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________________ की अनेक समस्यायें, विभीषिकायें, विसंगतियाँ अपने आप समाप्त है । इसे केवल 'अपरिग्रह' के सतत आचरण से ही हटाया जा हो जायेंगी । जैनधर्म अहिंसा पर इसलिए बल देता है क्योंकि सकता है । अहिंसा की उपलब्धि बिना अपरिग्रह की भावना से अहिंसा एक व्यापक जीवन-मूल्य है जिसके अन्तर्गत सत्य, अस्तेय, संभव नहीं । अपरिग्रह के होने पर अहिंसा तो स्वतः फलित होगी ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि अन्य जीवनमूल्य स्वतःही आ जाते हैं। ही । यदि लोभ नहीं है तो द्वेष क्यों उत्पन्न होगा और द्वेष के बिना इसलिए अहिंसा का पालन प्रारंभ में अणुव्रत के रूप में किया जाना हिंसा का जन्म कैसे होगा? चाहिए क्यों कि इसे महाव्रत के रूप में अपनाना सरल नहीं है । संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माहिसा तयाऽशुभम् । हाँ, सतत अभ्यास से महाव्रत की स्थिति तक पहुँचा जा सकता है। ..... दुःखं वाचामगोचरम् ।। जिस प्रकार 'हिंसा' आसुरी प्रवृत्ति है, उसी प्रकार 'परिग्रह' - ज्ञानार्णव १६/१२/१७९ । हमारी कई समस्याओं का कारण है । हिंसा को अहिंसा से जीता आज के विश्व को अपरिग्रह की नितांत आवश्यकता है । जा सकता है और परिग्रह को अपरिग्रह के जीवन - मूल्य द्वारा । सामाजिक विघटन, व्यक्ति का स्खलन, अशांति अपरिग्रह की विज्ञान की अनेकानेक उपलब्धियाँ मनुष्य को 'परिग्रह' की अंधेरी उपेक्षा के ही परिणाम हैं । इसलिए यह आवश्यक है कि व्यष्टि गुफाओं में ले जा रही हैं । मानव शांति के लिए छटपटा रहा है, और समष्टि के हित में अपरिग्रह को जीवन - मूल्य के रूप में पर उसे शांति कहाँ ? परिग्रह की प्रवृत्ति, राग, द्वेष, वैमनस्य, अपनाया जाये । अपरिग्रह क्या है ? जीवन की आवश्यकताओं शक्ति-संचय, शस्त्र-संग्रह, वैषम्य के रूप में यत्रतत्र सर्वत्र प्रकट हो को सीमित करना, संग्रह को सीमित करना और इनसे मूर्छा रही हैं । ऐसी भयावह स्थिति में अपरिग्रह का जीवन-मूल्य ही हमें हटाना अपरिग्रह है । परिग्रह के मूल में कषाय ही मुख कारण हैं। अशांति और सामाजिक विघटन से बचा सकता है। अपरिग्रह की भावना एवं तदनुसार कर्तव्य से ही इन कषायों को अहिंसा, अपरिग्रह के जीवन-मूल्यों से जुड़ा हुआ एक और जीता जा सकता है । जिस व्यक्ति में संचय-संग्रह की प्रवत्ति का जीवन-मूल्य है जिसका जैन धर्म में विशेष महत्त्व है । वह है अभाव होगा वह.. हिंसा, द्वेष, वैमनस्य आदि दोषों से मुक्त रहेगा, क्षमा । सभी धर्मों में क्षमा को एक श्रेष्ठ मानवीय मूल्य बताया वह सत्यशील होगा क्योंकि वह निर्भय होगा. वह किसी की सम्पत्ति गया है। महाभारत में कहा गया है: अथवा अधिकार का क्यों हनन करेगा? | अपरिग्रही व्यक्ति अपने क्षमा ब्रह्म, क्षमा सत्यं, क्षमा भूतं च .. को सही अर्थ में जान सकेगा। क्षमा तपः