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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसन्धान - ७० प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
श्रीहेमचन्द्राचार्य
सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
1PM
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
2016
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
(७०
सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
-IMILARATHI ANIMANANDoooo
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २०१६
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अनुसन्धान ७०
आद्य सम्पादक : डो. हरिवल्लभ भायाणी
सम्पादक
: विजयशीलचन्द्रसूरि
सम्पर्क
: C/0. अतुल एच. कापडिया
A-9, जागृति फ्लेट्स, महावीर टावर पाछळ, पालडी, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१ E-mail : s.samrat2005@gmail.com
प्रकाशक
: कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्यायमन्दिर
१२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६६२२४६५ (२) श्रीविजयनेमिसूरि-ज्ञानशाला
शासनसम्राट भवन शेठ हठीभाईनी वाडी, दिल्ही दरवाजा बहार, अमदावाद-३८०००४ फोन : ०७९-२२१६८५५४
Email : nemisuri.gyanshala@gmail.com (३) सरस्वती पुस्तक भण्डार
११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ फोन : ०७९-२५३५६६९२
प्रति
: 250
: ₹ 150-00
मुद्रक
: किरीट ग्राफिक्स - फोन : ०७९-२५३३००९५
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निवेदन
कोईपण क्षेत्रनुं मूल्य तेनी फलद्रूपता उपरथी तथा तेना खेडनारना आधारे अंकातुं होय छे. फलद्रूपता महत्त्वनी खरी, पण ते पण छेवटे तो तेना खेडनारनी आवडत के क्षमता उपर ज आधारित गणाय. गमे तेवू फलद्रूप क्षेत्र पण, तेनो खेडू जो अणघड होय तो, निष्फल के नबळू फळ आपनाएं ज बनी जाय छे.
संशोधनना क्षेत्रनुं पण आq ज छे. आ क्षेत्र आजे, अत्यार सुधी, आटलुं बधुं विस्तर्यु होय, ऊंडाणपूर्वक अने फलद्रूप तरीके खेडातुं रद्यु होय, तो तेनुं निदान तेने खेडनारा - संशोधको छे. .
आम तो संशोधन ए बह प्राचीन वखतथी प्रचलित एवी विद्याविधा छे.. जैन इतिहास अनुसार, वीर निर्वाण संवत् ९८०मां योजायेली 'वलभीवाचना' ए शुं छे ? जैन आगम-सूत्रोना पाठ-निर्धारण माटे मळेली ए वाचना अथवा संगीतिमां ५०० जैन आचार्यो एकठा मळेला. दुष्काळ जेवा कुदरती प्रकोपोने कारणे वीसराता जता जैन आगमोना जे जे अंशो जेने जेने स्मरणमा रह्या होय ते अंशोनुं गान अने पठन करीने संकलन करवामां तथा शुद्ध वाचनानुं (पाठनु) निर्धारण करवामां ते 'वाचना' निर्णायक बनी गई. आने 'संशोधन'ना क्षेत्रनी प्रक्रिया गणावीए तो हरकत शी ?
कृति-संशोधनमा वीसरायेला, बदलायेला अथवा खोटा के खोटी रीते प्रवेशेला ग्रन्थ-पाठने, तेना साचा/शुद्ध स्वरूपमां अने साचा स्थाने पुनः प्रस्थापित करवाना होय छे. 'वलभी-वाचना'मां एकत्र थयेला, जिनागमोना परम उपासक अने भक्त एवा ५०० आचार्योए आ .ज काम करेलुं. एथी ज, आधुनिक भाषामां ते कामने 'संशोधन' अने ते आचार्योने 'आदि संशोधक' ए रीते ओळखीए, तो ते अनैतिहासिक के अजुगतुं नथी ज. ___इतिहासमां आवा तो घणा दाखला जडे, कारण के संशोधन ए एक निरन्तर के अविरत चालनारी प्रक्रिया छे. युगे युगे आ प्रक्रियाना संवाहको थया छे, थाय ज छे.
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आपणे आपणा समयनी वात करीए. आपणा साम्प्रत समयमां, जैन साहित्यना क्षेत्रे, आधुनिक पद्धतिना संशोधननो पायो नाखनारा विद्वज्जनो, आपणा देशमां तेमज विदेशोमां, घणा घणा थया छे. ए सहुनां नामो लेवानुं तो शक्य नथी, परन्तु, आपणा जाणीतां थोडांक नामो लईए. आगमप्रभाकर मुनिराजश्री पुण्यविजयजी, तेमना बे गुरुवर्यो; पुरातत्त्वाचार्य श्रीजिनविजयजी, श्रीकान्तिसागरजी जेवा जैन मुनिवरो; तेमज पं. सुखलाल संघवी, पं. बेचरदास दोशी, पं. हरगोविन्ददास, पं. दलसुख मालवणिया, नगीनदास शाह, हरिवल्लभ भायाणी, जयन्त कोठारी जेवा गृहस्थ विद्वज्जनो; दिगम्बर सम्प्रदायना अनेक विद्वज्जनो - आवां घणां घणां नामो अहीं लई शकाय. संशोधन-क्षेत्रे आ बधानुं योगदान अनन्य छे, आगq छे, दाखलारूप छे. आ बधानां शोधकार्योथी आपणुं विद्याक्षेत्र तथा साहित्य घणुं रळियात बन्युं छे. साथे ज, आ बधानी अनुपस्थितिथी ते क्षेत्रे आपणे घणा रांक पण बन्या छीए.
उपरोक्त नामावलीमां अनिवार्यपणे उमेरवु पडे एवं एक नाम छे डॉ. मधुसूदन ढांकी. आन्तरराष्ट्रीय कक्षाना भारतीय विद्वज्जन. गुजरातना अने गुजराती भाषाना मूर्धन्य विद्वान. अनेक भाषाओ, विद्यानी अनेक शाखाओमां एमनी अस्खलित अने साधिकार गति; छतां पुरातत्त्व, इतिहास अने स्थापत्यनां क्षेत्रोना ए सर्वमान्य विद्वान. संशोधनना चांवीरूप सिद्धान्तोमां सौथी पहेली आवे ‘सत्यनिष्ठा. शोध-क्षेत्रनी सत्यनिष्ठा एटले प्रमाणो, साक्ष्यो, आधार-पुरावाओ अने परम्पराने नजर समक्ष राखीने ज निर्णायक बननारी सत्यनिष्ठा. आवी निष्ठा सदाय जाळवनार सज्जन एटले डॉ. ढांकीसाहेब.
रूढिजड परम्परावादीओ तेमनां संशोधनोने न स्वीकारे. विरोध पण करे. परन्तु ढांकी कहेतां के प्रमाणो जे अने जेवां प्राप्त छे तेने आधारे ज मूल्याङ्कन, अर्थघटन के विधान थई शके; कोईने गमे छे । नथी गमतुं एवा मापदण्डथी काम करीए तो ते संशोधन नहि होय, अने तेमां सत्यनिष्ठा नहि होय.
मूळे पोरबन्दरना. छेल्लां वर्षों अमदावादमां वसेला. कार्यक्षेत्र बनारस तथा दिल्ही. जैन वणिक् कुळना माणस. परन्तु गुजराते तेमने बराबर ओळख्या नहि. जैनोए तेमने उवेख्या - थोडाक अपवादोने बाद करतां.
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आ प्रकारना सर्वदेशीय अने सर्वमान्य विद्वज्जन, कदाच, तेओ छेल्ला हशे. आ कक्षाना बीजा विद्वान कोई होय तो ते जाणमां नथी. एटले, थोडा ज दिवसो अगाऊ थयेली तेमनी चिरविदायथी गुजरातनुं, भारतनुं अने विश्वनुं विद्याक्षेत्र वधु दरिद्र बन्युं छे, एम अतिशयोक्ति वगर कही शकाय. एमना विद्यापूत आत्माने अंजलि हो !
- - 'अनुसन्धान'नो हवे पछीनो अङ्क डो. ढांकीनी स्मृतिमा विशेष अङ्क तरीके प्रकाशित थनार छे. आ माटे शोध-लेख अथवा/अने स्मरण-लेख मोकलवा विद्वानोने आमन्त्रण छे.
- शी.
आवरणचित्र विषे आ अङ्कमां 'वस्तुपालादिप्रशस्तिसंग्रह' नामक लेख छे, तेमां गिरनार तीर्थना स्मृति-स्तम्भ विषे निर्देश थयेलो छे, ते सन्दर्भ साथे सम्बन्ध धरावती आ छबीओ छे.
वर्षो अगाउ गिरनार उपर यात्राए जवानुं थयुं त्यारे त्यां 'मनोहरभुवन'मां रात्रि-रोकाण करेलुं, तेना कम्पाउन्डमां आवा थोडाक स्तूपो के स्तम्भो वेरविखेर पडेला, अने तेमनी शोचनीय हालत प्रत्यक्ष निहाळेली. ते वखते तेना फोटो पण पडावेला - फोटोग्राफरने बोलावीने. ते पछी पेढीना प्रमुखश्रीने तेनी काळजी लेवानुं समजावेल. जो के पछी ते बधा- शुं थयुं तेनी जाण नथी. परन्तु ते समये त्यां रखडता पडेला समाधिस्तम्भनी बे तसवीरो अहीं आपी छे.
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अनुक्रम
सम्पादन पञ्चतीर्थकरस्तोत्राणि
__- सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय १ यमकबन्धमयः जिनस्तवः ( सावचूरिः) - सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय ५ श्रीवस्तुपालादिप्रशस्तिसंग्रहः (त्रुटितः अपूर्णश्च)
- सं. गणि सुयशचन्द्रविजय-मुनि सुजसचन्द्रविजय १५ श्रीवस्तुपालादिप्रशस्तिसंग्रह-नो परिचय - विजयशीलचन्द्रसूरि २३ . श्रीसर्वविजयजीकृत 'पुण्डरीक शब्दशतार्थी
- सं. गणि सुयशचन्द्रविजय-मुनि सुजसचन्द्रविजय ३० श्रीलक्ष्मीकल्लोलगणिकृत सप्तवर्गाक्षरवरेण्यावमशब्दग्रथितः सूक्तसङ्ग्रहः - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि ४० मुनिश्री प्रेमविजयजी कृत केटलीक गुर्जर लघु रचनाओ
- सं. मुनि धुरन्धरविजय ५३ प्रेमविजयजीनी रचनाओ विषे
___ - विजयशीलचन्द्रसूरि ६१ पण्डित-श्रीजयविजयजी-रचित वाचक-श्रीकल्याणविजयजी-रास
__ - सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ६४ वाचक-राजरत्नकृत शत्रुजय-चैत्यपरिवाडी-स्तवन
- सं. जिज्ञान विशाल शाह १०१ स्वाध्याय आचार्य कुन्दकुन्द (लगभग ६ठीं शती) - प्रो. सागरमल जैन १०५ तत्त्वबोधप्रवेशिका-२ ख्यातिवाद - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय ११८ विहङ्गावलोकन
___- उपा. भुवनचन्द्र १५० प्रकीर्ण ग्रन्थावलोकन
- - Willem Bollée १५६ सुधारो डॉ. मधुसूदन ढांकी स्मृतिशेष
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१६२
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जुलाई-२०१६
| सम्पादन . पञ्चतीर्थकरस्तोत्राणि
- सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय
आ कृतिमां श्रीआदिनाथ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ अने महावीरस्वामी एम पांच तीर्थंकरोना पांच लघु स्तोत्रो संस्कृतभाषामां निबद्ध छे. दरेक स्तोत्र पांच पांच विविध छन्दोमां रचायेल छे. पांचेय स्तोत्रो अतिशय भावप्रवण छे. काव्यशैली मनोहर छे. कर्तानो कोई निर्देश कृतिमां क्यांय करायो नथी तेथी कर्ता अज्ञात रहे छे.
प्रतिपरिचय : आ प्रति जोधपुर (राजस्थान)स्थित राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठाननी २११३८/२ क्रमांङ्कित प्रति छे. पत्र १ ज छे. . अक्षरो सुवाच्य अने सुन्दर छे. लेखनशैली शुद्ध छे. प्रतिलेखक पं. चारुदत्तगणि छे, एवं छेडे लखायेल पुष्पिकाथी जणाय छे. लेखन संवत् निर्देशायेल नथी छतां लेखनशैली जोतां १६मा सैकाना उत्तरार्धनी होय तेवू जणाय छे.
(१)
श्री आदिनाथलघुस्तोत्रम् जय जय जगदानन्द !, जय जय वरनाभिनन्दन ! जिनेन्द्र ! । जय जय करुणासागर !, मनोरथा अद्य फलिता मे ॥१॥ अद्य मे सफलं जन्म, अद्य मे सफला क्रिया । प्रयासः सफलो मेऽद्य, दर्शनादादिमप्रभोः ॥२॥ प्रातरुत्थाय येनाऽयमादिदेवो नमस्कृतः । हेलया मोहभूपालस्तेन नूनं तिरस्कृतः ॥३॥ सुकृतं सञ्चितं तेन, दुष्कृतं तेन वञ्चितम् । येन प्रथमनाथस्य, चरणाम्भोजमञ्चितम् ।।४।। त्रिभुवनाभयदानविधायिने, त्रिभुवनाद्भुतवाञ्छितदायिने । त्रिभुवनप्रभुतापदशालिने, भगवते ऋषभाय नमो नमः ॥५॥
॥ इति श्रीआदिनाथलघुस्तोत्रम् ॥
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२
(२) श्रीशान्तिनाथलघुस्तोत्रम्
किं कल्पद्रुमसेवया यदि मया शान्तिः श्रितः सर्वदा किं कर्पूरशि (श) लाकया नयनयोर्जातोऽतिथिश्चेदसौ । किं पीयूषपिपासया यदि पि (प ) पे त्वत्कीर्तिवार्तारसो . यद्वाऽन्यैरपि चेन्द्रियप्रियतमैः पर्याप्तमर्थागमैः ॥१॥
सर्वाङ्गसुभगाकारं, कारणं सुखसम्पदाम् । शान्ते ! तव मुखं दृष्ट-मिष्टलाभो बभूव मे, ॥२॥ भुवनानन्दविधात्री, यत्र श्रीः काऽपि निर्भरं वसति । तज्जिनपतिपदकमलं, भवे भवे भवतु मे शरणम् ॥३॥ दानिनां परमो दानी, मुनीनां परमो मुनिः । ज्ञानिनां परमो ज्ञानी, शान्तिः कस्य न शान्तये ॥४॥ स्वामिनामपि यः स्वामी, गुरूणामपि यो गुरुः । देवानामपि यो देवः सेव्यतां शान्तिरेव सः ॥५॥
"
॥ इति श्रीशान्तिलघुस्तोत्रम् ॥
(३)
श्रीनेमिनाथलघुस्तोत्रम्
परमान्नं क्षुधार्त्तेन, तृषितेन भृतं सरः । दरिद्रेण निधानं वा, मयाऽऽतं नेमिदर्शनम् ॥१॥
अनुसन्धान- ७०
निःसीमसौभाग्यमसीमकान्ति, निःसीमलावण्यमसीमशान्तिम् । निःसीमकारुण्यमसीमरूपं, नेमीश्वरं रैवतके नमामि ॥२॥
आलोकेन जिनेन्द्रस्य, दिनेन्द्रस्येव रैवते ।
तमोमयी निशा नष्टा, जातं सुदिनमद्य मे ॥३॥
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जुलाई-२०१६
कुलेषु यादवकुलं, श्लाघ्यं मेरुरिवाऽद्रिषु । नेमिः कल्पद्रुमः पुंसां, यशस्ते सर्वकामदः ॥४॥ य एकवारं गिरनारहारं, नमामि(प्रणौति?) नेमिं सि(शि)रसा स धन्यः । मुहुर्मुहुस्तं प्रणमन् विशेषा-दहं कथं धन्यतमो न गण्यः । ॥५॥
॥ इति श्रीनेमिनाथलघुस्तोत्रम् ॥
(४)
श्रीपार्श्वनाथलघुस्तोत्रम् अभिनवमङ्गलमाला-करणं हरणं दुरन्तदुरितस्य । . श्रीपार्श्वनाथचरणं, प्रतिपन्नो भावतः शरणम् ॥१॥ आयासेन विना लक्ष्मी-विना क्षेपेण वैभवम् । विनैव तपसा सिद्धि-र्जपतां पार्श्वनाम वै ॥२॥ पार्श्वजिन ! शासनं ते, निविडमहामोहतिमिरविध्वंसे । मयि रत्नदीपकल्पं, तनोति तेजो-विवेकाक्षम् ॥३॥ त्वरेथां चरणौ ! जिह्वे !, कुरु स्तोत्रं शिरो ! नमः । हर्षा श्रृं मुञ्चतं दृष्टी !, आ एष परमेश्वरः ॥४॥ भवे भवान्तरे वाऽपि, दु:खे वा यदि वा सुखे । पार्श्वध्यानेन मे यन्तु, वासराः पुण्यभासुराः ॥५॥
॥ इति पार्श्वनाथलघुस्तोत्रम् ॥
श्रीमहावीरस्वामिलघुस्तोत्रम् कनकाचलमिव धीरं, समुद्रमिव सर्वदाऽपि गम्भीरम् । लब्धभवोदधितीरं, नमामि कामं महावीरम् ॥१॥ दुरितदवानलनीरं, नीरागं भीतिभूमिकासीरम् । सिद्धिसहकारकीरं, करोमि निजमानसे वीरम् ॥२॥
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अनुसन्धान-७०
प्रमोदेन मनो नृत्य, रोमाञ्चैर्वपुरुल्लस । चिरादुन्मीलि(ल?)तं नेत्रे, ननु वीरवरोऽग्रतः ॥३।। अजन्मदायिने पित्रे, बान्धवायाऽविरोधिने । अद्रोहिणे चाऽ(च)मित्राय, श्रीवीर ! भवते नमः ॥४॥ श्रीवीरसद्ध्यानमयाग्निमग्नं, सङ्क्लिष्टभावार्जितकर्मकक्षम् । . भस्मीभवत्वाशु विरागिणो मे, तथा यथा नित्यसुखीभवामि ॥५॥
॥ इति श्रीमहावीरस्वामिलघुस्तोत्रम् ॥
इति जिनपतिपादपञ्चचञ्चद्विचारैः सुललितसुगमार्थे-नव्यकाव्यैः कथञ्चित् । कृतसमुचितसेवा सेवकानां जनानां जनितमधुरबोधा बोधिलाभाय सन्तु ॥२६।।
॥ इति पञ्चती कर स्तोत्रम् ॥ . ॥ पं. चारुदत्तगणिलिपीकृतम् ।। ॥ श्रीरस्तु लेखक-पाठकयोः ।
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जुलाई - २०१६
यमकबन्धमयः जिनस्तव:
सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय
आ स्तव संस्कृत साहित्यमां उत्कृष्टकक्षानुं कही शकाय तेवुं स्तुति-काव्य छे. अहीं श्रीजिनेश्वर भगवन्तनी १६ श्लोकोमां विविध भङ्गीओथी स्तुति करवामां आवी छे. तेमां पण बीजाथी मांडी पन्दरमा सुधीना श्लोको यमकालङ्कारविभूषित छे. प्रथम श्लोकमां 'जिनस्तुति करवानो अमे उद्यम करीए छीए', एम भूमिका बांधी छे, अने सोळमा श्लोकमां समापन करवामां आव्युं छे. स्तुतिकार व्याकरण - काव्य - साहित्यादि तथा अन्य ज्ञानविधाओना पारगामी हशे तेवुं श्लोकोनी कक्षा जोतां अनुभवाय छे रचयिताए पोताना नामनो कृतिमां क्यांय निर्देश कर्यो नथी, छतां छेल्ला श्लोकमां चक्रबन्धमां तेमना गुरुभगवन्तनुं नाम वगेरे निर्दिष्ट छे एवो अवचूरिनो उल्लेख जोतां स्तवन कर्ता, विक्रमना १४-१५मा सैकामां विद्यमान तपागच्छाधिपति आचार्य श्रीदेवसुन्दरसूरीश्वरजी भगवन्तना परिवारना, कोई विद्वान मुनिराज हशे तेवुं जणाय छे.
आ. स्तवना कठिन भावोने समझवा माटे साथे ज अवचूरि पण आपेली छे. अवचूरि पण अत्यन्त विशद अने विद्वत्तापूर्ण छे, तेथी एवी सम्भावना थई शके के स्तवना कर्ताए स्वयं ज तेनी रचना करी होय, कारण के अवचूरिमां पण कर्तानो कोई निर्देश नथी.
प्रतिपरिचय : आ प्रति, सदागम ज्ञानभंडार, कोडाय (कच्छ) ना संग्रहनी १४१/१५३५ क्रमाङ्कित प्रति छे. पत्र १ ज छे. प्रति पञ्चपाठी छे. अक्षरो अति सुन्दर - सुवाच्य छे. लेखन शुद्ध छे. पण पत्र चारेय तरफथी करपायेलुं होवाथी घणा अक्षरो /शब्दो तूटी गया छे. तेमांथी जेटला उकल्या/ अनुमानी शकाया तेटला चोरस कौंसमां लखी मूक्या छे, जेटला न उकल्या तेना स्थाने खाली चोरस कौंस मूकेल छे. मूळ स्तवननुं, लेखन चरणानन्द नामक कोई लेखके करेल छे तेवुं पुष्पिकाथी जणाय छे. लेखन संवत् निर्दिष्ट नथी, छतां शैली जोतां १६ मा सैकानी लखावट होय तेवुं अनुमानी शकाय .
