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________________ को अशान्ति और आतंक, संघर्ष और तनाव की ओर ले जा रहे विचार में समन्वित हो। हैं - महावीर के ये सर्व धर्म समन्वयवादी विचार सर्व मंगल ____आचरण में समन्वय - - मांगल्यम् सर्व कल्याण कारणम् है - प्रत्येक देश, समाज, जाति, मानव एवं प्राणीमात्र के लिए शांतिदीप की तरह है। मा 'आ' अर्थात् आचार - मर्यादा तथा 'चरण' अर्थात् 'चलना' । मर्यादा में चलना ही आचरण है | जैसा औरों का आचरण हम सामाजिक समन्वयवाद - अपने प्रति चाहते हैं वैसा ही आचरण हमें औरों के साथ करना समाज से विषमता का जहर मिटाने के लिए, शोषण के चाहिये | "मित्ती मे सव्वभूएसु, वैरं मझं न केणई" - सभी से दावानल को समाप्त करने के लिये तथा विश्वबन्धुत्व व विश्वशांति मित्रता हो, किसी से बैर नहीं | यह उनके आचरण समन्वयवाद की प्रतिष्ठा के लिए भगवान महावीर ने सामाजिक व्यवहार का की मंजिल थी । इस मंजिल तक पहुँचने के लिए उन्होंने पंच सम्यक्करण किया - समता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । अणुव्रत - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह-परिमाणसमता - अर्थात् सब के प्रति समान व्यवहार, समान भाव । अनादि व्रतः, दशधर्म - क्षमा, मार्दव, अर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, काल से मानव इस संसार में जन्म ले रहा है । कोई ऐसा जीव नहीं त्याग, अविंचन एवं ब्रह्मचर्य तथा १२ अनुप्रेक्षाएं - अनित्य, जो उसका माता-पिता, पति-पलि, पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन आदि न __अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, रहा हो । फिर वह किससे मित्रता करे व किससे घृणा ? किसे लोक, बोधि दुर्लभ तथा धर्म - का प्रतिपादन किया । यह वह . ऊँचा माने और किसे नीचा ? उसका आवागमन दीर्घकालिक है। समन्वित आचार संहिता थी जो शांति, कल्याण और मुक्ति का अतः तात्कालिक दृष्टि से उसे नहीं सोचना चाहिये। शाश्वत मार्ग थी- है - और रहेगी। उनके समान व्यवहार का तात्पर्य यह भी था कि - 'जीओ और जीने दो' -- कोई दुःख नहीं चाहता अतः किसी 'सर्वभूतात्मभूतता - अर्थात् प्राणीमात्र को आत्मीय भाव से अंगीकार को दुःख मत दो - यह उनके आचरण समन्वयवाद का सर्वोत्कृष्ट करना । प्रत्येक व्यक्ति आत्मा से परमात्मा, जीव से शिव तथा नर उदाहरण है। से नारायण बनता है अतः प्रत्येक के साथ आत्मवत् व्यवहार करना 'उड्ढे अहे य तिरिय, जे केइ तस थावरा । ही, उनका सामाजिक समन्वयवाद था । साधु + साध्वी, श्रावक + श्राविका यह चतुर्विध संघ ही उनका, समाज था, जातिवाद का सव्वत्थं विरई विज्जा, संति निवाण माहियं ।। दम्भ उनसे कोसों दूर था। उनके मत से कोई भी मनुष्य जन्म से अर्थात्, उर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यगलोक में जितने भी ब्राह्मण, शूद्र या वैश्य नहीं होता वरन् - त्रस और स्थावर जीव हैं, उनके प्राणों का विनाश करने से दूर "कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओम रहना चाहिये । वैर से विरक्ति ही शांति है और यह शांति ही निर्वाण की ओर ले जाने वाली है। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।" 'सब्बे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुःख पडिकूला, अप्पियवहा, अर्थात् मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है। पिय जीविणो, जीविउ कामा, सव्वेसि जीवियं पियं ।' आज जो समाजवादी विचारधारा पोषण पा रही है, वह अर्थात् सभी प्राणी को अपना जीवन प्रिय है, सभी सुखसाता भगवान महावीर के समता सिद्धान्त पर ही आधारित है। चाहते हैं, दुःख को सर्वथा प्रतिकूल मानते हैं, अपने वध को अप्रिय मानते हैं तथा जीवन को अति प्रिय मानते हैं । अतः जब सामाजिक समन्वय तभी संभव है जब संसार का प्रत्येक किसी को भी मरना इष्ट नहीं तो दूसरों को मारने का क्या व्यक्ति अपने व्यक्तिगत क्षेत्र में - आचार में, व्यवहार में और अधिकार है? यही अहिंसा है । कहा गया है कि - 'यस्मिन् कर्मणि प्राणिना प्राणानां नाशं न क्रियते, तत् कर्म एव अहिंसा इति सिद्धहस्त लेखक तथा कथ्यते ।' किन्तु महावीर की अहिंसा तो इससे भी कहीं ऊपर बहुत अन्वेषणात्मक विधि से परिपक्व ।। ऊपर थी । मन से, वचन से और कर्म से किसी की हिंसा न एक शोध प्रबंध का प्रकाशन । करना, ऐसा करने का विचार भी मन में न लाना तथा मन - कई पत्र पत्रिकाओं में विविध वचन - कर्म से किसी को भी मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा न विधाओं पर रचनाओं का पहुँचाना ही अहिंसा है। समावेश । कुशल वक्ता तथा शब्द भंडार की विशिष्टता। भगवान महावीर के अनुसार संपर्क : ४७, सागरमल मार्ग, एक सच्चा अहिंसक वही है जो खाचरौद, (जि. उज्जैन, म. प्र.) बाहरी भेदों को पाटकर आन्तरिक समानता को देखे । शरीर, इन्द्रिय, डॉ श्रीमती कोकिला भारतीय रूप, रंग, जाति, धन, धर्म आदि एम.ए., पी.एच.डी. बाहरी भेदों को देखकर आन्तरिक और स्वरूप गत समानता को भुलाने प्राणित । किन्तु महावा वचन से और मन में न लाना तथा पीड़ा श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण दो मुंह बातें मत करो, बहुत बड़ा यह पाप । जयन्तसेन निश्चल मति, करती जीवन साफ ।। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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