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हिंदी की सतसई परम्परा में बिहारी सतसई निश्चयही सर्वप्रथम एवं सर्वोत्कृष्ट है। बिहारी की काव्य प्रतिभा, बहुज्ञता, और वाग्विभूति अद्वितीय है । संस्कृत, प्राकृत और फारसी काव्य का पर्याप्त प्रभाव होते हुए भी प्रस्तुत सतसई में हर दृष्टि से एक अनोखी नवीनता दिखायी देती है । डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदीजी के शब्दों में “बिहारीसतसई सैकडों वर्षों से रसिकों का हिय-हार बनी हुई है और तब तक बनी रहेगी जबतक इस संसार में सहदयता है ।"
सतसई काव्य-परम्परा के संदर्भ में हिंदी जैन काव्य के मध्ययुग में बनारसीदास, यशोविजय, विजयदेव सूरि, ज्ञानतराय, बुधजन, टेकचंद, पार्श्वदास आदि अनेक जैन कवि हुए । इनके काव्य में तत्वदर्शन तथा भक्ति के साथ-साथ जैन आचार-पद्धति की काव्यात्मक मीमांसा पाई जाती है । सप्तव्यसन और चार कषायों का विरोध तथा दशधर्म के पालन की प्रेरणा का प्रभाव समस्त जैन काव्य में सर्वत्र पाया जाता है । हिंदी जैन काव्यों में अहिंसा का निरूपण सैद्धान्तिक तथा भावपरक दोनों दृष्टियों से पाया जाता है । अहिंसा का स्वरूप तथा हिंसा की अनावश्यकता तथा अव्यावहारिकता को तार्किक एवं बौद्धिक शैली में समझाया गया है । विशाल नीतिकाव्य 'बुधजन सतसई' के प्रणेता बुधजन ने
'इहलोक' और 'परलोक' दोनों में ही हिंसक व्यक्ति को निंदनीय ठहराया है । एक उद्धरण द्रष्टव्य है -
हिंसक को बैरी जगत, कोई न करे सहाय । मरता निबल गरीब लखि, हर कोई लेत बचाय ।। हिंसा ते वै पातकी, पातक ते नरकाय । नरक, निकसि कै पातकी, संतति कठिन मिटाय ।।
इसी परम्परा में श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर' जी द्वारा लिखित सतसई का विशिष्ट स्थान है । हिंदी काव्य की सतसई परंपरा में यह लेखन अनेक अर्थों में वंदनीय है । उसकी स्वतंत्र रूप से चर्चा आवश्यक है लेकिन वह स्वतंत्र लेख का विषय है । लेख की मर्यादाको ध्यान में रखते हुए यहाँ रुकना पडता है । मधुकरजी के ज्ञान, तपस्या, साधना, जीवनानुभव के अनेकानेक रमणीय सिद्ध स्थलों के चित्रण उनके साहित्य में प्रकट हुए हैं। उनके वाङ्मयीन विग्रह की परिक्रमा और वंदना साहित्य की उपयुक्त निधि है । धार्मिक साहित्य के अंतर्गत उसका विचार मर्यादित रूप से न किया जाए तो उसके साहित्य विषयक नाना गुणों का कोष सहदयों के लिए खुला हो सकता है।
मधुकर-मौक्तिक
माला तो रोज हम गिनते हैं, पर जीवन में उसका असर नहीं होता; क्यों नहीं होता? इसलिए कि माला तो हाथ में फिरती है और मन सब जगह फिरता है। हाथ में रहा हुआ 'मनका' तभी असर करेगा जब मन का मनका उसका साथ देगा। हाथ का मनका और मन का मनका दोनों का मेल बैठना चाहिये।
★★★ परमात्मा का ध्यान करने के लिए अपना हृदय कमल-समान मानना चाहिये । उसकी एक मध्य, आठ दिशा-विदिशा में नौ पंखुड़ियाँ मान कर एक-एक पँखुड़ी पर नवकार का एक-एक पद स्थापिन करना चाहिये । बीच में अरिहन्त परमात्मा और उनके ठीक चारों ओर सिद्ध परमात्मा, आचार्य भगवान, उपाध्याय महाराज और साधु मुनिराज की स्थापना करनी चाहिये । चारों कोनों में नवकार के शेष चार पद स्थापित करने चाहिये । फिर आँखें बन्द कर ध्यान शुरु करना चाहिये । अरिहन्त परमात्मा पर ध्यान लगा कर आँखें बन्द कर नमो अरिहंताणं' का जाप करो । इसी प्रकार नवकार के नौ पदों का हृदय-कमल की नौ पँखुड़ियों का आधार लेकर ध्यान करना चाहिये।
ऐसा प्रयल करेंगे तो मन घूमेगा नहीं | मन की स्थिरता के लिए आँखें बन्द करना आवश्यक है | मन मुकाम पर तब रहता है, जब हम यह महसूस करते हैं कि हम माला नहीं फेर रहे हैं, मन्त्र का जाप कर रहे हैं। सच्चा मन्त्र वही है जो मन को मन्त्रित कर डाले । यदि मन मन्त्रित नहीं हुआ, तो समझ लेना कि अभी तक मन्त्र हाथ नहीं लगा । मन्त्र हाथ लगते ही मन मन्त्रित हो जाता है अथवा मन मन्त्रित हो जाए, तो समझ लेना कि मन्त्र हाथ लग गया।
★★★ जिससे मन को शिक्षा मिलती है - सलाह मिलती है, वह मन्त्र है । मन्त्र से ही मन्त्री शब्द बना है । मन्त्री राष्ट्रपति का सलाहकार होता है | नवकार मन्त्र भी मन को सलाह देता है । वह कहता है मन तर; तो यह मन्तर मन को तरने की, पार होने की सलाह देता है।
- जैनाचार्य श्रीमद् जयंतसेनसूरि 'मधुकर
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
भूल गया उपगार को, अपकारी अविनीत । जयन्तसेन सुखी नहीं, खोता निज परतीत ॥
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