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अनुसन्धान-७०
यमकबन्धमयः जिनस्तवः
(सावचूरिः) असमसम्मददायिवचःप्रथं, सततपूरितविश्वमनोरथम् ।
नवितुमीशमनुत्तरसंविदं, जिनवरं समलाम-तमोभिदम् ॥१॥ अवचूरिः
जिनेन्द्रं नतदेवेन्द्र, [वीरं] नत्वाऽर्थदेशकम् । स्तोत्रस्यैतस्य सङ्ख्पाद्, व्युत्पत्तिः किञ्चिदुच्यते ॥१॥
असमा- अतुल्या, पञ्चत्रिंशद्गुणान्वितत्वात्, सम्मद- प्रमोददायिनी अथवाऽसमो यः सम्मदः- प्रमोदस्तत्प्रदायिनी, वचःप्रथा- वाग्विस्तरो यस्य स तथा, तं; सततं- निरन्तरं, पूरिता विश्वेषां- सर्वेषां, विश्वस्य- जगतो वा, मनोरथाइच्छाविशेषा येन स तथा, तं; ईशं- विश्वविश्वैश्वर्यविराजमानं, अनुत्तरासर्वोत्तमा, संविद्- ज्ञानं यस्य स तथा, तं; जिना- वीतरागास्तेषु वरस्तीर्थकरः श्रीवर्धमानादिस्तं, सह मलेन- पापेन यः स समलः, समलश्च स आमश्च- रोगो. द्रव्यभावभेदभिन्नः, समलामश्च ज्ञानं (तमः?)- समलामतमसी, ते भिनत्तीति समलामतमोभित्, तम् ।
अत्र अनुत्तरसंविदमिति ज्ञानातिशयः, समलामतमोभिदमिति अपायापगमातिशयः, अथवाऽपायापगममन्तरेण ज्ञानातिशयो न स्यादिति ज्ञानातिशयेनाऽऽक्षिप्तोऽपायापगमातिशयः, अथवा जिनवरमिति नाम्नैवाऽपायापगमातिशयः प्रतिपाद्यते, असमसम्मददायिवचःप्रथमिति वचनातिशयः, एतदतिशयत्रयाऽविनाभूतपूजातिशयोऽपि मन्तव्यः ।।
एवं सर्वातिशयाश्रयमूलातिशयचतुष्टयविशिष्टं विष्टपनायकं सकललोक कामितदायकं नवितुं- स्तोतुं, क्रिया गुप्ता । तत्कर्षणपक्षे तु तमोभिदमित्येतावदेव विशेषणम् । एवंविधविशेषणविशेषितं जिनवरं स्तोतुं वयं समलामसम्-पूर्वस्य ‘अड उद्यमे' इत्यस्य धातोः पञ्चम्या आमवि रूपमिदं, ड-लयो
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जुलाई-२०१६
रैक्यात् । समडाम- सामस्त्येन उद्यमं सृजाम इत्यर्थः । सकलत्रिभुवनस्तवनीयपरमेश्वरजिनेश्वरस्तोत्ररचनोद्यमाशंसाऽस्माभिर्विधीयमानाऽस्तीति भावः । जिनवरस्तोत्रकरणोद्यमाशंसिनां बहुत्वाद् बहुवचनम् । नाऽनुप्रप्यनं (प्रणयनं?), स्तावकानां बहुत्वविवक्षाया महाकविकृतस्तुतिष्वपि दृश्यमानत्वात् । एवमाद्यवृत्तं लेशतो विवृतम् ॥ अथ द्वितीयम् -
मदनसूदन ! सूदय ! देहिनां, भवभयं जिन ! सूदय सत्वरम् । भुवनबान्धव ! सूदय ! भाविनां, महिममन्दिर ! सूदय मानसे ॥२॥
अवचूरिः- हे जिन !- वीतराग !, हे मदनसूदन !- हे मन्मथमथन !, हे सूदय !- हे शोभनोन्नते !, देहिनां- प्राणिनां, भवभयं- संसारसाध्वसं, सूदयनिदलय, सत्वरं- शीघ्रम्; एवं पूर्वार्धं गतार्थम् । उत्तरार्धे तु वाक्यान्तरं यथा - हे भुवनबान्धव !- जगद्बन्धो !, जगतां बान्धववत् परमहितकारित्वात्; हे महिममन्दिर !- प्रभावावास !, हे सूदय !- अतिशयप्रबलदैव !, सु-अतिशयेन उत्-प्राबल्येन शुभदैवं यस्य स सूदयस्तस्याऽऽमन्त्रणमिति व्युत्पत्त्या । भाविनां- श्रद्धालूनां जनानां, मानसे- चित्ते, सूदय- सशुभ !, भाविनां मानसे भानुवत् तथा त्वमुदयं कुरुष्व यथाऽन्धकारः सर्वथाऽपि प्रलीयत इति भाव ॥२॥
विमल ! ते पदपङ्कजयामलं, विमलते हृदि यो जिन ! यामलम् । विम ! लसद्गुण सोऽयतयामलं, विमलमोक्षसनातनयामलम् ॥३॥
अवचूरिः- हे जिन !, हे विमल !- निष्पाप !, हे विम !- विशिष्टा मा- त्रिभुवनैश्वर्यलक्ष्मीर्यस्य स विमः, अथवा मा- ब्रह्मरूपा लक्ष्मीर्यस्य स विमः, तस्याऽऽमन्त्रणम्; हे लसद्गुण !, ते- तव, पदपङ्कजयामलं- पादपद्मयुग्मं; यो- जनो, हृदि- हृदये, विमलते- धारयति, मलि - मल्लि धारणे इति वचनात्, पदपङ्कजयामलं कथम्भूतं ? - यामानि- व्रतानि लातीति क्वचि [यामलं] - व्रतसङ्ग्राहकं, सर्वव्रतानां भगवन्मूलत्वात्; पुनः किंभूतम् ? - आमलं- आमान् - रोगान् लुनातीति डे आमलं - रोगलावि; हृदि ये स्मरन्ती
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अनुसन्धान-७०
त्यर्थः; सोऽयते- गच्छति, कथम् ? - अलम्- अत्यर्थं, कां ? - विमलमोक्षसनातनयां- [ ]श्चित्तश्रियम् (?) ॥३॥
विभव ये वचनं विनिशम्य ते, विभ ! वमन्ति महोद ! यमायिनः । विभवबान्धवमोहममोह ! ते, विभवमन्ति महोदयमायिनः ॥४॥
अवचूरिः- हे विभव !- विगतसंसार !, हे विभ ! विशिष्टा भा - दीप्तिर्यस्य स विभस्तस्याऽऽमन्त्रणं, हे महोद !- तेजःप्रदः ! उत्सवप्रदो वा, मह उत्सव-तेजसी इति वचनात्, हे अमोह !- निर्मोह !, हे विभव् !- विगतो भवो - जन्म येषां ते विभवा - जन्मरहिताः; विभ[ ], जनान् विभवान् जन्मरहितान् करोतीति णे [विभवयति, तत्र क्विपि]- हे विभव् !, ये- जनास्ते -तव वचनं विनिशम्य- श्रुत्वा, विभवबान्धवमोहं- स्नेहं, वमन्ति- उद्गिरन्ति त्यजन्तीत्यर्थः, यमायिन:- यमान् - व्रतानि, यमेषु वा यन्ति आयन्ति वेत्येवंशीला यमायिनः - [व्रतसेविन इत्यर्थः], अथवा ते - तव [यमायि]न:, निरुक्तं प्राग्वत्; महोदयमायिनः- महोदयं - मोक्षं [पुण्यो ?]दयं वा अमन्तिगच्छन्ति, कथम्भूताः ? - आयिनः- आयो - लाभ: केवलसंवि[त् तद्वन्तः], सम्यग्[ज्ञानवन्त] इत्यर्थः ॥४॥
प्रभवतीह विभो ! त्वयि नित्यशः, प्रभवतीव रिपुर्मम मन्मथः । प्रभव ! तीर्थपते ! सुमते रमा-प्र ! भवतीरद ! माऽव नतं ततः ॥५॥
अवचूरिः- हे विभो ! स्वामिन् !, इह- जगति त्वयि प्रभवतिजगज्जन्तुजातत्राणैकता[रूपविभु]त्वमैश्वर्यमत्र प्रभवति सति, मम मन्मथः[कामदेव:], [रिपुरिव] - शत्रुरिव, नित्यशो- नित्यं, प्रभवति- [.....] सर्वप्रथनसमर्थो भवतीति, [कन्द]र्प - रिपुरावां प्रभोः पुरतो वि[ज्ञप्त्यर्थं विज्ञपयन्नुत्त[ ]; प्रभव तीर्थेत्यादि- हे तीर्थपते !- [तीर्थना] थ !, हे प्रभव !- उत्पत्तिस्थान !, कस्याः ? - सुमते:- ज्ञानसंविदः, हे रमाप्र !रमां - लक्ष्मी प्राति – पूरयतीति रमाप्रस्तस्याऽऽमन्त्रणं, हे भवतीरद !- संसार[समुद्रतट] प्रद !, मा- माम्, अवनतं- प्रणतं सन्तं, ततः- कन्दर्पसकाशात्;
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क्रिया गुप्ता, तत्कर्षणपक्षे तु नतं- प्रणतं, मा- मां, ततो- मन्मथरिपोः सकाशात्, अव- रक्ष; अथवा स्वामिन् त्वयि प्रभवत्यपि मन्मथो रिपुरिव [प्रभवति] यतस्ततो हेतोः मां नतमव, शेषं प्राग्वत् ॥५॥
सुकरवाम तवाऽसमशासनं, सुक ! रवाम गुणस्तवनं तव । सुकर ! वाम सदा तव दासतां, सुकरवामजयाः प्रभवामह ! ॥६॥
अवचूरिः- अस्मिन् वृत्ते प्र[थमाद्वितीया] योगाद् वाक्यभेदस्तथाहि - हे सुकर ! तवाऽसमशास- विरूपशासनम् [आज्ञारू]पं, सुकरवाम- सुपूर्वस्य डुकंग करणे [इत्यस्य धातोः पञ्चम्या आम]वि रूपमिदं, सुष्ठ आरा[धयाम इत्यर्थः], [हे सुक !] - सु- शोभनं, कं- सुखं - पर[ब्रह्मणि रमणरूपं यस्य स सुकः], तस्याऽऽमन्त्रणं; तव गुणस्तवनं- गुणस्तुतिं वयं रवाम- ब्रवाम, टुत्तु(क्षु)रुकुंक् शब्दे इत्यस्य धातोः पञ्चम्या आमवि रूप; हे सुकर ! - सुपूजितौ सर्वलक्षणोपेतत्वात् करौ- हस्तौ यस्य स सुकरस्तस्याऽऽमन्त्रणं, सदासर्वकालं, तव दासतां- भृत्यतां, वयं वाम- व्रजाम, वांक्- गति-गंधनयोरित्यस्य धातोस्तस्मिन्नेकवचने रूपं, हे प्रभो !, हे आमह !- रोगहिंसक !, सुकरवामजयाः - सुकरः- सुखसाध्यः, वामा- प्रतिकूलाः शत्रवो ये, तेषां जयः- पराभवो येषां ते सुकरवामजयाः वयं; क्रिया गुप्ता, तत्कर्षणपक्षे तु प्रभवाम- तव प्रसादतो निखिलवैरिसुकरविजयेनाऽप्रतिहतसामर्थ्या भवाम, ह इत्यवधारणे पादपूरणे वा ॥६॥
सुकलयाम विभो ! तव सेवनं, सुकल ! याम मतं तव सन्ततम् । सुकलयाम सदा भवदागमात्, सुकल ! यामभरं समवामह ॥७॥
अवचूरिः- अस्मिन्नपि प्रतिपदं क्रियास्तथैव, हे विभो ! तव सेवनंसेवां वयं सुकलयाम- विरचयाम, सुपूर्वस्य कलण् - संख्यान-गत्योरित्यस्य धातोः पञ्चम्या आमवि रूपं, हे सुकल - सु- शोभना कलात्रिभुवनजनमनःपरमप्रमोदसम्पादनलक्षणा विविधातिशयवशविश्वविश्वविस्मयविधानरूपा यस्य स सुकलस्तस्याऽऽमन्त्रणं, तव मतं- शासनं, सन्ततं
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निरन्तरं, याम- प्राप्नवाम, श्रयामेत्यर्थः, को (कः?) - आत्मनि आत्मनो वा लयो येषां ते सुकलया- योगीन्द्राः, सकलया इवाऽऽचराम, कर्तुः विपीति क्विपि पञ्चम्या आमवि सुकलयाम- परमात्मलयलीनयोगीन्द्रलीलामकलयामेत्यर्थः, तवाऽऽगमं श्रुत्वा परमब्रह्मलयलीना भवामेति भावः; तथा हे सुकल !सुष्ठ - अतिशयेन कलो- मधुरध्वनिर्यस्य स सुकलस्तस्याऽऽमन्त्रणम्, त्रैलोक्यपरमाप्यायनकारित्वाद् भगवद्ध्वनेर्माधुर्यातिशयः प्रसिद्ध एव; हे समवामह !सर्वशत्रुघातक !, यामभरं- व्रतभारं वयं, क्रिया गुप्ता, तत्कर्षणे तु वयं यामभरं समवाम- संरक्षाम, सम्पूर्वस्याऽव रक्षणादावेतस्य धातोः पञ्चम्या आमवि रूपं, हेत्यवधारणे ॥७॥
हततमार ! भवान् भविनामनी-ह! तत माऽरभ नूनमुपेक्षणम् । हततमा रभसा पततां भवे-ऽहतत ! मारमतङ्गजकेसरी ॥८॥
अवचूरिः- हे हततमार !- निर्मूलोन्मूलितवैरिवार !, अतिशयेन हतं - हततमम्, आरं- अरिसमूहो येन स तथा, तस्याऽऽमन्त्रणम्, हे अनीह !निरीह !, हे अरभ !- त्यक्तविषयसुख !, हे अहतत !- अखण्डितश्रीक !, यद्वा हतता- निन्द्यता, न विद्यते यस्य सोऽहततस्तस्याऽऽमन्त्रणं; भवान् भविना- प्राणिनां, भवे- संसारे, रभसा पततामधो गच्छतां सतां, नूनंनिश्चितम्, उपेक्षणम्- उपेक्षा, मा तत वत्तनवात्(?) किन्तु सर्वेषां भव्यानां भवनिस्तारणोपक्रमं कृतवानिति भावः । कथम्भूतो भवान् ? - हततमा:- हतंगतं, तमः- पापमज्ञानं वा यस्मात् स तथा; पुनः कथम्भूतो भवान् ? - मारमतङ्गजकेसरी- कन्दर्पकरिपञ्चाननः ॥८॥
समत तारयशोभर ! मत्सरा-स ! मततार ! विभो ! मम मानसे । समततारभिदाशु भवान्महा-समत ! तारय माऽसम ! सेवकम् ॥९॥
अवचूरिः- हे तारयशोभर !- तारवत् - रूप्यवदुज्ज्वलो यशोभरो यस्य स तथा, तस्याऽऽमन्त्रणम्, हे मत्सरास ! मत्सरं- क्रोधमस्यति - निक्षिपति, कर्मणोऽणी(णि)ति अणि [मत्सरासस्तस्याऽऽमन्त्रणम्]; हे मततार !
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मतामभीष्टां, तां- श्रियं, राति- ददातीति डे मततारस्तस्याऽऽमन्त्रणम्; हे विभो ! मम मानसे, समत- सततं गच्छ, अत - सातत्यगमने इति वचनात्; तथा हे समततारभित् ! - समं- सकलं, ततं- विस्तृतं, आरं- अरिसमूह, [भिनत्ति - नाशयतीति] क्विपि; हे महासमत ! - महती समता- रागद्वेषवियुक्तता यस्य स तथा, तस्याऽऽमन्त्रणम्; हे असम !- अतुल्य !, भवात्- संसाराद्, आशु- शीघ्रं, मा- मां, सेवकं तारय- परपारं प्रापय ॥९॥
कमल कामद ! देव ! सदाऽपि सत्कमलकाऽमद ! दातुमनुत्तरम् । कमल ! कामद ! कोपदवानले-ऽकमलकाऽऽमद भव्यतनूमताम् ॥१०॥
अवचूरिः- हे देव !, हे कामद !- वाञ्छितप्रद !, हे सत्कमलक !सतां- [सज्जनानां कृते कमलकः -] सूर्यः; हे अमद !- मदवर्जित !, हे कमल !- [जलतुल्य !], कोपदवानले- क्रोधाग्नौ, हे कामद ! - कामकन्दर्प द्यति- छिनत्तीति डे; हे अकमलक !- न विद्यते के- आत्मनि मलो-. मालिन्यं यस्य सोऽकमलकस्तस्याऽऽमन्त्रणम्; हे आमद !- रागच्छेदक !, भव्यतनूमतां- भव्यजीवानाम्, अनुत्तरम्- अनुपमं, कं- सुखं, दातुं सदाऽपि अल- डलयोरैक्यादड- उद्यमं कुरु ॥१०॥
समर ! मोदितविष्टपरिष्टपाऽसमरमोऽदित शं भविनां भवान् । समरमो दितमोह ! तमोहराऽसमरमोदितपः सुगुणातत ! ॥११॥
अवचूरिः- हे समर !- सर्वद !, मोदितविष्टपविष्टप ! - मोदिताआनन्दिताः, विष्टपेष्विति विश्वेषु, विष्टा- निविष्टाः ये सुरादयस्तान् पातीति डे विष्टपविष्टपा:- सुरेन्द्रादयो येन स मोदितविष्टपविष्टपस्तस्याऽऽमन्त्रणम; भवान् भविनां शं- सुखम्, अदित- दत्तवान्, कथम्भूतो भवान् ? - असमरमो - असमा- अतुल्या, रमा- त्रिभुवनैश्वर्यलक्ष्मीर्यस्य स तथा; हे दितमोह !छिन्नमोह !, हे तमोहर !- अज्ञानापहारिन् !, हे सुगुणातत - सु- सुतरां, गुणविस्तृत !; भवान् कथम्भूतः ? - समरमः - समरं- सङ्ग्रामं मनातीति डे; समरमोदितप: - समरान्- अमरान् मोदयतीत्येवंशीलं तपो यस्य स
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समरमोदितपः; क्रिया गुप्ता, तत्कर्षणपक्षे तु तपः सुरविस्मयविधायि अततततान - विस्तारयामासेति भावः ॥११।।
विनयवामनवासवसन्तते !, विनयवामनराऽनुपलक्षित ! । विनय ! वामनमारभवं भयं, विनयवामनगाऽमरपायुध ! ॥१२॥
अवचूरिः- हे विनयवामनवासवसन्तते ! - विनयेन वामना- खर्वा, वासवानामिन्द्राणां, सन्ततिः- संहतिर्यस्य स तथा, तस्याऽऽमन्त्रणं - हे विनयवामनवासवसन्तते !, वर.....म्र(?) विनयविनम्रामरेन्द्रवृन्देत्यर्थः; हे विनयवामनरानुपलक्षित ! विशिष्टो नयः- न्यायः - सदाचारो विनयस्तस्य वामा:- प्रतिकूला विनयवामा:- सदाचारप्रतिपक्षिण इत्यर्थः, एवंविधा ये नरास्तैरनुपलक्षितः- अनादिकालप्ररूढप्रौढमिथ्यात्व [ ] परमयोग[ ]वाहभवनः; हे विनयवामनगामरपायुध ! - वि- विविधा, नयास्त्वेकदेशपरिच्छेदरूपा वचनमा[[] यस्मिन् स विनयः- स्याद्वादस्तं [वाचयती]ति डे - विनयवा- स्याद्वादवा[ ]गवद्वक्ता इत्यर्थः, तेषां मा[ ]स्त एव नगाः पर्वतास्तेषाममरपायुधः - अमरपा- इन्द्रस्तस्याऽऽयुधं वज्रं - विनयवामनगामरपायुधस्तस्याऽऽमन्त्रणम्, भयं कथम्भूतं ? - वामनमारभवं- वा[मयति - प्र]तिकूलं करोतीति णिजि वामः, [कर्तरि] अने वामनः- प्रतिकूलकारी, मार:- कन्दर्पस्तस्माज्जातं वामनमारभवं, विनयअपनय - स्फेटयेत्यर्थः ॥१२॥
हृदय मोदितदेवनरावली-हृदय मोदित ! देव ! सदा सताम् । हृदयवज्जनसंस्तुत ! मोहभी-हृदयवज्जनयाऽऽश्रितमण्डलम् ॥१३॥
अवचूरिः- हे देव !, हे मोदितदेवनरावलीहृदय !- मोदितसुरमनुज[श्रेणि] स्वान्त !, हे मोदित !- मया-परमया श्रिया, उदितो- महाभ्युदयं प्राप्तो मोदितस्तस्याऽऽमन्त्रणम्; सदा सतां- सज्जनानां हृत्- हृदयं कर्मतापन्नं, अय- [गच्छ], सतां हृदये निवासं विरचयेत्यर्थः; तथा हे हृदयवज्जनसंस्तुत ![दया] लुलोकस्तुत !; हे मोहभीहृद्- मोहभयापहारिन् !, आश्रितमण्डलं
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सेवकवृन्दम्, अयः- [शुभावहं ?] दैवं, स विद्यते यस्य तद् अयवत्अभं.......भाग्यभाग, जनय- निष्पादय ॥१३॥
परम ! मा नय माभवमीश्वरा-ऽपर ! ममाऽऽनय संयममञ्जसा । परम मानय मा निजसेवकं, परममानय मे गुणसम्पदम् ॥१४॥
अवचूरिः- अस्मि[ ]ति पादं क्रियास्तथाहि [परम-] स्रष्टा, ईश्वरस्वामिन् !, मा- मां, [भवं - संसारं], मा नय- मा प्रापय, किन्तु पारं नय; हे अपर !- न विद्यन्ते परा- वैरिणो यस्य सोऽपरस्तस्याऽऽमन्त्रणम्; मम संयममञ्जसा- वेगेन आनय, हे परम ! - परा- प्रकृष्टा, मा- श्रीर्यस्य स परमः, तस्याऽऽमन्त्रणम्; मा- मां, निजसेवकं- निजभक्तं, मानय- गणय; तथा मे- मम, गुणसम्पदं- गुणसम्पत्तिम्, अमानय- न विद्यते मानंपरिमाणं यस्याः साऽमाना, ताममानां कुरु - अमानय, णिजि पञ्चम्या हौ च; कथं ? परं- प्रधानं यथा स्यात् प्रधानतरप्रकारेण मम गुणाननन्तान् कुरुष्वेति भावः ॥१४॥
समदयोदय देव ! तवाऽरते-ऽसमद ! यो दयते हृदयं मते । समद ! योदय ईरितसंसृते ! - ऽसमदयोदयतेऽस्य निरन्तरम् ॥१५॥
अवचूरिः- हे देव !, हे समदयोदय ! - समः सर्वजीवतुल्यः, दयाकृपा, तस्या उदयो यस्य स समदयोदयस्तस्याऽऽमन्त्रणम्; हे अरते !- न विद्यते रतिर्मनोहरशब्दादिविषयो रागो यस्य सोऽरतिस्तस्याऽऽमन्त्रणम्; (हे समद !सर्वद !,) हे असमद ! - असमा- लक्षणया वैरिणस्तान् द्यति- छिनत्तीति डे असमदस्तस्याऽऽमन्त्रणम्; यो - जनस्तव मते- शासने हृदयं दयते- ददाति; हे ईरितसंसृते !- विक्षिप्तसंसार !, हे असमदे !- सह मदेन- दर्पण वर्तते यः स समदः, समदश्च स इश्च- कामश्च - समदेः, न विद्यते समदेर्यस्य स तथा, तस्याऽऽमन्त्रणमः अस्य- जनस्य, योदयो - या- श्रीस्तस्या उदयोऽभ्युन्नतिः परमैश्वर्यश्रीसमुदय इत्यर्थः, निरन्तरम् ओदयते- आङ्-उत्पूर्वस्य अयि गतावित्यस्य धातोरिदं रूपं, समन्तादागच्छतीत्यर्थः; हे देव ! यस्तव शासनलीनमनाः स्यात् स स्वर्गापवर्गसौख्यश्रिया समाश्रीयत इति भावः ॥१५।।
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अनुसन्धान- ७०
एवं श्रीशुभराशिदं दरहरं जिष्णुः प्रमादद्विषं सार्वं देवमदृष्यमुत्तरविभं नम्रावलीरक्षकम् । स्तौत्याबद्धरसं कृती नरवरस्तथ्याशयः सूक्तिभिर्योऽसौ सुन्दरमातनोति रयतोऽवश्यां विसारिश्रियम् ॥१६॥
॥ श्रीजिनस्तवः यमकबन्धमयः समाप्तः ॥ चरणानन्देन लिखितः ॥ अवचूरि : एवं श्रीशुभराशिदमित्याद्यन्तिमवृत्तं स्फुटार्थमेव । इदं वृत्तं श्रीगुरुनामादिषोडशाक्षरगर्भाष्टारचक्रबन्धेनाऽवगन्तव्यम् ||१६||
॥ श्रीजिनस्तवावचूरिः समाप्ता ॥ शुभमस्तु श्रीः ॥
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श्रीवस्तुपालादिप्रशस्तिसंग्रहः (त्रुटित: अपूर्णश्च)
__- सं. गणि सुयशचन्द्रविजय-मुनि सुजसचन्द्रविजय
सचिवो रचयामास, वस्तुपालः सविस्तरम् ॥२॥ युग्मम् एतयोर्मूर्तियुगली-मयमारासनाश्मना । चक्रे श्रीसोमनाथस्य, रङ्गमण्डपखत्तके ॥३॥ स्वस्वामिसुकृताय श्री-सोमनाथमहेश(शि)तुः । माणिक्यखचितां मुण्ड-मालामयमकारयत् ॥४॥ स्नात्रकुण्डी विभोस्तत्र, कलधौतविभासिताम् । शीर्णां समुद्दधाराऽसौ, चन्द्रमूर्तिमिवाऽर्यमा ॥५॥ द्विस(श)त्या सचतुःषष्ट्या, स्वर्णगद्याणकैरसौ । तत्रोमाभरणं सौख्य-लता-पुण्यकृतेऽकृत ॥६॥ सोमनाथपुरतो निजकीर्त्याः, क्रीडपर्वतनिभं करियुग्मम् । तुङ्गमश्ममयमत्र वितेने, तेजपालसचिवस्तु सुवस्तु ॥७॥ सोमनाथविभोलिङ्ग-मन्दरं परितोऽमुना । चतुःकाष्टी विधायाऽत्र, विधाताऽपि व्यजीयत ॥८॥ तत्र चन्द्रप्रभस्वामि-सदनस्याऽन्तिकेऽमुना । चतुर्विंशतितीर्थेश-प्रासादोऽष्टापदः कृतः ॥९॥ पौषधशालामौषधि-पतिमूर्तिमिवोज्ज्वलां सुधासारैः । जनतापापहरामिय-मकृत कृती तत्र नभसीव ॥१०॥ अष्टापदस्य पौषध-शालाया अपि च तत्र सचिवोऽयम् । आयार्थमट्टमालां, गृहमालां च व्यधापयत् ॥११॥
॥ इति देवकपत्तनीयाधिकारश्चतुर्थः ॥ १. चोकर्छ ।
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अनुसन्धान-७०
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मन्त्री भृगुपुरे वस्तु-पालो वस्तुविचारवित् । शकुनीविहारकरिणा, भेत्तुमात्मभवार्गलाम् ॥१॥ . सन्मुखे देवकुलिका-द्वयं दन्तद्वयोपमम् । आरादारासनीयाश्म-मयं स्फारमकारयत् ॥२॥ युग्मम् तद्गूढमण्डपेऽजित-शान्त्याख्यं परिकरस्थशेषजिनम् । . ललितादेव्याः स्वस्य च, सुकृताय चकार जिनयुगलम् ॥३॥ तद्गूढमण्डपक्रोडे, विशतां दक्षिणे सताम् । स्वमूर्ति कारयामास, ललितां(ता)कलितां(ता)मयम् ॥४॥ . पित्तला(ला)निर्मितां स्नात्र-प्रतिमां सुव्रतप्रभोः । लेपमूर्तेरलेपाला, तेजःपालोऽत्र तेनिवान् ॥५॥ तत्र स्नात्रप्रतिमा-पृष्ठे, पुरतश्च सुव्रतजिनेन्दोः । मूर्तिमकारयदनुपम-देव्याः स्वस्याऽपि सुकृती सः ॥६।। अत्राऽश्वबोधतीर्थे , परितस्तीर्थेशदेवकुलिकानाम् । दण्डांश्च पञ्चविंशति-मकारयत् काञ्चनानेषः ||७|| पुराद् बहिरसौ पुष्प-वनं तलतमालवत् । चक्रे जिनार्चनविधा-वनन्तलतमालवत् ।।८।। वडऊसणपल्लीस्थित-चैत्ययोर्मूलनायकौ । नाभेय-नेमिनौ वस्तु-पालस्तु समतिष्ठिपत् ॥९॥
॥ इति भृगुकच्छाधिकारः पञ्चमः ।। दीर्वीनगरे वैद्य-नाथावसथमण्डपे । वस्तुपालो व्यधात् स्वर्ण-कुम्भानेकोनविंशतिम् ॥१॥ स्वेश-तत्प्रियतमा-स्वकनिष्ठ-ज्येष्ठमूर्ति-निजमूर्तिसनाथम् । वैद्यनाथहरगर्भगृहाग्रे, वामतो व्यधित खत्तकमेषः ॥२॥ नवस्वर्णमयांस्तत्र, खत्तके कलशानयम् । नवखण्डधरोद्योति-करोत्प्र(करान् प्र)द्योतनानिव ॥३॥
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पश्चिमोत्तरयोर्वैद्य-शाल(ली)यद्वारयोरयम् । प्रशस्ती न्यस्तवानात्म-कीर्ति-मङ्गलपाठके ॥४॥ उत्तरद्वारपुरतो, वैद्यनाथस्य वेश्मनः । असूत्रयदसौ तुझं, तोरणं विशदाश्मभिः ॥५॥ वृषमण्डपिकां द्विभूमिकां, विशदैरश्मभिरस्य बान्धवः । इह काञ्चनकुम्भशोभिनी, पुरतो वैद्यपतेः प्रतेनिवान् ॥६॥ तथाऽसौ निजनाथस्य, कालक्षेत्र(त्रं?) तदाख्यया । रिवोरि(?)सङ्गमे वीरे-श्वरदेवकुलं व्यधात् ।।७।।
॥ इति दर्भावत्यधिकारः षष्ठः ॥ स्तम्भनके च शलाका-मुद्दधे पार्श्वनाथभवनस्य । दण्डकलशौ च काञ्चन-मयौ व्यधाद्वस्तुपालोऽत्र ॥१॥ नाभेय-शैवेयजिनेशखत्तके, सद्वारपत्रं च सिताश्मसुन्दरम् । तत्र प्रशस्ति च गिरिं च देवता-मकारयत् कारयितव्यकोविदः ॥२॥ साधितोभयंलोकाप्त-जन्मनोरयमात्मनः । कीर्योर्दोलानिभं तत्र, तोरणद्वयमातनोत् ॥३॥ पुरे स्तम्भनके तस्मि-न्नेका वापीमपापधीः । द्वे प्रपे त्रीनयं शालान्, विशालान् परितो व्यधात् ॥४॥
॥ इति स्तम्भनाधिकारः सप्तमः ॥ वस्तुपालसुतो जैत्रः, पेटलापद्रपत्तने । दिगम्बरजिनागारे, धनपालेन कारिते ॥१॥ मातामहस्य सुकृत-कृते कान्हडमन्त्रिणः । मूलनायकमर्हन्तं, नेमिनाथं न्यवीविशत् ॥२॥ युग्मम् तत्रैव पत्तने जैत्र-सिंहोऽयमतिपुष्कलम् । मण्डलं पेटलार्यायाः, पद्रदेव्याः पुरोऽकरोत् ॥३।।
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अनुसन्धान-७०
मन्त्री मसूयडग्राम-गम्भीराग्रामचैत्ययोः । वस्तुपालस्तु नाभेय-वामेयौ न्यस्तवान् जिनौ ॥४|| स्वस्यैष ललितादेव्या, अपि पुण्याभिवृद्धये । जयादित्यं नगरके, रत्नादेवीमकारयत् ॥५॥
॥ इति पेटलापदाधिकारोऽष्टमः ॥ . . स्तम्भतीर्थपुरे वस्तु-पालो मन्त्रिपुरन्दरः । कीर्तने शालिगस्योच्च-रुद्दधे गूढमण्डपम् ॥१॥ तत्र गर्भगृहद्वार-श्रियो लीलासरोरुहम् । स्वस्याऽप्यवरजस्याऽपि, स तेने मूर्तिखत्तकम् ॥२॥ गुर्जरान्वयिनो लक्ष्मी-धरस्य सुकृताय सः । तस्यैव परिधावष्टा-पदोद्धारमकारयत् ॥३॥ पुण्यायाऽम्बडदेवस्य, वैरिसिंहाभिधस्य च । तत्पक्षचैत्ययोः सोऽर्हद्-बिम्बे पृथगतिष्ठिपत् ॥४॥ तथोसिवालगच्छीय-पार्श्वनाथजिनालये । स्वस्याऽपि स्वाङ्गजस्याऽपि, मूर्ती कारयति स्म सः ॥५॥ श्रेयांसमात्माग्रजपुण्यहेतोः, स्वपुण्यहेतोश्च युगादिदेवम् । स्वकान्तयोः पुण्यकृते च नाभि-सिद्धार्थजावेष जिनावकार्षीत् ॥६।। सैष मोक्षपुरद्वार-तोरणस्तम्भसन्निभौ । तद्गूढमण्डपे कायो-त्सर्गिणौ विदधे जिनौ ।।७।। थारापद्रकगच्छीय-शान्तिनाथजिनालये । बलानकं त्रिकं गूढ-मण्डपं प्रोद्दधार सः ॥८॥ तत्रैव केलिकाख्यायाः, पुण्यहेतोः पितृष्वसुः । पितृव्यस्यैष तिहुण-पालस्य सुकृताय च ॥९॥ स्वश्रेयसे च क्रमतः, शम्भवं नाभिनन्दनम् । शारदां पट्टशालायां, कारितायामतिष्ठिपत् ॥१०॥ युग्मम्
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तथा शत्रुञ्जयाख्ये च, सदने प्रथमार्हतः । श्रीनेमि-पार्श्वजिनयोः, स देवकुलिके व्यधात् ॥११॥ प्राग्वाटवंशोद्भवकृष्णदेव-राणूतनूसम्भवयोः सपत्न्योः । श्रेयोभिवृद्धयै मथुराभिधाने, जिनालये सत्यपुराभिधे च ॥१२॥ बलानकं च त्रिकमण्डपौ च, पुरः प्रतोली परितो वरण्डम् । मठं तथाऽट्टद्वयमट्टषटकं, क्रमेण मन्त्री रचयाञ्चकार ।।१३।। युग्मम् क्षपणार्हद्वसहिका-मेकामेकां च तत्प्रिया । तथोद्दधार ललिता-देवीकान्तः स कान्तधीः ॥१४॥ तथाऽसौ वीरनाथस्य, रथशालामकारयत् । मठमट्टद्वयं चैत-दायदानाय निर्ममे ॥१५॥ गुहायामिव पूर्वाद्रे-श्चन्द्रं विश्वतमोपहम् । तत्रैव रथशालायां, नेमिनाथमकारयत् ॥१६।। इतश्च पल्लीवालाख्य-वंशे शोभनदेवभूः । अभूदजयसिंहाख्यो, भण्डशाली महामनाः ॥१७|| सङ्ग्रामसिंहसं(ग्रा)म-व्यसनोपशमाय सः । स्वमौलिं वस्तुपालार्थे, ढुण्ढदेवबलिं व्यधात् ।।१८।। तन्मूर्ति(ति?) रोघडीचैत्ये, कृतज्ञोऽयमकारयत् । तच्छ्रेयसे च जैनेन्द्र, बिम्बमेकमतिष्ठिपत् ॥१९।। रोघडीचैत्यदेवेन्दो-रादिनाथजिनेशितुः । शाकमण्डपिकामाय-दाने कल्पयति स्म सः ।।२०।। तथा ब्रह्माणगच्छीय-नेमिनाथजिनालये । जिनेन्दोरादिनाथस्य, स देवकुलिकां व्यधात् ॥२१॥ तथा सण्डेरगच्छीय-मल्लिनाथजिनालये प्रियासौख्यलताश्रेयः-कृते सीमन्धरप्रभोः ॥२२॥
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अनुसन्धान-७०
उदारमण्डपां देव-कुलिकामयमातनोत् । युगन्धरं च बाहुं च, स( सु)बाहुं च जिनाधिपम् ।।२३।। युग्मम् भावडाचार्यगच्छीयः, समुद्दधेऽमुना तथा । जिनत्रयाख्यः प्रासादः, श्रीमत्पार्श्वजिनेश( शि)तुः ॥२४|| श्रीकुमारविहारेऽसा-वकार्षीन्मूलनायकम् । तदाये हट्टिकां चैकां, तन्दुलेच्छामपि व्यधात् ॥२५॥ पौत्रप्रतापसिंहस्य, तद्भातुश्च कनीयसः । श्रेयसे किञ्च तत्रार्हत्-खत्तके द्वे चकार सः ||२६|| आसराजविहारस्य, प्रासादमृषभप्रभोः । कुमारदेवीवीहार-नामधेयं च नेमिनः ॥२७|| एकस्थण्डिलबन्धेनो-भयं तत्कतसंश्रयम् । एकनिर्गमनद्वारं, द्विप्रवेश(शं) बलानकम् ॥२८॥ अष्टमण्डपमुद्दण्ड-.
