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पौषध शब्द प्रोषध के रूप में भी प्रयुक्त है जिसका अर्थ है प्रकृष्ट औषध एक बार भोजन करना प्रोषध और बिल्कुल भोजन न करना उपवास। पर्व से पहले दिन सुबह के समय और उसके अगले दिन सन्ध्या के समय केवल एक-एक बार भोजन करना और पर्व वाले दिन दोनों समय भोजन न करना। इस प्रकार सोलह प्रहर तक सर्व आरम्भ का तथा भोजन का इसमें त्याग होता है।
पोषध व्रत का फल प्रतिपादित करते हए कहा गया है:- पोसहों य सुहे भावे, असुहाइ खवेइ णत्थि संदेहो । छिंदेइ नरयतिरियगई, पोसह विहिअप्पमत्तेणं ॥५८
अर्थात यह बात निःसन्देह सही है कि पौषध करने वाला अप्रमत रहकर जो शुभ भाव से विधिपूर्वक पोषध करे तो उसके सकल दुःख नष्ट हो जाते हैं और नरक और तिर्यंच गतियों का विच्छेद हो जाता है अर्थात् सद्गति का भोजन बन जाता है। __यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि श्रावक जब तक प्रोषधोपवास में अपना सारा समय व्यतीत करता है, तब तक वह श्रावक होते हुए भी महाव्रतधारी श्रमण की भूमिका के तुल्य है।
ऊपर हमने श्रावकाचार के बारह व्रतों का उल्लेख किया है। किन्तु व्रत बारह ही हों, ऐसी बात नहीं है। बारह से अधिक भी हो सकते हैं। यथा बारह व्रतों में उल्लिखित सामायिक व्रत षडावश्यक कर्म का एक अंग है। श्रावक यदि चाहे तो सामायिक के साथ साथ स्तवन, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान को भी अपने व्रत में समाविष्ट कर सकता है।
प्रस्तुत प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि श्रावक के लिए आवश्यक नहीं है कि वह उक्त बारह व्रतों को एक साथ पूर्णतया अंगीकार करे वह चाहे तो अपनी सुविधानुसार एक-दो या चार-पाँच व्रत भी स्वीकार कर सकता है या बारह के बारह व्रत भी। जैसे कुछेक लोग ब्रह्मचर्याणुव्रत ही स्वीकार करते हैं। जैसी जिस व्यक्ति की शक्ति और क्षमता होती है, वह तदनुरूप व्रतों का वरण करता
१ तत्वार्थ सूत्र ७. १
श्रावक धर्म प्रज्ञप्ति ६ ३ । योग शास्त्र २.१
४ आतुर प्रत्याख्यान (३) ५ सावय पण्णति (२५८)
बन्धवधच्धविच्छेदातिरोपणात्र
पाननिरोधा:- तत्वार्थ सूत्र (७-२१) ७ योगशास्त्र २. १९, २१
योगशास्त्र २. २८-२९, २१ वही २.६३
१० तत्वार्थ सूत्र ७. २२ ११ सावय पण्णति २६०-२६२ १२ कन्यागो भूम्यलीकानि, न्यासापहरणं तथा कृटसाक्ष्यन्व पंचेति,
स्थूलासत्यान्यकीर्तनय॥ योगशास्त्र २.५४ १३ योगशास्त्र २-५५
१४ स्थानांग ६. ३ १५ योगशास्त्र २.८४-७५ १ ६ तत्वार्थ सूत्र ६.२३ १७ सावय पण्णति २६८ १८ योगशास्त्र २. १०९-१० १९ योगशास्त्र २.९९
२० वही २. १०२ २१ सावय पण्णति २७३ २२ तत्वार्थ सूत्र ७. २४ २३ उपदेशमाला २४३
२४ भक्त-परिक्षा १३२ २५ योगशास्त्र २. १०९-१० २६ वही २. ११५ २७ उपदेशमाला २४४ २८ बाहिरसंगा, खेतं वत्थु घणधनकुष्प भांडाणि।
दुपयचउप्पय, केव सयणासणे य तहा॥ -भगवती आराधना १९ २९ तत्वार्थ सूत्र ७
३० आतुर प्रत्याख्यान ४ ३१ तत्वार्थ सूत्र ७. १७ ३२ योगशास्त्र २.३ ३३ सामायिक पाठ २८० ३४ तत्वार्थ सूत्र ७. २६ ३५ योगशास्त्र ३. ९६
३६ वसुनन्दी श्रावकाचार २१५ ३७ तत्वार्थ सूत्र ७. २७ ३८ द्रष्टव्य :- अठण तं न बंधइ, जमणटेण तु थोवबहु भावा।
अट्टे कालाईया, नियागमा न उ अणट्टाए॥ सावयपण्णति २९० ३९ योगशास्त्र ३.७४
४० सावय पण्णति २८९ तत्वार्थ सूत्र ७.२८ ४२ आतुर-प्रत्याख्यान १५
तत्वार्थ सूत्र ७-१७ ४४ सामायिक देशावकासिक पौषधोपवासातिथि संविभागश्चत्वारि शिक्षा
पदानीति धर्मबिंदु २. १८ वजणंमणंत गुंवरि, अच्चंगापं च भोगओ माणं।
कम्मयओ खरकम्मा, इयाण अवरं इमं भपियं॥ पंचास्तिकाय १. २१ ४६ योगशास्त्र ३. ४-५ ४७ योगशास्त्र ३.६-७ ४८ संबोध सत्तरि २५ ४९ क विशेषावश्यक भाष्य २६९०
ख नियमसार १२६ ५० अनुयोगद्वार सूत्र २७ ५१ सामाइयं समइयं, समवाओ समास संखेओ ।
अणवज्जं च परिण्णा पच्चक्खाणे य ते अट्ठम॥ ५२ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय १०९ ५३ पंचास्तिकाय १. ३१
योगशास्त्र ३. ८७
रत्नकरण्ड श्रावकाचार १४०५६ पंचास्तिकाय १. ३० ५७ द्रष्टव्य - समणसुतं पृ. २७० ५८ पुरुषार्थसिद्धयुपाय १५७
४१ ४३
नियमपूर्वक श्रावकाचार का पालन करने वाला व्यक्ति पहले से बारहवें देवलोक तक जा सकता है। भविष्य में वह पुनः मनुष्य-जन्म प्राप्त कर श्रमण धर्म का वरण करता है और निर्वाण पा सकता है। उपासक-दशांग सूत्र के अनुसार उसमें सूचित दस श्रावक अब मात्र तीन जन्म और लेंगे तथा तीसरे जन्म में निर्वाण पद प्राप्त करेंगे।
उत्तराध्ययन सूत्र (५-२४) में लिखा है कि गृही-जीवन में सुव्रतों का पालन करके श्रावक देवलोक में जाता है -
एवं सिक्खा - समावन्ने, गिहि वासेवि सुव्वए । मुच्चई छविपव्वाओ, गच्छे जक्खनलोगयं ॥
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदनामंथा वाचना
२६
काम विषय आसक्ति में, मिले नहीं आराम । जयन्तसेन इसे तजे, जीवन सुख का घाम ॥
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