SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। आत्मा अपने आप में अनन्त शक्ति संपन्न है, जड़ भी शक्ति से 'कर्म' शब्द का लोक व्यवहार और शास्त्र में विभिन्न अर्थों में संयुक्त है, दोनों स्वतंत्र तत्त्व हैं। आत्मा अपने सत् प्रयत्न के द्वारा प्रयोग हुआ है । जन साधारण अपने-अपने काम-धन्धे व्यवसाय, कर्त्तव्य अपनी अनंत शक्ति को अनावृत्त कर सकता है। परंतु जड़ की शक्ति आदि के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं, किन्तु जैन-दर्शन में को, पुद्गलों की ताकत को अपने रूप में कभी परिणत नहीं कर सकता, “कर्म" शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग किया गया है। उसके अनुसार उसे परिवर्तित करने की शक्ति किसी भी आत्मा में नहीं है। इसी तरह संसारी जीव जब राग-द्वेषयुक्त, मन, वचन, काया से जो भी क्रिया करता पुद्गल आवरण से आत्म-शक्ति को धूमिल बना सकता है । इससे स्पष्ट है। उससे वह सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है और उनके होता है कि आत्म शक्ति के समक्ष कर्म की ताकत नगण्य सी परिलक्षित द्वारा नाना प्रकार के आभ्यंतर संस्कारों को जन्म देता है। ये पुद्गल होती है। आत्मा की शक्ति अनादिकाल से आत्मा में निहित है, आज परमाणु भौतिक और जड़ होते हुए भी जीव की राग-द्वेषात्मक मानसिक, भी है और भविष्य में भी उसका अस्तित्व विलुप्त नहीं होगा। वाचिक, शारीरिक क्रियाओं के द्वारा अवकृष्ट होकर आत्मा के साथ कर्म एक विजातीय तत्त्व है। आत्मा के साथ उसका बन्ध तब अग्नि-लोह-पिण्ड की भाँति परस्पर एकमेक हो जाते हैं और आत्मा होता है, जब आत्मा स्वभाव से हटकर पर-भाव में रमण करता है, की अनन्त शक्ति को आच्छादित कर लेते हैं, जिससे उसका तेज विभाव में परिणमन करता है । यही जैनदर्शन में कर्मविज्ञान का रहस्य हतप्रभ-मन्द हो जाता है । जब विशिष्ट साधना के द्वारा इन कर्म पुद्गलों को नष्ट कर दिया जाता है तब आत्मा पूर्ण स्वतंत्र और आनन्दमय जब कोई आत्मा किसी तरह का संकल्प विकल्प करता है, तो बन जाती है। किन्तु कृत कर्मों का फल भोगे बिना आत्मा की मुक्ति उसी जाति की कार्मणवर्गणाएँ उस आत्मा के ऊपर एकत्रित हो जाती नहा हा सकता। हैं, उसी को जैन परिभाषा में आस्रव कहते हैं और जब ये आत्मा से जीव कर्मों का बंध करने में स्वतंत्र है, परंतु उस कर्म का उदय संबंधित हो जाती हैं तो इसी को जैन मान्यतानुसार बन्ध संज्ञा हो होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है। जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा जाती है। जैन कर्म विज्ञान के अनुसार कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है किन्तु प्रमाद वश नीचे गिरते समय परवश हैं, जो प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान हो जाता है। कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- (१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण हैं- (१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण के अधीन होते हैं। (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र (८) और जैन दर्शन में कर्म शब्द क्रिया का वाचक नहीं रहा है। उसके अन्तराय। मतानुसार कर्म आत्मा पर लगे हुए सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणंतहा, है। जीव अपने मन वचन और काय की प्रवृत्तियों के द्वारा कर्म-वर्गणा वेयणिज्जं तहा मोहं, आउ कम्मं तहेवय । के पुद्गलों को आकर्षित करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति नाम कम्मं च गोयं च अन्तरायं तहेव य । तभी होती है, जब जीव के साथ कर्म संबद्ध हो। जीव के साथ कर्म एवमेयाई कम्माइं अद्वैव उ समा से ओ ॥ तभी संबद्ध होता है जब मन, वचन, काय की प्रवृत्ति हो । कर्म और भारत के सुप्रसिद्ध जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों दर्शनों का प्रकृति के कार्य और कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं समानरूप से यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि मानव जीवन का अंतिम के पिण्डरूप कर्म को द्रव्य कर्म कहा है और उसमें रहने वाली शक्ति साध्य उसके आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता और उससे प्राप्त होने या उनके निमित्त से होने वाले राग-द्वेष रूप विकार भाव कर्म हैं। वाला प्रतिभा-प्रकर्षजन्यपूर्णबोध अर्थात् परम कैवल्य या मोक्ष है। कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, राग-द्वेष के अध्यवसाय से होता है। जो उसके प्राप्त करने में उक्त तीनो दर्शनों में जितने भी उपाय बतलाये। अन्दर में राग-द्वेष रूप भाव कर्म नहीं करता उसे नए कर्म का बन्ध गये हैं, उन सबका अन्तिम लक्ष्य सम्बन्ध समस्त कर्माणओं को क्षीण नहीं होता। जिस समय जीव जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे करना। आत्म सम्बन्ध समस्त कर्मों के नाश का नाम ही मोक्ष है।३ ही शुभ-अशुभ कर्मों का बंध करता है। दूसरे शब्दों में आत्म प्रदेशों के साथ कर्म पुद्गलों का जो संबंध कुल मिलाकर जैन-दर्शन का कर्म-विज्ञान बताता है कि संसार का प्रत्येक प्राणी परतन्त्र है। यह पौद्गलिक शरीर ही उसकी परतंत्रता है, उससे सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। सम्पूर्ण कर्मों के क्षय का द्योतक है, और पराधीनता कारण कर्म है। का अर्थ है- पूर्व बद्ध कर्मों का विच्छेद और नवीन कर्मों के बन्ध का सर्वथा अभाव । कम्मं चिणंति सवसा - स परव्व सोतत्तो। "क्रियतेयत्तत्कर्म' अर्थात् मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि भावों के द्वारा - समणसूत्रं, ज्योतिर्मुख, श्लोकांक ६०, संसारी जीव जिसे उपार्जित करते हैं, वह कर्म कहलाता है । सामान्यतया कर्मायितं फलं पुंसा, बुद्धिः कर्मानुसारिणी । जीव जो क्रिया करता है, उसका नाम कर्म है। - चाणक्य नीति १३/१० कम्मत्त णेण एक्कं, दव्वं भावोन्ति होदि दुविहं तु । १ (क) स्थानाङ्ग ८।३५७६ पोगल पिंडो दव्वं, तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥ (ख) प्रज्ञापना २३ ।१ समणसूत्रं, ज्योतिर्मुख श्लोक नं. ६५ २ कृत्स्न कर्म क्षमो मोक्षः (तत्त्वार्थ . अ. १० सू.इ.) छ ण यव त्थुदो-अज्भव साणेण बंधोत्मि । - समयसार २६५ श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचना धर्म जगाता है नहीं, आपस में विखवाद । जयन्तसेन करे सदा, जीवन को आबाद ॥ www.lainelibrary org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy