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विश्व-धर्म के रूप में जैनधर्म-दर्शन की प्रासंगिकता
(डॉ. श्री महावीर एस. जैन)
आज भौतिक विज्ञानों ने बहुत विकास किया है । हम मनुष्य अन्ततः अतृप्ति का अनुभव कर रहा है । उनकी उपलब्धियों एवं अनुसंधानों से चमत्कृत हैं । ज्ञान का
न भौतिक विज्ञानों के चमत्कारों से भयाकुल चेतना की हमें विकास इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि प्रबुद्ध पाठक भी सम्पूर्ण
आस्था प्रदान करनी है । निराश एवं संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं ज्ञान से परिचय प्राप्त करने में असमर्थ एवं विवश है | ज्ञान की
विश्वास की मशाल थमानी है । परम्परागत मूल्यों को तोड़ दिया शाखा-प्रशाखा में विशेषज्ञता का दायरा बढ़ता जा रहा है । एक
गया है। उन पर दुबारा विश्वास नहीं किया जा सकता । वे विषय का विद्वान दूसरे विषय की तथ्यात्मकता एवं अध्ययन
अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक हो गये हैं । हमें नये युग को नये पद्धति से अपने को अनभिज्ञ पा रहा है । हर जगह, हर दिशा में
जीवन-मूल्य प्रदान करने हैं । इस युग में बौद्धिक संकट एवं नयी खोज, नया अन्वेषण हो रहा है । प्रतिक्षण अनुसंधान हो रहे
उलझनें पैदा हुई हैं। हमें समाधान का रास्ता ढूंढ़ना है। हैं । जो आज तक नहीं खोजा जा सका, उसकी खोज में व्यक्ति संलग्न है । जो आज तक नहीं सोचा गया उसे सोचने में व्यक्ति
विज्ञान ने हमें गति दी है, शक्ति दी है । लक्ष्य हमें धर्म एवं व्यस्त है । जिन घटनाओं को न समझ पाने के कारण उन्हें परात्पर
दर्शन से प्राप्त करने हैं । लक्ष्य-विहीन होकर दौड़ने से जिन्दगी की परब्रह्म के धरातल पर अगम्य रहस्य मानकर उन पर चिन्तन करना
मंजिल नहीं मिलती। बन्द कर दिया गया था, वे आज अनुसंधेय हो गई हैं । सृष्टि की र वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण जिस शक्ति का हमने संग्रह बहुत सी गुत्थियों की व्याख्या हमारे दार्शनिकों ने परमात्मा एवं किया है उसका उपयोग किस प्रकार हो; गति का नियोजन किस माया की सृष्टि के आधार पर की थी। उन व्याख्याओं के कारण प्रकार हो - यह आज के युग की जटिल समस्या है | इसके वे ‘परलोक' की बातें हो गयी थीं । आज उनके बारे में भी व्यक्ति समाधान के लिए हमें धर्म एवं दर्शन की ओर देखना होगा। जानना चाहता है । अन्वेषण की पिपासा बढ़ती जा रही है ।
इसका कारण यह है कि धर्म ही ऐसा तत्व है जो मानवअनुसंधान का धरातल अब भौतिक पदार्थों तक ही सीमित होकर
हृदय की असीम कामनाओं को सीमित करने की क्षमता रखता है; नहीं रह गया है । अन्तर्मुखी चेतना का अध्ययन एवं पहचान भी
उसकी दृष्टि को व्यापक बनाता है। मन में उदारता, सहिष्णुता एवं उसकी सीमा में आ रही है । पहले के व्यक्ति ने इस संसार में
प्रेम की भावना का विकास करता है। कष्ट अधिक भोगे थे । भौतिक इच्छाओं की सहज तृप्ति की कल्पना उस लोककी परिकल्पना का आधार बनी । आज हम उन्हीं
हए कोई भी समाज धर्महीन होकर स्थित नहीं रह सकता । दिव्यात्माओं को धरती के अधिक निकट लाने के प्रयास में रत हैं।
समाज की व्यवस्था, शान्ति तथा समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब हैं।
एवं विश्वास का भाव जगाने के लिए धर्म का पालन आवश्यक इतना होने पर भी मनुष्य सुखी नहीं है । यह असंगति क्यों है? वह सुख की तलाश में भटक रहा है । घन बटोर रहा है,
धर्म कोई सम्प्रदाय नहीं है । धर्म का अर्थ है - 'अच्छा भौतिक उपकरण जोड़ रहा है । वह अपना मकान बनाता है। आचरण करना' जिन्दगी में जो हमें धारण करना चाहिए - वही आलीशान इमारत बनाने के स्वप्न को मूर्तिमान करता है । फिर
धर्म है । हमें जिन नैतिक मूल्यों को जिन्दगी में उतारना चाहिए, अपना महल सजाता है । सोफा सेट, कालीन, वातानुकूलित
वही धर्म है। व्यवस्था, महंगे पर्दे, प्रकाश तथा ध्वनि के आधुनिकतम उपकरण मन की कामनाओं को नियंत्रित किए बिना समाज रचना एवं उनके द्वारा रचित मोहक प्रभाव । सब कुछ अच्छा लगता सम्भव नहीं है । जिन्दगी में संयम की लगाम आवश्यक है । है । मगर परिवार के सदस्यों के बीच जो प्यार, विश्वास पनपना
कामनाओं के नियंत्रण की शक्ति या तो धर्म में है या चाहिए उसकी कमी होती जा रही है । पहिले पति-पत्नी भावना की
शासन की कठोर व्यवस्था में | धर्म का अनुशासन 'आत्मानुशासन' डोरी से आजीवन बंधने के लिए प्रतिबद्ध रहते थे । दोनों को
होता है । व्यक्ति अपने पर स्वयं विश्वास रहता था कि वे इसी घर में आजीवन साथ-साथ रहेंगे ।
नियंत्रण करता है। शासन का दोनों का सुख दुःख एक होता था। उनकी इच्छाओं की धुरी 'स्व'
नियंत्रण हमारे ऊपर 'पर' का न होकर 'परिवार' होती थी । वे अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को
अनुशासन होता है । दूसरों के द्वारा पूरा करने के बदले अपने बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों की
अनुशासित होने में हम विवशता इच्छाओं की पूर्ति में सहायक बनना अधिक अच्छा समझते थे ।
का अनुभव करते हैं, परतंत्रता का आज की चेतना क्षणिक, संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में केन्द्रित
बोध करते हैं, घुटन की प्रतीति होकर रह गयी है । इस कारण व्यक्ति अपने में ही सिमटता जा ।
करते हैं। रहा है । सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला भोगने की दिशा में व्यग्र
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
(१)
मंत्र शिरोमणि है धुरि, महामंत्र नवकार । जयन्तसेन जपो सदा, उतरो भवजल पार ||
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