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________________ दिगम्बर मान्यतानुसार भी आगमों का यही वर्गीकरण लगभग ज्ञान हेतु कतिपय साधुओं को उनके पास भेजा, इनमें केवल स्थूलभद्र माना जाता है। अंगबाह्य इससे भिन्न है। साथ में दिगम्बर मान्यता ही प्राप्त कर सके। उन्हें पाटलीपुत्र के सम्मेलन में संकलित कर लिया यह भी है कि कालदोष से ये आगम नष्ट हो गए हैं। दिगम्बरों गया। इसे पाटलित वाचना के नाम से कहा जाता है। के अनुसार दृष्टिवाद के ५ भेद माने गए हैं, उनमें परिकर्म के कुछ समय पश्चात्, महावीर-निर्वाण के लगभग ८२७ या ८४० चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति और वर्षबाद (ईसवी सन् ३००-३१३) आगमों को पुन: व्यवस्थित रूप व्याख्या प्रज्ञप्ति तथा चूलिका के जलगतचूलिका, स्थलगतचूलिका, देने के लिए, आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में मथुरा में दूसरा सम्मेलन मायागतचूलिका रूपगत चूलिका और आकाशगतचूलिका नामक हैं। हुआ। दुष्काल के कारण इस समय भी आगमों को क्षति पहुंची। कुछ लोगों की मान्यता (५ आगमों को प्रामाणिक मानने की दुष्काल समाप्त होने पर, इस सम्मेलन में जिसे जो कुछ स्मरण था, भी है। उनमें ११ अंग, १२ उपांग, ५ मूल, ५ छेद, ३० पइण्णा, उसे कालिक श्रुत के रूप में संकलित कर लिया गया। जैन आगमों पक्खियसुत्त खमणासुत्त, वंदित्तुसुत्त, इसिभासिय, पज्जोसणकप्प, की यह दूसरी वाचना थी जिसे माथुरी वाचना के नाम से कहा जाता जीयकप्प, जइजीयकप्प, सद्धजीयकप्प १२ नियुक्ति, है। विशेसावरस्सयभास लगभग इसी समय नागार्जुनसूरि के नेतृत्व में बल्लभी (सौराष्ट्र) जैन आगमों का एक वर्गीकरण अनुयोगों के आधार पर भी में एक और सम्मेलन भरा। इसमें जो सूत्र विस्मृत हो गए थे उनका किया गया है। इसके कर्ता आर्यरक्षित माने जाते हैं जो कि नौ पूर्वो संघटनापूर्वक सिद्धान्तों का उद्धार किया गया। के धारक और दसवें पूर्व के २४ यविक के ज्ञाता थे। इन्होंने सभी तत्पश्चात् महावीर निर्वाण के लगभग ९८० या ९९३ वर्षबाद आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया (ई. सन् ४५३-४६६) बल्लभी में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में १- चरण-करणानुयोग-महाकल्प, छेदश्रुत आदि। अन्तिम सम्मेलन हुआ, जिसमें विविध पाठान्तर और वाचना भेद २- धर्मकथानुयोग - ज्ञाता धर्म कथांग, उत्तराध्ययन सूत्र आदि। आदिको व्यवस्थित कर, माथुरी वाचना के आधार से आगमों को ३- गणितानुयोग - सूर्यप्रज्ञप्ति आदि। संकलित करके उन्हें लिपिबद्ध किया गया। दृष्टिवाद फिर भी उपलब्ध ४ - द्रव्यानुयोग - दृष्टिवाद आदि । न हो सका, अतएव उसे व्युछिन घोषित कर दिया गया। श्वेताम्बर विषय सादृश्य की दृष्टि से प्रस्तुत वर्गीकरण किया गया है। सम्प्रदाय द्वारा मान्य वर्तमान आगम इसी अन्तिम संकलना का परिणाम व्याख्या क्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप होते हैं:(१) अपृथक्त्वानुयोग दिगम्बर जैन आगम :-दिगम्बर दृष्टि से द्वादशांग का विच्छेद (२) पृथक्त्वानुयोग हो गया केवल दृष्टिवाद का कुछ अंश अवशेष रहा है, जो षदखण्डागम सूत्र कृतांग चूर्णि के अभिमतानुसार अपृथक्त्वानुयोग के समय के रूप में आज भी प्रसिद्ध है। षट्खण्डागम = यह आचार्य भूतबलि प्रत्येक सूत्र की व्याख्या चरण-करण, धर्म गणित, और द्रव्य आदि व पुष्पदन्त की महत्वपूर्ण रचना है। दिगम्बर विद्वान् इसका रचनाकाल अनुयोग की दृष्टि से व सप्त नय की दृष्टि से की जाती थी, परन्तु विक्रम प्रथम सदी मानते हैं। यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त होने से पृथक्त्वानुयोग के समय चारों अनुयोगों की व्याख्याएं अलग-अलग ही इसका नाम षट्खण्डागम नाम से विख्यात है। इसके अतिरिक्त की जाने लगी । दिगम्बर आगम हैं-कषाय पाहुड, तिलोय पण्णत्ती, प्रवचनसार, यह वर्गीकरण होने पर भी यह भेदरेखा नहीं खींची जा सकती समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, दर्शनप्राभृत, चारित्र-प्राभृत, कि अन्य आगमों में अन्य वर्णन नहीं है। उत्तराध्ययन में धर्म कथाओं बोधप्राभृत, भावप्राभूत, मोक्षप्राभूत आदि। के अतिरिक्त दार्शनिक तत्त्व भी पर्याप्त रूप में है। भगवती आचारांग आगमों की भाषा :आदि में भी यही बात है। सारांश यह है कि कुछ आगमों को छोड़कर भाषा-शास्त्र की दृष्टि से भी आगम साहित्य अत्यन्त उपयोगी शेष आगमों में चारों अनुयोगों का संमिश्रण है। है। जैन सूत्रों के अनुसार महावीर भगवान ने अर्धमागधी में अपना _आगमों की वाचनाएं :- महावीर निर्वाण (ई. सन् के पूर्व उपदेश दिया, इस उपदेश के आधार पर उनके गणधरों ने आगमों ५२७) के लगभग १६० वर्ष पश्चात् (ई. सन् के पूर्व ३६७) चन्द्रगुप्त की रचना की। प्राचीन मान्यतानुसार अर्धमागधी भाषा को आर्य अनार्य मौर्य के काल में, मगध देश में भयंकर दुष्काल पड़ने से अनेक जैन और पशु पक्षियों द्वारा समझी जा सकता थी। आंबाल वृद्ध, स्त्री, मुनि भद्रबाहु के नेतृत्व में समुद्रतट की ओर प्रस्थान कर गए, शेष अनपढ़ आदि सभी लोगों को यह बोधगम्य थी। स्थूलभद्र (महावीर निर्वाण के २१९ वर्ष पश्चात् स्वर्गगमन) के नेतृत्व आचार्य हेमचन्द्र ने आगमों की भाषा को आर्षप्राकृत कहकर में वहीं रहे। दुष्काल समाप्ति पर स्थूलभद्र ने श्रमणों का एक सम्मेलन व्याकरण के नियमों से बाह्य बताया है। त्रिविक्रम ने भी अपने प्राकृत बुलाया, जिसमें श्रुतज्ञान का ११ अंगों में संकलन किया गया। दृष्टिवाद शब्दानुशासन में देश्य भाषाओं की भांति आर्षप्राकृत की स्वतन्त्र उत्पत्ति विस्मृति के कारण संकलित नहीं हो सका। चौदह पूर्वज्ञ केवल भद्रबाहु मानते हुए उसके लिए व्याकरण के नियमों की आवश्यकता नहीं थे, जो उस समय नेपाल में महाप्राणव्रत साधना कर रहे थे। पूर्वो के बतायी। तात्पर्य यह है कि आर्ष भाषा का आधार संस्कृत न होने से श्रामदजयतसनसरि अभिनंदन अंथ/वाचना अहंकार से बढ़ते तरु, फल आवत झुक जाय । जयन्तसेन नम बनो, जीवन भर सुख पाय ॥ www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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