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________________ जाने कितनी बार इन दोषों के प्रति हमें सचेत किया कहा " महुत्तम वि न पमायए" तू मुहूर्त के लिए भी प्रमाद न कर । एक पौराणिक घटना का उल्लेख भी कर दूँ । लक्ष्मी को एक बार पथ में बैठी देख कर इन्द्र ने पूछा - "आजकल आप कहाँ रहती हैं।" उसका उत्तर था गुरवो यत्र पूज्यन्ते वाणी यत्र सुसंस्कृता । अदन्तको यत्र तत्र शक्र वसाम्यहम् ॥ छ अर्थात् मैं वहां रहती हैं जहाँ प्रेम का अखण्ड राज्य है, समाज में कलह-कोलाहल नहीं है, जहाँ करुना और मैत्री है, सहकारिता है - एक प्रकार से यह उत्तर जैन धर्म के नैतिक प्रत्ययों को स्पष्ट करता है । मानव-जीवन में यह नैतिक बोध तभी सम्भव है जब संकल्प और श्रद्धा का अडिग बल प्राप्त हो कहा भी है "श्रद्धा प्रतिष्ठा लोकस्य देवो" वीरप्रभु कहते हैं "श्रद्धा परम दुल्लहा"। प्राणिमात्र में जिजीविषा प्रबल है। सबको जीवन प्रिय है आज तो विज्ञान ने यह भी सिद्ध कर दिया कि पेड़-पौंधों, लता-पुष्पों सबमें वही प्राण-प्रियता और जिजीविषा है, जो मनुष्य में है । वर्तमान काल में वैज्ञानिकों द्वारा की गयी गवेषणाएँ इसका प्रमाण है । इसीलिए कहा भी है - अभेध्यमध्यस्य कोटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालय । सदृशो जीवने वांछा तुल्यं मृत्युभयं द्वयोः ॥ महावीर की अहिंसा का यही सिद्धान्त है । आचाराङ्ग में उन्होंने हिंसा की विभिन्न स्थितियों का वर्णन किया है सर्वप्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव, सर्व तत्त्वों को असत् अप्रिय है, महाभय का कारण दुःख है। महावीर ने कहा सत्वे जीवा विच्छन्ति जीवि नमरिजिडे तन्हा पारि व कोरं निग्धा वज्जयंतिणं ॥ सभी सूख चाहते हैं - दुःख नहीं, "सव्वेपाणी सुहसाया दुह पडिकूला" अहिंसा का ऐसा यह दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है। इसके लिए आवश्यकता है संयम, विवेक और समत्व की । शांतसुधारस में उपाध्याय विनयविजय लिखते हैं : अधुना परभाव संवृतिं हर चेतः परितोऽवगुण्ठिताम् SISIB UPA FPS द्रुमवातोर्भिरसाः स्पृशन्तु माम् । ह चित्त पर चारों ओर आवरण डालने वाली परभाव की कल्पना से दूर हटें, जिससे आत्म चिन्तत रूपी चन्दन वृक्ष का स्पर्श कर आने वाली वायु की उर्मियों से चूने वाले रस-कण क्षण भर के लिए छू जाएं। सार तत्व है "जो समोसत्वभूदेसु थावरेसु तसेसुवा" । यह समभाव 'कथनी' से नहीं 'करनी' से आता है "भणन्ता अकरेन्ताय बंध मोधक्ख पइण्णिणे", वाया विरिय मेत्तेण समासा सेन्ति अपर्य" । आत्मा की गहराइयों तक पहुँचने से, विशुद्ध अन्तःकरण से रागद्वेष रहित जीव का अनन्य परिणाम है- आत्म दर्शन | आचार्य सोमदेव ने व्यक्ति के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी समभाव के आचरण को प्रतिष्ठित करने के लिए कहा "सर्वा सत्वेषु' हि समता सर्वाचरणानां परमाचरणम्" । जैन दर्शन श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण Jain Education International (<) में नैतिकता का आधार यही समभाव है उसकी