[अतः परं पत्रं नाऽस्ति ]
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।
......... न महनीयाः ॥४४॥ तेषां जयत्यचरमश्चिरमर्थिसार्थं, सन्तोषयन् नयधिया सुधियां धुरीणः । आशाधरः सुचरितैकनिधानगौर-देवीपतिर्भुवनलङ्घनकीर्तिपूर्तिः ॥४५॥ तस्याऽनुज: सुजनमानसवासहंसः, क्षोणीन्दुसंसदवतंसकृतप्रशंसः । श्रीसोमसिंह इति दिक्कुलकूलभित्ति-श्रीखण्डलेपमयकीर्तिचयश्चकास्ति ॥४६।। यस्य विधोरिव रजनी, जयतलदेवीति जयति जाया च । बुध इव चार्जुननामा-ऽऽल्हणदेवीवरयिता सूनुः ॥४७।। अणहिल्लपत्तने यः, श्रीराणिगसचिवराजरचितस्य । अष्टापदस्य मण्डप-मखण्डकुलमण्डनश्चक्रे |४८।।
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तत्रैवाऽष्टापदे येन, जनन्या जनकस्य च । अम्बिकादेवतायाश्च, कारिता मूर्त्तयोऽनघाः ॥४९॥
पौराख्यवेलाकूलाश्च, प्राच्यां गव्यूतिसीमनि । जाङ्गलेऽप्यर्णसा पूर्णां, कारयामास य: प्रपाम् ॥५०॥ इहैव तीर्थे शैवेय - वेश्मनो रङ्गमण्डपे । शुभं स्तम्भद्वयं पूर्व-जातमूर्त्तियुतं व्यधात् ॥५१॥
श्रीमन्नेमिजिनेश(शि)तुः सितमणिक्रीडारथन्ती महाश्रेयः शुभ्रगिरीन्दुसान्द्रशिखर श्रीविभ्रमं बिभ्रती । येनाऽकारि विशारिपूर्वजयशःक्षोणीरुहस्योच्चकैरुद्भिन्ना कलिकेव देवकुलिका सेयं श्रियः केणिका ॥५२॥ पित्रोस्तत्र श्रेयसें नेमिबिम्बं तस्मात् सव्ये मूर्त्तियुग्मं तयोश्च । वामे भागे स्वस्य पल्याश्च मूर्ति द्वन्द्वं तद्वन्निर्मलं निर्ममे यः ॥५३॥
उदीचीने च तत्रान्त - रपाचीने च खत्तके ।
व्यधात् स्वस्येव शैवेयं, श्रेयसेऽम्बां च देवताम् ||५४||
दानं बलं च बलिजैत्रमगाधमेधा - बीजं मनश्च गुरुगौरवभावहारि । लक्ष्मीः कृतानुगफला सुकृतक्रिया च यस्याऽर्जुनः स्फुरति कीर्तिभरः सुतश्च ॥ ५५ा
नाऽहङ्कारगणेन घूर्णितमति: द्रोहेण नाऽभिद्रुतः,
कार्पण्येन कलङ्कितो न कलितः कौटिल्यशिल्पेन न ।
नैश्वर्येण खलीकृतस्तरलितः क्रूरैर्न कर्णेजपैनंऽऽलीढः कलिचापलैरिह यदि श्रीसोमसिंहः परम् ||५६||
तेनोद्धृतवता गोत्रं, पूर्वेषां कीर्त्तनानि च । प्रशस्तिः कारिता देव - कुलिकायामियं शुभा ॥५७॥
बृहद्गणोद्गतपिप्पल-शाखायां श्रीधनेश्वरविनेयः । श्रीविजयसिंहसूरिः प्रशस्तिमेतामिति व्यतनोत् ॥५८॥
२१
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यावन्नभःसरसि राजति राजहंस - युग्मं मिलत्तिमिरशैवलभेदशीलम् । श्रीराणिगस्य कुलनिर्मलकीर्तिपूर्ति - सौवस्तिकी जयतु तावदसौ प्रशस्तिः ॥५९॥
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अनुसन्धान- ७०
सं० १२११ वर्षे महाराज श्रीकुमारपालदेवनियुक्तव्ययकरणेन श्री श्रीमालज्ञातीयसङ्घपतिश्रीराणिगेन श्रीमदणहिल्लपत्तने श्रीकुमारविहारजगत्यां पूर्वामुखोऽष्टापदस्तथा सं० १२२२ वर्षेऽत्र महातीर्थेऽपवरकत्रयपट्टशालाद्वयालङ्कृतः पश्चिमामुखो मठस्तथा सं० १२२४ वर्षेऽत्र श्रीनेमिचैत्ये रङ्गमण्डपस्तथा गूढमण्डपनैर्ऋत्यकोणे स्वस्य पत्नी महं० श्रीरूपिण्याश्च मूर्त्तियुग्मं चेति धर्मस्थानानि, बहूनि चान्यानि श्रेयांसि कारितानि ॥ तथा सं० १२२२ वर्षे श्रीकुमारपालदेवदत्तसुराष्ट्रादण्डाधिपत्येन महं० श्रीराणिगसुत दण्ड० श्रीआम्बाकेन अत्र तीर्थे पश्चिमदिशि नूतनपद्या कारिता । तथा श्रीनेमिचैत्ये बलानकं तदग्रत: पूर्वजस्तम्भान् पितृमूर्त्तिसमीपे स्वमूर्त्तिश्च । तथा गिरिनगरपूर्वद्वारे आम्बावापी | तथा राजप्रसादाप्तसहुआलापुरपार्श्वस्थ-आम्बासणग्रामे श्रीनेमिचैत्यम् । तथा श्रीकुमारपालदेवनियुक्तमालवदेशदण्डाधिपत्यस्थेन बहूनि धर्मस्थानानि कारितानि । तथा अत्र श्रीनेमिपूजार्थं श्रीमङ्गलपुरें आवाससहिता आम्बाकोटडी काराप्य प्रदत्ता । तथा सं० १२२३ वर्षे दण्ड० श्रीआम्बालघुभ्रात्रा लाटदेशदण्डनाथेन दण्ड० श्रीधवलेन नव्यपद्यामध्ये धवलप्रपा कारिता । तथा दण्ड० श्रीधउलूलघुभ्रात्रा नागसारिकादण्डनाथेन् दण्ड० श्रीयशोराजेन धवलप्रपायाः पश्चात् गिरितटे कुण्डिका, तथा बहुषु स्थानेषु जिनबिम्बानि कारितानि । तथा सं० १३२८ वर्षे दण्ड० आम्बा. दण्ड० श्रीराइमइसुतराणश्रीपेथाकतद्भार्या राज्ञी सुहागदेवीनन्दनराणश्रीजगसीह तत्पत्नी राज्ञीजासलदेवीतनुज महं० श्रीछाडा तद्गेहिनी महं० श्रीचाहिणिदेवीनन्दनेन महं० श्रीआशाधरानुजेन महं० श्रीतिहुणसीह ज्येष्ठेन महं० श्रीसोमसीहेन अत्र तीर्थे पित्रोः श्रेयसे श्रीनेमिबिम्बालङ्कृता सेयं देवकुलिका । तथा श्रीनेमिरङ्गमण्डपे पूर्वजस्तम्भद्वयम् । तथा श्रीअणहिल्ल पत्तनाष्टापदे मण्डपस्तथा पौरावेलाकूले प्रपा चेति धर्मस्थानानि कारितानि । सं० १३२८ श्रीबृहद्गच्छीय श्रीविजयसिंहसूरिभिः सेयं प्रशस्तिः कृता ।
ပြော
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'श्रीवस्तुपालादिप्रशस्तिसंग्रह 'नो परिचय
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विजयशीलचन्द्रसूरि
आपणा उत्साही, अभ्यासी अने संशोधनप्रेमी बन्ने मुनिराजो ओक अपूर्व अने ऐतिहासिक रचनानुं सम्पादन लईने 'अनुसन्धान ना आंगणे आव्या छे. रचना त्रुटित छे, अपूर्ण छे, तो पण महत्त्वपूर्ण छे. गुजरातना महामन्त्रीओ वस्तुपाल अने तेजपालनां कार्यो साथै संकळायेली आ रचनामां ते बेनां अनेक विशिष्ट अने अद्यावधि अज्ञात सत्कार्योनुं वर्णन छे. वस्तुपालविषयक घणी प्रशस्तिओ उपलब्ध छे. तेमां तेमनां कार्योनुं वर्णन पण थयुं ज छे. छतां आ रचनामा घणी बधी नवी अज्ञात वातो नोंधायेली होय एवं जणाय छे.
प्रतिनां फक्त बे ज पत्र प्राप्त छे. तेमां वस्तुपालनी प्रशस्ति प्रथम पत्रमां छे, जेनां आदि - अन्त नथी; तेथी ते केटला श्लोकप्रमाण होय तथा कोनी रचेली होय, क्यां उत्कीर्ण होय, ते वगेरे कशुं जाणी शकाय तेम नथी. बीजा पत्रमां पाटणना राणिग सचिवना देरासरसम्बन्धी तथा तेना पुत्रादिए करेल सुकृतोनां वर्णननी प्रशस्ति छे. तेनो प्रारम्भ नथी, अन्त छे. ५९ पद्योनी ते रचना छे. ते पछी ते ज परिवार सम्बन्धी गद्य - प्रशस्ति छे. तेमां प्रशस्तिकर्तानुं नाम तथा रचनासंवत् उल्लिखित छे.
प्रतिना अक्षर-मरोड आदिना आधारे ते १४मा सैकामां लखायानुं अनुमान थाय. आ बधी प्रशस्तिओ, जे ते चैत्यमां के स्थानमां उत्कीर्ण शिलालेखरूप हो, अने तेनी आ लिखित नकल जणाय छे.
हवे आपणे प्रतिगत प्रशस्तिओ द्वारा प्राप्त थती ऐतिहासिक विगतो जोईए, वस्तुपाल - - तेजपाल - सम्बन्धित, प्रथम- पत्र-गत, पद्यात्मक प्रशस्तिमां, उपलब्ध अंश - अनुसार, चतुर्थ अधिकारना बीजा पद्यथी वाचना शरु थाय छे. ओटले प्रथमना ३ अधिकारो जेटलो भाग सम्पादकोने जड्यो नथी. ते जडी आवे तो प्रशस्ति पूर्ण बने ज, उपरांत घणी ऐतिहासिक विगतो जाणवा पण मळे. क्यांक, क्यारेक आ त्रुटित अंश कोईने जडी आवे तेवी आशा.
चतुर्थ अधिकारमा ११ पद्यो छे. ते 'देवपत्तनीय अधिकार' नामनो छे. देवपत्तन एटले प्रभासपाटण. त्यां प्रख्यात सोमनाथ महादेवनुं तीर्थ छे. चन्द्रप्रभजिननुं पण ए तीर्थ छे. 'सोम' अने 'चन्द्र' बन्ने धर्मोना तीर्थ साथे आ ज
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अनुसन्धान-७०
शब्दो जोडाय ते पण रहस्यवादी घटना छे. अहीं आ बे मन्त्रीओए करेलां सत्कृत्यो आवां छे :
१. सोमनाथ-मन्दिरमा मन्त्रीए ‘एतयोः' (बे व्यक्तिविशेषनी) प्रतिमाओ मूकावी. २. पोताना राजाना पुण्यार्थे सोमेश्वरने माणेकरत्ननी मुण्डमाला चडावी. ३. ते देवस्थाननी स्नात्रनी (प्रक्षालनी) कुण्डीनो तेणे उद्धार कर्यो. ४. पार्वती माताने तेणे २६४ गदियाणानुं स्वर्णाभूषण चडाव्यु, पोतानी पत्नी 'सौख्यलता (सोखू)'ना श्रेयार्थे. ५. तेजपाले सोमनाथनी सन्मुख पाषाणमय उत्तुङ्ग बे हाथी मूकाव्या. ६. सोमनाथ भगवानना लिङ्ग फरते मन्त्रीए चतुःकाष्ठी-चोकटु बनाव्युं.
___ एक जैन मन्त्री केटलो समुदार, बिनसाम्प्रदायिक तथा सर्व धर्मो प्रत्ये आदरबहुमान धरावनारो हशे, तेनो आथी अंदाज मळे छे : एक आदर्श रचाय छे.
त्यां ज चन्द्रप्रभजिन-तीर्थमां तेणे - १. चन्द्रप्रभुना जिनालय-समीपे अष्टापदप्रासाद बनाव्यो; २४ जिनयुक्त. २. त्यां पौषधशाला बंधावी. ३. ए बन्नेना निर्वाहनी आवक माटे दुकानो अने घरो पण बनाव्यां...
पछी भृगुकच्छ-अधिकार पांचमो छे. १. त्यां शकुनिविहार-चैत्यमां सन्मुखमां वस्तुपाले आरासणना पाषाणमय २ देरी करावी. २. त्यां ज गूढ मण्डपमां, पोताना अने ललितादेवीना श्रेयार्थे, अजितनाथ ने शान्तिनाथनी बे चोवीशी-मूर्ति करावी. ३. तेना गूढमण्डपमा प्रवेशतां दक्षिणदिशामा मन्त्रीले ललितादेवीसमेत पोतानी मूर्ति मूकावी. ४. तेजपाले सुव्रतजिननी लेपमय स्नात्र-प्रतिमाने स्थाने पित्तलनी प्रतिमा करावी. ५. स्नात्रप्रतिमानी पीठे अने सुव्रतजिन-सन्मुख तेणे पोतानी ने अनुपमादेवीनी मूति करावी. ६. मुख्य शिखर सहित २५ शिखरो पर सुवर्णना दण्ड कराव्या. ७. भरूचनी बहार, जिनार्चन माटे पुष्पो मळे ते माटे उपवन बनाव्यु. ८. वडोसणपल्लीनां बे चैत्योमा मन्त्रीए आदिनाथ-नेमिनाथ बेनी मूलनायक तरीके स्थापना करी. अहीं आ अधिकार पूरो थयो. ___ पछी 'डभोई'नो अधिकार छे. डभोईनुं नाम छे 'दीर्वी'. १. त्यां वैद्यनाथ महादेवना मन्दिर उपर वस्तुपाले १९ स्वर्णकलश स्थाप्या. २. ते मन्दिरना खत्तकमां पोताना नाना-मोटा भाईओ सहित पोतानी सपत्नीक प्रतिमाओ स्थापी. ३. ते खत्तकनी उपर ९ स्वर्णकलशो स्थाप्या. ४. वैद्यनाथ-मन्दिरना पश्चिम अने उत्तरनां बे द्वार पर पोताना प्रशिस्तलेख लखाव्या. (ते परथी लागे छे के वैद्यनाथ- मन्दिर
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तेमणे ज बनाव्यु होवू जोईए). ५. वैद्यनाथमन्दिरना उत्तर-दरवाजे मोटुं अने पाषाणमय तोरण रचाव्यु. ६. वैद्यनाथनी सन्मुख बे माळनी श्वेतपाषाणमय वृष(नन्दी)मण्डपिका मन्त्रीओ करावी अने तेना पर सुवर्णकलश पण स्थाप्या. ७. छेल्ला श्लोकनो अर्थ समजातो नथी. परन्तु तेमां 'वीरेश्वर देव' (नामना देव)नुं मन्दिर बनाव्यानी वात जणाय छे.
ते पछी स्तम्भनक तीर्थनो अधिकार छे. स्तम्भनक एटले थामणा, डाकोर पासेनु, सेढी नदीना किनारानुं गाम. १. त्यां पार्श्वनाथ-चैत्यनी शलाकानो उद्धार कर्यो, तथा स्वर्णना दण्ड तथा कलश स्थाप्या. २. त्यां आदिनाथ-नेमिनाथना खत्तक पर श्वेत आरसनुं द्वार-तोरण कराव्यु; त्यां प्रशस्ति लखावी; गिरि अने देवता (आदिनाथ-नेमिनाथना पर्वत : शत्रुजय ने गिरनार ?)नी (रचना ?) करावी. ३. बे तोरणो ते चैत्यमा कराव्या. ४. ते नगरमा एक वाव, बे परबो अने त्रण शाळाओ तेमणे करावी. . हवे पेटलापद्रपत्तन (पेटलाद)मां - १. वस्तुपालना पुत्र जैत्रे, धनपाले करावेल दिगम्बर देरासरमां, पोताना मातामह (नाना) कान्हड मन्त्रीना कल्याणार्थे मूलनायक नेमिनाथनी स्थापना करी. २. त्यां ज जैत्रसिंहे पादरदेवी एवा 'पेटला'देवी, मोटुं मण्डल बनाव्यु. ३. मसूयड अने गम्भीरा ए बे गामोनां चैत्योमा मन्त्रीए आदिनाथ ने पार्श्वनाथनी प्रतिष्ठा करी. ४. पोताना ने ललितादेवीना श्रेयार्थे नगरक (नगरा, खम्भात)मां सूर्यदेव अने रत्नादेवी (रांदल)नुं (ना मन्दिरनु) निर्माण कराव्युं.
स्तम्भतीर्थपुर (खंभात)नो अधिकार, प्राप्त वाचनामां छेल्लो छे ते मोटो छे, २८ श्लोकोनो, ते पण अपूर्ण. १. अहीं मन्त्रीए शालिगना कीर्तन (देवालय)मां गूढ मण्डपनो उद्धार कराव्यो. २. तेमां ज गभाराना द्वार पर पोतानी तथा नाना भाईनी प्रतिमायुक्त खत्तक कराव्यु. ३. तेनी ज परिधिमां गुर्जरवंशीय लक्ष्मीधरना श्रेयार्थे अष्टापदनो उद्धार कर्यो. ४. आम्बडदेव तथा वैरिसिंहना पुण्यार्थे, तेमना पक्ष (गच्छ)नां बे चैत्योमां बे जिनबिम्बो स्थाप्यां. ५. ओसि(स)वालगच्छीय पार्श्वनाथचैत्यमां पोतानी ने पोताना पुत्रनी प्रतिमाओ स्थापी. ६. मोटाभाईना नामे श्रेयांसनाथ, पोताना नामे आदिनाथ, पोतानी बे पत्नीओना नामे आदिनाथ ने महावीरनी मूर्तिओ प्रतिष्ठित करी. ७. ते चैत्यना गूढ मण्डपमा कायोत्सर्गमुद्रामां (खड्गासने) बे प्रतिमा पधरावी. ८. थारापद्र (थराद) गच्छीय शान्तिनाथ-चैत्यनां बलानक, त्रिक, गूढमण्डपनो उद्धार को. ९. त्यां ज पोतानां फोई केलिका, काका तिहुणपाल - ए
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बेनां नामे क्रमशः सम्भवनाथ ने आदिनाथ तथा पोताना नामे सरस्वतीनी मूर्ति पोते त्यां करावेली पट्टशालामां स्थापी. १०. शत्रुञ्जयावतार अदिनाथ - चैत्यमां नेमिनाथ ने पार्श्वनाथनी बे देरी बनावी. ११. प्राग्वाट (पोरवाड) वंशना कृष्णदेव तथा तेमनां पत्नी राणूनां बे पुत्री, बन्ने सपत्नी (शोक्य) छे तेमना श्रेयार्थे, मथुरा - चैत्यमां तथा सत्यपुरावतार चैत्यमां बलानक, त्रिक, मण्डप, सन्मुख पोळ, फरतो वरंडो, मठ, क्रमशः बे तथा छ अट्ट (दुकान) मन्त्रीए कराव्यां. १२. क्षपण - अर्हद् वसही नामे एक चैत्यनो मन्त्री तथा एक चैत्यनो तेनां पत्नी ललिताए उद्धार कराव्यो. ( क्षपण : एटले कोई यतिविशेष हशे ? ). १३. वीर - चैत्यमां रथशाला करावी. तेना निभावनी आवक माटे मठ तथा बे अट्ट कराव्यां. ते रथशालामां नेमनाथ पंधराव्या. १४. पल्लीवाल वंशमां थयेला शोभनदेवना दीकरा भण्डशाली ( भणशाली) अजयसिंह, तेणे संग्रामसिंह (शङ्ख) जोडे विकट युद्धरूपी आपत्तिना निवारण माटे (मन्त्रीने वास्ते) पोताना मस्तकनो बलि (कमलपूजा ? ) ढुंढदेव (नामे देव) ने धरावेलो. कृतज्ञ मन्त्रीए रोघडी-चैत्यमां तेनी मूर्ति, तथा तेना श्रेयार्थे एक जिनबिम्बनी स्थापना करी. अने रोघडी चैत्यना आदिनाथजिनना मन्दिर - निर्वाहार्थे एक शाकमण्डपका (मांडवी) मन्त्रीए बनावी हती. १५. ब्रह्माणगच्छना नेमि चैत्यमां तेणे आदिनाथनी देरी करावी. १६. सण्डेरगच्छना मल्लिनाथ - चैत्यमां, पत्नी सौख्यलताना श्रेयार्थे मोटा मण्डपवाळी, सीमन्धरप्रभुनी देरी करावी, तेमं सीमन्धर, युगमन्धर, बाहु, सुबाहु - ४ जिननी प्रतिष्ठा करी. १७. भावडाचार्य ( भावडार) गच्छनो पार्श्वनाथनो 'जिनत्रय' प्रासाद हतो तेनो तेणे उद्धार कराव्यो. १८. कुमारविहार चैत्यमां तेणे मूलनायकनी स्थापना करी. तेनी आवक माटे एक हाट करावी. (तन्दुलेच्छा?). ते चैत्यमां जं, पोताना पौत्र प्रतापसिंहना तथा तेना ज नाना भाईना श्रेयार्थे खत्तको कराव्यां. १९. ऋषभदेवनो आसराजविहार अने नेमिजिननो कुमारदेवीविहार बे चैत्यो पितामातानां नामनां कराव्यां. ते बन्नेने एक ज परिसर (Compound) मां गोठवी, एक ज मुख्य द्वारवाळां कराव्यां. ते बन्नेना बलानकना प्रवेश जुदां राख्यां.
