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________________ जीवन-मूल्य तथा जैन-धर्म जकालका (योगाचार्य डा. नरेन्द्र शर्मा 'कुसुम') सता एक अर्थ में जीवनमूल्य और जैनधर्म एक दूसरे के पर्याय ही माने जाने चाहिए । इसका कारण संभवतः यह है कि जैन धर्म उदात्तोन्मुखी जीवन शैली का ही नाम है । आखिर, जीवनमूल्य हैं क्या ? मानवता में संस्कारित होने की सतत प्रक्रिया के अमोघ साधन ही तो ये जीवन मूल्य हैं; मनुष्य के अन्तर में छिपे 'दिव्य तत्त्व' की भास्वरता में मनसा-वाचा-कर्मणा निमग्न होने के माध्यम ही तो ये जीवन-मूल्य हैं; जीवन को मूल्यवत्ता प्रदान करने वाले ये शाश्वत मानवीय मूल्य ही तो जीवन मूल्य हैं । संसार के सभी धर्म इन जीवनमूल्यों का प्रतिपादन करते हैं क्योंकि इन मूल्यों के अनुकरण में ही मानव-मंगल सन्निहित है । जैन-धर्म में इन जीवनमूल्यों पर विशेष बल दिया गया है | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह आदि जीवनमूल्य सनातन मानवीय मूल्य हैं । ये मूल्य ही मानव संस्कृति के मूलाधार हैं । जैनधर्म इस संस्कृति का पूर्णरूपेण प्रतिनिधित्व करता है । सच्चा जैन वही है जो कि "जिन" का अनुसरण करे; वे 'जिन' जिन्होंने राग-द्वेषरूप अथवा क्रोध-मानादि कषायरूप आन्तरिक शत्रुओं को जीत लिया है, जो निर्लेप-निर्विकार हैं, जो तीर्थंकर हैं, जो वीतराग हैं, जो अरिहंत हैं तथा स्थिरधी हैं। कहने का तात्पर्य है कि आत्म-परिष्कार की पूर्णता के प्रतीक ये 'जिन' ही जैनधर्म के प्रेरणा-स्रोत हैं । जैनधर्म सही अर्थों में किसी सम्प्रदाय या पंथ विशेष का नाम न होकर जीवन-मूल्यों को अपने साथ लेकर चलनेवाली एक विशेष जीवन - पद्धति है । मंगलमयी, उदात्तचेता । तप, संयम, अहिंसा द्वारा समन्वित जीवन शैली ही सच्चा धर्म है । दशवैकालिक १/१ में धर्म की परिभाषा इसी अर्थ में की गयी है: "धम्मो मंगलमक्किटठं. अहिंसा संजमो तवो ।" यही धर्म हमारा परम आधार है । जरा, मृत्यु के प्रभंजनों से प्राणी की रक्षा करने वाला, उसे काल-जलधि में डूबने से बचाने वाला यही धर्म-द्वीप हमारा सच्चा अवलम्ब है :जरा-मरण वेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवा पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं ।। - उत्तराध्ययन २३/६८ आत्म-परिष्कार के माध्यम से समष्टि में प्रेम, करुणा, बंधुत्व, अहिंसा तथा सहिष्णुता जैसे मानवोचित जीवन-मूल्यों को विकसित करने का सच्चा साधन यही धर्म है। आज के भौतिकता-संकुल परिवेश में जैन-धर्म में प्रतिपादित अहिंसा सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, कषाय-विजय आदि इन जीवन-मूल्यों का बड़ा महत्त्व है | इन शाश्वत जीवन - मूल्यों की सार्थकता अथवा प्रासंगिकता निर्विवाद है । इन जीवनमूल्यों की उपेक्षा से ही हम एक ऐसी त्रासद स्थिति में पहुँच गये हैं कि यदि हम शीघ्र ही इस अवस्था से नहीं उभर पाये तो मानव का विनाश अवश्यम्मावी ही माना जाना चाहिए । इन जीवन मूल्यों की पुनस्थापना से मानव का कल्याण संभव है । इन जीवन-मूल्यों को यदि कहीं ढूँढा जा सकता है तो जैनधर्म में प्रमुखता से ढूँढा जा सकता है । वैसे जैसा कि ऊपर कहा गया है कि ये जीवन-मूल्य सभी धर्मों में समाविष्ट हैं, पर अहिंसा, अपरिग्रह आदि जीवनमूल्यों पर जैन-धर्म में विशेष आग्रह रहा है, और इन्हीं जीवनादर्शों से ही जैनधर्म की विशिष्ट पहचान बनी है। कि आज सर्वत्र हिंसा, लोभ, असंयम,अनुशासनहीनता, असहिष्णुता, असत्य का बोलबाला है | मानव की मानवता तिरोहित होती जा रही है । समस्त संसार विनाश के कगार पर खड़ा हुआ है । ऐसी विषादमयी स्थिति में जैनधर्म में समाविष्ट ये जीवन-मूल्य ही मानव को विनाश से बचा सकते हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि हम इन जीवन-मूल्यों की वर्तमान भूमिका को पहचानें और तदनुसार मनवचन - कर्म से अपने जीवन में उनका पूर्ण पालन करें। इन जीवन-मूल्यों में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान है । 'अहिंसा परमो धर्मः' का उद्घोष जैनधर्म का मूल प्राण-तत्त्व है | धर्म का यहाँ अर्थ अंग्रेज़ी शब्द 'रिलीजन' से नहीं लिया जाना चाहिए । इसे मनुष्य-स्वभाव का आभ्यन्तर एवं अन्तर्निहित तत्त्व ही समझना चाहिए । वस्तुतः प्राणिमात्र की एकात्मकता या एकान्विति का नाम ही धर्म है । जहाँ कहीं भी धर्म के लक्षण गिनाये गये हैं वहाँ अहिंसा का नाम सबसे पहले आया है । वैदिक, बौद्ध तथा जैन - तीनों परम्पराओं में पंचव्रतों के अन्तर्गत अहिंसा को सर्वोच्च स्थान मिला है । महर्षि पतंजलि ने अहिंसा को यमों के अन्तर्गत मान कर उसे वैर का प्रतिकारक माना है : योगदर्शन में कहा गया है । कि "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः" (पाद-२, सूत्र ३५) जन-धर्म का मुख्य संबल अहिंसा ही है । यह जीवन-मल्य मात्र निषेधात्मक न होकर पूर्णरूप से सकारात्मक है क्योंकि अहिंसा में प्राणिमात्र से प्रेम करने का भाव छिपा रहता है। जैन-धर्म के मुख्य दीप्ति-स्तम्भ भगवान महावीर ने 'जिओ और जीने दो' का मूल मंत्र इसी जीवन-मूल्य के द्वारा दिया है | सूत्रकृतांग में उल्लेख है: "एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं" अर्थात् ज्ञानी होने का सार है - किसी भी प्राणी की हिंसा न करना । दशवैकालिक (६/११) म ताथकर महावार कहत है: सव्वे जीवावि इच्छंदि, णीविउं ण मरिज्जिउं । तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंधा वज्जयंति णं ॥ - क्योंकि सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय है, सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसीलिए मिर्ग्रन्थ श्रमण जीवों के साथ हिंसक व्यवहार का सर्वथा त्याग करते हैं। मनुष्य जब अहिंसा के इस जीवन-मूल्य को अपना लेगा तो आज श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६३) आता जाता कौन है, स्वार्थ भरा संसार । जयन्तसेन मनन करो, खुला ज्ञान भंडार ।। www.jainelibrary.org, Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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