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________________ ऋग्वेद तथा तीर्थंकर ऋषभ देव | (डॉ. श्री प्रहलादनारायण वाजपेयी) ऋषभ देव मानव संस्कृति के आदि पुरुष हैं । वह सबसे वर्षा की उपमा आदि तीर्थंकर ऋषभ देव के देशना रूपी पहले राजा हुए जिन्होंने गाँवों और नगरों का निर्माण कराया । जल की ही सूचक है । पूर्व गत ज्ञान का उल्लेख जैन परम्परा के उनके राज्य काल में वनवास से लोगों ने गाँवों और नगरों में भवन अनुरूप ही है । अतः ऋग्वेद के यह पूर्व ज्ञाता ऋषभ और कोई बना कर रहना आरम्भ किया । राज्य को समृद्धि के लिये गायों, नहीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव ही हैं। घोड़ों और हाथियों का संग्रह आरम्भ किया । मंत्रिमण्डल बनाया। 'आत्मा ही परमात्मा है ।" यह जैन दर्शनका मूलभूत चतुरंगिणी सेनाएँ सजायी, सेनापतियों की व्यवस्था की । साम, साम, सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त को ऋग्वेद में इस प्रकार से प्रतिपादित मटात दाम, दण्ड और भेद की नीति का प्रवर्तन किया । विवाहपद्धति का किया गया है | जिसके चार अंग हैं - अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, सूत्रपात किया । कृषि की व्यवस्था प्रारम्भ कर खाद्य समस्या का अनन्त सुख और अनन्त वीर्य । तीन पाद हैं - सम्यग्दर्शन, समाधान प्रस्तुत किया । शिल्पकला के विविध आयाम प्रस्तुत सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र | दो शीर्ष हैं - केवल ज्ञान और किये । व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया । इस प्रकार सभी जीवों को मुक्ति तथा जो मन, वचन, काय इन तीनों योगों से बद्ध अर्थात् सुखी बनाने वाली सभ्यता का शुभारम्भ किया । संयत वृषभ हैं उन्हीं ऋषभ देव ने घोषणा की : 'महादेव जीवन के अन्तिम भाग में ऋषभ देव ने राज्य व्यवस्था त्याग (परमात्मा) मयों में निवास करता है । अर्थात् प्रत्येक आत्मा में दी और श्रमण बन गये । वर्षों तक ऋषभ देव ने अनवरत साधना परमात्मा का निवास है। की । उन्हें कैवल्य लाभ हुआ | श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका इन ऋषभ देव ने कठोर तपश्चरण रूप साधना कर आत्मा से चार तीर्थों की स्थापना की । श्रमण धर्म के पाँच महाव्रतों एवं महात्मा और महात्मा से परमात्मा तक क्रमशः उन्नति करते हुए जन श्रावक धर्म के लिये बारह व्रतों का उपदेश दिया । इस काल में जन के समक्ष यह आदर्श प्रस्तुत किया कि तपस्या से सब कुछ ऋषभ देव प्रथम सम्राट्, प्रथम केवली और सर्व प्रथम तीर्थंकर थे। संभव है । एतदर्थ ही ऋग्वेद के मेधावी महर्षि द्वारा निर्दिष्ट किया सभ्यता का सूत्रपात करने वाले आदि तीर्थंकर ऋषभ देव के गया : ऋषभ स्वयं आदि पुरुष थे, जिन्होंने सर्व प्रथम मर्त्य दशा में विषय में यह कहा गया है : 'वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का अमरत्व की उपलब्धि अर्पित की। मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है एवं धर्मों का मुख ऋषभ देव ने सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भावना का सन्देश काश्यप ऋषभ देव है।" दिया । इसीलिये उन्हें विशुद्ध प्रेम पुजारी के रूप में भी ख्याति ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ रल है उसकी एक ऋचा मिली । उनके मैत्री भावना सन्देश का मुद्गल ऋषि के सारथी में तीर्थंकर ऋषभ देव की स्तुति की गई है । वैदिक ऋषि ने भाव (विद्वान नेता) केशी वृषभ जो अरिदमन के लिये नियुक्त थे, विभोर होकर प्रथम तीर्थंकर की स्तुति करते हुए कहा है : 'हे उनकी वाणी निकली, जिसके परिणाम स्वरूप मुद्गल ऋषि की गायें आत्म दृष्टा प्रभो, परम सुख प्राप्त करने के लिये मैं तेरी शरण में आना चाहता हूँ क्योंकि तेरा उपदेश और तेरी वाणी शक्तिशाली मरवस्य ते तीवषस्य प्रजूति है, उनकी मैं अवधारणा करता हूँ। हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और मिर्याभं वाचमृत्ताय भूषन् । देवों में तुम्ही पहले पूर्व गत ज्ञान के प्रतिपादक हो।' इन्द्र क्षितीमामास मानुषीणां । विशां देवी नामुत पूर्वयामा || ऋग्वेद २/३४/२ ऋग्वेद में ऋषभ देव को पूर्व ज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों असूतपूर्वा वृषभो ज्यायनि मा. का नाशक कहा गया है। उसमें बताया गया है जैसे जल से भरा अरय शुरुधः सन्ति पूर्वीः । मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है, जल से पृथ्वी की प्यास बुझा देता है। दिवो न पाता विदयस्यधीमिः । उसी प्रकार परम्परागत पूर्वज्ञान के प्रतिपादक महान् ऋषभ देव का क्षम राजाना प्रतिवोदधाथे ॥ ऋग्वेद ५२/३८ शासन वर देने वाला हो । उनके शासन में ऋषि-परम्परा से प्राप्त । (अ) अप्पा सो परमप्पा । (ब) सदा भुक्तं.....कारण परमात्मानं पूर्व का ज्ञान आत्मिक शत्रु क्रोधादि का विध्वंसक हो । दोनों प्रकार जानाति | नियमसार, तात्पर्य की आत्माएँ (संसारी और सिद्ध) स्वात्म गुणों से ही चमकती हैं। वृत्ति, गा. ९६ अतः वे राजा हैं, पूर्ण ज्ञान के भण्डार हैं और आत्म पतन नहीं चत्वारि श्रृङगा त्रयो अस्य पादा होने देते ।। द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीती । उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन २५, गा. १६ महादेवो मानाविवेश ।। ऋग्वेद ऋषभं मा समानानां सपलानां विषासहिम् । ४/५८/३ हंतारं शत्रुणां कृषि विराजं गोपतिं गवाम् ॥ तन्मय॑स्य देवत्व सजातमनः। ऋग्वेद १०/१६६/१ ऋग्वेद ३१/१७ श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (४३) सरल हृदय सद्भावना, स्लेह सुमति सहकार । जयन्तसेन जीवन भुवि, सुखदा पांच 'स' कार ।। ww.jamendrary.org Jain Education Interational For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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