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________________ भगवान महावीर का समन्वयवाद और विश्व-कल्याण जोग (डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय) मानव जीवन का परम लक्ष्य है - निर्वाण पाना । मनुष्य क्या में समन्वयवाद के जरिये समस्त प्राणियों को सुख, शांति समृद्धि व करे कि उसे निर्वाण प्राप्त हो - आत्म स्वरूप का ज्ञान हो? इस संतोष का संदेश दिया । प्रश्न का उत्तर भगवान महावीर ने दिया - “आत्मा पर अनुशासन । सर्वधर्मसमन्वयआत्मा पर विजय पाने वाला मनजीत ही. विश्वजीत होता है - समस्त दुःखों से मुक्त होता है । दुःखों से मुक्ति के लिए, जीवन में 'वत्थु सभावो धम्मो' - वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है | सार्थक शांति के लिए, आत्म प्रशस्ति की दिशा में आगे बढ़ने के जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता, अग्नि का उष्णता, शक्कर लिए तथा विश्व कल्याण, दूसरे शब्दों में 'स्व' और 'पर' के का स्वभाव मीठापन, नमक का स्वभाव खारापन है उसी तरह कल्याण के लिए समन्वय भाव आवश्यक है । भगवान महावीर आत्मा का स्वभाव ज्ञान, दर्शन व चारित्रमय है - सदाचार-मय है - समन्वय की जीती जागती मशाल थे । हर क्षेत्र में समन्वय - चाहे सचित्त एवं आनंदमय है। प्रत्येक आत्मा अपने स्वभाव में रमण वह विभिन्न धर्मों में हो, चाहे आचरण में हो, चाहे व्यवहार में हो करे तो यही धर्म है और यही आत्मा का स्वाभाविक और निजी चाहे विचार में | उन्होने आंतरिक और बाह्य, व्यक्तिगत और गुण भी । दूसरे शब्दों में आत्मा की मूल प्रवृत्तियों के अनुरूप सामाजिक प्रत्येक कोण से समन्वय का समीकरण किया तथा चलना ही धर्म है। प्रत्येक समस्या का सम्यक् समाधान प्रस्तुत कर मानवता को धम्मो मंगल मुक्किटठं, अहिंसा संजमो तवो, कल्याण और शांति की राह दिखाई।। देवा वित्तं नर्मसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ अन्तर्जगत में समन्वय-क्रांति का शंखनाद कर, भगवान (दशवैकालिक सूत्र) महावीर स्वयं कामनाओं से लड़े, विषय वासनाओं पर विजय प्राप्त की, हिंसा को पराजित किया, असत्य को पराभूत किया तथा म अर्थात् जो उत्कृष्ट मंगलमय है, वही धर्म है - दूसरे शब्दों में जात्यभिमान, कर्माभिमान, आडम्बर, विषमता, लोभ, मोह आदि जो प्राणीमात्र के लिए सुख शांतिकारी है, मंगलकारी है - वही धर्म को पीछे धकेल कर निर्वाण के भागी बने, भगवत्ता के महान् पद है । अहिंसा, संयम व तप की आराधना से ही मानव मात्र का पर प्रतिष्ठित हुए। मंगल होता है तथा आत्मा का कल्याण होता है। ऐसे धर्म को धारण करने वाले को देवता भी नमस्कार करते हैं। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना उनमें कूट कर भरी थी । हर . प्राणी सुख चाहता है और इस हेतु वह प्रयल भी करता हैं, पर उन्हान किसा धर्म विशष का गुण गान नहीं किया । उनका अधिकांश जन दुःखी ही देखे जाते हैं। वे दुःखी क्यों है? उन्हें तो बस एक ही लक्ष्य था - प्राणीमात्र को सुखी देखना । जिस धर्म सुख क्यों नहीं मिलता, क्या सुखी बनने के लिए दूसरों को दुःखी में सभी प्राणियों का मंगल निहित है वही सच्चा धर्म है। बनाना आवश्यक है ? यदि नहीं तो सभी को सुखी बनाकर कैसे "जाव दियाई कल्लाणाई, सग्गे य मगुअलोगेय । सुख पाया जा सकता है - यह, उनके मन की व्यथा थी तथा सर्व आव हदि ताण सव्वाणि, मोक्खं च वर धम्मो ।' कल्याण और स्व कल्याण के मार्ग को ढूंढना उनके जीवन का लक्ष्य । इस प्रक्रिया में उन्हें १२ वर्ष लगे और जो पाया वह दिव्य (भगवती सूत्र) से दिव्य था, गहन से गहन था पर स्फटिक की तरह केवल ज्ञान अर्थात् स्वर्ग और मृत्युलोक में जितने भी कल्याण हैं उन और ज्ञान था । जीवन का कोई क्षेत्र अछूता नहीं रहा । केवल सबका प्रदाता धर्म ही है। मनुष्य का कल्याण धर्म पालन में है - ज्ञान के उस अलौकिक प्रकाश ने विश्व की हर समस्या का । हाँ धर्म की परख आवश्यक है - हिंसक, रूढ़िवादी व कृत्रिमता पूर्ण समाधान प्रस्तुत किया । धर्म कल्याण कारक नहीं हो सकता । सर्वोच्च और सच्चा धर्म वही महावीर के आविर्भाव के समय की तत्कालीन व्यवस्था में है जो सब प्राणियों के लिए मंगलकारी है। जन्मना जाति का सिद्धान्त व्याप्त था अतः समाज में विषमता का भगवान महावीर के सर्व धर्म बोल बाला था । सांप्रदायिकता का आवरण धर्म पर छा रहा था। समन्वयवादी विचारों ने न सिर्फ एक ओर हिंसा का बोल बाला था तो दूसरी ओर वैभव, विलास तत्कालीन समाज को सन्मार्ग दिया और व्यभिचार का तांडव नृत्य । ऐसे में महावीर का समता का वरन् आज जब संप्रदायों के झगड़े, सिद्धान्त - कोई ऊँचा नहीं - कोई नीचा नहीं - सभी बराबर का हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आदि प्रतिपादन अभूतपूर्व क्रान्ति लाया । प्राणीमात्र का कल्याण ही धर्मानुयायियों के झगड़े, संगठनों उनका लक्ष्य था और यही उनका धर्म । उन्होंने मानसिक स्वतंत्रता के - पंथो और विचारों के झगड़े न और साहसिक आवश्यकता का महत्त्व समझाया तथा प्रत्येक क्षेत्र सिर्फ भारत को वरन् सम्पूर्ण विश्व श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (५८) खोकर निज सम्मान को, करता कार्य कठोर । जयन्तसेन जगे नहीं, उस का अनुभव जोर Moral Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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