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________________ (धर्म - जागरिका - श्री उमेशमुनिजी अणु' जागरिका का महत्त्व साधना में विघ्न उत्पन्न हो तो वह उससे छुटकारा पाये अर्थात् अल्प जो मुमुक्ष मनुष्य रात के पहले और पिछले प्रहर जागता है, वही सी निद्रा ही ले। श्रावक भी घर में योगी जैसा होता है। अत: वह सामायिक आदि आवश्यक - क्रियाएँ कर सकता है। उस जाग्रत भी धर्म-आराधनाके लिये जागता है। वह भी द्रव्य-निद्रा का परित्याग साधक की धर्म-आराधना ही ओज से भरपूर होती है। धर्म-आराधना करता हुआ भाव-निद्रासे सोने का प्रयास करता है। करने के लिये ही पूर्व और अपर रात्रि में जागने का विधान है। जागरण-विधि जागरिका के भेद योग्यकाल में निद्रित साधक रात्रि के अन्तिम प्रहर में जाग्रत हो धर्म-आराधना के लिये जागना ही धर्म-जागरिका है। इसके दो जाये। क्योंकि जो प्रभात में सोता है, वह लाभ को गँवाता है, किन्तु भेद हैं - द्रव्य जागरिका और भाव-जागरिका। आती हुई निद्रा को जो जागता है, वह पाता है। रात्रि का अन्तिम प्रहर साधना का श्रेष्ठ उड़ाना द्रव्य-जागरिका है और धर्म में उद्यम करना भाव-जागरिका है। समय है। जो उस समय जागता है, उसके गुण, सौभाग्य और सुख इसप्रकार द्रव्य-जागरिका को धारण करके, पूर्व और पश्चात् रात्रि में की वृद्धि होती है। सूत्र अर्थ के चिन्तन में और प्रशस्त ध्यान में साधक को तन्मय बनना जागते ही पहले नमस्कार महामंत्र का (७,५ या ३ बार) स्मरण चाहिये। करे । बाद में निद्रा को भली भाँति त्याग करके शय्या का त्याग करते जागरण से जीव को भय हुए चिन्तन करे - 'द्रव्यसे मैं अनन्त पर्यायों से गुजरता हुआ अनन्त जीव अनादि से द्रव्य और भाव निद्रा में सुप्त रहा है। इसलिये शुभ कर्मों के निमित्त से उत्पन्न मनुष्यभव रूप पर्याय में स्थित जीव पूर्वाभ्यास के कारण जीव सोने में सुखानुभव करता है । वस्तुत: उसे द्रव्य हूँ। क्षेत्र से- आर्यक्षेत्र के उत्तम कुल में उत्पन्न इस ग्राम (के इस जागने से ही डर लगता है और वह जागरण में असुख मानता है। घर के कक्ष) में स्थित हूँ। कालसे - मैं पाँचवें आरे में उत्पन्न हुआ ज्ञान का आलोक होने पर उसे सह नहीं सकने के कारण मूर्च्छित हो हूँ। सुदीर्घ आयुष्य में काल की मर्यादा को जानकार अपने कर्तव्य जाता है या जागकर भी पुन: सो जाता है। को जानता हूँ । भाव से - मैं श्रावक या साधु हूँ। अब किसलिये क्या क्षयोपशम = भीतरी विशिष्ट पुरुषार्थ से और अमित धुण्ययोग करूँ।' फिर सोचे- 'मेरे शरीर में (लघु शंका आदि की) व्याबाधा तो से जीव विशिष्ट चेतनावान बनता है। किन्तु वह उसी चेतना से पीड़ित नहीं हैं? यदि हो तो उससे निवृत्त बना हुआ गमना-गमन का प्रतिक्रमण होने लगता है । (संभवत: लोग इसी कारण से नशेबाज हो जाते होंगे।) करके निद्रादोष का प्रतिक्रमण करे। फिर उस विशिष्ट चेतना के धनी की चेतना ऊर्ध्वगामिनी न होकर धर्म-आराधन-विधि अधोगामिनी हो जाती है। प्रमत्त जीव चेतना से श्रमित बन जाता है इसके बाद पुन: चिन्तन करे - 'मेरा क्या कार्य है? जिनत्व की और फिर पापी हो जाता है - सो जाता है। अभिव्यक्ति ही, न कि और कुछ उस लक्ष्यकी सिद्धि के लिये ही सभी भक्ति में आसक्त मुनि और भोगों में आसक्त गृहस्थ राग में साधना करूं। मैं उसे रत्नत्रय (की आराधना) से साधू । क्योंकि रत्नत्रय लीन हो जाते हैं। वे समय की मर्यादा को नहीं जानते हैं और की आराधना ही सद्भूत साधना है।' (भाव-जागरण में प्रमाद करके) अपराध करते हैं। ऐसे परमुखापेक्षी उपर्युक्त चिन्तन करके भाव और काया से नमस्कार करे । फिर आत्मा जब-जब कोई कार्य (या व्यस्तता) नहीं होता है या वह अकेला (गृहस्थ हो तो सामायिक करे और फिर साधु या श्रावक चार शरण होता है, तब-तब वह सन्तुष्ट होकर सो जाता है और सोते में ही आनन्द ग्रहण करके स्तोत्र, स्वाध्याय या स्तुति करे। विज्ञ पुरुष यल नहीं मानता है। करनेवालों (असंयमियो) को नहीं जगाते हुए भाव-जागरण की साधना में समय व्यतीत करे। मनोरथों को भाये। प्रतिक्रमण करे और कई सूर्योदय हो जाने पर भी शय्या में सुखानुभव करते हैं तो यथाशक्ति प्रत्याख्यान करके सिद्धों को प्रणिपात करे। कई सर्यास्त होते ही शय्याधीन हो जाते हैं - यह बिल्कुल अच्छा नहा धर्म-जागरण का फल इस प्रकार जो प्रमाद को छोड़कर अपररात्रि में सद्धर्म का अनुष्ठान साधु और श्रावक को उपदेश करता है- ध्यान करता है, वह अपनी सुखशीलता का परित्याग करता साधु को निद्रा अल्प ही लेना चाहिये। क्योंकि साधना ही है (अत: तितिक्षा का अभ्यास होता है) और उसका हृदय शुभ भावों उसका वास्तविक कर्म है। पूर्वरात्रि के पश्चात् यदि निद्रा के कारण (शेष पृष्ठ ८० पर) श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना ८१ आज्ञा धारी के निकट, विनय ज्ञान विज्ञान । जयन्तसेन गायक वह, मानवता का ज्ञान ॥ www.jainelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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