अहींथी आ प्रशस्ति त्रुटित छे. आटलामां पण आपणने घणी विगतो सांपडे छे. सोमनाथ अने वैद्यनाथ महादेवना प्रसंगोमां वस्तुपालना सर्व-धर्म-समभावनो तथा बिनसाम्प्रदायिकतानो परिचय मळे छे. जो के बिनसाम्प्रदायिकता के समभावमा 'भक्ति' नथी होती, ज्यारे अहीं तो सर्वत्र मन्त्रीनी 'भक्ति' प्रगट थती जणाय छे. खम्भातमां तमाम गच्छोनां चैत्यो हतां वस्तुपाल ते सर्व गच्छो प्रति सद्भाव अने भक्ति दाखवे छे, ए पण अहीं जाणवा मळे छे. वस्तुपालना पुत्र जैत्र (सिंह), तेना
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पुत्रो बे, तेमां मोटानुं नाम प्रतापसिंह; जैत्रनां मातामह कान्हडमन्त्री, वस्तुपालना काका तिहुणपाल, फोई केलिका; वस्तुपालना ससरा कृष्णदेव, सासु राणू (?) - आवां बधां स्वजनोनो परिचय आमां मळे छे. भरूचमां पित्तलमय स्नात्रप्रतिमा कराव्यानो उल्लेख एटला माटे नोंधपात्र छे के अन्यत्र प्रबन्धोमां, थामणाना आ. मल्लवादीना कहेवाथी, मन्त्रीए भरूचमां सोनानी स्नात्रप्रतिमा कराव्यानो उल्लेख छे. 'पेटलाद' - पेटलापद्र ए नाममां 'पेटला' ए त्यांनी पादरदेवीनुं नाम होवानुं तथा ते देवता- मण्डल मन्त्रीपुत्र जैत्रे कराव्यानुं पण आमां जाणवा मळे छे. नगरा ए खम्भात-समीपनुं क्षेत्र (हाल नानुं गाम) छे, अने त्यां मन्त्रीए करावेल सूर्यमन्दिर अत्यारे पण विद्यमान छे. देवालयोना निभावनी आवक माटे घर, दुकान, मठ वगेरे बनावी अर्पण करवानी प्रथा हती, ते पण अहीं जाणवा मळे छे. कोई युद्ध भयानक होय, शत्रु जोरावर होय अने मन्त्री पर जीवनुं जोखम होय, त्यारो कोई सेवक पोताना इष्टनी मानता माने अने पोतानुं मस्तक कापीने चडावी दे - तेवी आत्यन्तिक श्रद्धा-प्रथानो प्रसंग खूब नोंधवाजोग छे. आजकाल पोताना इष्ट नेता-अभिनेताना कारणे अनेक जनो आत्मविलोपन करे ज छे, तेनी तुलनामां आ प्रसंग वीरतानो, वफादारीनो तथा भक्तिनो मानवो पडे, आजना जेवी अन्धश्रद्धानो नहि. जिनालयमां 'खत्तक'मां पोतानी (दातानी) मूतिओ मूकवानो रिवाज हशे ते पण जाणी शकाय छे. मन्त्रीए पोतानी ज नहि, नाना-मोटा भाईओनी तथा पुत्रनी पण मूर्ति मूकावी होवानुं अहीं वर्णन छे. अहीं वस्तुपाल सम्बन्धी प्रशस्तिनी वात पूरी थाय छे.
पत्र २मा ४४मा पद्यना अन्तिम अंशथी ५९मा पद्य सुधीनो प्रशस्ति-लेख छे. मतलब के १-४३ पद्यो वाळो अंश त्रुटित छे. पद्य ४५मां आशाधर अने गौरदेवीनां नाम छे. ४६-४७मां तेना अनुज-भाई सोमसिंह अने तेनां पत्नी जयतलदेवीनां तथा तेना पुत्र अर्जुन अने आल्हणदेवीनां नाम छे.
आ सोमसिंहे, अणहिलपुर पाटणमां पोताना पूर्वज राणिग सचिवे करावेला अष्टापद (अष्टापदावतार चैत्य ?)नो मण्डप, पोतानां माता-पितानी तथा अम्बिकानी मूर्तिनी स्थापना करावी.
तेमणे, पौ(पो)रबन्दरमा पूर्वदिशाना सीमाडे जल भरेली परब करावी.
आ ज (गिरनार) तीर्थमां नेमि-चैत्यना रङ्गमण्डपमां, पोताना पूर्वजनी मूर्तिवाळा बे स्तम्भो कराव्या. नेमिनाथनी देरी पण करावी, तेमां मध्यमां नेमिनाथनी, जमणे माता-पितानी अने डाबे पोतानी-पति-पत्नीनी युगल मूर्तिओ मूकावी. त्यां
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उत्तरना खत्तकमां नेमिनाथनी तथा दक्षिण- खत्तकमां अम्बानी प्रतिमाओ स्थापी. ते देवकुलिकामां आ प्रशस्ति उत्कीर्ण छे.
बृहद्गच्छनी पिप्पलशाखाना आ. धनेश्वरसूरिना शिष्य विजयसिंहसूरिए आ प्रशस्ति रची होवानो निर्देश ५८मा पद्यमां छे.
राणिगनो परिचय, ते पछीना गद्य भागमां मळे छे, ते प्रमाणे वि.सं. १२११मां, राजा कुमारपालना सचिव (खर्चखाताना ) एवा श्रीमालज्ञातिना राणिगसंघपतिए, पाटणना कुमारविहार- चैत्यना परिसरमां, पूर्वाभिमुख अष्टापद कराव्यो. सं. १२२२मां, अत्रे (गिरनारमां ) पश्चिमाभिमुख एवो ३ ओरडा अने २ पट्टशालायुक्त मठ कराव्यो; १२२४मां रङ्गमण्डप बनाव्यो अने गूढमण्डपना नैर्ऋत्य कोणमां पोतानी तथा पत्नी रूपिणीनी मूर्तिओ बेसाडी. बीजां पण अनेक सुकृत तेणे कर्यां.
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राणिगना पुत्र अने सौराष्ट्रना दण्डनायक आम्बाके अत्रे ( गिरनार पर) पश्चिम दिशामां नवी पाज-पगथियांनी श्रेणी करावी. नेमि - चैत्यमां बलानक तथा तेनी आगळ पूर्वजोना स्तम्भो, पितानी मूर्ति पासे पोतानी मूर्ति करावी. गिरिनगर ( गिरनार ) ना पूर्वद्वारे अम्बावाव करावी. वळी राजानी प्रसादीरूप सहुआलापुर क्षेत्र नजीकना आंबासण गाममां नेमि चैत्य कराव्युं.
कुमारपाले तेमने मालवदेशना दण्डनायक नीम्या त्यारे (त्यां) घणां धर्मस्थानो तेणे कराव्यां.
मङ्गलपुर (मांगरोळ)मां रहेठाण युक्त आंबाकोटडी, नेमिनाथनी पूजार्थे करावी अर्पण करी.
सं. १२२३ वर्षे दण्डनायक आंबाना नाना भाई अने लाटदेशना दण्डनायक धवले (गिरनारनी) नवी पाजमां वच्चे धवल - प्रपा ( धोळी परब) करावी. धवलना नाना भाई अने नागसारिका (नवसारी) ना दण्डनायक यशोराजे धवल - प्रपानी पछवाडे गिरि-तट पर कुण्डी (कुण्ड ?) करावी, तेम ज अनेक स्थाने जिनबिम्बो कराव्यां.
सं. १३२८मां दण्ड० आंबाना वंशमां थयेला सोमसिंहे आ (गिरनार) तीर्थमां माता-पिताना श्रेयार्थे नेमिनाथनी आ देवकुलिका करावी. रङ्गमण्डपमां पूर्वजोना २ स्तम्भो कराव्या. पाटणमां अष्टापदमां मण्डप बनाव्यो. पौर (पोर) - बन्दरमां प्रपा- परब
आटलां धर्मस्थानो कराव्यां.
१. मधुसूदन ढांकी कृत 'महातीर्थ उज्जयन्तगिरि मां आ पाज विषे विगत छे.
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सं. १३२८मां विजयसिंहसूरिए आ प्रशस्ति बनावी.
उपरनी ४४-५९ पद्योवाळी प्रशस्ति साथे जोडायेल आ गद्य भाग होवानुं तथा आ लेख गिरनारना नेमि-चैत्यमां ज हतो तेम नक्की थाय छे..
पूर्वजोना स्तम्भनी वात आमां आवी, ते अंगे विचार करतां एम लागे छे के गिरनार पर्वतनां जैन मन्दिरोना प्राङ्गणमां, आपणे जेने पाळिया तरीके ओळखीए ते प्रकारना, चारेक फीट ऊंचाई धरावता केटलाक स्मृतिस्तम्भ, आमतेम रखडता पडेला, आ लखनारे थोडां वर्ष अगाऊ जोयेला. ते स्तम्भो पर गिरनार पर समाधिस्थ दिवंगत जैनाचार्यो के साधुओनी आकृति कोतरेली होय, नीचे संस्कृत लेखो होय. घणा स्तम्भ पर श्रावक-गृहस्थनी आकृति पण जोवा मळी.
आवा स्तम्भो विषे ज उपरनी प्रशस्तिमा उल्लेख होय एम लागे छे. ए स्मृतिस्तम्भोने एकत्र करीने योग्य जगाए योग्य रीते साचववानी भलामण, ते समयना वहीवटदारोने समजावट साथे करेली, परन्तु आवी दरकार कोण ले ?
डॉ. मधुसूदन ढांकीना गिरनार विषयक पुस्तकमां आवा स्तम्भना फोटोग्राफ जोया छे. तो सक्करबाग म्युजियमनी वखारोमां पण आमांना केटलाक स्तम्भ जोया छे. आजे ते होय के केम, ते सवाल छे.
प्रतमां आनी पछी एक प्रशस्ति-अंश छे ते तो 'वस्तुपाल-प्रशस्तिसंग्रह' मां मुद्रित छे.
ऐतिहासिक तथ्यो उजागर करती आवी सरस वस्तु शोधीने सम्पादित करीने आपवा बदल तेना सम्पादको सुयशचन्द्र-सुजसचन्द्रविजयजी - ए बन्धु-मुनि-द्वयने आपणे घणां अभिनन्दन आपीए.
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श्रीसर्वविजयजी कृत 'पुण्डरीक' शब्दशतार्थी
- सं. गणि सुयशचन्द्रविजय मुनि सुजसचन्द्रविजय
"जैन साहित्यना मुख्यतया बे भाग पाडी शकाय (१) एकार्थक अने (२) अनेकार्थक । जैन आगमो पाइय ( प्राकृत) मां रचाया छे । तेनां सूत्रो. अनेकार्थक छे । ए चारे अनुयोगनां सूचक छे । आनुं एक उदाहरण श्रीजिनप्रभसूरिजीए आवस्सयनिज्जुत्ति (आवश्यकनिर्युक्ति) नी ३३६मी गाथाना निरूपण द्वारा पूरुं पाड्युं छे । अनागमिक साहित्यगत केटलीक कृतिओ अनेकार्थक छे. अहीं हुं 'अनेकार्थक' - शब्द व्यापक अर्थमां वापरुं छं । अने एथी नीचे मुजबनी रचनाओने अनेकार्थक गणुं छं.
I
(१) द्वयाश्रयकाव्य (२) अनेकसन्धानकाव्य (३) पादपूर्तिरूपकाव्य (४) अनेकार्थक कृतिओ । तेमां
द्वयाश्रयकाव्यो बे भिन्न-भिन्न विषयने एक साथे रंजू करे छे । अनेकसन्धान काव्यो प्राय: चरित्रात्मक छे । ए एक करता वधु व्यक्तिनां चरित्रो पूरां पाडे छे । पादपूर्तिरूप काव्यो पैकी केटलांय एवा छे के जेमां जे चरणनी पादपूर्ति होय ते चरणने चालु अर्थमां उपयोग न करतां अन्य अर्थनुं द्योतक बनावायुं होय । अनेकार्थीकृतिओ एक ज पद्य आदिना अर्थोथी अलंकृत होय छे ।"
उपरोक्त शब्दोथी "जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास " ( खण्ड - २, प्रस्तावना पत्र क्र. ६६) पर प्रो. हीराभाई कापडिया 'अनेकार्थकसाहित्य' शीर्षक हेठळ काव्यना मुख्य प्रकारोनो सरल - सचोट बोध आप्यो छे. तेमां पण अमारी समजण मुजब अनेकार्थक कृतिओनी विभाजना नीचे मुजब विचारी शकाय :
(१) अनेकार्थकपद्यो वाळी कृतिओ एक ज पद्यना एकथी वधु अर्थो संभवता होय तेवी कृतिओ, शतार्थीकाव्यो, कुमारविहारप्रशस्ति वगेरे कृतिओ । (२) अनेकार्थचरणयुक्त कृतिओ एक जं चरणना एकथी वधु अर्थो संभवता होय तेवी कृतिओ । ‘राजानो ददते सौख्यम्', 'नालिकेरसमाकाराः ' वगेरे कृतिओ ।
(३) अनेकार्थकशब्दयुक्त कृतिओ एक ज पदना एकथी वधु अर्थो संभवता होय तेवी कृतिओ हरि, पुण्डरीक, कमल, पराग, परिमल, सारंग, संवर जेवा शब्दोनो प्रयोग करी रचायेल कृतिओ ।
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आवी कृतिओमां कविओ घणुं करीने पदच्छेद-समासविग्रह-व्यञ्जनव्यत्ययस्वरव्यत्यय - वगेरेनो प्रयोग करी एकाधिक अर्थो करता होय छे ।
प्रस्तुत कृति पण 'अनेकार्थकशब्दवाळी' कृति छ । कृतिमां कविए पुण्डरीक शब्दना १०० अर्थ प्रयोज्या छ ।
मूलमां ज निर्देश करवा पूर्वक 'प्' ने स्थाने करायेल क्, त्, फ्, म्, च्, ज्, ब्, भ् व्यञ्जननो लोप - शतार्थीनां मुख्य साधन रह्यां छे । जो कृतिकारे के पछीथी बीजा कोइए टिप्पण लखी न होत तो कृति समजवी मुश्केल थई पडत ।
आवी केटलीक कृतिओनी सूचि अहीं करी छे । जे अभ्यासुओने खूब उपयोगी थशे - शब्द अर्थ पद्य कृतिनाम
कर्ता प्रकाशन पुस्तक कमल ५१२ २३० पंचजिनस्तोत्र हर्षकुलगणि अनुसंधान १५ कमल ११६ २९ चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र सोमविमलसूरिजी स्तुतितरंगिणी कमल १०८ २९ नेमिजिनेन्द्रस्तवन । हेमविजयगणि संवर १०८ २८ अभिनंदनजिनस्तोत्र सोमविमलसूरिजी अनुसंधान ५६ पराग १०८ २८ साधारणजिनस्तव लक्ष्मीकल्लोलगणि अनेकार्थरत्नमंजूषा सारंग ६० १९ महावीरजिनस्तव गुणविजयजी " सारंग १२. ४ ऋषभस्तुति । हरि ३० १० वीतरागस्तव विवेकसागरजी हरि ३२ ६ आनन्दविज्ञप्ति
अनुसंधान ६४ (श्लोक ४१ थी ४८) गो २४ - जिनस्तुति
उपरोक्त कृतिओमां 'आनन्दविज्ञप्ति' मां ‘हरि' शब्दनो प्रयोग करी गुरु म.नी स्तुति करी छे । शेष सर्व कृतिओ भगवाननी स्तुति परक छ । प्रस्तुत कृति पण तेवी गुरु म.नी गुणस्तुतिस्वरूप छे ।
श्रीसर्वविजयजी गणि -
तपागच्छनी श्रमण परंपरामां आ.श्रीदेवसुंदरसूरिजीना शिष्य आ.श्रीसोमसुंदरसूरिजी म. थया । तेमनी आज्ञामां सुंदर-राज-कीति-शेखर-नंदी-सागर-देव-मंडन वगेरे शाखाओना मळी कुल १८०० थी वधु श्रमणो हता । अमना अनेक शिष्योमानां एक हता - चारित्ररत्नगणि । सोमसुंदरसूरिजी म.ना हस्तदीक्षित शिष्योमां
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ते सौथी मोटा हता । तेओनी विद्वत्ताने कारणे तेमने 'कृष्णसरस्वती' एवं बिरुद प्राप्त थयुं हतुं । २ अलग-अलग यमकमय चतुर्विंशति जिनस्तोत्र, दानप्रदीप, चित्रकूट महावीरप्रशस्ति, षड्भाषामय पञ्चजिनस्तोत्रो' वगेरे अनेक कृतिओ तेणे रची छे । तेमने माटे आनन्दसुन्दरकाव्यमां कह्युं छे के
यद् बुद्धिबेडा बहुशास्त्रवार्द्धान् नित्यं जगाहे किल लयै ।
तेने सर्वहंस गणि नाम्ना शिष्य अने जयसाधु गणि नामना प्रशिष्य हता । पोताना गुरु म. अने दादा गुरु मनी स्तुति करता कविए अनुक्रमे 'पण्डितपदवीधुर्याः, सरससुधाजैत्रवाणीमाधुर्याः' अने 'तद्वत् पण्डितमौलिमण्डनमणिर्वादीभकुम्भे सृणिः, प्रख्योऽयं जयसाधु-रुत्तमगणिश्रेणीषु माद्यद्धृणिः' काव्यो प्रयोज्यां छे ।
मना शिष्य प्रस्तुत कृतिकार सर्वविजयजी गणि । तेमना जीवन संबंधी कोइ विशेष विगतो प्राप्त थती नथी । परंतु ते समयना 'लघु शालिभद्र' कहेवाता जावडनी प्रार्थनाथी तेमणे (सर्वविजयजी गणिए) सं. १५५२मां आनन्दसुन्दरकाव्य बनाव्युं छें । ते उपरथी तेओ १६मा शतकमां थया एवो निर्णय थाय छे । पोताना ज काव्यनी प्रशस्तिमां तेमणे पोतानो परिचय आप्यो छे । जे नीचे मुजब छे
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तच्छिष्यमुख्य एष श्लेषसमस्यार्थकाव्यजितकाव्यः । वितनोति ग्रंथममुं, समुदञ्चन्नैकरसपरमम् ।।
सर्वविजयः स धीमान्, सीमा कवितार्किकप्रकाण्डानाम् । वरकाणपार्श्वनाथ- प्रसादसाह्लादहृदयतया ॥
( आनन्दसु. प्रशस्ति ३०/३१ )
अगरचंदजी नाहटा (बिकानेर) ना संग्रहमांथी प्रस्तुत कृति अमने सम्पादनार्थे प्राप्त थयेल छे । ते माटे सूरजमलजी पुंगलीया तेम ज आनन्दसुन्दर ग्रन्थ (अप्रकाशित) मेळवी आपनार वडोदराना श्रावक भाई श्रीविरल शाह धन्यवादने पात्र छे ।
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श्रीपूज्यपादभास्वत्-पादस्पर्शं प्रपद्य किल सद्यः । मध्येमानसमसकृत्, प्रसरति मम पुण्डरीकश्रीः ॥ १ ॥
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तद् यथासार्वज्ञशासनसुधाहूदपुण्डरीके !, सिद्धान्तशुद्धजलमञ्जुलपुण्डरीकः(!) । स्वामिंस्तव स्तवकृताविति पुण्डरीकशब्दं करोमि कणशः शमिपुण्डरीक ! ॥२॥
(१) पुण्डरीकशब्दः, पक्षे पुण्डरीकः । (२) पुण्डरीकं - श्वेतकमलम् । (३) कमण्डलुः । (४) अत्र पुण्डरीकः शब्द एव । (५) पुण्डरीकः - प्रधानः ।
मायामृगीनिधनसाधनपुण्डरीकविद्याभविद्यः ! भवमिणोरु( भवभित्तरु )पुण्डरीक ! ।
वाग्माधुरीविधुरितोद्धरपुण्डरीक !, - जीयाद् भवानभिनवः किल पुण्डरीकः ॥३॥
(६) मृगीविद्या-व्याघ्रीविद्या । (७) सहकारः । (८) गजस्वरः । (९) गणधरः (गणभृत्) ।
पुष्यत्कषायगजगञ्जनपुण्डरीक !, न्यक्षक्षमोद्धरणधीरिमपुण्डरीक । पात्के त्वदीयवचनोत्पलपुण्डलीकस्त्वां न स्तुते दुरितदारुणि पुण्डरीक ! ॥४॥
(१०) सिंहः । (११) दिग्गजः । (१२) 'कुण्डली' इति प-स्थाने के कृते सति । पं अन्ना(न्ती)ति पान्, पश्चात् केन सः । (१३) अग्निः ।
ज्ञानोरुनीरभरभत्सितपुण्डरीक ! लोपात् प-ते लवणिमोल्ब्णपुण्डरीके ! । मत्वा भवन्तमिव मूर्च्छति पुण्डरीकनेत्रस्य पत्रमथ मन्मथपुण्डरीक( कः) ! ॥५॥
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(१४) पुण्डा-वापी (वापीविशेषा) । (१५) प-स्थाने त-कारे कृते सति 'तुण्डम्' इति, 'रीक' इत्यक्षरद्वयस्य लोपः । (१६) पुण्डरीकनेत्रो विष्णुः । (१७) वाहनम् । (१८) पुण्डरीकाभिधः सर्पः ।
पुण्यात्मनः प्रति निरूपितपुण्डरीक !, पौ-केऽन्यतः पुनरुदाहृतपुण्डरीके ! । पुण्डस्थ-फर्फमुररीकृतपुण्डरीकस्त्वं नन्द निन्दितपरोदितपुण्डरीक ! ॥६॥
(१९) पुण्डरीकाख्यऋषिः । (२०) पु-स्थाने के कृते सति । अन्यतः . विमुच्यते ? अपुण्यात्मनः प्रति उदाहृतः कण्डरीको येन सः, तथा । (२१) फर्फरीकं - मार्दवं येन ।
यइ( द्) बाभजीति भविको भुवि पुण्डरीकवो विचित्रितभुवं गिरिपुण्डरीकम् । तत् ते वचोविलसितं किल पुण्डरीकपर्वोपदेशसमये शमपुण्डरीक ! ॥७॥
(२२) पुण्डरीकवता(प्ता)-भरतः, तेन । (२३) शत्रुञ्जयम् । (२४) चैत्रपूर्णिमोपदेशः । (२५) पुण्डरीकाख्यसमुद्रः ।
सत्यादिनित्यसुकृतामृतपुण्डरीके ! द्वार वा )णी पराऽस्य रसपूर्वगपुण्डरीक । दुष्कर्मदैत्यपुरुषोत्तरपुण्डरीक ! रङ्गत्कुरङ्गकदने भव पुण्डरीक ! ॥८॥
(२६) हृदविशेषः । (२७) पुण्डरीकशब्दात्(द्) रस-शब्द इति पुण्डरीकरस:रसः । (२८) पुरुषपुण्डरीकः - विष्णुविशेषः । (२९) व्याघ्रः ।
मन्ये महोपपदमन्नदपुण्डरीक !, बुद्धे च संशयमयामयपुण्डरीक ! । निर्दम्भवैभवविभावितपुण्डरीक !, चक्रे भवान् स्वमतमद्वयपुण्डरीका कम्) ! ॥९॥॥ वसन्ततिलकावृत्तम् ।।
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(३०) महापुण्डरीक । (३१) बुद्धे देवताविशेषे, ओ(औ)षधविशेषः । (३२) विमानम् । छत्रम् । (३३) अद्वयं पुण्डरीकं यत्र तत् ।
इण्यन्तपूत्पुङ्गवपुण्डरीक !, क्रीडद्यशोमण्डलपुण्डरीक !। पञ्चत्-किपण्डोदकपुण्डरीक ज्यानेर्जय-त्वं जय पुण्डरीक ॥१०॥
(३४) पुण्डरीकिणी । (३५) श्वेतवर्णः । (३६) [पु]-स्थाने के कृते सति 'कुण्डम्' इति । कुण्डं - पात्रविशेषः । रीकस्य लोपः ।
पुण्डोज्झनान्नश्यदपुण्डरीकमुद्विन्दुरिप्रोद्धरपुण्डरीक !। पश्येत् पु-मे कल्मषपुण्डरीकस्त्वां पुण्डसत् सुन्दमपुण्डरीक (म्) ॥११॥
(३८) नश्यदरीकम् । कोऽर्थः ? अरीणाम् ई: श्रीः । एतावता 'अरीः' इति शब्दः । पश्चात्(द्) बहु.(बहुव्रीहिसमासः) । (३९) बिन्दु-री-कर्षणात् 'पुलकः' इति । पश्चात्(द्) बहु. । (४०) पु-स्थाने मे कृते सति 'मण्डलम्' इति । पश्चात् समासः । (४१) असुन्दरीकम् ।
कुत्सावराहीहतिपुण्डरीकविद्याभ ! वाग्वर्जितपुण्डरीक !। प्रथापथप्रापितपुण्डरीक- . स्तवाऽऽरव: सारितपुण्डरीक ! ॥१२॥
(४२) सिंहविद्या । (४३) आम्रफलम् । (४४) सूत्रकृदर्थविशेषः । (४५) इक्षुदण्डः ।
इण्यन्तवापीवरपुण्डरीकगर्जद्गुणावर्जितपुण्डरीक ! । पुण्डात्तफर्फात् परपुण्डरीक ! यद्( ह्य )व्यज( अ )नं जीव सपुण्डरीक ! ॥१३॥
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अनुसन्धान-७०
(४६) पुण्डरीकिणी-वापीविशेष:(षा) । (४७) तां यावत्(द्) गर्जन्तश्च ते गुणाश्च । तैरावर्जितो देवविशेषो येन । तस्य सम्बोधनम् । (४८) परे - वादिनि फर्फरीकः - चपेटाविशेषः । (४९) 'सोमय' (?) इति स्यात्(द्) व्यञ्जनैविना ।
अपुण्डमर्हन्मतपुण्डरीकदृशां पु-री-मुक् सखपुण्डरीक(कः) ? । विलोमतस्त्वं रवपुण्डरीकवजीवजीश्वावि सुपुण्डरीक ॥१४॥
(५०) पुण्डवर्जितम् । (५१) अर्हन्मते री:-भ्रान्तिः, तां करोति इति री: (रीक.) । (५२) कीदृग् ? येषां(तेषां) खण्डकः । (५३) 'करीडपुंसु विश्वाजीवजीवकलील हे पुंवर !' - इदं वैलोम्येन स्यात् ।
अपुण्ड-जोंत्तरपुण्डरीक ! भीकस्वकीर्त्यङ्कितपुण्डरीक ! । उद्दामकामोत्कटपुण्डरीक !, . वि-रीक-वाज़ट्-पत-पुण्डरीक ॥१५॥
(५४) जर्जरीकम् - जर्जर इवाचरन् - इत्युच्यते । (५५) राजिलाहि [राजिलाऽहि:-सर्पविशेषजातिः] । (५६) प-स्थाने ते कृते सति वज्रतुण्ड ! ।
तर्तादपुण्डाद् भवपुण्डरीक ! संसारवार्भर्तरि पुण्डरीक ! । चञ्चादपुण्डादिह पुण्डरीक ! बोधाम्बुजे कीर्तिगपुण्डरीक ॥१६॥ युग्मम् ॥
(५७) तर्तरीकम्-बोहित्थम् । (५८) तर्त्तरीकम्-पारकम् । (५९) चञ्चरीक !- हे भ्रमर ! । (६०) ज्ञानकमले कीर्तिगा पुण्डरीका देवी यस्य ।
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पुण्डस्थजर्जान्( त् )स्मरपुण्डरीक ! पुण्डस्थबर्बाद् गतपुण्डरीक ! । पुण्डाप्तबर्बाधितपुण्डरीक ! भर्भादपुण्डाज्जय पुण्डरीक ! ॥१७॥
(६१) स्मरजर्जरीक ! जर्ज०-वृद्ध । (६२) बर्बरीकः केशः । (६३) हितः-त्यक्तः बर्बरीक:-शाकभेदो येन, तस्याऽऽमन्त्रणम् । (६४) हे भर्भरीक ! कोषे भर्भरी लक्ष्मीः, तया उदारः, क-शब्देन उदारः । .