उपलब्धि होती है ज्ञान, सदाचार, तप, शील और संयम से "आयओ बहिया पास तुम्हा न हंता न विधाइए" - दूसरे प्राणियों को आत्मा तुल्य देखना आवश्यक है । समभाव की यह प्रमुखता प्रायः सभी भारतीय धर्म और दर्शन में मिलती है, पर जैन धर्म में उसका विशेष उपयोग है । इसने जैन धर्मानुयायियों को उदार और विनय सम्पन्न बना दिया । उदारता की मूल भित्ति जीवन की उन महान प्रक्रियाओं से अनुस्यूत होती है, जहाँ मान्यताओं में न तो पूर्वाग्रह रहता है और न संकीर्ण मनोभाव जैनाचार्यों ने इसी उदारता का उद्घोष किया है । पंचपरमेष्ठि को ही लें - इसमें न तो कहीं तीर्थंकर का नामोल्लेख है और न धर्म का ही जो भी अरिहंत हैं, सिद्ध हैं, आचार्य उपाध्याय और साधु हैं उन सबको नमस्कार है । उदार चरित्र वाले ही वसुधा को अपना कुटुम्ब समझ सकते हैं। आचार्य हरिभद्र आचार्य सिद्धसेन व आचार्य हेमचन्द्र आदि अनेक आचायों ने इसी उदारता का प्रमाण दिया । पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु To fift युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः । इस उदार दृष्टिकोण के साथ ही विनय का नैतिक गुण जुड़ा है। जैनधर्म काय, याचिक और मानसिक विनयशीलता पर जोर देता है | विनय ही धर्म का मूल है। "धमस्स विणओ मूल" जैन धर्म की मान्यता है कि 'विणओ, मोक्खद्वारं, विणयादा संजमो तवो णाणं' - विनय ही मोक्ष का द्वार है । विनय से ही संयम, तप और ज्ञान सम्भव है क्योंकि विनय से चित्त अहंकार शून्य होता है सरल, विनम्र और अनाग्रही । उदारता और विनय आचार-विचार के दो नैतिक मूल्य हैं। जैनधर्म ने जिस प्रकार समत्व, औदार्य और विनय को महत्व दिया उसी प्रकार संयम, क्षमा, आर्जव, मार्दव को भी धर्म के कुंद ने द्वादशानुपेक्षा में दश धर्म इस प्रकार बताए हैं क्षमा, चार द्वार हैं- क्षमा, सन्तोष, सरलता और विनय । आचार्य कुंद मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य । क्रोध आत्मा को संज्वलित करता है । आज यह प्रमाणित हो गया है कि क्रोध आधि-व्याधि का कारण है उसका हनन अपेक्षित है। इसमें डॉ. “भवति कस्य न कार्यहानिः " विलियम्स का मत द्रष्टव्य है । क्रोध किसकी हानि नहीं करता । क्षमा बैर का नाश करती है। समस्त जीवों से क्षमा मांगना अन्तर्बाह्य की निर्मलता का प्रमाण है । "मृदोर्भावः मार्दवम्” मार्दव, कोमलता व आर्जव ऋजुता है, अर्थात् सरलता व सहजता । शौच अनासक्त भाव है। वह लोभ का निराकारण है जहाँ लाभ है, वहाँ लोभ है "जहा लाहो तहा लोहो" । लोभ और लाभ एक-दूसरे से जुड़े हैं । शौच उन्हें निरस्त करता है "सोयं अलुद्धा धम्मो वगरणुसवि" । सत्य ही प्रज्ञा है । जैन धर्म कहता है "पन्ना समिक्खए धन्यं" प्रज्ञा से ही धर्म की मीमांसा सम्भव है । महावीर कहते हैं-मुनि ! लोक के स्वरूप सत्य की खोज For Private & Personal Use Only प्रीत भली अरिहन्त की, करो सदा सुखकार । जयन्तसेन निश्चल मति, पावत जलनिधि पार । www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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