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________________ ५२ क केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणंतं च । विशेषावश्यक भाष्य- ९४ ख विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति - ९४ ४७ क तत्त्वार्थ सूत्र १।३० ख जया सव्वत्तगं नाणं चामिगच्छई। तया लोगमलोगंच जिणो जाणइ केवली ।। दशवैकालिक सूत्र ४।२२ ग दशवैकालिक सूत्र हरिभद्रीयवृत्ति पृ. १५९ । ४८ उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ. स्याद्वादनयसंज्ञितौ। स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकल संकथा ॥ लघीयस्त्रयश्लोक-६२ । अनेक धर्मात्मक वस्तु-विषयक-बोधजनकत्त्वं सकलादेशत्वम् एकधर्मात्मकवस्तु विषयकबोधजनकत्त्वं विकलदेशत्वम्॥ सप्तभंगी तरंगिणी - पृष्ठ १६ । ५० नयनामेकनिष्ठानां प्रवृत्ते श्रुतवर्त्मनि। सम्पूर्णार्थविनिश्चायिसस्याद्वादश्रुतमुच्यते ॥धायनमा न्यायावतार सूत्र श्लोक - ३० । विमा क-नभो ज्ञातुरभिप्रायः। लघीयस्त्रयश्लोक ५५ अकलंक ख ज्ञातॄणामभिसन्धयः नयाः। सिद्धिविनिश्चयः टीका पृष्ठ ५१७ अकलंक क धर्मान्तरादानोपेक्षा हानिलक्षणात्त्वात् प्रमाणनयदुर्नयानां - प्रकारान्तरा संभवाच्च । प्रमाणात्तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेः तप्रतिपत्तेः तदन्यनिराकृतेश्च - अष्टसहस्त्री। ख निःशेषाशजुषां प्रमाणविषयीभूयं समासेदुषाम् । वस्तनां नियतांश कल्पनपराः सप्त श्रुतासंगिनः ।। औदासीन्य परायणास्तदपरे चांशे भवेयुर्नयाः। चे देकांशकलंकचंक कलुषास्ते स्युस्तदा दुर्नयाः॥ उमास्वातिकृत पंचाशक ॥ तम्हा सव्वे वि णया मिच्छा दिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सि आ उण हवंति सम्मत्तसम्भावा । सन्मति-प्रकरण-१।२१ । ५४ सकलादेशी हि योगवद्येन अशेष धर्मात्मनं वस्तु - कालादिभिरभेदवृत्त्या प्रति ५५ पादमति: अभेदोपचारेण वा, तस्य प्रमाणाधीनत्त्वात् । विकलादेशस्तु क्रमेण भेदोपचारेण भेद-प्राधान्येन वा तस्य नयायत्तत्वात्। तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १, ६,५४ ५३ ४९ (पृष्ठ ८१ का शेष) 'मैं अनादि से बोधि से विहीन रहा । अत: पापों में ही आसक्त - उत्तम भावों से भर जाता है। जिससे उसके कर्मों की निर्जरा होती रहा। हे जिनेन्द्रदेव' ! कदाचित् पाप-क्रियाएँ छोडी तो दिन और रात है और वह जल्दी ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। में सोता ही रहा। जागरण की भावना माम हे प्रभो ! अब मैं निद्रा में लीन न रहँ। मैं उसका परित्याग 'हे प्रभो ! विषयों में जागते हुए मैने समय को खिसकते हुए कोपिली गत में जल्दी ही जा फिर जिनको अन्य विषयों नहीं जाना। कदाचित धर्म करता हूँ तो चित्त शून्य हो जाता है । हे धर्मज्ञान में लीन रखें। देव ! ऐसे मैंने लम्बा समय बिता दिया है। - मोक्खपुरिसत्थो ग्रन्थ के तेईसवें जागरिया अज्झयण का भावानुवाद', मधुकर मौक्तिक तृष्णा के कारण भवजल सरिता पूरे वेग से बहने लगती है, जबकि तृष्णानिरोध के कारण भावगंगा उमड़ उमड़ कर द्विगुणित सतेज प्रवाहित होती है। बहुरंगे मनोभावों को साकार-तदाकार रूप प्रदान करने के लिए वासनाओं की कतार लग जाती है और सत्-असत् का विवेक न रखने से भावमाला विच्छिन्न हो जाती है। जिस भव परंपरा बढ़ाने का सरलतम उपाय है-सद्भाव की साधारण महद्शक्ति को विस्मृत कर मनोविचार जन्य काल्पनिक और क्षणिक इच्छाओं को अत्यधिक महत्व प्रदान करना । ऐसा करना अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। ******* भव से अतिक्रमण कर भावना की तरफ प्रगति/प्रकृष्ट गति का मंगल प्रारंभ जीवन विकास का पहला कदम है। अतिक्रमण के पश्चात् तीर्थंकर परमात्मा की आत्मा ने भी जब से भव से पीछे हटने का प्रारंभ किया, तब से ही उनके भवों की गिनती प्रारंभ हुई। ऐसे हैं ये तीर्थंकर परमात्मा, जिन्होंने 'वीयराय' अर्थात वीतराग स्थिति प्राप्त की है। राग-द्वेष और उनके फल स्वरूप भव बीजांकुरों के पुष्पित, पल्लवित और फलित होने के कारणों को जिन्होंने समाप्त कर दिया है। उन वीतराग परमात्मा का श्रेष्ठतम पुष्ट आलंबन ही जीव को जयविजय के मार्ग में अग्रसर करता है और इसीलिए प्रार्थना का सर्वप्रथम चरण है—'जय वीयराय!'। श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन पंथ वाचना गुरु आज्ञा में रह किया, निग्रह मन वच काय । जयन्तसेन सिद्धि सफल, पावत सब सुखदाय ॥ www.jainelibrary.org| Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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