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________________ अप्पा सो परमप्पा • आत्मा ही परमात्मा है (डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल) पर भाई बात यह है कि उसके करोड़पति होने पर भी हमारा मन उसे करोड़पति मानने को तैयार नहीं होता, क्योंकि रिक्शावाला करोड़पति हो - यह बात हमारे चित्त को सहज स्वीकार नहीं होती । आजतक हमने जिन्हें करोड़पति माना है, उनमें से किसी को भी रिक्शा चलाते नहीं देखा और करोड़पति रिक्शा चलाये - यह हमें अच्छा भी नहीं लगता, क्योंकि हमारा मन ही कुछ इसप्रकार का बन गया है। 'कौन करोड़पति है और कौन नहीं है,' - यह जानने के लिए आजतक कोई किसी की तिजोरी के नोट गिनने तो गया नहीं, यदि जायेगा भी तो बतायेगा कौन ? बस बाहरी तामझाम देखकर ही हम किसी को भी करोड़पति मान लेते हैं । दसपाँच नौकरचाकर, मुनीमगुमास्ते और बंगला, मोटरकार, कलकारखाने देखकर ही हम किसी को भी करोड़पति मान लेते हैं, पर यह कोई नहीं जानता कि जिसे हम करोड़पति समझ रहे हैं, हो सकता है वह करोड़ों का कर्जदार हो । बैंक से करोड़ों रुपये उधार लेकर कलकारखाने चल निकलते हैं और बाहरी ठाठबाट देखकर अन्य लोग भी सेठजी के पास पैसे जमा कराने लगते हैं । इसप्रकार गरीबों, विधवाओं, ब्रह्मचारियों के करोड़ों के ठाठबाट से हम उसे करोड़पति मान लेते जैनदर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह कहता है कि सभी आत्मा स्वयं परमात्मा है । स्वभाव से तो सभी परमात्मा है ही, यदि अपने को जाने पहिचाने और अपने में ही जम जाँय, रम जाय तो प्रगटरूप से पर्याय में भी परमात्मा बन सकते हैं। जब यह कहा जाता है तो लोगों के हृदय में एक प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि जब 'सभी परमात्मा हैं, तो परमात्मा बन सकते हैं। इसका अर्थ क्या होता है ? और यदि 'परमात्मा बन सकते हैं यह बात सही है तो फिर ‘परमात्मा हैं' -इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता हैं, क्योंकि बन सकना और होना - दोनों एकसाथ संभव नहीं हैं। भाई, इसमें असंभव तो कुछ भी नहीं है, पर ऊपर से देखने पर भगवान होने और हो सकने में कुछ विरोधाभास अवश्य प्रतीत होता है, किन्तु गहराई से विचार करने पर सब बात एकदम स्पष्ट हो जाती है। म एक सेठ था और उसका पाँच वर्ष का इकलौता बेटा । बस दो ही प्राणी थे । जब सेठ का अन्तिम समय आ गया तो उसे चिन्ता हुई कि यह छोटा-सा बालक इतनी विशाल सम्पत्ति को कैसे संभालेगा? अतः उसने लगभग सभी सम्पत्ति बेचकर एक करोड़ रुपये इकट्ठे किये और अपने बालक के नाम पर बैंक में बीस वर्ष के लिए सावधि जमायोजना (फिक्स डिपाजिट) के अन्तर्गत जमा करा दिये । सेठ ने इस रहस्य को गुप्त ही रखा, यहाँ तक कि अपने पुत्र को भी नहीं बताया, मात्र एक अत्यन्त घनिष्ठ मित्र को इस अनुरोध के साथ बताया कि वह उसके पुत्र को यह बात तबतक न बताये, जबतक कि वह पच्चीस वर्ष का न हो जावे । पिता के अचानक स्वर्गवास के बाद वह बालक अनाथ हो गया और कुछ दिनों तक तो बचीखुची सम्पत्ति से आजीविका चलाता रहा, अन्त में रिक्शा चलाकर पेट भरने लगा । चौराहे पर खड़े होकर जोर-जोर से आवाज लगाता कि दो रुपये में रेलवे गर-जार स आवाज लगाता कि दा रुपय म रलव स्टेशन, दो रुपये में रेलवे स्टेशन | अब मैं आप सबसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि वह रिक्शा चलानेवाला बालक करोड़पति है या नहीं? क्या कहा ? नहीं। क्यों ? क्यों कि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाते और रिक्शा चलानेवाले बालक करोड़पति नहीं हुआ करते ।। अरे भाई, जब वह व्यक्ति ही करोड़पति नहीं होगा, जिसके करोड रुपये बैंक में जमा हैं तो फिर और कौन करोडपति होगा? इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जिसे हम करोड़पति साहूकार मान रहे हैं, वह लोगों के करोड़ों रुपये पचाकर दिवाला निकालने की योजना बना रहा हो । ठीक यही बात सभी आत्माओं को परमात्मा मानने के सन्दर्भ में भी है । हमारा मन इन चलते-फिरते, खातेपीते, रोतेगाते चेतन आत्माओं को परमात्मा मानने को तैयार नहीं होता, भगवान मानने को तैयार नहीं होता । हमारा मन कहता है कि यदि हम भगवान होते तो फिर दर-दर की ठोकर क्यों खाते फिरते ? अज्ञानान्धकार में डूबा हमारा अन्तर बोलता है कि हम भगवान नहीं हैं, हम तो दीनहीन प्राणी हैं, क्योंकि भगवान दीनहीन नहीं होते और दीनहीन भगवान नहीं होते। अबतक हमने भगवान के नाम पर मन्दिरों में विराजमान उन प्रतिमाओं के ही भगवान के रूप में दर्शन किये हैं जिनके सामने हजारों लोग मस्तक टेकते हैं, भक्ति करते हैं, पूजा करते हैं, यही कारण है कि हमारा मन डाटेफटकारे जाने वाले जनसामान्य को भगवान मानने को तैयार नहीं होता । हम सोचते हैं कि ये भी कोई भगवान हो सकते हैं क्या ? भगवान तो वे हैं, जिनकी पूजा की जाती है, भक्ति की जाती है | सच बात तो यह है श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण आयु घृत देह पात्र में, जलता जीवन दीप । जयन्तसेन घटे सदा, आखिर अस्त प्रदीप ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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