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________________ जैन दर्शन में सप्तभंगी-एक विश्लेषणात्मक अध्ययन - उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. के शिष्य रमेशमुनि शास्त्री जैन दर्शन का चरम विकास अनेकान्त एवं स्याद्वाद में हुआ। अतः जैन दर्शन की चिन्तन धारा का मूल उद्गम स्थल स्याद्वाद है। यही उसकी विकास की चरम रेखा है। जैन साहित्य का एक भी ऐसा वचन-प्रयोग नहीं है, जिसमें अनेकान्तवाद का प्राण तत्व संचारित न हो इसलिये यह भी कह दिया जाय तो सर्वथा-संगत होगा कि जहाँ अनेकान्त के परिबोध के लिये प्रमाण और नय को समझना वस्तुगत आवश्यक है वहाँ तत्प्रतिपादक वचन पद्धति के परिज्ञान के लिये सप्तभंगी को समझना भी आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। यहाँ पर प्रमाण और नय की परिचर्चा में न जाकर सप्तभंगी के सम्बन्ध में विवेचना करेंगे। एक प्रश्न चिह्न है सप्तभंगी क्या है ? उसका प्रयोजन क्या है ? उसका क्या उपयोग है ? इन सभी गहन प्रश्नों पर जैन मुनियों ने प्रकाश डाला है, विश्व की प्रत्येक वस्तु के किसी एक धर्म के स्वरूप कथन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जाता है, उसे सप्तभंगी कहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सप्तभंगी की जो व्यवस्था हुयी है । वह तत्प्रतिपादक वचनपद्धति के परिबोध के लिए है । यह धुव सत्य है कि पदार्थ के यथार्थ परिज्ञान के लिये जैन दर्शन में दो उपाय स्वीकार किए है। प्रमाण और नय ! इन दोनों से ही संसार की किसी भी वस्तु का यथार्थ ज्ञान होता है, इन दोनों के बिना वस्तु का सम्यक् ज्ञान नहीं किया जा सकता । अधिगम का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है। स्वार्थ और परार्थ । ज्ञानात्मक स्वार्थ होता है और परार्थ शब्दात्मक । दूसरे के परिबोध के लिये शब्दों का प्रयोग किया जाता है अतः मंत्र का प्रयोग परार्थ अधिगम भी दो प्रकार का है। प्रमाण वाक्य और नयवाक्य ! उक्त आधार पर ही सप्तभंगी के दो भेद किए जाते हैं। प्रमाण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी ! प्रमाण वाक्य को सकलादेश कहते हैं, और नय वाक्य विकलादेश है । वस्तुगत अनेक धर्मों के बोधक वचन को सकलादेश कहा जाता है। उसके किसी एक धर्म के बोधक वचन को विकलादेश कहते हैं। जैन उसके किसी एक धर्म के बोधक वचन को विकलादेश कहते हैं। जैन दर्शन ने प्रत्येक पदार्थ को अनन्त धर्मात्मक कहा है। वस्तु की परिभाषा करते हुये कहा गया है कि जिस में गुण और पर्याय रहते हैं उसे वस्तु कहते हैं।" तत्त्व, पदार्थ और द्रव्य ये वस्तु के पर्यायवाची शब्द हैं। सप्तभंगी की परिभाषा करते हुये कहा गया है कि प्रश्न समुत्पन्न होने पर एक वस्तु में अविरोध भाव से जो एक धर्म विषयक श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन पंथ वाचना FOR PR REF 6 FE Jain Education International ७३ ॐॐ विधि और निषेध की कल्पना की जाती है उस को सप्तभंगी कहा जाता है। यहाँ एक प्रश्न आता है कि भंग सात ही क्यों ? इन से न्यून या अधिक क्यों नहीं ? समाधान की भाषा में कहा गया है कि पदार्थ के एक धर्म को लेकर प्रश्न सात ही प्रकार से किया जा सकता है । पुन: प्रश्न उठता है; प्रश्न (ही) सात प्रकार का क्यों होता हैं, उत्तर में कहा गया है कि जिज्ञासा सात ही प्रकार से होती है। पुनः प्रश्न उबुद्ध हुआ जिज्ञासा सात ही प्रकार की क्यों होती हैं? क्यों कि संशय सात ही प्रकार से होता है अतः निष्कर्ष यह निकलता है कि किसी भी पदार्थ के एक धर्म-सम्बन्धी सात ही प्रश्न होने से इसे सप्तभंगी कहा गया है। गणित शास्त्र के नियमानुसार चिन्तन करते हैं तो ज्ञात होगा कि तीन मूल वचनों के संयोगी और असंयोगी अपुनरुक्त भंग सात ही हो सकते हैं, तीन असंयोगी मूल भंग, तीन द्विसंयोगी भंग और एक त्रिसंयोगी भंग। । भंग का अर्थ है विकल्प प्रकार और भेद अभिप्राय यह के कि भंग सात ही हो सकते हैं न अधिक होते हैं और न कम । सप्तभंगीवाद और अनेकान्तवाद । 1 प्रत्येक पदार्थ अनेकान्तात्मक है और इस का प्रतिपादन करने वाली भाषा पद्धति स्यादवाद है इसलिये वह भाषा पूर्णतः निर्दोष है मूलतः सप्तभंगी का रहस्य उसी में रहा हुआ है । अनेकान्त दृष्टि का जो फलितार्थ है वह यह है कि उससे प्रत्येक वस्तु में सामान्य रूप से, विशेष रूप से, भिन्नता की दृष्टि से, अभिन्नता की अपेक्षा से नित्यत्व की दृष्टि से, अनित्यत्व की दृष्टि से तथा सत्ता की दृष्टि से असत्ता की दृष्टि से अनन्त धर्म होते हैं संक्षेप में कहा जा सकता है की प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ पदार्थ में रहता है; सन्निहित है। यह जो परिबोध है; वही अनेकान्त दृष्टि का प्रयोजन हैं, यथार्थ ज्ञान की अनेकान्त दृष्टि का प्रमुख प्रयोजन है। अनेकान्त अनन्त धर्मात्मक वस्तु-स्वरूप की एक निर्मल दृष्टि है और स्याद्वाद या सप्तभंगी उस मूलभूत ज्ञानात्मक दृष्टि को अभिव्यक्त करने की एक वचन पद्धति है, अपेक्षा को सूचित करने वाली एक वचन पद्धति है । अनेकान्त स्यार्थाधिगम होता है, कृतज्ञान प्रमाणात्मक है । परन्तु सप्तभंगी की जो उपयोगिता है वह इस बात में है कि वह पदार्थ गत अनन्त धर्मों की निर्दोष भाषा में अपेक्षा-दृष्टि से विवेचन करे, योग्य अभिव्यक्ति को अपनाये । For Private & Personal Use Only आज्ञापालन धर्म है, आज्ञा भंग अधर्म । जयन्तसेन सहज समझ, सत्य धर्म का मर्म ॥ www.jainelibrary.org
SR No.012046
Book TitleJayantsensuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Lodha
PublisherJayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages344
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size88 MB
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