में भिक्षुणी के लिए किसी दण्ड की व्यवस्था प्रायश्चित्त देने का सम्पूर्ण अधिकार आचार्य, गणि या प्रवर्तक को नहीं है किन्तु उस स्थिति में भी यदि वह सम्भोग का आस्वादन होता है | आचार्य या गणि की अनुपस्थिति में उपाध्याय, उपाध्याय लेती है तो उसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था है अतः एक ही की अनुपस्थिति में प्रवर्तक अथवा वह वरिष्ठ मुनि जो देढसूत्रों का प्रकार के अपराध हेतु दो भिन्न व्यक्तिओं व परिस्थितियों में अलगज्ञाता हो, प्रायश्चित्त दे सकता है । स्व गण के आचार्य आदि के अलग प्रायश्चित्त का विधान किया गया है | यही नहीं जैनाचार्यों अभाव में अन्य गण के स्वलिंगी आचार्य आदि से भी प्रायश्चित्त ने यह भी विचार किया है कि अपराध किसके प्रति किया गया है। लिया जा सकता है। किन्तु अन्य गण के आचार्य आदि तभी एक सामान्य साधु के प्रति किये गये अपराध की अपेक्षा आचार्य प्रायश्चित्त दे सकते हैं जब उनसे इस सम्बन्ध में निवेदन किया के प्रति किया गया अपराध अधिक दण्डनीय है । जहाँ सामान्य जाये । जीतकल्प के अनुसार स्वलिंगी अन्यगण के आचार्य या मुनि व्यक्ति के लिए किये गये अपराध को मृदु या अल्प दण्ड माना की अनुपस्थिति में देढसूत्र का अध्येता गृहस्थ जिसने दीक्षा पर्याय जाता है वहीं श्रमण संघ के किसी पदाधिकारी के प्रति किये गये छोड़ दिया हो तो भी प्रायश्चित्त दे सकता है | इन सब के अभाव अपराध को कठोर दण्ड के योग्य माना जाता है। में साधक स्वयं भी पाप शोधन के लिए स्वविवेक से प्रायश्चित्त का इस प्रकार हम देखते हैं कि अपने प्रायश्चित्त विधान या निश्चय कर सकता है। दण्ड प्रक्रिया में व्यक्ति या परिस्थिति के महत्त्व को ओझल-नहीं क्या प्रायश्चित्त सार्वजनिक रूप में दिया जाये? किया है और माना है कि व्यक्ति और परिस्थिति के आधार पर सामान्य और विशेष व्यक्तिओं को अलग-अलग प्रायश्चित्त दिया इस प्रश्न के उत्तर में जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अन्य जा सकता है जबकि सामान्यतया बौद्ध परम्परा में इस प्रकार के परम्पराओं से भिन्न है | वे प्रायश्चित्त या दण्ड को आत्मशुद्धि का विचार का अभाव देखते हैं । हिन्दू परम्परा यद्यपि प्रायश्चित्त के साधन तो मानते हैं लेकिन प्रतिरोधात्मक सिद्धान्त के विरोधी हैं सन्दर्भ में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन करती है उनकी दृष्टि में दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि उसे देखकर किन्तु उसका दृष्टिकोण जैन परम्परा से बिल्कुल विपरीत दिखाई अन्य लोग अपराध करने से भयभीत हों, अतः जैन परम्परा देता है | जहाँ जैन परम्परा उसी अपराध के लिए प्रतिष्ठित सामूहिक रूप में, खुले रूप में दण्ड की विरोधी है, इसके विपरीत व्यक्तिओं एवं पदाधिकारियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था बौद्ध परम्परा में दण्ड या प्रायश्चित्त को संघ के सम्मुख सार्वजनिक करती है वहीं हिन्दू परम्परा आचार्यों, ब्राह्मणों आदि के लिए मृदु रूप से देने की परम्परा रही है । बौद्ध परम्परा में प्रवारणा के समय दण्डव्यवस्था करती है उसमें एक व्यकि साधक भिक्षु को संघ के सम्मुख अपने अपराध को प्रकट कर संघ सामान्य अपराध करने पर भी एक प्रदत्त प्रायश्चित्त या दण्ड को स्वीकार करना होता है । वस्तुतः बुद्ध शूद्र को कठोर दण्ड दिया जाता है के निर्वाण के बाद किसी संघ प्रमुख की नियुक्ति को आवश्यक वहाँ एक ब्राह्मण को अत्यन्त मृदु नहीं माना गया, अतः प्रायश्चित्त या दण्ड देने का दायित्व संघपद दण्ड दिया जाता है। दोनों परम्पराओं पर आ पड़ा । किन्तु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सार्वजनिक रूप से का यह दृष्टिभेद विशेष रूप से दण्डित करने की यह प्रक्रिया उचित नहीं है, क्योंकि इससे समाज द्रष्टव्य है । बृहत्कल्पभाष्य की टीका, में व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिरती है, तथा कभी-कभी सार्वजनिक रूप में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है से दण्डित किये जाने पर व्यक्ति विद्रोही बन जाता है। कि जो पद जितना उत्तरदायित्वपूर्ण श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५४) सब को जाना एक दिन, तज तन धन परिवार । जयन्तसेन निरर्थका, मद मिथ्या अधिकार ।। www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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