वरावभासोत्तरपुण्डरीकद्वीपं तदाघ( द्या )ऽम्बुधिपुण्डरीक !। सङ्ख्यातिगं श्लिष्यसि पुण्डरीक
लेण्याद् (लेशाद्? ) गुणैर्वर्णितपुण्डरीक ॥१८॥ युग्मम् ॥ - (६५) पुण्डरीकः वरावभासद्वीपः, तं पुण्डरीकवरावभासद्वीपस्तम् (द्वीपम्) । (६६) पुण्डरीकवरावभाससमुद्रम् । उभयत्र-'सङ्ख्यातिगम्' इति सम्बध्यते । तयोवि(वि)शेषः ।
विपुण्डरीकल्पविमुक्तचित्त, सम्पुण्डरीकल्पविविक्तचित्त ! । आपुण्डरीकल्प ! चरित्रलक्ष्याक्ष्मापुण्डरीकल्पतरूपमान ! ॥१९॥ दुःपुण्डरीकपवियोगतस्त्वामुत्पुण्डरीकस्तव सेवने यः । सत्पुण्डरीकः श्रयतोऽत्रिवर्णी सुपुण्डरीकर्मजनेऽस्यजाने ॥२०॥ पुण्डरीकयुग्मम्
(६७) उत्सुकः । अत्र काव्ययुग्मे-'पुण्डरीकशब्दाद्' अक्षरत्रयं वर्जयित्वाऽर्थसङ्गतिः ।
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यः पुण्डरीकवरनामवरोम्बुराशिर्यः पुण्डरीकवरनामधरोऽन्तरीपः । तौ पुण्डरीकजनियानकुलाद्रिमान - श्रीपुण्डरीकनयनयि यशोऽस्पृशत् ते ॥२१॥
(६८) पुण्डरीकजनि: जिनसहस्रनामस्तवे प्रतिपादितत्वात् ।
ब्रह्म । (६९) पुण्डरीकनयनो जिन:,
पशिदोः सितपुण्डरीकलुप्करणाद् दूरितपुण्डरीक किम् । विषयार्थिषु पुण्डरीकराट्, पुकिनाऽऽख्यायिस पुण्डरिकमुट् ॥२२॥
स्वसन्ततिस्मारितपुण्डरीक
पितामहं पाण्डुरपुण्डरीक । विव्यञ्जनं नौमितपुण्डरीकविपर्ययात् त्वं सनृ(तृ) पुण्डरीक ॥२३॥
७०
७१
अ-बिन्दु-उं पावितपुण्डरीक !, पद्भ्यां पसेऽरोचकपुण्डरीक ! | अपुण्ड - दे दर्शितपुण्डरीक
परे तवाप्तेरनुं पुण्डरीक ! ॥२४॥
अनुसन्धान-
७३
७४
यानात्मजं निर्मितपुण्डरीक ! ।
-७०
(७०) पावितपुरीक ! । (७१) प-स्थाने से कृते सति अरोचक: सुश्र (?) यस्य सः । ( ७२ ) परवादिनि । दरीकः मयवाचको भवति ।
दम्भोरुदैत्यद्रुतिपुण्डरीक
अत्र्यक्षरं साक्षरपुण्डरीक ! संस्तौमि दुस्तामसपुण्डरीक ! ॥ २५ ॥
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(७३) कार्त्तिकेयः । (७४) पुण्डरीक - कण्डरीकाध्ययनम् ।
पुण्डस्थ- बर्बोदितपुण्डरीकंन्संभोगयोगोज्झितपुण्डरीक । जीयाश्चिरं दुश्चरपुण्डरीक !, तपाःक्षपाराट् ! गुणपुण्डरीक ! ॥२६॥
अक्षरचतुष्कमपि त्यज्यते । ॥ इति पुण्डरीकशब्दशतार्थी ॥
भयभिदि सहकृत्या नं( तं ), स्मरराजमपेक्ष्य राजयुद्धानम् । त्वां भक्तित (तः ) स्तुवानो नमति यतिः सर्वविजय इति ॥२७॥
३९
C/o. निकेश संघवी, गोपीपुरा, कायस्थ महोल्लो, सूरत
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अनुसन्धान-७०
श्रीलक्ष्मीकल्लोलगणिकृत सप्तवर्णाक्षर-वरेण्यावमशब्दयथितसूक्तसङ्ग्रहः (सावचूर्णि:).
___ - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
भूमिका
__संस्कृत साहित्य-सर्जनना क्षेत्रे मध्यकाळना जैन मुनिओए जे खेडाण कर्यु छे तेनुं वैविध्य तेमज वैपुल्य जोतां भारे अचंबो उपजे छे. साहित्यनी केवी केवी छटाओ आ मुनिओए विकसावी छे ! जैन संस्कृत साहित्यना इतिहासना सन्दर्भो जोईए त्यारे, के पछी ज्ञानभण्डारोमां सचवायेली असंख्य नानी-मोटी रचनाओनी हाथपोथीओ पर ध्यान आपीए त्यारे, एमनी आ निर्व्याज साहित्य-उपासनानो आछेरो अंदाज आवी शके.
आ स्थळे एक विरल अने विलक्षण कही शकाय तेवी कृति प्रगट थई रही छे : 'सूक्तसङ्ग्रह' नामे. सूक्त एटले सुभाषित. तेनो आ सङ्ग्रह छे. आनी विलक्षणता ए छे के ६९ अनुष्टुप् श्लोकोमां, क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग, य वर्ग, श वर्ग - ए सात वर्गोमां आवता, ङ सिवायना, तमाम व्यञ्जनाक्षरथी शरु थता ६-६ शब्दो कविए पसंद कर्या छे. तेमां प्रथम ६ शब्द 'सज्जन' परक अने बीजा ६ शब्द 'दुर्जन' परक योज्या छे. बे पद्योमा १२ शब्दो.
अलबत्त, बधा शब्दो असल एटले के सीधा शब्दकोशमांथी ज उपाडेला होय एवं नथी. घणा शब्दो शुद्ध शब्दो छे, घणा कृत्रिम-नीपजावेला-संयोजित शब्दो छे, केटलाक देशी शब्दो पण छे, तो थोडाक ते समयमां बोलाती बोलीना तळपदा शब्दो पण छे. शब्दो साथे काम पाडनाराओ माटे आ एक मजानी-रसप्रद रचना गणाय.
आ बधा शब्दोना अर्थ पकडाय-समजाय तेम नथी. तो कर्ताए पोते ज (प्रायः) ते पद्यो पर अवचूर्णि पण लखी दीधी छे, जेमां ते ते शब्दोना अर्थवाचक पर्यायो आप्या छे. कर्ता तरीके प्रान्ते कोईनुं नाम नथी, तेथी लागे छे के मूळ रचनाकारे ज आ पर्यायावचूणि रचेली हशे.
वांचनारनी सुगमता खातर पद्यगत शब्दो पर तथा अवचूरिमां तेना अर्थपर्यायो पर अङ्को मूकी दीधा छे, जेथी कया शब्दनो कयो अर्थ कर्ताने अभिप्रेत
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छे तेनो ख्याल आवे. जो के कर्ताए बधा शब्दोना पर्याय आपवानुं मुनासिब नथी मान्यु. घणा शब्दो छ, जेना अर्थ माटे आपणे अन्य सन्दर्भो पासे जq ज पडे; केटलाकना अर्थ तो त्यां पण न जडे; ते माटे लोकबोली ज आधार बने, जे आजे अस्तित्वमां नथी, के आपणा माटे अजाणी होय. ___ अवचूर्णिमां महदंशे तो जे ते शब्दना संस्कृत पर्याय ज नोंध्या छे. छतां घणे ठेकाणे वधु स्पष्टता माटे अमुक शब्दोना अर्थने तत्कालीन गुजराती भाषा द्वारा पण वर्णवेल छे. दा.त. श्लोक ९मां-१०मां अनुक्रमे 'घटद्वाक्यं-घटता वचन- बोलवू', 'घातकत्वं-हत्यारापणुं, घृष्टत्वं-घाठूआपणुं' इत्यादि. अहीं 'घाठूआ' समजवा माटे आपणे तो 'घृष्ट'नो ज आशरो लेवो पडे. पण ते समयमां 'घृष्ट'नुं भ्रष्ट भाषारूप 'घाठूआ' थतुं हशे ते आथी आपणने जाणवा मळे छे. पद्य १४मां 'छाकता' छे, तेनो अर्थ त्यां 'छाक्यापणुं' थयो छे. आजे आपणे त्यां 'छाक-छकवू-छकी जq, छकेलो' आवा शब्दो प्रयोजाय छे ज.
पद्य १६-१७मांना झलत्कार, झमत्कार, झुंमj, झबज्झब, झपाटी जेवा शब्दो 'देशी शब्दकोश'मां पण नोंधाया नथी. 'झुंबनक' मळे छे, तेनुं ज 'झुमणुं' थाय; पण कर्ताए ते भाषानो शब्द ज अहीं प्रयोज्य शब्द तरीके स्वीकारी लीधो छे. झला, झीरा, सझुंझुमुसय जेवा शब्दो कोशमां मळे छे. ___ पद्य २१-२२मां टिक्क-टीको, टार-टारडं जाणीता छे. टट्टर-भेरीनाद, ट्टिटिलिका-हांसी, टटारत्व-सदा सज्जता (जो के 'टट्टार' शब्द आजे पण सावधानना अर्थमां प्रयोजाय तो छे), टिट्टिभत्वं-सगर्वत्व, टौंक्य-टुकडापणुं (ट्रॅकुं,
कमां, टूंको-बधा आनी ज नीपज न गणाय ? पर्वतना शिखर माटे प्रयोजातो 'क' शब्द पण याद आवे.), टक्करा-अर्थ नथी नोंध्यो, (आपणे 'टक्कर मारीए ते
आ होय ?), टुंचत्वं-टुंचपणुं-कलङ्क-आ बधा शब्दो-अर्थो महत्त्वना छे. 'टप्पर' कोशमां विकराळ-कानवाळा-अर्थमां, टुण्ट-एक हाथवाळाना अर्थमां जडे छे. टुंचत्वं-टुंचपणुं-त्यां 'टोचायेलुं' एवो शब्द तेनो वारसदार गणाय ?
२३-२४मां-ठरणत्वं-ठर्यापणुं-आ सीधो भाषामांथी संस्कार आपीने संस्कृत बनेलो शब्द जणाय. 'ठांठल्य' कोशमां नथी. आपणे 'ठठ्ठा-मश्करी' करीए ते आ हशे ? 'ठींभ'नो अर्थ समजमां आवतो नथी. स्त्री ठुम ठुम के ठण ठण करती चाले चाले, तेने 'ठणत्कार-ठमत्कार' शब्दो द्वारा ओळखावेल छे. ठोठत्वं-नो अर्थ आप्यो नथी, पण आपणे 'ठोठ' शब्द आजे 'मूर्ख'ना अर्थमा प्रयोजीए छीए ज. 'ठोठ'नो इतिहास केटलो जूनो गणाय !. 'ठग'-ठगारापणुं-आ शब्द पण एटलो ज
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जूनो ! 'ठल्लत्वं' - निर्धनपणुं, आपणे 'ठालो' (नकामो, खाली) प्रयोग करीए तेनुं मूळ अहीं जडे. ठींठत्व ठींठापणुं - ए पण समजायो नथी, पण 'ठाला' जेवो ज लागे छे.
२५-२६मां डुंगरोच्चता- 'डुंगर'ने (देश्य शब्द छे) अहीं संस्कृत बनाववामां आव्यो छे, ते मजानुं छे. 'डयनत्वं' आ शब्द उड्डयनवाचक 'डी' धातुथी बनेलो छे, तेना ३ अर्थ मार्मिक छे. तो 'डयनावाप्तिः - पालथीनी प्राप्ति' ए कांईक नवी ज अर्थछाया छे. पालथी एटले पलांठी एम समजीए तो नवा ज शब्द अर्थ सांपडे छे. ‘डोल्लत्करत्व' संयोजित शब्द छे. हाथ धूजे कम्पवा होंय तो ते घडपणनी स्थिति छे, एटले अर्थ आप्यो - जराजीर्णत्वं. डिंगरत्व- हांसी ए नवो शब्द मळे छे : कोशमां नथी. डक्क-डाक आनो मतलब पकडातो नथी. कोशमां 'डक्क' - सर्प द्वारा डसायेल, दन्तगृहीत, वाद्यविशेष एम त्रण अर्थ मळे छे. पण आ. 'डाकपुत्रापणं' साथे ते एकेय बेसतो नथी. डाकुनो, पुत्र एम थई शके के केम ? २७-२८मां 'ढींचता-ढींचालपणुं' छे, ते नवो ज
शब्द छे : कोशमां नथी. 'ढांढर्यं - सुंना ढंढारपणं'
'ढींचवुं - ढींचनारो-ढींचीने आव्यो' ए अर्थमां आ हशे ?
आ पण एवो ज शब्द छे, अर्थ न मळे, न समजाय. 'ढीमणं' कोशमां नथी, पण अर्थरूपे मूकेल रूढिप्रयोग 'देह त्यां ढीमणां' ए स्पष्ट बतावे छे के पडी जतां कपाळे के अन्यत्र ढीमचुं थाय ते अर्थवाचक से शब्द छे. ढीमणुं - ढीमकुंढीमचुं वगेरे. 'ढिक्का - ढींक' स्पष्ट छे. कोईने ढींक मारवामां आ शब्द काम लागी शके. 'ढौढल्लं' कोशमां नथी, तेनो अर्थ 'ढोढलापणुं' नथी समजातो. 'दोदलापणुं ' होय ? ‘ढरढिल्लिता' ‘ढौमण्यं' शुद्धपणे देश्य छे, कोशमां नथी जडता.
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२९-३०मां बधा ज शब्दो देशी छे, एम कर्ता ज जणावी दे छे. कृतिनो सघन अभ्यास करतां आवां स्थानो, आवा शब्द- अर्थ घणा जडे, ते रसप्रद पण बने ज.
आवी मजेदार कृतिना कर्ता, ६९मा श्लोकमां जणाव्या प्रमाणे, लक्ष्मीकल्लोल नामे विद्वान् जैन मुनि छे. इतिहासना सन्दर्भो तपासतां तेमना विषे मळती अल्प जाणकारी आ प्रमाणे छे : तेमनो सत्ताकाळ सोळमो सैको छे. प्रा. ही. र. कापडियाना जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास खण्ड - १ (पृ. १५७, नवी आवृत्ति ) मां निर्दिष्ट 'सूक्तसंग्रह' ते आ ज कृति छे. ते तपगच्छना हर्षकल्लोलना शिष्य छे. तेमणे आचाराङ्ग अने ज्ञाताधर्मकथा जेवा आगमो पर वृत्ति / अवचूरि बनावी छे.
आ कृतिनी एक प्रति कोडाय (कच्छ)ना सदागम प्रवृत्ति - ज्ञानभण्डारमां छे. तेनी जेरोक्स नकल उपाध्याय श्री भुवनचन्द्रजीना सहकार थकी मळी छे, तेना आधारे आ सम्पादन थयुं छे. प्रतिनी नकल मोकलवा बदल ते सहुनो आभारी छु.
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अहं प्रणम्य विज्ञानं विनोदाय मयाऽनया । सदसद्व्यक्तियुक्त्या च क्रियते सूक्तसङ्ग्रहः ॥१॥ कवर्णादिक्षपर्यन्त-रीत्या षट् षट् स्वनश्रिया । सदसज्जनोपदेष्टुं पूर्वाचार्यैरकृतपूर्वः ॥२॥
तु नमः ॥ अस्य सूक्तसङ्ग्रहस्य यथाजातजनावबोधाय संस्कृतासंस्कृतपर्यायार्थरूपाऽवचूर्णिलिख्यते । यथा-जिनं नत्वा पण्डितानां विनोदहेतवे मयाऽनया सदसद्व्यक्तियुक्त्या उत्तमाधमलक्षणशब्दविशेषयुक्त्या च पुनः षट् षट् शब्दशोभया काक्षरादिक्षपर्यन्तरीत्या प्रकारेण सज्जनदुर्जनोपदेशायोपादेयहेयार्थं पूर्वाचार्यः पूर्वम् अकृत एवंविधः सूक्तसङ्ग्रहः क्रियते इत्यार्यायुग्मार्थः ॥१-२॥
कृतज्ञः कार्यकर्ता च काम्यरूपश्च कोमलः । कोविदः कमलावासः कषट्कोऽयं नृषूत्तमः ॥३॥ कृपणः कूटधीः कृष्णः कुटिलः कटुवाक् कुणिः । कषट्कं पुण्यहीनाना-मिदं सम्पद्यते नृणाम् ॥४॥ क १ ॥
परकृतगुणं जानातीति कृतज्ञः । परेषां कार्यकर्ता परोपकारित्वात् । मनोज्ञरूप: । अकठिनपरिणामः । रैमानिवासः ॥३॥ टुंटत्वं ॥४॥ कठिनरवारिवैयग्ग्रं(?) । इयता हेयारोहणशूरता सूचिता ॥
खलीनखड्गव्यग्रत्वं खल्वाटत्वं खरांशुता । खेदन खलंघातित्वं षट् खकारा नरोत्तमे ॥५॥ खेला खस-खरत्वं च, खजू-खर्वत्व-खोरता । खकाराः षडमी लोके गर्हिता नरि गर्हिते ॥६॥ ख ॥
खल्वाटो निर्धनः क्वचित् । सूर्यवत् तेजस्त्वम् । खेदो दुःखं तद्धन्तीति खेदघ्नः । सज्जनपालकः ॥५॥ कूर्दनम् । पामा रुक् । कर्कशत्वम् । कण्डू । वामनता । खोडत्वम् ॥६॥
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गुणित्वं गुरुता चैव गौरत्वं ग्रामणीयता । गोधनत्वं गौरवाप्ति-र्गषट्कं प्राप्यमुत्तमैः ॥७॥ गर्गत्वं गौणता चैव गार्हस्थ्य-गण-गोरसैः । हीनता गतिवक्रत्वं गषट्कं पापयोगतः ॥८॥ ग ३॥
पूज्यता । ग्राम्यमुख्यता । सर्वत्र गौरवपात्रम् ॥७॥ सामान्यता । गृहस्थधर्म-परिवार-गोरसाणि, तै रहितत्वम् । गमनवक्रता ||८||
घृणिमत्त्वं घृणावत्त्वं घनौपम्यं घनोपमा । घटारोग्यं घटद्वाक्यं धकाराः षण्नरोत्तमे ॥९॥ घर्घरारव घर्मित्वं घस्मरत्वं च धूर्णिमा । घृष्टत्वं घोतकत्वं च, घकाराः षण्नराधमे ॥१०॥ घ ॥
तेजोवत्त्वम् । दयालुता । देहोत्तमता । मेघवत् प्रधानता । देहंसमाधिता । घटता वचननुं बोलवू ॥९॥ घर्घरशब्दत्वम् । तथा तापवत्त्वम् । खादनशीलता । अनवधानता । घाठूआपणुं । हत्यारापणुं ॥१०॥
ङो नास्ति ॥ चक्षुते( स्ते )जश्चित्ततुष्टिः चातुर्य चिरजीविता । चिलीन-चेलत्वहानिः षट् चाः स्युः पुण्यवन्नरि ॥११॥ चापल्यं चाटिंका चेष्टौ चाटुता चलचित्तता । चौर्यक्रिया चकाराः षट् पापिनां पुण्यहानिदाः ॥१२॥ च ५ ॥ कुत्सितत्व-अधमत्वहीनता ॥१॥ परेषां चेष्टा । मायया चटुभाषिता ॥१२॥ छेकता छलहीनत्वं छेत्रित्वं छाया श्रितम् । छविदीप्तिः च्छुप्तिहानि-श्छकाराः षण्नरोत्तमे ॥१३॥ छर्दिश्छिद्रं छाकता च छातत्वं छद्मतायुतम् । छिन्नाङ्गता छकाराः षट् क्षीणपुण्यप्रभावतः ॥१४॥ छ ६ ॥
विदग्धता । प्रभुत्वं । शोभया युतम् । त्वग्दीप्तिः । पावित्र्यम् ॥१३॥ वान्तिरोगः । कलङ्कः । छाक्यापणुं । क्षीणदेहता । छलसहितम् ॥१४॥
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जीवरक्षा जनश्लाघा जिनपूजा जितात्मता । जल्पशक्तिर्जयावाप्ति-र्जकाराः षट् सतां नृणाम् ॥१५॥ जाड्यं जापवादश्च जारता जातिहीनता । जिह्यता जन्तुंघातित्वं जकाराः षण्नराधमे ॥१६॥ ज ७ ॥
लोकप्रशंसा । जितेन्द्रियत्वम् । वाक्पटुता । सर्वत्र जयप्राप्तिः ॥१५॥ जडता । लोके अपकीर्तिः । अवेत्तृत्वम् । हिंसकत्वम् ॥१६॥
झात्कारश्च झलत्कारा( र )झमत्कारौ च झुमणुं । झबज्झबश्च झीरा च झस्य षट्कं शुभं नृणाम् ॥१७॥ झुझितो झूरितो झीर्णो झपाटी च झलायुतः । संझुंझमुसय: पापी झषट्कोऽनर्हगौरवः ॥१८॥ झ ८ ॥ . झात्कारो विद्युदिव । झलत्कारः स्वर्णमिव । झमत्कारो झांझराणाम् । झुं० ग्रीवाभरणम् । झबज्झबत्, झबझबटो दर्पणवत् । झीरा देश्यः, लज्जासर्वोऽपि जनो लज्जामानयति । इह झकारस्य षट्कं नृणां शुभमाङ्गल्यकारि ॥१७|| झुं०मुषितः । झू० कुटिलीभूतः । झीर्णः जराजर्जरीभूतः । झषाटि कर्ता । झला मृगतृष्णा । सझुंझुमु० मनोदुःखसहितः । एवंरूपझषट्कः पापवान् गौरवायाऽयोग्य: ॥१८॥
ात्यग्रिमो ज्ञानवांश्च जोक्ति ज्ञप्ति जसंस्तवः । ज्ञानभक्तो ज्ञषट्केना-श्रित एव नराग्रणीः ॥१९॥ ज्ञान-ज्ञप्ति-ज्ञताभ्रष्टो, जसङ्गतिविवर्जितः । ज्ञान्यभक्तो ज्ञषट्केना-श्रित एवं नराग्रणीम् ॥२०॥ ञ ९ ॥
ज्ञातिश्रेष्ठः । ज्ञोक्तेः पण्डितवाक्यस्य । तथा बुद्धस्तथा पण्डितस्य परिचयो यस्य सः ॥१९॥ ज्ञान-बुद्धि-पाण्डित्यभ्रष्टः । पण्डितसङ्गतिरहितः । पण्डितद्वेषी ॥२०॥
+ झुमुझुमुसय - मननुं दुःख ( देशीकोश)।
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टिक्कंगले टोड्डुरं च टारावरोह टट्टरौ । ट्टिटिलिका टेटारत्वं षट् टकाराः शुभाश्र(श )ये ॥२१॥ टिट्टिभत्वं च टुण्टत्वं टौक्यं टप्परकर्णतो । टक्करा टुंचनत्वं च षट् टकारा दुराशये ॥२२॥ ट १० ॥
भालतिलकम् । गले माला । अश्वारोह, जने टारश्चोत्तमाश्वता । भेरीनाद । सदा हासकर्म । सदा सज्जत्वम् ॥२१॥ सदा सगर्वत्वम् । टुंक इति देशीशब्दः । ठेकस्य भावः टौंक्यं, टुकडापणुं । टापरक्नु । टुंचपणुं, कलङ्कः ॥२२॥
ठक्कुरत्वं ठरणत्व-मंठांठल्यं च ठीभता । ठणत्कार-ठमत्कारौ स्त्रीणां पुण्याकृषटकमिदम् ॥२३॥ ठोठत्वं ठग ठल्लत्वं ठीठत्वं ठीठीआन्वितम् । ठामणत्वं च जायेत ठषट्कं पापयोगतः ॥२४॥ ठः ११ ॥
ठर्यापणुं । ठांठेलिरहितपणुं । ठीभपणुं । ठणकला । ठमकला स्त्रीणां, 'गृहे' इति गम्यम् ॥२३॥ ठगारापणुं । निर्धनपणुं । ठीठांपणुं ॥२४॥ .
