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________________ १ ऋग्वेद के मंत्र १ सूक्त २४/२५, मंत्र ३०॥ २ छान्दोग्य उपनिषद ४/१/३ ३ हरियाना प्रदेश का लोकसाहित्य, डॉ. शंकरलाल यादव, पृष्ठ ३३९ तथा ३४०। जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्रीचन्द्र जैन, पृष्ठ २८॥ वही, पृष्ठ ११॥ अभ्यर्थना, जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन श्रीचन्द्रजैन, पृष्ठ ११॥ आजकल, लोककथा अंक, पृष्ठ ११॥ हरियाना प्रदेश का लोकसाहित्य, डॉ. शंकरलाल यादव, पृष्ठ ३४६ । दीर्घ निकाय १८ (क) लोक कथाएँ और उनका संग्रहकार्य, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, आजकल, लोककथा अंक, पृष्ठ ९। (ख) जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्री चन्द्रजैन, पृष्ठ ३३। ११ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६, डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी, पृष्ठ २३१॥ १२ जैनकथाओं का सास्कृतिक अध्ययन, श्री चन्द्रजैन, पृष्ठ ३३॥ १३ जैनकथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्री चन्द्रजैन, पृष्ठ ३४॥ १४ नौका और नाविक, देवेन्द्र मुनिशास्त्री, पृष्ठ ८-९। १५ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६, डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी, पृष्ठ२३३-२३४। १६ साहित्य और संस्कृति, देवेन्द्र मुनिशास्त्री, पृष्ठ ७६-८८। १७ नन्दीसुत्र ५, पृष्ठ १२८, पू. हस्तीमलजी महाराज १८ दोविये आगम साहित्य : रणू वयवेक्षण का ५१ वा टिप्पण। १९ (अ) पदम मिच्छादिडिढ अव्वदिकं आसिदूण पडिवज्ज। अणुयोगो अहियारो युत्तो पढमाणुयोगो सो॥ चउबीसं तित्थयरा पइणो बारह छखंडमरहस्स। णव बलदेवा किण्हा णव पडिसूत्र पुराणाई। तेसि वणंति पियामाई णयाणि तिण्ह पुत्वभवे। पंचसहस्सपयाणि य जत्थ हु सो होदि आहियाये। -अंगपण्णती - द्वितीय अधिकार गाथा ३५-३७ दिगम्बर आचार्य शभचन्द्र प्रणीत। (ब) तित्थयर चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेव पडिसत्तू। पचसहस्सपयाण एस कहा पढम अणिओगो। - श्रुतस्कंध गा. ३१ आचार्य ब्रह्महेमचन्द्र। २० सेंट मेंथ्यू की सुवार्ता २५, सेंट ल्यूक की सुवार्ता १९॥ २१ ज्ञाता धर्मकथा ९ २२ वलाहस्स जातक पृष्ठ १९६॥ २३ जातक (चतुर्थखण्ड) ४९७ मातंगजातक पृष्ठ ५८३-९७। २४ जातक (चतुर्थखण्ड) ४९८ चित्रसंभूतजातक, पृष्ठ ५९८-६०८। २५ हस्थिपाल जातक ५०९। २६ शान्तिपर्व अध्याय १७५ एवं २७७। २७ महाजन जातक, ५३९ तथा सोतक जातक सं. ५२९॥ २८ महाभारत, शान्तिपूर्व अध्याय १७९ एवं २७६। २९ तिविहा कहा पणता तं जहा - अत्थकहा - धम्मकहा कामकहा। -ठाणांगठाणासुत्र १८९।। ३० (क) अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया य कहा। एतो एक्केक्कवि य योगविहा होइ नायव्या॥ - दशवैकालिक हारिभद्रीय वृत्ति गा १८८ पृ. २१२। (ख) एत्थ सामनओ चत्तारि कहाओ हवंति। तं जहा - अत्थकहा, कामकहा, धम्म कहा, संकिग्णकहा। - समराइच्चकहा, याकोबी संस्करण, पृष्ठ २। ३१ विद्यादिभिरर्थस्तप्रधाना कथा अर्यकथा। - अभिधान राजेन्द्रकोश भाग-३, पृष्ठ ४०२। ३२ सिंगारसुतुइया, मोहकुविय फुफुगाहसहसिं ति। जं सुणमाणस्स कहं, समणेण ना सा कहेयव्वा ॥२१८॥ - अभिधान राजेन्द्रकोष ३३ (i) जो संजओ पमत्तो, रागद्दोसवसगओ परिकहेइ। साउ विकहापवयणे, पणता धीरपूरीसेहि।२१७ अभिधान रा.को. (ii) विरूद्धा विलष्टा वा कथा विकथा। आचार्य हरिभद्रा ३४ पडिक्कमामि चउहि विकहाहि - इत्थी कहाए, भत्तकहाएं, देश कहाए रायकहाए। -आवश्यक सूत्र ३५ समणेण कहेयव्वा, तव नियम कहा विरागसंजुत्ता। जं सोऊण मणूसो, वच्चइ संवेगाणिव्वेयं॥ - अभिधान राजेन्द्रकोष भा.३ पृष्ठ ४०२. गा. २१९ ३६ तव संजमगुणधारी, चरणरया कहिंति सम्भाव। सव्वजगजीवहियं सा उ कहा देसिया समए॥ -अभिधान राजेन्द्रकोष गा. २१६, पृष्ठ ४०२। भाग ३ ( दिव्य, दिव्बमाणुस, माणुस च। तत्थ दिव्य नाम जत्व केवलमेव देवचरिअं वणिज्जई समराइच्चकहा याकोवी संस्करण पृ. २१ (ii) तं जहा दिव्य - माणसी तहच्चेय। लीलावई गा. ३५॥ (iii) एमेय मुद्ध जुबई भणोहरं पय्ययाए भासाए। पविरलदेसिसुलक्खं कहसु कह दिव्व माणुसियं॥ - लीलावई गा. ४१, पृष्ठ ११।। ३८ ताओ पुण पंचकहाओ। तं जहा - सयलकहा खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा, तहावरा कहिय त्रि संकिगण कहति। - कुवलयमाला पृष्ठ ४, अनुच्छेद ७॥ ३९ समस्तफलान्तेति वृत्तवर्णाना समादित्यवत् सरलकथा। - हेमकाव्यशब्दानुशासन ५/९| पृष्ठ ४६५। ४० मरुकेसरी अभिनन्दन ग्रंथ, खण्ड ४ पृष्ठ १९४ ४१ प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमिचन्द्रशास्त्री पृष्ठ ४८६-४८८ नम्मया सुन्दरी कहा, सिंधी ग्रंथमाला से ग्रंथांक ४८ में प्रकाशित। ४३ सिरिवज्जसेण गणहरपट्टपरहेम तिलय सूरिण। सीसेहिं रयणसेहर सूरीहिं इमाहु संकलिया। चउदस अट्टाठीसो....... सिरिवाल कहा प्रशस्ति। ४४ इतिहास. डॉ. नेमिचन्द्रशासी, पृष्ठ ५१०-५१३। प्राकृत कथा साहित्य, प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नमिचन्द्र जैनशास्त्री, ५१३-५१५ ४६ प्राकृत कथा साहित्य, प्राकृत भाषा और साहित्य २४ आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमिचन्द्र जैन शास्त्री, पृष्ठ ५१७। ४७ अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ ८५-८६। ४८ अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, आगरा विश्वविद्यालय की डी. लिटू,, उपाधि का शोधप्रबन्ध, सन १९८८, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' पृष्ठ ४२-४४॥ अपभ्रंश वाङ्मय में भगवान पार्श्वनाथ डॉ. आदित्य प्रचंडिया 'दीति' तुलसी प्रज्ञा, जैन विश्वभारती लाडनू, खण्ड १२ अंक २ सितम्बर ८६ पृष्ठ ४५।। केटेलोग आव संस्कृत एण्ड प्राकृत मेन्युस्क्रिप्टस्, ईन द सी. पी. एण्ड बरार, सम्पा. डॉ. हीरालाल जैन, पृष्ठ ७१६, ७६२, ७६७ तथा भूमिका, पृष्ठ ४८-४९। जैन साहित्य और इतिहास, नाथुराम प्रेमी, पृष्ठ ४२३।। अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, पृष्ठ ४७-४८॥ भविसयत्त कहा का साहित्यिक महत्त्व, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैनविद्या, अंक ४, १९८६, पृष्ठ ३० अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, पृष्ट ४८। जंबू सामिचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैन विद्या, अप्रेल १९८७, पृष्ठ ३३-४०॥ सुंदरणचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैन विद्या, अक्टूबर १९८७, पृष्ठ १-११॥ ५५ मुनि कनकामर व्यक्तित्त्व और कृतित्व, डॉ. (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया दीति; जैनविद्या, मार्च १९८८, पृष्ठ १-७। अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति; पृष्ठ ५२-५३।। ५७ वही, पृष्ठ ५५ से ५६ तक। ५८ भविसयत्त कहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ५९ अपभ्रंश और साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, पृष्ठ ३४॥ ६० हिन्दी जैन साहित्य - परिशीलन, भाग २, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ ७७। (पृष्ठ १९ का शेष भाग) अहिंसा के महान् व्रत और असाधारण सिद्धांत का मानव जीवन के लिये व्यवहारिक तथा क्रियात्मक रूप देने के लिये दैनिक क्रियाओं संबंधी और जीवन संबंधी अनेकानेक नियमों तथा विविध विधानों का भी जैन धर्म ने संस्थापन एवं समर्थन किया है, जो महावीर की देन है। जिन्हें बारह व्रत एंव पंच महाव्रत भी कहते हैं। जिनका तात्पर्य यही है कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति में इस प्रकार मानव शांति बनी रहे और सभी को अपना विकास करने का सुन्दर एवं समुचित संयोग प्राप्त हो। उन्होंने साध धर्म व गृहस्थ धर्म का अलग-अलग निरूपण किया। जाति भेद व लिंग, रंग, भाषा, वेश, नस्ल, वंश और काल का कृत्रिम भेद होते हुए भी मूल में मानव-मात्र एक ही है, यह है महावीर की अप्रतिम और अमर घोषणा, जो कि जैन धर्म की महानता को सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा देती है। भगवान् महावीर के ये सिद्धान्त भारत के लिए ही नहीं, किन्तु समस्त विश्व के लिए एक अनोखी देन हैं। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर मनुष्य जाति के सुखी भविष्य की आशा की जा सकती है। सामाजिक विषमताओं का उन्मूलन, धार्मिक कदाग्रहों व संघर्षों का शमन एवं राजनैतिक तनावों की कमी केवल इन्हीं आदर्श सिद्धान्तों के सहारे की जा सकती है। इन सिद्धान्तों का प्रचार भगवान् महावीर ने भारत भूमि पर किया। इसलिये हम उस युग को - महावीर युग को - भारतीय जीवन दर्शन का स्वर्णयुग कह सकते हैं। आज महावीर के उपदेशों पर चलें तो विश्व में शांति हो सकती है। * श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना ३३ क्रोध अग्नि को दूर कर, बनो सदा तुम धीर । जयन्तसेन सुखद जीवन, पूर्ण तया गंभीर ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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