क्षमा शौचं, क्षमयैतद्धृतं जगत् ।। योगदर्शनकार के अनुसार, अपरिग्रही को ज्ञान हो जाता है कि 'परिग्रह' निस्सार है क्योंकि इससे तृप्ति प्राप्त नहीं हो सकती : भगवान महावीर तो क्षमा के साक्षात् अवतार ही थे । उनका वचन है कि 'समयं सया चरे' अर्थात् क्षमा (समभाव) का आचरण शिश न जातु, कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । मनालाल करो । क्षमा से प्राणी परिषह को जीत लेता है 'खंतिएणं जीवे हविषा कृष्ण-वर्सेव भूय एवाभिवर्धते ॥ परिषहं जणयइ' । क्षमा करुणा, वात्सल्य तथा स्नेह की जननी है। "आग में चाहे हवन की कितनी भी सामग्री डाली जाये, क्षमा से सहिष्णुता जन्म लेती है । क्षमा, कषायों को धो डालती आग की तृप्ति नहीं होती, वह और उद्दीप्त हो जाती है, उसी है। क्षमा के अभाव में मानव हिंस्त्र पशु बन जाता है । क्षमा से प्रकार भोग जितने भी भोगे जायें भोगेच्छा की तृप्ति नहीं होती। मन में निर्मलता तथा सात्विकता का संचार होता है । प्रतिशोध को वह और भी बढ़ती जाती है ।" जैनधर्म में परिग्रह को मूर्छा माना केवल क्षमा से ही जीता जा सकता है । अंग्रेज़ी लेखक बेकन ने 'प्रतिशोध' को एक प्रकार का 'वन्यन्याय' माना है । जैन धर्म में बहुचर्चित और व्यवहृत क्षमा का यह जीवन-मूल्य हमारे वर्तमान पांच पुस्तकों का प्रकाशन । अक्सादमय जीवन को सुख, शांति और प्रेम से भर सकता है। कई पत्रपत्रिकाओं में कृतियों का इसलिए हमें चाहिए कि क्षमा - केवल वाचक नहीं अपितु आंतरिक समावेश | राजस्थान योग प्रतिष्ठान भी - का सतत अभ्यास करें जिससे कि मानव सही जीवन जी जयपुर के निर्देशक । 'अभिज्ञान' सकें। कहा भी गया है: “गलति इंसान से होती है पर उसे क्षमा के संयोजक । 'संदर्भ तथा करना दैवी गुण है"। 'वातायन' के सदस्य। व जैन-धर्म में क्षमा के अतिरिक्त, सहिष्णुता को पनपाने वाला समन्वयवादी, उदात्तोन्मुखी, मानव एक जीवनमूल्य और है : वह है मंगलोत्सुक जीवन दृष्टिकोण । जीवन के प्रति अनेकांत-दृष्टि । सम्प्रति अध्यक्ष स्नातकोत्तर भगवान महावीर ने अनेकांत या अंग्रेजी विभाग, लालबहादुर शास्त्री स्याद्वाद के माध्यम से यह कहा योगाचार्य डॉ. नरेन्द्र शर्मा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कि सत्य एकपक्षीय नहीं है, उसके 'कुसुम' तिलकनगर, जयपुर। अनेक पक्ष हैं । इसलिए सत्यान्वेषण एम.ए., पी.एच.डी., सम्पर्क - 'मधुविलयम्' ७ | में दुराग्रह या एकांगिता नहीं होनी सी.टी., वाई.एड. वा २ जवाहरनगर, जयपुर चाहिए । वास्तव में सत्य तो एक (राजस्थान) नाम ही है किन्तु विद्वान् इसे विविध श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (६४) संशय का हि फैसला, कभी न हो जग जान । जयन्तसेन सरल सुखद, धरो हृदय शुभ ध्यान ।। W inelibrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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