डिण्डीरगौरकीर्तित्वं डिण्डिमा डुंगरोच्चता । डयनत्वं डयनावाप्ति-डिम्बहानिः सुपुण्यतः ॥२५॥ डोल्लत्करत्वं डुम्बत्वं डिंगरत्वं च डिम्भता । डामर्यं डक्कपुत्रत्वं डकाराः षड् दुरात्मनः ॥२६॥ ड १२ ॥
समुद्रफीणनी परई निर्मलकीर्तिपणुं । स्फीतिवंतपणुं । डुंगरनी परिं उच्चता, गुणे करी । नंभोगतित्वं, अलसमन्दगतित्वं न । पालथीनी प्राप्ति । डमरहानि ॥२५॥ जराजीर्णत्वं । नीचजातित्वं । हासकर्मत्वं । बालता मूर्खत्वम् । डमरस्य भावो डामर्यं उत्पातित्वम् । डॉकपुत्रापणुं ॥२६।।
ढोल्ल ढोल्लिक ढक्कोप्ति-ढींचता ढक्वितारवः । ढौकनं चेति जायेत ढषट्कं पुण्यशालिनाम् ॥२७॥ ढांढर्यं ढीमणं ढिक्का ढौढल्लं ढरैढिल्लिता । ढौमण्यं चेति जायेत ढषट्कं पापशालिनाम् ॥२८॥ ढ १३ ॥
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ढोलं ढोलीउ ढक्का - वाजित्र तेहनी प्राप्ति । ढींचलपणं । दृप्ते
I
मन्दस्वर नहीं । प्राभृतप्राप्ति ||२७|| सुंना ढंढारपणुं । देह तिहां ढीमणां । ढींका । ढोंढलापणुं । भ्रमणशीलता । दुमणापणुं ॥२८॥
र्णज्जर णच्चाउत्तो २ णिसत्त ३ णिज्जाउ ४ णिवह ५ संजुतो । र्णिम्मंसू ६ चैते स्यु- र्णषट्कयोगाः सुपुण्यानाम् ॥२९॥ णिर्द्धधस १ णिक्खरिओ २ णंदेण ३ णिव्वह ( णिव्वर ? ) ४ fast ५ क्खि ।
१०
१२
एतं णकारषट्कं पापिष्टानां भृशं भवति ॥३०॥ ण १४ ॥ वि॒िर्मलः । ईश्वरः । सैन्तुष्टः ३ । उपकारसंयुक्तः ४ । समृद्धिसंयुक्तः
५ । तरु॑णः ६ ||२९|| निर्दयः १ । मुषितः २ । भृत्यः ३ । स्तब्धः ४ ।
११
१२
कैठिनः ५ । चौर ६ । अमी देशीशब्दाः ||३०||
. त्यागस्तत्त्वज्ञतातुष्टि-स्त्रिकशुद्ध्यादयो गुणाः । तीव्रेच्छा-तंप्तिहीनत्वं तकाराः षण्नरोत्तमे ॥३१॥
४७
तरुच्छेदस्तामसत्वं तस्करता तृणत्रुटि: ।
७
तृष्णा च तप्तिरन्येषां तकाराः षण्नराधमे ॥ ३२ ॥ त १५ ॥ मनोवच:कायशुद्धता । तीव्रलोभः परतप्तिः परनिन्दा, ताभ्यां हीनता ॥३१॥
४
• वृक्षभङ्गः । तमोगुणत्वम् । तृणत्रोटन । लोभबाहुल्यम् । परनिन्दा ॥३२॥
स्थानाप्तिः स्थिरता स्थांम स्थूललक्षादयो गुणाः । स्थाविष्ठ्यं स्थलभाषित्वं थकाराः षण्नरोत्तमे ॥३३॥
स्थंक्कता स्थंपुटाङ्गत्वं स्थाविरं स्थाणुता तथा ।
थूत्कृतिः स्थलवासित्वं षट् थकारा दुराशये ॥ ३४॥ थ १६ ॥
सर्वत्र स्थानप्राप्तिः । अचापल्यम् । वीर्यम् । बहुप्रदत्वादयो गुणाः । पॄष्टता । थैलना । थलना बोलनुं बोल ||३३|| जैराजीर्णता । स्तब्धता । वार २ थुंक मूर्खाः ||३४||
११
थाकापणुं । विषमोन्नताङ्गता । थैलेची मरुभूमिं वसवुं । ते
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दीप्तिर्दानं च दाक्षिण्यं दया देवार्चनं दमः । भाग्यभाजां ढ्काराः षट् सम्पद्यन्ते ध्रुवं नृणाम् ॥३५॥ दुःख-दौर्भाग्य-दौर्गत्यं दीनता दीर्घसूत्रता । दम्भोऽमी षड् दकाराः स्युः पापभाजां नृणां ध्रुवम् ॥३६॥ द १७ ॥ देहे दीप्ति । इन्द्रियाणां दमः ॥३५॥ दौरिगं । मूर्खता ॥३६॥ धार्मिष्ठ्यं धृति धी धैर्य धारणा धनिता तथा । पुण्यप्रेरणया षट्कं धकाराणां नरोत्तमे ॥३७॥ धोटीवाहत्व धूर्त्तत्वं धीवैकल्यं च धिक्कृतिः । ध्यानदौष्ट्यमपेयस्य धीतिः षड् धास्तमोभृताम् ॥३८॥ ध १८ ॥
अविस्मरणशीलता ॥३७॥ धोडीवाहापणुं । निर्बुद्धिता । सर्वत्र धिक्कारः । दुर्ध्यानम् । मद्यादेः पानम् । अज्ञानिनाम् ॥३८॥
निरामयत्वं नम्रत्वं निर्दम्भत्वं नयान्वितम् । निर्ममत्वं निरीहत्वं नकाराः षण्नरोत्तमे ॥३९॥ निःस्नेहत्वं च नीचत्वं निर्दयत्वं नृशंसता । निर्गुणत्वं निकलत्वं नकाराः षण्नराधमे ॥४०॥ नः १९ ॥ नीरोगता । न्यायोपेतता । निर्लोभता ॥३९॥ क्रूरता । कलाविकलत्वम् ॥४०॥ प्रिंयत्वं परभागित्वं प्रभुता पेशलं वचः । परोपकारः पाण्डित्यं पषट्कं पुण्ययोगतः ॥४१॥ प्रार्थना पारवश्यं च पीनता पुत्रहीनता । प्रत्यर्थियोगः पामा रुक् पकाराः पापयोगतः ॥४२॥ प २० ॥
सर्वेषां वल्लभत्वम् । गुणोत्कर्षता । ऐश्वर्यम् । मधुरभाषिता ॥४१॥ देहे स्थूलता । शत्रुसंयोगः ॥४२॥
स्फारता स्फुटभाषित्वं स्फीतिमत्ता स्फुटान्वयः । फलावाप्तिः स्फुरत्कान्तिः फकाराः षण्महात्मनाम् ॥४३॥
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फल्गुत्वं स्फुरदोष्ठत्वं फटाटोपश्च फिक्कता ।। फेत्कारिता फूत्कृतिश्च फकाराः षड् दुरात्मनाम् ॥४४॥ फ २१ ॥
उदारस्फारता । स्फुटवक्ता । अवञ्चकः । शोर्भावत्ता । प्रसिद्धान्वयत्वम्, शुद्धान्वयत्वात् । दृष्टे सति फलप्राप्ति: । दीप्यत्तेजाः ॥४३॥ असारता । अधरचालनम् । भयङ्करता । फीका पड्यापणुं । फैत्कार्यापणुं । सर्वदा निःश्वासोच्छ्वासमोचनम् ॥४४॥ ...
बुद्धिर्बन्धुरता बौध्यं बेरेरूपं बलिष्ठता । बहुप्रदत्वं षडमी, बकारा बहुपुण्यतः ॥४५॥ बीभत्सता बालिशत्वं बुद्धिवैकल्य बन्दिता ।
बोक्कसत्वं बुद्रुटत्वं बकाराः षड् दुरात्मनि ॥४६॥ ब २२ ॥ . मनोज्ञता । बुधस्य भावो बोध्यम्- पाण्डित्यम् । सुरूपदेहत्वम् । बलवत्ता । अमोघदातृत्वम् ॥४५॥ कुहिँतत्वम् । मूर्खत्वम् । मतिभ्रंशता । परदासत्वम् । मातृपित्रोविरुद्धजातित्वम् ॥४६॥
भारक्षमत्वं भर्तृत्वं भद्रकत्वं च भव्यता । भूतिमत्त्व भाममुक्ति-र्भकाराः षड् विभूतये ॥४७॥ भीमत्वं भारवाहत्वं भ्रष्टत्वं भूतिवर्जितम् । भाग्यहानिर्भयभ्रान्तिः षड् भकाराः सुखाय न ॥४८॥ भ २३ ॥ भारेखमीपणुं । पोषकत्वम् । मुग्धपरिणामता । उत्तमत्वम् । ऋद्धिमत्वम् । अक्रोधता ॥४७॥ भयङ्करत्वम् । भारवाहिता । सदाचाररहितत्वम् । दरिद्रत्वम् । निर्भाग्यता । सदी सभयत्वम् ॥४८॥
मर्मज्ञत्वं च मैत्रीत्वं मेधावित्वं महात्मता । मितभाषित्वमुक्तित्वे मकाराः षण्नरोत्तमे ॥४९॥ मलीमसत्वं मन्दत्वं मदोन्मत्तत्वमूर्खता । मौखर्यं मद्यपायित्वं मकाराः षण्नराधमे ॥५०॥ म २४ ॥
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५०
अनुसन्धान-७०
सर्वैः सह मैत्रीभावः । महानुभावता । अल्पजल्पाकत्वम् । निर्लोभता ॥४९॥ मलिनत्वम् । आलस्यम् । उद्धतत्वम् । वाचालता ॥५०॥
याथातथ्यं यशस्वित्वं योद्धत्वं च यदृच्छता । यूनत्वं युक्तवादित्वं षड् यकारी नरोत्तमः ॥५१॥ यद्भविष्यो यथाजातो याचको यद्वदः पुनः । । यातयामो यक्ष्मरोगी षड् यकारी नराधमः ॥५२॥ य २५ ॥
सत्यवादिता । यशस्विता । स्वेच्छौचारिता । तरुणत्वम् । युक्त वचोवादिता ॥५१॥ दैवपरः । जडः । यत्तदसभ्यं वदतीति यद्वदः । जराजीर्ण । क्षयरोगी ॥५२॥
रोगमुक्तो रूपयुक्तो रतिरङ्ग रसाकरः । रम्यरावो रमावासो रषट्कः पुण्यपीवरः ॥५३॥ रागद्वेषी रिपुत्रासी रीणो रेफमतिश्रितः । रूपहीनो रमाक्षीणो रषट्कः पापधीवरः ॥५४॥ र २६ ॥
नीरोगः । सुरूपः । रतै रङ्गो यस्य सः । हर्षाकरः । मधुरभाषी ॥५३॥ रिपु थिकु त्रासइ । विषादी । अधमां मतिमाश्रितः । क्षीणधनः ॥५४||
लालित्यं लोकसांमत्यं लक्ष्मी लज्जाश्रितं लयः । दयायां ललनालीला लषट्कं लभ्यमुत्तमैः ॥५५॥ लुब्धत्वं लुब्धकत्वं च लाम्पट्यं लघुता तथा । लक्षणाभाव लासर्यं लषट्कमघशालिनाम् ॥५६॥ ल २७ ॥
सौकुमार्यम् । लोकोभीष्टत्वम् । लक्ष्मी । लज्जाश्रितं यथा स्यात्तथा । दयायां लयः । ललनाया लीला ॥५५॥ लोभित्वम् । आखेटिकत्वम् । अंगौरवार्हता । निर्लक्षणता । लोसरीयापणुं ॥५६॥ .
विद्वत्ता व्याधिहीनत्वं वीर्यसम्पद् विभूतयः । व्रीडायुतं विनिद्रत्वं षड् वकाराः शुभात्मनाम् ॥५७॥
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जुलाई - २०१६
वैवर्ण्य व्यपदेशश्च वैलक्ष्यं विप्रलापता । वेश्याव्यसन वैतथ्यं षड् वकारा विकारिणाम् ॥५८॥ वः २८ ॥ बेलसम्पत् । ऋद्धयः । सलैज्जता । सावधानता ॥५७॥ I कोलिमा 1 छैलम् । विलखापणुं । र्विरुद्धोति । असत्यवचनता ॥५८॥ शूरः शीर्लयुतः श्लीलः श्लाघ्यः शीतलवाग्गुणः । श्लेथपातकबन्धश्च षट्शकारोऽविकारवान् ॥५९॥
५१
शूली शान्तरसानिष्टः शोकशङ्कापरिप्लुतः ।
१०
श्लथाङ्गः शीर्णवासा च षट्शकारोऽधमः पुमान् ॥ ६० ॥ श २९ ॥
,
I
I
सदा॑चारी । ऋद्धिमान् । श्रैशंसार्हः । मिष्टवाक्यः । अल्पपापबन्धः ॥५९॥ शूर्लंरोगी । सँकोपः । शोर्क-शङ्काव्याप्तः । शिथिलशरीर । जीर्णवस्त्रः ॥६०॥ षड्ज १ षट्कारकज्ञत्वं २ षण्ढ ३ षण्मुख ४ षेण्डता ५ । षट्कर्मादिसर्वदाता षट्षोऽयं पुरुषोतमः ॥ ६१ ॥
७
षण्ढ १ पुंकार २ गित्वं ३ षोडशावर्तता ४ तथा । षट्कारवाक्यं ५ षाटक्यं ६ षट्षोऽयं पुरुषाधमः ॥ ६२॥ ष ३० ॥
१२
३
षड्ज॒ज्ञत्वं संगीतकुशलता । षट्कारकज्ञत्वं । व्याकरणदक्षता । ईश्वरत्वम् । षण्मुखता शीलगाङ्गेयता । षेण्डता धौरेयता । ब्राह्मणादिसर्वजनदाता ॥६१॥ षण्ढत्वं क्लीबत्वम् । षंकारत्वं वारं वारं षुः षुः इति करोति यः (खोंखाखुं) । संविटचेष्टा । शङ्खत्वं अयं शङ्खः इति । यद्वाक्यं शल्यमिव षाट्करोति । निर्दयपणुं, खाटकीपणुं ॥६२॥
1
सौभाग्यं सूक्तिवक्तृत्वं साहसाङ्क सहिष्णुता ।
सुपात्रदान सत्सङ्गः सकाराः षट् सुपुण्यतः ॥ ६३ ॥
७
सुरापी स्वपहर्ता च सत्त्वघ्नः सुखघातकः । साम्य-सौम्यपरिभ्रष्टः षट्सकारो नराधमः ||६४ ॥ स ३१ ॥
संद्वचनकथत्वम् । सोहसित्वम् । सैर्वंसहता | उत्तमसङ्गति ॥६३॥ मद्येपः | धर्नहर्त्ता चौरः । हिंसकः । दुःखदायकः । समतया सौम्यतया भ्रष्टः ||६४||
७
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अनुसन्धान-७०
हर्षितास्यं हेमभूषा हयहेषा हरिप्रिया ।। हर्म्यवासो हविस्या( घ्या )न्नं हषटकं सज्जनाश्रयम् ॥६५॥ हताशता हानि होस्यं हीनवंश हठक्रिया । हीलाषटकमिदं हस्य प्राप्यते पुण्यवर्जितम् ॥६६॥ ह ३२ ॥
प्रसन्नवदनता । स्वर्णाभरणधारिता । द्वारै हयहेषारवः । लक्ष्मीवत्ता । धवलगृहे निवास: । हविष्यानभोज्यम् ॥६५॥ इष्टार्थाऽप्राप्तिः । सर्वपदार्थहानिः । निःप्रयोजनहास्यम् । अधमान्वयोत्पत्तिः । सर्वत्र हठकर्म । सर्वत्राऽवगणना ॥६॥
क्षमित्वं च क्षमावत्त्वं क्षीरभोज्यं क्षुदल्पता । क्षुद्रावासः क्षौमवासः क्षस्य षट्कं महात्मनाम् ॥६७॥ क्षीबत्वं क्षामता क्षण्यं क्षोभः क्षाराश्रयः क्षयः । सम्पनीपद्यते षट्क-मिदं क्षस्य दुरात्मनाम् ॥६८॥ क्षः ३३ ॥
समर्थत्वम् । क्रोधंजयित्वम् । परमान्नाहारिता । स्तोकक्षुधात्वम् । चेतस्यकुटिलता । उत्तमवस्त्रधारित्वम् ॥६७॥ उन्मत्तता । दुर्बलता । क्षीणपणुं । कलहाश्रय: । क्षयरोगः ॥६८॥
इति सप्तवर्गसर्वाक्षरोत्थषट्षड्वरेण्यरेफरवैः । लक्ष्मीकल्लोलबुधो निर्मितवान् सूक्तसङ्ग्रहं शुद्धम् ॥६९॥
इति सप्तवर्गाक्षरवरेण्यावमशब्दग्रथितः सूक्तसङ्ग्रहः ।। इत्यमुना प्रकारेण सप्तवर्ग-ङवर्जसर्ववर्णोत्पन्नषट्पट्उत्तमाधमशब्दैः सूक्तसङ्ग्रहं कृतवान् ॥६९||
सूक्तसङ्ग्रहपर्यायावचूणिः ॥
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५३
मुनिश्री प्रेमविजयजी कृत केटलीक शुर्जर लघु रचनाओ
- सं. मुनि धुरन्धरविजय
(१) सीमन्धर-जिन-नमस्कार
सुमति सदा दउ सारदा, प्रणमत करेइ । . विहरमान-जिन-गुण-स्तव, मनि भाव धरेइ ।। पूरवविदेह-नगरि नाम, पुंडरिगरि जाणी । .
राज्य करइ श्रीअंस राय, सतकी तस राणी ॥ त्रूटक - तस घरि आवी अवतरा अ, त्रिभुवन-तारणहार ।
जन्म्या जिनवर जगत्रगुरु, सुर करइ जयजयकार ॥१॥ धनुष पांच सत मान कहुं, सोवनमइ काया । अति सुंदर रुषमिणिय नारी, कुंवर परणाया । वीस लाख पूर्व लगइ, बालकनी लीला ।
त्रिसठि पूर्वे राज रुद्धि, भगति सुखशीला ।। त्रूटक - अर्थ-भंडार अंतेउरी मे, हयगय-रथ-परिवार ।
ममता-मोह तजी करी, लीधु संयमभार ॥२॥ अनुक्रमि अवनि विचरतां, लहइ केवलनाण । समोसरण सोभा घणी, सुर करइ मंडाण || वाणी वचन-विलास आदि, अतिशय चउतीसइ ।
भवीय जीव प्रतिबोध लहइ, दरसण जगदीस ।। जूटक - प्रखर्दा बारइ बुझवइए, चिहुं मुख करइ वखाण ।
शुभध्यानइ सहु सांभलइ, निज निज भाषा जाण ॥३॥ १. पर्षदा ।
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अनुसन्धान-७०
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मृगपति नइ मृग अक ठामि, बिहु जमला बइठा । नाग-मोर माजार-हंस, सुखस्युं ते दीठा । वाघ-वृषभ नइ ससा-स्वीन, हेजइ ते हरखइ ।
जाति-वैर उपसांत होइ, जिनवर-मुख निरखइ ॥ त्रूटक - सुर-नर-किंनर-असुर-नर-विद्याधरनी कोडि । .
मन-वचन-तनु भावसुं, पाय प्रणमइ कर जोडी ॥४॥ त्रिभुवनतारण देव तुहि, मन जाणइ एक । रसना त्रिपति लहइ सदा, गुण गाय वशेष ॥ . तुम्ह गुण श्रवणे सांभळी, सुखस्याता थाइ ।
रोम-रोम आणंद घj, अंगइ नवि माय ॥ त्रूटक - आंखि करि उम्हाहलुं ए, तुम्ह मुख जोवा देव ।
श्रीविमलहर्षशिष्य प्रेमनइ, देजो तुम्ह पद सेव ॥५॥
(२) पंचतीर्थ-नमस्कार श्रीसेजेजउ सिद्धक्षेत्र, दुर्गति-दुख वारइ । भाव धरीनइ चडइ जेह, भव-पार उतारइ ॥ अनंत सिद्धनउ ठाम, सकल तीरथनउ राय ।
पूरव नवाणु ऋषभदेव, ठविया तिहां पाय ॥ त्रूटक - सूरजकुंड सोहामणु ए, कवडजक्ख अभिराम ।
नाभिराय कुलमंडणु, जिनवर करु प्रणाम ॥१॥ प्रथम तीर्थ कीय चक्कवइ, भरहेसर जाण । चउवीसइ जिनतणा, बिंब तिहां मान प्रमाण || आठ जोजन गिरि उंच-पणइ पामइ उजल ।
जोयण जोयण पावडी मान, सगर सुत कीध निर्मल ॥ २. जोडे । ३. तृप्ति । ४. उमळको ।
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जुलाई-२०१६
त्रूटक - साव सौवर्णमइ प्रासाद अछड्, रयणमइ जिनबिंब सार ।
भरहराय भावइ करी, हुं प्रणमुं ते वारोवार ॥२॥ समेतशिखर समोसर्या, सिद्धा जिन वीश । वीसइ ढूंकइ विवधि परि, वंदु निसदीस । मुज मनि ओह उमाहलुं, गिरि जात्रा जाउं ।
पाप ताप दूरइ करी, इम निर्मल थाउं । जूटक - ऋषभदेव श्रीनेम विना, वासुपूज्य महावीर ।
अवर तीर्थंकर अणि गिरि, पाम्या भवतुं तीर ॥३॥ उजन्तगरि उंचपण, वळी गाउ सात । प्रथ्वीजइ प्रासाद करउ, साजण अवदात ॥ यादवकुलि श्रीनेमनाथ, जे बालब्रह्मचारी ।
सतीसिरोमणी राजमती, तजी जेणइ नारी ॥ त्रूटक - त्रण कल्याणक अहींआ हुआ ओ, दीक्खा-नाण-निरवाण ।
भावसहित भगति नमुं, बावीसमुं जिनभाण ॥४|| अरबदगिरि उपरे अनेक, जिनबिंब प्रासाद । विमलसाह वसही करी, सुरगरिस्युं वाद ॥ वस्तुपाल नइ तेजपाल, जगमांहि सार । लुणकवसही प्रासाद करी, पाम्या भवपार ॥ तपगच्छमंडण हीरजीओ, विमलहर्ष उवज्झाय । तास सीस मुनि प्रेमनइ, आपउ सिवपुर ठाय ॥५॥
॥ इति श्रीपंचतीर्थनमस्कार समाप्त ॥
(३) शत्रुजय-नमस्कार
पहिलं प्रणमुं प्रथमनाथ, सेर्जेज गरिराय ।
नयणे पेखउं आदिदेव, सोवर्णमइ काय ॥ ५. पृथ्वीजय नामनो प्रासाद ।
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अनुसन्धान-७०
चालउ सेनूंज जाइई, हर्षइ करउ जात्र ।
सूरजकंड करी सनान, निर्मल करउ गात्र ॥ त्रूटक - खीरोदिकनां धोतीयां अ, ओढण जादर चीर ।
कनक-कलस हाथि धरी, भरियां निर्मल नीर ॥१॥ सुकडि केसर घसीय घj, कचोलइ भरीइ । युगादिदेव पूजा करी, भवसागर तरीइ ।। चंपक-केतक-मालती, माहिं दमणउ सोहइ ।
कुसुम-माल कंठि ठवउ, जिनना मन मोहिइं ॥ त्रूटक - नादपूजा करउ भावस्युं ओ, नाटिक नविन विज्ञान ।
सविपद नरनारि वरइ, ते पामइ बहुमान ॥२॥ ऋषभ-भुवन रुलीआमणुं, जाणइ हरिनुं ठाम । मेरतणी परे अचल अह, विमलाचल नाम || हस्तिखंधिइ मरुअदेव, बइठीं दीइ हेल ।
सुर-नर-नारि सहु मली, पूजइ रंगि रेलइं ।। त्रूटक - सेजेंज-बिंब संख्या सुणउ अ, हुं कहुं मननइ कोडि ।
पनरसनइं पांसठि वली, नहि को ते सम जोड ॥३॥ सेज-आबु-समेतसिखरि, अष्टापद सोहिइ । रैवति वंदु नेमनाथ, दीठइ मन मोहिइ ॥ पंच तीर्थ ओ पंच मेर, जगमांहि सार ।
भावइ वंदुं भविय लोय, पामउ भवपार ॥ त्रूटक - ऋषभजिणंद समोसर्या अ, पूर्व नवाणु वार ।
पुंडरिकस्युं मुनिवरा, बहु पाम्या भवपार ॥४॥ चउइंद्र आदि देइ सूर, सेवा सारइं । तिहुयण तारण वीतराग, भवपार उतारइं ॥
६. शिवपद ।
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जुलाई - २०१६
(४) नमस्कार - - संग्रह
सरसतिमाता सुणउ देव, द्यउ अवि (म) ल वाणी । चवीसइ जिन गाइशुं, अंगि उलट आणी ॥ पहिलु ऋषभजिणंद देव, सूर सेवा सारइ । बीजु अजितजिणंद नाथ, भवपार उतारइ ।। त्रूटक - संभव त्रीजु सोहामणु ओ, अभिनंदनजिन देव । सुमति पद्मप्रभु सुपासजिन, चंद्रप्रभ करूं सेव ॥१॥ सुविधि शीतल श्रेयांस, वासुपूज्य गुण गाउं । विमल अनंत धर्मनाथ, सेवई सुख पाउं ॥ शांतीकरण श्रीशांति कुंथु, जिनवर अरिनाथ । मल्लिनाथ मुनिसुव्रत, सिवपूरनो साथ ॥
त्रूटक
तपगच्छनायक गुणनिलउ, हीरजी गुरुराय । मनमोहन विजयसेनसूरि, वंदुं तस पाय ॥ श्रीविमलहर्षसिष्य इम भणइ अ, प्रेमविजय कह देव । भव-भवि सेतुंजगिरि-तणी, मुजनइ देज्यो सेव ॥५॥
॥ इति श्रीसेतुंजनमस्कार समाप्त ॥
टक
नमि- नेम जग जाणीइ अ, जायवकुल सणगार । पशुबंध छोडी करी, चडीउ गढ गरिनार ॥२॥ . पुरुषादानी पासजी, नउकार ज दीधउ । पन्नगनइ सुरपदवी देइ, धरणेंद्र ज कीधउ ॥ चरणे मेरु कंपावीउ, श्रीवीरजिणंद | सकल सुरासुर - इंद्र-चंद्र, गुण गाई आणंद || ओ चउवीसइं जिनवरुं अ, हुं प्रणमुं नसदीस । भाव धरी तस पायकमल, भगति नामुं सीस ||३||
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अनुसन्धान-७०
हिवइ विहरमान भवियण सुणउं, जे कहिई वीस । भाव धरी तस पूज करउ, टाली सवि रीस ॥ सीमंधर युगमंधर देव, बाहु सुबाहु वीरे ।
श्रीसुजात नइ सयंप्रभ, जग मोटा धीर । त्रूटक - ऋषभानन सोहामणउ अ, अनंतवीर्य अभिराम । .
सूरप्रभ सूरउ सही, विशाल वज्रधर नाम ॥४॥ चंद्राननइ चंद्रबाहु, वली श्रीयभोजंग । ईश्वर नेम प्रभु सही, गुण गाउं रंग ॥ वीरसेनइ महाभद्र, गुणरयणनिधान ।।
देवजस नइ अनंतवीर्य, वाधइ जस वान ॥ त्रूटक - जयवंता जग विचरता से, विहरमान जिन वीस ।
श्रीविमलहर्षवाचक तणउ, इम प्रेमविजय कहइ सीस ॥५॥ श्रीशेजउ सिद्धक्षेत्र, सु दुर्गतिदुःख वारइ । भाव धरीनइ चड(इ) जेह, तेहनइ पार उतारइ । । रैवतगिरि श्रीनेमिनाथ, जे बालब्रह्मचारी ।
सतीसिरोमणी राजमति, तजी जेणइ नारी ।। त्रूटक - अरबदगिरि रुलीआमणु अ, जिहां जिनबिंबतणुं नहि पार ।
आदि-नेमि भावइ करी, पूजा करु नरनारि ॥६॥ वीसइ जिनवर समेतशिखर, आविनइ सीधा । कर्मरासि सहु दूर करी, सुख मुगतिना लीधा ।। अष्टापदगिरि अष्ट जोज(न), उंचउ अति कहिइ ।
सा सोवर्णम(इ) जिनभवन, तिहां कण लहिइ ।। त्रूटक - मान प्रमाण रयणमइ अ, मूरति जिन चउवीस ।
भरहराय भावइ करी, हुं प्रणमुं ते निसदीस ॥७॥
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शंखेस गुडी थंभणउ, चिंतामणि पास । पाटण श्रीपंचासरु, पूरई मनि आस ॥ तारंगइ वडनगर वीर, नवखंड अझारइ ।
कुलपाकनइ अंतरीक, आवइ नरनारि ॥ त्रूटक - अवंती पास मगसी कहुं ओ, आरासण अभिराम ।
राणपूरनइं रामसेण, समरण सीझइ काज ||८|| कुंभलमेर नइ चित्रकोट, पावइ प्रासाद । भरुयच मुनिसुव्रतसामि, गुण गाउं उलास ॥ देवकइ पाटिण चंद्रप्रभ, आठमउ जिणंद ।
जस गुण गाय सुरनर, मुख पुनमचंद ।। त्रूटक - मालवदेशमांहि सुणउ ओ, वडवाणी भलुं गाम ।
बावनगज बिंब तिहां नर्मु, नितु उठी लीजइ नाम ॥९।। डुंगरपुरनइं आंतरि, वली ऋषभ ज नाथ । देलवाडई देव वंदतां, हुं हुउ सनाथ ॥ वरकाणउ बंभणवाडि वीर, लोटीण उतारइ ।
हथिनाउर सूरिपुर नेमजी, दुरगति दुख वारइ ।। त्रूटक - ओ तीरथ जे वंदसइ , भाविस्यु नरनारि ।
श्रीविमलहर्षसिष्य प्रेम कहिइ, ते पामइ भवपार ॥१०॥ ओ पंचतीरथ आदि देइ मई, कहिया अपार । नाहना मोटा बिंब घणा, न लहुं तस पार ॥ हवइ सास्वता प्रसाद-बिंब, तेहगें कहुं मान । भाव धरि भविजन सुणउ, पवित्र करउ कान ।। छप्पन कोडि आठ लाख वली, सहिस सत्ताणु होइ । चउसइ छयासी उपरि तेहनइ, जग जाणइ सब कोइ ॥११॥
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अनुसन्धान-७०
पन्नरस कोड बिंब वली, बइतालस कोडी ।
लाख अठ्ठावन सहिस अडयाल, प्रणम्यु कर जोडि ।। त्रूटक - भवनपति व्यंतर जोतकी ओ, असंख्य उदधि दीप मझारि ।
जिनप्रसाद जिनबिंबतणउ, तेहनउ न लहु पार ॥१२॥ हिवइ सतिरिसउ जिनविचार, उत्क्रष्टइ वारई । पांच भरथ पांच औरवत, हुं कहुं आपार ॥
ओकेके माहवदेह, वजय बत्रीस ।
पांचे मली संख्या सुणु, अक सत दो तीस ॥ . त्रूटक - नवसहिस कोडी साधु वंदिओ, वली केवलि नव कोडि ।
उत्तमकाले ओ सही, हुं प्रणमुं दोइ कर जोडी ॥१३॥ .. संप्रतिकालइ विहरमान, जिनवर जे वीस । दोय कोडि केवली दोय कोडि सहस मुनीस ॥ पांचे मेरे जिनभवन, पंचासी कहाय ।।
दससहस (जिन)बिंब, गुणपार न लहाय ।। त्रूटक - बावन प्रासाद नंदिसरि ओ, बिंब वीस सहस नवसत अंक ।
सुर नर मुनिवर असुर नर, प्रणमि धरीय विवेक ॥१४॥ चउवीसइ जिन परिवार सार, गणधर पटाधारी । चउदइ सइ बावन वली, जे पु(प)र उपगारी ।। लाख अठावीस सहिस अडयाल, मुनिवर वैरागी ।
मन-वचन-काये करी, लइ संयमसुं लागी ॥ त्रूटक - लाख चउंयालीस च्यार सइं ओ, वली छयालीस हजार ।
षट् अधिक ओ माहासती, तस गुणनउ न लहु पार ॥१५॥ समकित मूल सहित श्राध, पंचावन लाख । वली. सहिस अडयालीस अधिक, ओ श्रावकनी भाख ॥
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जुलाई-२०१६
अक कोडि नइ पांच लाख, वली सहिस अडतीस ।
धर्मइं राति श्राविका, जग बहु जगीस ॥ त्रूटक - अ चउवीसइ जिनतणउ , मई कहिउं परिवार ।
भाव धरी तस गुण थुणउ, जिम पामुं भवपार ॥१६॥ चउरासी गच्छ माहिं सार, श्रीतपगच्छ दीपइ । जिंहा हीरजी गुरुराजीउ, तेजइ त्रिभुवन जीपइ ॥ तस पाटि सोहि सुरवीर, विजयसेन गुणधारी । . कोडानंदन चिरंजउ, जगनइ हितकारी ॥ श्रीविमलहर्षवाचकतणु सीस कहि उलास । । गणिरत्नहर्ष वंदु प्रेमनइ, आपउ सिवपुरवास ॥
॥ इति श्रीनमस्कार संपूर्ण ॥ श्रीविशाश्रीमाळी तपगच्छ जैन पाठशाळानो हस्तलिखितसंग्रह पोथी१०२, प्रत-७९३ श्रीनमस्कारसंग्रह पत्र-६ उतारी - २०२३, वै.शु.१२
मुनि श्रीप्रेमविजयजी कृत केटलीक . गुर्जर लघु रचनाओ विषे
- विजयशीलचन्द्रसूरि
कविमित्र मुनि धुरन्धरविजयजीए पुराणां पानां फेंदी पेंदीने अनेक अद्भुत अने ऐतिहासिक एवी रचनाओ प्रकाशमां आणी छे. तेमनी दृष्टि एवी तो पारदर्शी छे के हजारो पानां के प्रतोनी वच्चे क्यांक अटवायेली, कोईने झट जडे नहि तेवी, विशिष्ट के नवतर रचना के प्रत ज तेमना हाथमां आवे ! तेमणे वर्षों पूर्वे आम पुराणां पानां जोतां जडेली केटलीक कृतिओ पोतानी नोंधपोथीमां उतारी लीधेली. तेनी जेरोक्स तेमणे प्रकाशन अर्थे आपी राखेली, तेमांथी केटलीक रचना अत्रे प्रगट करवामां आवे छे.
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अनुसन्धान-७०
___ आ तमाम, चारे रचनाओ 'दुहा' रूप रचनाओ छे. बे दुहा ने एक त्रुटक एवा माप के बंधारणमां रचायेली आ रचनाओ छे. ३-३ दुहाने एक कडी गणीए तो, पहेली 'सीमन्धरजिननमस्कार' नामनी रचना, पांच कडीनी छे. तेमां कर्ताए विहरमान जिन श्रीसीमन्धरस्वामी- वर्णन तथा वन्दन करेल छे. बीजी 'पंचतीर्थनमस्कार' नामक रचना पण पांच कडीनी छे. तेमां क्रमशः शत्रुजय, अष्टापद, समेतशिखर, उज्जयन्त अने अर्बुदगिरि एम पांच तीर्थोनी वन्दना छे. दरेक तीर्थ- शास्त्रवर्णित स्वरूप कविए बहु संक्षेपमां पण हृदयङ्गम शब्दोमां वर्णव्युं छे. आजे जैन सङ्घमां, प्रातः प्रतिक्रमणवेळाए के शत्रुञ्जयनी स्तुति-वन्दना थती होय त्यारे, "श्रीशत्रुञ्जय सिद्धक्षेत्र" थी शरु थतुं चैत्यवन्दन बोलाय छे तेना कर्ता कोण - ते, नामाचरणना अभावे, जाणमां नहोतुं. ते चैत्यवन्दन अहीं शत्रुञ्जयनी स्तवनारूपे छे, ते परथी तेना कर्ता विषे पण जाण थाय छे.
त्रीजी रचना 'शत्रुञ्जयनमस्कार' छे, तेमां शत्रुञ्जयतीर्थ-वन्दना थई छे. आमां शत्रुञ्जयमण्डन ऋषभदेवनी पूजानुं विशद वर्णन थयुं छे. त्रीजी कडीमां हाथी पर बेठेलां मरुदेवाना शिल्पनो निर्देश होवा उपरांत, कविना समयमां शत्रुञ्जय उपर १५६५ जिनबिम्बो होवानी नोंध दस्तावेजी छे.
चोथी रचनामां १७ कडी छे. तेमां क्रमशः २४ जिन, २० विहरमान जिन, पांच तीर्थ - बधांने नमस्कार कर्या पछी केटलांक अभिनव अन्य तीर्थोने स्माँ छे, जेमां शंखेश्वर, गोडी, थंभण, चिन्तामणि - ए ४ पार्श्वनाथ अने तीर्थो, पाटणना पंचासरा पार्श्व, तारंगा, वडनगरमां महावीर, नवखंडा, अजारा, कुलपाक, अन्तरीक्ष, अवन्ती पार्श्व, मक्षी, आरासण, राणकपुर, रामसेण, कुंभलमेर, चित्रकूट, भरुच, देवका पाटण, मालवदेशे वडवाणी गामे बावनगजा, डुंगरपुर, देलवाडा, वरकाणा, ब्राह्मणवाडा, लोटीणा, हस्तिनापुर, शौरीपुर इत्यादिनां नाम छे. पछीनी कडीओमां शाश्वत जिनबिम्बो विषे तथा १७० उत्कृष्टकालभावी जिनने, वर्तमानमां विचरतां जिन अने मुनिओने, पांच मेरु परनां तथा नन्दीश्वर द्वीपनां बिम्बोने नमस्कार कर्यां छे.
ते पछी २४ जिनना १४५२ गणधरोने, २४ जिनना साधु (२८ लाख ४८ हजार) अने साध्वी (४४ लाख ८६ हजार चार सो छ)ने नमस्कार छे. तो ५५ लाख ४८ हजार श्रावको अने १ क्रोड ५ लाख ३८ हजार श्राविकाओने पण प्रणमे छे.
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आम आ तमाम रचनाओ दुहाना चोक्कस मापने अधीन चाले छे, सरल अने प्रासादिक भाषा-शैलीमां ग्रथित छे, अने भावप्रवण तथा भक्तिसभर रचनाओ छे.
तेना कर्ता तपगच्छपति हीरविजयसूरिशिष्य वाचक विमलहर्ष गणिना शिष्य अने रत्नहर्षगणिना भ्राता मुनि प्रेमविजयजी छे. सत्तरमी सदीना उत्तरार्धमां थयेला आ साधु-कविनी केटलीक गुर्जर रचनाओ विषे 'गुजराती साहित्यकोश (मध्यकाल)' (पृ. २५८)मां नोंध छे. जो के अत्रे प्रगट थती रचनाओ विषे तेमां प्रायः नोंध नथी जणाइ. पूर्वे 'अनुसन्धान-६ तथा ७'मां 'मुनि प्रेमविजयनी टीप' नामे कृति तथा एक शिलालेख वगेरे द्वारा आ कवि विषे घणी विगतो प्रकाशित थई छे, जेना आधारे कवि एक अत्यन्त धर्मपरायण, चारित्रना कठोर पालक अने शत्रुञ्जयतीर्थना प्रखर आराधक साधु होवानुं प्रतीत थाय छे..
आ नकलना छेडे "श्रीविशाश्रीमाळी तपगच्छ जैन पाठशाळानो हस्तलिखित संग्रह" एम सम्पादके लखेल छे. गामनुं नाम नथी. सम्भवत: जामनगर होय.
आर्छ स्मरण छे के आ रचनाओ अगाऊ 'कल्याण'(वढवाण)नामक जैन मासिक पत्रमा प्रकाशित थई होय. परन्तु तेनुं आ स्थाने आ रीते प्रगट थर्बु वधु उचित अने मूल्यवान गणाशे तेवी प्रतीतिथी ओ अहीं प्रकाशित थाय छे.
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अनुसन्धान-७०
पण्डित-श्रीजयविजयजी-रचित वाचक-श्रीकल्याणविजयज़ी-रास
- सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजी ! महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीना उपासको माटे अतिपरिचित नाम. "हीरगुरु सीस-अवतंस मोटो हूओ वाचकाराज कल्याणविजयो" जेवी, महोपाध्यायजीना ग्रन्थगत प्रशस्तिओनी पंक्तिओना आधारे तेओना प्रदादागुरु तरीके सुप्रसिद्ध महापुरुष.
महोपाध्यायजीनी गुरुपरम्परा आम छे - जगद्गुरु श्रीविजयहीरसूरिजी - उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजी - शब्दानुशासनना समर्थ विद्वान पं. श्रीलाभविजयजी - पं. श्रीनयविजयजी - उपाध्याय श्रीयशोविजयजी. आम महोपाध्यायजीने जन्मावनारी गुरुपरम्पराना ओक समर्थ महात्मानुं जीवनगान मळे तो ते महोपाध्यायजीना आराधको माटे ओच्छव ज गणाय !
उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजीनी प्रतिभा अने पुण्यप्रकर्षनां दर्शन आ रासमां अनेक ठेकाणे थाय ज छे. तो पण आ व्यक्तित्व माटे बलात् अहोभाव जन्मावे तेवी बे-त्रण विशेष वातो नोंधवी जोईओ : १. तेओनी दीक्षा सं. १६१६मा १५ वर्षनी वये थई. त्यारबाद तेओओ करेली संयमसाधनानो चितार आ रासमां के अन्यत्र क्यांय मळतो. नथी. पण आ साधनाना परिपाकरूपे सं. १६२४मां पाटणमां फक्त ८ ज वर्षना दीक्षापर्यायमां अने २३ वर्षनी नानी उमरे स्वयं जगद्गुरुओ तेमने उपाध्यायपदथी विभूषित कर्या हता ! जगद्गुरुना पदप्रदान माटेनी योग्यता अंगेना मापदण्डो केटली उच्च कक्षाना हता अने ओ माटे तेओ केटली आकरी तावणी करता हता ते सुज्ञ जनोने जणाववानी जरूर न होय. अने तेम छतां श्रीकल्याणविजयजी आ सिद्धि मेळवी शक्या तेमां तेओनी प्रतिभा, शासननिष्ठा, पुण्यशालिता, आराधकता जेवा अद्भुत गुणो ज़ आपोआप जणाई आवे छे..
२. जगद्गुरुना विशाळ शिष्य-प्रशिष्य परिवारमा अनेक अनेक बहुमूल्य रत्नो समायेला हतां. आ साधुपुरुषो वच्चे सरखामणी तो जाणे न ज कराय - न ज करवी जोईओ. तेम छतां जैतिहासिक घटनाओ अने अनेक प्रसंगो तपासतां उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजी, स्थान ओ समग्र परिवारमा बहु मोभादार जणाय छे. ओमना जीवनकाळ दरम्यान ज रचायेलो आ रास तो अनो बोलतो पुरावो छे ज, पण दिल्ही
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जतां पूर्वे जगद्गुरुओ उपाध्यायजीने खास बोलावीने करेली गुजरात संभाळवानी भलामण के अन्त समये "जो विजयसेनसूरि के कल्याणविजयजी हाजर होत तो ओमने गच्छनी व्यवस्था सम्बन्धी सूचनो करीने अने गच्छ भळावीने हुं निश्चिन्त थई शकत" अवां जगद्गुरुओ उच्चारेलां वचनो पण आ वातनी ज पुष्टि करे छे.
३. पूर्वे जणाव्यं तेम श्रीकल्याणविजयजी गच्छपति थवाने सर्वथा योग्य हता. अने फक्त अमना माटे ज नहि, विजयहीरसूरिना परिवारना अकेओक उपाध्याय माटे आ विधान करी शकाय तेम छे. तेम छतां ओ पूज्यो पोतानी महत्ताने गौण करीने अनुशासनना-व्यवस्थाना अंगरूप बनी रह्या. गुरुनी आज्ञा अने शासननी सेवाने ज ओ वरिष्ठोओ सर्वोपरि गणी. आनो जोटो क्यां जडे तेम छे ?
उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजीनी जीवनगाथा, तेमना हाथे सर्जायेलां शासनप्रभावनानां रूडां कार्यो, तेमनो सकल श्रीसङ्घमां के समाजमा व्यापेलो पुण्यप्रभाव वगेरे वातोने गूंथतो प्रस्तुत रास १५ ढाळ अने तेनी ३१९ कडीओमां पथरायेलो छे. दरेक ढाळ अने तेनी पूर्वेना दुहा गावा माटे थयेलो विभिन्न रागोनो निर्देश रासनी मूल्यवत्तामां वधारो तो करे ज छे, पण कर्तानी संगीत विशेनी जाणकारी पण सूचवे छे. काव्यनी विषयवस्तु सड्क्षेपमां जोईओ तो - ढाळक्रमाङ्क विषय
देवगुरुनमस्कार-नगरवर्णन पूर्वजवर्णन ठाकरसीनो जन्म, उत्सव व. हालस्डं निशाळगमन, विद्यानी अनिवार्यता जगद्गुरुनी स्तवना जगद्गुरुनी देशना ठाकरसीने जागेलो वैराग्य दीक्षानी अनुमति अंगे माता-पुत्रनो संवाद दीक्षामहोत्सव उपाध्यायजीना हाथे थयेला विविध शासनप्रभावनानां कार्यो जगद्गुरु द्वारा अकबर-प्रतिबोध उपाध्यायजी कृत वैराट देशमा प्रतिष्ठा वणजाराना उपमाने उपाध्यायजीनुं गुणवर्णन गुरुगुणगान, प्रशस्ति
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अनुसन्धान-७०
रासमांथी उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजी विषे केटलीक अतिहासिक हकीकतो पण सांपडे छे :
६ जन्म - सं. १६०१, आसो वदि-५, लालपुर; दीक्षा - सं. १६१६, वैशाख वदि-३, महेसाणा; उपाध्यायपद - सं. १६२४, फागण वदि-७, पाटण. __ पलखडी नामना गाममां आजड संघवी रहेता हता. तेमना पुत्र झींपु संघवी थया. झींपुना बे पुत्रो - १. राजसी, २. मांईउ. राजसीओ घरे घरे मोदकना थाळनी ल्हाणी करी हती. राजसीना पुत्र थिरपाल संघवी थया. ते वखतना गूर्जरपति महमूदशाहे थिरपालने बोलावीने तेना पर प्रसन्न थई लालपुर गाम बक्षीस कर्यु. तेथी थिरपाल त्यां जईने वस्यो अने सं. १५६०मां त्यां जिनालय बंधावी तपगच्छपति श्रीहेमविमलसरिजीना हाथे अमां प्रतिष्ठा, करावी. थिरपाले जीवनमां अनेक सुकृतो सेव्यां, जेमां ९५ सत्रागार-दानशाळाओनो पण समावेश थाय छे. श्रीहेमविमलसूरिजीने विनन्ती करीने मोटा उत्सवपूर्वक श्रीआनन्दविमलसूरिजीने आचार्यपदवी पण तेमणे ज अपावी हती. थिरपालने ६ पुत्रो हता : १. पोटा, २. लाला, ३. खीमा, ४. भीमा, ५. करमण, ६. धरमण. तेमां भीमाने ५ पुत्रो थया - १. हीरा, २. हरखा, ३. थिरपाल, ४. श्रीपाल, ५. तेजक. तेमां हरखाओ महेसाणा नगरना चंपक श्रेष्ठिनी पुत्री पूंजी साथे लग्न कर्यां. तेमनुं सन्तान अटले ठाकरसी - उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजी. ___ठाकरसीना जन्म पूर्वे माता पूंजीने मुखमां प्रवेश करता सिंह- तेमज मोतीओथी वधावता इन्द्रनुं स्वप्न आव्युं हतुं अने अमारिघोषणा जेवा उत्तम दोहला थया हता, जे हरखा संघवीओ पूर्ण कर्या हता.
ठाकरसीनो दीक्षामहोत्सव मोसाळमां (महेसाणा) थयो हतो. तेमना मामा सोमदत्ते खूब उत्साहथी भाणेजने दीक्षा अपावी हती.
ॐ उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजीनां रासमां वर्णित जीवनकार्यो - १. पाटणमां प्रतिष्ठा, २. मूंडासईनगरमां ब्राह्मणो साथे वादमा विजय, ३. वागडमां प्रतिष्ठा, ४. उज्जैनीना राय सोनपाल द्वारा दीक्षानी याचना, उपाध्याय द्वारा ज्ञानबळ वडे तेमनुं आयुष्य जाणीने तेमने दीक्षा अने ते साथे ज अनशन- प्रदान, नव दिवसमां सोनपाल रायनो समाधिपूर्वक स्वर्गवास, ५. मांडवगढथी वडवाण-बावनगजानो भाईजी-सिंघजी तथा तेजपाल गांधीओ काढेलो सङ्घ, ६. भानु शेठनो खांनदेशना बहनिपुरथी अन्तरिक्षजीनो सङ्घ, ७. पैठणपुरमा मठवासी संन्यासीओ साथे वादमां विजय, ८. जगद्गुरुना आदेशथी क्रमशः उज्जैन, मांडवगढ, बर्हानपुर अने
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देवगिरि (दोलताबाद) मां चातुर्मास, ९. जगद्गुरुना उत्तर भारतमां विचरण दरम्यान तेमनी आज्ञाथी श्रीविजयसेनसूरिजीना सहकारमां गुजरातना श्रीसङ्घनी सारसंभाळ, १०. वैराट देशना सङ्घपति इन्द्रराजनी जिनालय - प्रतिष्ठानी विनन्तिना जवाबमां जगद्गुरु द्वारा उपाध्यायना गुणोनी अनुमोदना, 'ओ आव्या ते अमे आव्या बराबर' अवी शीख, अने उपाध्यायने प्रतिष्ठा माटे वैराट जवानो आदेश. ११. अत्यन्त जाहोजलालीथी इन्द्रविहारनी प्रतिष्ठा रासनी रचना सं. १६५५नी आसो सुदि-५ ना दिवसे थई छे. तेथी त्यार पछीनी हकीकतो आमां न होय ते स्वाभाविक छे..
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रासना कर्ता उपाध्याय श्रीकल्याणविजयजीना ज शिष्य पण्डित श्रीजयविजयजी छे. तेओओ गणिपद-पर्यायमां आ रासनी रचना करी होवानुं रासना अन्ते आपेली पुष्पिका परथी जणाय छे. आ रास सिवाय तेओओ शोभनस्तुति पर वृत्ति, कल्पदीपिका-वृत्ति (कवि श्री ऋषभदासना श्रीहीरविजयंसूरिरासगत उल्लेखना आधारे), श्रीहीरविजयसूरि - पुण्यसज्झाय (सं. १६४२), प्राचीन तीर्थमाळा भाग - १ मां प्रकाशित समेतशिखर रास (सं. १६६४) वगेरे रचनाओ करी छे. जगद्गुरु शहेनशाह अकबर साथेनी मुलाकात वखते पोताना विशाळ शिष्यपरिवारमाथी जे १३ चूंटेला श्रमणोने साथे लई गया हता, तेमां ओक आ श्रीजयविजयजी पण हता ते वात पण तेओनी विशिष्ट प्रतिभानी द्योतक छे. आवा प्रतिभावन्त कविनी रचना होय अने रचनाना केन्द्रमां पण अनन्य प्रतिभासम्पन्न महापुरुष होय, अ रचना वांचंवा-गावा - सांभळवानो आनन्द केवो अलौकिक होय !
प्रस्तुत रास आ पूर्वे अध्यात्मज्ञान प्रसारक मण्डल, मुम्बई तरफथी सं. १९६९मां (आजथी लगभग १०३ वर्ष पूर्वे) प्रकाशित जैन औतिहासिक रासमाला भाग - १ मां मोहनलाल दलीचंद देशाई द्वारा सम्पादित थईने प्रकाशित थयेलो ज छे. पण ते वाचनामां कोई पण कारणसर अनेक गम्भीर क्षतिओ रही गई छे. तेथी समग्र वाचना हस्तप्रतना आधारे पुनः लिप्यन्तरण, सम्पादन करीने प्रगट करवी आवश्यक गणी छे.
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४८०/२५२०, पत्र
रासना लिप्यन्तरण, सम्पादनमां आधार बनेली हस्तप्रत श्रीभावनगर तपागच्छीय श्वे.मू.पू. सङ्घना ज्ञानभण्डारनी छे. प्रतक्रमाङ्क १३, महदंशे शुद्ध वाचना. प्रतनी छायाप्रति आपवा बदल श्रीसङ्घनी शेठ डोसाभाई अभेचंदनी पेढीना कार्यवाहकोनो आभार. प्रतमां कडीक्रमाङ्कोनी गरबड हती ते दूर करीने सळंग क्रमाङ्क आप्या छे ते वाचकोनी जाण सारु.
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दूहा ॥ राग देशाख ॥ सकल-सिद्धि-वर-दायको, स जयु रिखभ जिणंद । भारत-संभव-भविअ-जण-बोहण-कमल-दिणंद ॥१॥ शांति जिनेसर मनिं धरुं, शिव-कर त्रिजग-मझारि । सिद्धि-वधू वरवा भणी, वरीओ संज्यम-भार ॥२॥ राज-लछि सवे परिहरी, जीती मोह-गइंद । मुगति-रमणि-पाणिं ग्रही, नमुं ते नेमि-जिणंद ॥३॥ दुष्ट अरिष्ट हरइ सदा, करइ ते मंगल-कोडि । पास जिणेसर प्रणमसिउं, अहनिशि बइ कर जोडि ||४|| पेखि पराक्रम जेह, मृग-पति साहस-धीर । लंछन-मिसि सेवा करइ, सोइ समरु महावीर ।।५।। पंचे तीरथ जे कह्यां, जस महिमा अभिरांम । कर जोडीनई नित नमूं, जिम हुइ चिंतित काम ॥६।। अजितादिक जे जिनवरा, जित-मछर सवि जाण । ते सवि मुझ विघनां हरु, प्रणमुं केवल-नाणि ||७|| गौतम गणधर पाय नमं, तप-जप-लबधि-भंडार । रिद्धि-वृद्धि-सुख संपजइ, जस नामइ जयकार ||८|| निज-गुरु-चरण नमुं मुदा, जिम होइ वांछित-सिद्धि । करी प्रसाद मुझ ऊपरिं, ज्ञान-दृष्टि जिणिं दीध ॥९॥
॥ देशाखनी चाल ॥
ज्ञानदृष्टि मुझ दीध जेणि, प्रणमी गुरु-राय । सरसति-सामिनी वीनवू, वर दिउ मुझ माय ॥१०|| ताहरा रूप समान रूप, कुण रूप कहीजइ ।। सयल-मनोरथ-पूरणी, कुण ओपम दीजइ ॥११॥
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तुं त्रिभुवन-हित-कारणी, वर-दाइनी देवी । . पंच-अखर-मय तुझ सरूप, षट-दरशन-सेवी ॥१२॥ तुं तूठइ मानव बहू, हुआ वचन-विलास । वृद्धवादि सूरी जयो, कविता कालिदास ॥१३॥ बप्पभट्ट सूरीसरू, हेमसूरी विख्यात । सनमुख आवी तेहनइं, तूठी तूं मात ॥१४॥ बालक पुढिउं पालणि, सहू-लोक प्रसीध । तूं तुठी वर दीध तास, लघु पंडित कीध ॥१५॥ मूरख चट-नामई हूओ, मोटु दुरभागी । स्वामिनि तुझ प्रसायथी, तेहनी मति जागी ॥१६॥ सीता-नामई ब्राह्मणी, तीणिं तूं ध्याई । तुं तूठी माय तेहनइं, दीधी पंडिताई ॥१७॥ जिन-मुख-पंकज-वासिनी, माय तुं सपराणी । कर जोडी पाय नमू, दिजि अविरल-वाणि ॥१८॥ अष्ट-सिद्धि नव-निद्धि-रिद्धि, जस नामई लहीइ । सुरतरु-सुरमणि-सुरभि-कामघट-प्रापति कहीइ ।।१९।। श्रीकल्याणविजय गुरु, गुण-मणि-भंडार । तेहना गुण गायवा, मुझ हरख अपार ॥२०॥ द्वीप असंख्यमाहिं रां, नामई जंबूद्वीप । मेरु महीधर मध्य भागि, तेह तणइं समीप ॥२१।। वन अछइ मोटू सास्वतुं, तेह माहि विसुद्ध । जंबूवृक्ष जेणिं करी, जंबूद्वीप प्रसीद्ध ॥२२॥ मेरु थकी दक्षण दिसिं, लवणोदधि पासइं । भरतखेत्र भूतलि कह्यु, पुण्य-कर्म-निवास ॥२३।। तेह मध्य भू-भामिनी-तिलकोपम सोहइ । पलखडी-नामइं नयर भलुं, देखी मन मोहइ ॥२४॥
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पाडुंर (पाडउ ?) पोलि प्रकार प्रौढ, वापी आराम । निर्मल- नीर नदी वहइ, सरोवर अभिराम ॥ २५ ॥
वर - नर-रत्नइं अलंकरी, नगरी अति ओपर | पोढां जिन - मन्दिर - मालीयां, तुंग-सिखरि विलोपइ ||२६||
ठामि ठामि जिनवरतणा, ऊत्तंग प्रासाद ।
पौषध - शाला विचित्र - शाल, करइ गयणसिउं वाद ||२७||
धर्मवंत धनई आगला, श्रावक सुविचार | जिनवर - आण वहइ सदा, सुध - समकित - धार ||२८|| निखिल नगरि वसि - नारि होइ, मानव - मोह - कारी । देहिं भगवती भारती, गेहिं कमला सारी ॥२९॥ साधु - विहार सुगम जिहां, वसई बहु धनवंत । भद्रक पापभिरू सदा, लोक सहू सुखवंत ||३०|| गुरु-गुण सुणीइ एक- चिंति, मूकी अभिमान । जय जंपई भावई करी, दीजइ बहू दान ||३१|| देवगुरुनमस्कार - नगरवर्णनानी ढाल ॥
अनुसन्धान- ७०
हा ॥ राग सामेरी ॥
'कल्याण' 'कल्याण' जे को जपइ, तस घरि होइ कल्याण । कमला नित कीला करइ, जय जंपइ किल जाण ||३२||
दीपक गृह - भीतर रह्यु, करइ सवे वस्तु - वि (प्र) काश । पुत्र - दीपक अभिनव जूओ, करइ निज-वंश - प्र (वि) काश ॥३३॥ श्रीकल्याणविजय वाचक5- विभु, समता - सरिवर-हंस | अहनिशि झील रंग - भरि, करइ निज निर्मल वंस ||३४||
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॥ ढाल ॥ श्रीकल्याणविजय गुरू, जाणई जंगम सुरतरू,
सुरतरू, फलीओ मुझ घरि आंगण ए । तास तणा परीआ भणूं, निज अवतार सफल गणूं,
सफल गणूं, नाम लेई तेहणा ए ॥३५॥ परिआ एकवीस पूरवई अछइ, संघवी आजड हूओ तेह पछइ,
तेह पछइ, पुण्यतणु ते आगरु ए । सुकृत करइ निज हाथई ए, संबल लीइ निज साथई ए,
[साथई ए], हूओ बहु-सुख-सागरो ए ॥३६॥ तेह तणुं सुत गुणवंत ए, संघवी झींपु रमा-कंत ए,
कंत ए, करइ भगति देव-गुरुतणी ए । तास पुत्र दोइ गुणनिला, राजसि-मांईंउ अतिभला,
. अतिभला, जस कीरति जगमा घणी ए ॥३७॥ राजसी अति ऊदार ए, जेणि लहिण करी धाणधार* ए,
धाणधार ए, थाली मोदक घरि घरई ए । राजसी-सुत थिरपाल ए, उठ्यु दुरिततणु काल ए,
काल ए, टालइ दुरितनइं परिपरि ए ॥३८॥ एणिं अवसरि हूओ नरपति, साहि महिमूद गूजरपति,
गूजरपति, थिरपाल वेगि तेडावीयो ए । जई मिलीयो सुलतान ए, थिरपाल दीध बहूमान ए,
. बहूमान ए, रायतणई मनि भावियो ए ॥३९॥ हरख्यु निज मनि राय ए, लालपुर दीध पसाय ए, .
पसाय ए, लेई थिरपाल आविउ जवइ ए । लालपुर कीओ निवास 'ए, निज लछि करइ विलास ए,
विलास ए, दोगदिक सुर सुख अनुभवि ए ॥४०॥
★ थाणथार - जैन ऐतिहासिक रासमाला ।
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अनुसन्धान-७०
श्रीहेमविमलसूरिदेव(श)ना, सुणी निज श्रवणे एकमना,
एकमना, करइ काज ते धरमनां ए । संवत् पनरस सठई ए, करावी प्रासाद विशिष्ट ए, .
__[विशिष्ट ए], काटए कंद ते करमना ए ॥४१॥ वली गुरु-वयण हीइ धरइ, जूओ सुभ करणी किसां करइ,
किसां करइ, दानतणी मति मनि वसी ए । धिन थिरपाल-अवतार ए, मंडाव्या जेणिं सत्रुकार ए,
सत्रुकार ए, पंचाणुइ मन ऊलसी ए ॥४२॥ बीजां सुभ करणी कीधां घणां, देव-गुरु-जिनसासन तणां,
सासनतणां, नायकनइं इम वीनवइ ए । अम मनिं अति उच्छाह ए, थापु सूरी-पद जग-नाह! ए
जग-नाह ए, ए मुझ मनोरथ पूरवइ ए ॥४३।। लालपुर नयर मझार ए, धरइ ध्यान गणधार ए,
गणधार ए, श्रीहेमविमलसूरीसरू ए । नीवी-आंबिल-उपवासई ए, सूरीवर मंत्र उपासइ ए,
[उपासइ ए], धूपइ नृमान(?) कृष्णागरू ए ॥४४|| श्रीहेमविमलसूरीसरू, सयल-संघ-आनंदकरु,
__ आणंदकरु, श्रीआणंदविमलसूरी थापीया ए । ठामि ठामिना संघ मिल्या, थिरपाल सवे मनोरथ फल्या,
___ मनोरथ फल्या, तंबोल-दान बहू आपीया ए ॥४५॥ श्रीआणंदविमलसूरी जयु, जिन-सासनि सोह चडावयु,
__ [चडावयु], कुमति-कदाग्रह टालीया ए । जिणि विहार करी अप्रमत्त ए, भलुं दाखी सुधं चारित्र ए,
___ चारित्र ए, कुमत पडंत बहू वालीया ए ॥४६।। धन सुभ-खेत्रई वावरइ, थिरपाल बहू उच्छव करइ,
उछव करई, ते कहिंता नावइ छेहलो ए ।
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पूजा-प्रतिष्ठा जिनतणी, तीरथ-यात्र कीधी घणी,
कीधी घणी, दानि जाणिं वूठु मेहलु ए ॥४७|| थीरपाल-सुत आणंदला, प्रागवंसि कुले चंदला,
चंदला, खट संख्याई दीपता ए । संघपति पोटा लाला ए, खीमा भीमा सुकुमाल ए,
सुकुमाला ए, कदली-दलनइं जीपता ए ॥४८।। करमण धरमण संघपती, पुण्य-विषय ते सुभ-मती,
सुभ-मती, देव प्रसंस करइ घणी ए । तेमां भीम भीम-संकास ए, पूरइ सहू केरी आस ए,
____ आस ए, दोहिलां दुबलां जन[त?]णी ए ॥४९॥ संघवी भीमा पंच नंदना, दुस्कृत-दारिद्र-निकंदना, . निकंदना, दान करी ते सुरतरा ए । संघपति हीरा हरखा ए, थिरपाल श्रीपाल सरखा ए,
सरखा ए, तेजक-प्रमुख बंधव वरा ए ॥५०॥ अनुक्रमि ते पोढा हुआ, लेइ परणाव्या जुजूआ,
जुजूआ, थाप्या निज निज घर-धणी ए। . मात-पिता अनसन करी, लीउ वास ते सुर-पुरी,
सुर-पुरी, जिहां बहू सुख-संपति घणी ए ॥५१॥ सुगुरुतणा गुण सांभली, दीजइ दांन ते मन रुली,
मनि रुली, कीजइ भगति बहु भावसिउं ए । गुरु-चरणां नित अनुसरूं, जय जंपइ बहू सुख वरु, सुख वरु, स्वर्ग अनइं अपवर्गना ए ॥५२।।
इति परीया-वर्णनी ढाल ॥२॥
'दूहा ॥ राग रामगिरी ॥ श्रीकल्याणविजयवाचक तणु, जनमादिक वृत्तांत । पभणुं भविअण सांभलु, तनु-मन करी अकांत ॥५३।।
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अनुसन्धान-७०
सांभलतां सुख संपजई, दुरगतिनां दुख जाय । जय जंपइ भविअण सुणु, मंदिर अभरि भराय ॥५४॥ जेणि बहु पक्ख अजुआलीया, पितरि-पख्य मुहसाल । जय जंपइ भविअण सुणो, ते नमीइं त्रण-काल ॥५५॥
ढाल ॥ चुपई ॥ नयर महिसाणां ऊतम गाम, सदाइ ते धरम-करमनो ठाम । वसइ व्यवहारी तिहां धनवंत, चंपक नामई बहू गुणवंत ॥५६॥ चंपक श्रेष्ठितणी कुअरी, सोहग संघपरि(ति?) हरखइ वरी । हरखा संघपति हूओ प्रसिध, जस घरि धनद-समाणी रिधि ॥५७|| तस घरि धरणी बहू गुणवती, नामि पूंजी शीअलई सती । निज रूपइं जीती अपछरा, पति-भक्ता पति-चित्त-अनुचरा ||५८|| कोमल चंपक-वान शरीर, पहिरणि नारी-कुंजर चीर ।
ओढणी नवरंगी चूनडी, सोव्रण-चूडी माणिकि जडी ॥५९॥ . नित नवला करइ बहू सिणगार, ते कहितां नवि पा{ पार । चंद्र-वदनि मृग-नयणी भj, नव-जोवन लावण्य अतिघणुं ॥६०|| पाइं नेउर रमझम करइ, चालइ मत्त मयगलनी परि । प्रियसिउं प्रेम जी मंडइ प्राणि, गीत-नृत्य-वाजिब गुण-जाण(णि) ॥६१|| विनय-विवेक-विसुध-गुण-भरी, जाणिं कल्प-वेली अवतरी ।
देव-गुरु-भक्ति करइ उल्लसी, बोलइ वचन मरकलडइ हसी ॥६२।। प्रियसिउं प्रेमि अहनिशि रमइ, सुख-भरि काल इणीपरि गमइ । पुजी मात ऊअरिं ग्रभ धरिओ, कोइ पुण्यवंत सुर ते अवतरिओ ॥६३॥ सुख-सिज्या सुती कामिनी, देखइ सुपन ते मधि-यामिनी । वदन माहइं पइसंतु सीह, देखी जागी अकल-अबीह ॥६४॥
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ततख्यण ऊठी ते सुंदरी, देव-गुरु-नाम वदनि ऊचरी । आणंद-भरि रयणी अतिक्रमइ, पूछइ फल प्रीयनइं प्रय-समइ ॥६५।। वलतु ऊतर दीइ विचारि, होसइ पुत्र तुम्ह कुल-सिणगार(रि) । सुणी वचन मनि हरखी घj, पभणि वचन होजो तुह्मतणुं ॥६६|| जीव-अमारितणा दोहला, पूजा-दानादिक जे भला । जे जे मनि मनोरथ ऊपजइ, ते ते हरखग पूरा सजइ ॥६७|| पुंजलि देखइ वलि सुपन मझारी, आव्यो इंद्र मुझ भवनं मझारि । माय माय बोलावी जसइं, मोती-थालि वधाव्यु तिसई ॥६८॥ जाणिओ महिमा से ग्रभतणु, घरि आविउ मोटु प्राहुणु । चिंतइ तात जव पुत्र जनमसि, ठाकर नाम देईसिउं तिसइ ॥६९॥ संवत सोल एकोतर सही, आसो वदि दिन पंचमी कही । सोम सुभ-लगनई सुत जनमीओ, स्वजन-वरग सहू आणंदीओ ॥७०|| जाणिं ऊग्युं बाल-दिणंद, जाणिं मोहन-वेली-कंद । जाणिं मूरतिवंतु काम, जाणे तेजतणूं ते धाम ॥७॥ बलिकर्मादिक कीधा सवे, चंद-सूर दरशन दाखवे । छठी-जागरणि जागीया, फोफल-पान सवे जन दीया ॥७२।। तातइं उछव कीधा घणा, दीधां मंगल-वधामणां । स्वजन-वरग सहू संतोषिओ, पुत्र-नांम ठाकरसी दीओ ॥७३।। सुर-तरु-भुइं वाधि सुर-तरु, दिन दिन वाधिइ तिम कुंअरू । लख्यण बत्रीसे अंगि धरइ, तात सिखादिक सुभ-दिन करइ ।।७४|| देखी पुत्रतणुं ते तेज, मात-पितानइं अधिकुं हेज । प्रय ऊठीनइं लेई तस नाम, जय जंपइ नित करु प्रमाण (प्रणाम) ॥७५।।
.. इति जन्मनि ढाल ॥३||
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दूहा ॥ राग मारुणी ॥
ममणां वचन बोलंतडउ, गुण-मणि-रोहण-शृंग । धिन ते माता जेहनइं, पुत्र रमइ उछंगि ॥७६॥
धिन पुंजी जेणि जनमीओ, पुत्र- रयण सुचरित्र । जय जंपइ तस गुण गणी, करसिउं जनम पवित्र ॥७७॥
ठाकरसी मन-मोहिलु, लघु- वइ लीलावंत ।
मात पुढाडी पालणई, हरखई हूलावंति ॥७८॥
॥ ढाल ॥
पूत पुढाडी पालणिइं, माता पुंजी हो मनि धरइ आनंद । पूत हूलावइ हरखसिउं, भलूं निरखी हो निरमल मुखचंद |
अनुसन्धान- ७०
हालरु गाउं नंदना ॥ ७९ ॥
मनमोहन मेरो नंदनां, मेरु लाल छबीलु नंदनां । नंदनां हो नंदनां, सुखकारी मेरु नंदनां ॥८०॥ आंचली
मुझ तूठा जिनवर पाउला, भलें तूठां हो सासन - देवति माय । तूठां श्रीगोत्रज - माडली, मुझ तूठा हो गुरु के पाय । हा० ॥८१॥
धरम फल्यु जिनवरतणु, जे मई कीधु हो मुझ पुतली आस । दुलभ वदन. दीठु पुत्रनुं, मुझ सफलई हो फलीओ गृहवास । हा० ॥८२॥
कुल - दीपक कुलि चंदलु, कुल केरु हो वछ! तुं सिणगार । पुत्रनई जाऊं वारणिं, पुत्र - नांमिं हो जाऊं बलीहार । हा० ||८३||
कोडिं तुं जायु कोडामणां, माडी केरु हो जाया! तुं विश्राम । दुःख दोहिलां सवे गयां, वली पांमिउं हो मई सुख अभिराम । हा० ||८४|| गुण-निधि पुत्र! तुं जनमीई, मई पांमिउं हो सघली सनमान । हुगाई ललणा मिली, मुझ वाधिक हो जगमा बहू वान । हा० ||८५||
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पुत्र! तूं चंदन-छोडउं, भलि ऊग्यु हो कुलिं शीतल-छाहि । माता सरुपरि तइं करी, सासरीइ हो पोढा पीहरमांहि । हा० ॥८६॥ घणुं जीवु पुत्रना मातुला, हाथ-पाई हो भली कडली असू(मू)ल । पूत्र-काजि लेई आवसइ, कणदोरु हो वांकडा बहुमूल । हा० ॥८७|| भली टोपी लाल फरंग तणी, मणि-मोती हो भरी भरत अपार । तुंगल मणि-मोती-जड्यां, रंगई रुडु हो आणेसिइ हार । हा० ॥८८॥ झीणी-लाहितणां अंगलां, मामी लावे हो रुडां पुत्रने काजि । पायतणी भली मोजडी, पहिरावू हो तजनमनिं आज । हा० ॥८९|| आवसि पुत्रने मांगलां, रुडो करसिउं हो वीहवा सम-जोडि । कुल-वहू मुझ पाइं लागसइ, पुहचेसइ हो मन-वांछित कोड । हा० ॥९०।। मात-मनोरथ सवे फल्या, जब जायु हो तु कुलि अवतंस । ताततणु जस विस्तर्यु, जाया! तुंथी हो प्रगट्यु जगि वंस । हा० ॥९१।। पुत्र! पीतरीया ताहरा, तु देखी हो धरइ हरख अपार । कान्ह-क्रीडा देखी करी, जिम हरख्या हो बहू दसइ दसार । हा० ॥९२।। कमल-नयनं पुत्र निरखतां, मुझ केरुं हो मन-भमर ते लीन । दिन दिन वाधिइ नेहलु, जिम दीठइ हो जल-संचय-मीन । हा० ॥१३॥ जख्य-जख्यणि रख्या करु, करो रख्या हो माडी सीतल हेव । पुत्र जायो रे ओवारयणि, करु रख्या हो माडी षोडस देवि । हा० ॥९४|| सीहणि जायु एक सीहलु, रंगि रमती हो माता करइ कलोल । सुपुत्र जायु कुलवंतीइं, जय जंपइ हो नित होइ रंगरोल । हा० ॥९५।।
इति मातहुलावननी ढाल ॥४॥
दुहा ॥ राग केदार गुडी ॥
मनोरथ मात-पितातणां, सहित ते ठाकरसीह । दीन दीन वाधइ. दीपतु, द्वितीय चंद्र जिम लीह ॥९६॥
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७८
लालंता पालंतडां, षट वछर हूआ जाम | मात-पीता मनिं चींतवइ, पुत्र भणावुं ताम ॥ ९७||
वरस सातमई पुत्रनई, सुंदर-मति सुकुमाल । मात-पिता स - महोछवई, भणवा ठवइ नेसालि ॥९८॥
अनुसन्धान-७०
॥ ढाल ॥
पाटी खडीओ हाथि विसाला, पुत्र भणेवा जाइ रे निसाला । भूषण - भूषित तुनुं सुकुमाला, भणिदं सास्त्र मतिमान रसाला ॥९९॥
कर जोडी गुरु-सेवा कीजइ, विनय करी विद्या सवि लीजइ । विण विद्या न सोहे रूपाला, भणइं सास्त्र मतिमान [र]साला ॥ १०० ॥ आंकणी ॥ आउलि-फूल जिसा रे सुरंगा, विद्या-गंध-रहित जस अंगा ।
न लहि मान - महुत नर ठाला । भणई० ॥१०१॥
आलसवंत विद्या नवि पावइ, विण विवसा घरि संपति नावइ । न्यान संपति सवे लहि ऊजमाला । भणइं० ॥ १०२ ॥
सीउं कीजइ नर सुकुमलि (सुकुलिं) प्रसूता, विद्या - हीन नर जमि (गि) विगूता । विण विद्या नर कहीइ छाला । भणइं० || १०३ ||
नरपति पूजा लहइ निजदेसई, पंडित लहइ निजदेस - विदेसई । विद्यावंत नर नमई भूपाला | भणई० ॥ १०४ ॥
धन- हीना नर हीन न कहीइ, धन कहु कहिने निश्चल रहीइ । विद्या - हीन नर हीन सुगाला | भणई० || १०५।।
विद्यावंत नर बहू गूण भरीआ, मूरखमाहि सवे अवगुण धरीआ । विद्यावंत नर होइ सुखाला । भणइं० ||१०६||
विद्यावंत नर अमृत-वाणी, मूरख वचन बोलिउं पापिणी । पंडित पामई बहू गुण - माला | भणई० ॥ १०७॥
विण विद्या वाणिज नवि बूजइ, विद्यावंत मति सघली सूझइ । विद्यावंत नवि हींडेइ पाला । भणई० || १०८।।
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लख्यण साहित छंद तर्क विचारा, भरह पीगल ज्योतिक अलंकारा । नीत गणित अभिधान ते माला । भणई० ॥ १०९ ॥
ए कुमर ठाकरशी कहूं कुण जोडई, विद्या चउद भणी दिन थोडइ । वदनि झरइ मुगता - फल - माला | भणइं० ॥ ११०॥
कला बहुतरि कीया रे अभ्यासा, मात-पिता मनि पोहोती आसा । एणि परि वरजती सुखभरि काला । भणइं० ॥ १११ ॥
रमइ रामति कुंअर नान्हडीउ, लोक-प्रसिद्ध रंगई रस चडीउ । जय जंपइ प्रणमु त्रण काला । भणई० ॥ ११२॥
इति खसाला (नेसाला) नी ढाल ॥५॥
दूहा ॥ राग सारंग मलार ॥
भरत-खेत्रि भविअण सुणो, तीरथ दोहू महतीर । जय जंपइ एक सत्रुंजुं, बीजुं जगत्र-गुरु हीर ॥ ११३ ॥ हीरजि नांम जंपतडां, घरि हुइ धण-कण कोडि । जय कहि जंबूद्वीपमां, नही को हीर- संघोडि ॥११४॥
. जंबूद्वीप तां जोईओ, भरत - खेत्र - भूपीठ | जय जंपइ गुरु हीरजी, समवडि कोई न दीठ ॥ ११५ ॥
॥ ढाल ॥
वीरतणि पाटइं जयु, जाणि सुधरमास्वामि ललणां । हीरविजय सूरीसरु, जस महिमा अभिराम ललणां ॥ ११६ ॥
७९
हीरजी मोहन - वेलडी, जयसु मनमथ - रूप ललनां ।
जस कीरति जगमां घणी, सेव
करइ सवे भूप ललणां,
हीरजी मोहन - वेलडी ॥११७॥ आंचली ॥
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अनुसन्धान- ७०
पंच महाव्रत निरमलां, पालइ पंचाचार ललण ।
इंद्री पंच दृढ वश करी, टालइ मोह - विकार ललणां । हीर० ॥ ११८ ॥
सुमति गुपति सुधी धरइ, षट - जीवन - प्रतिपाल ललणां । पंच प्रमाद निवारीया, टालई दोष बयाल ललणां हीर० ॥११९||
च्यार कषाय ते जय करइ, मनिं वइराग उपाइ ललणां । पापतणा बंध गालीया, चारितसिउं चिंत लाइ ललणां । हीर० ॥ १२०॥
लब्धिवंत गुरु गुणनिलु, श्रुत- सायर-गंभीर ललणां ।
गुण छत्रीस अलंकर्यु, सीलांग - रथ-धर धीर ललणां । हीर० ॥ १२१।। भव-जल पडतां जीवनई, आपइ गुरु निज बाहिं ललणां । जे जन दु:ख-संतापीया, तास ते सुर-तरु-छांहिं ललणां । हीर०- ||१२२।। आगम-अरथ-रयणिं भर्यु, जाणि पूरव - गत-मर्म ललणां ।
महीअलि गुरु विचरइ सदा, भाखइ जिनवर - धर्म ललणां । हीर० ॥ १२३॥ बहु - भवना संसय हरई, कहिइ सवे सूत्र - विचार ललणां । भविक जीव प्रतिबूझवइ, तारइ बहू नर-नारि ललणां । हीर० ||१२४|| बहू -मुनि-जन-परिवारसिउं, विहार करंतां सोइ ललणां । लालपुरनयरइं समोसरइं, घरि घरि उत्सव होइ ललणां । हीर० ।।१२५।। नयर - लोक सहू सांचर्यु, वंदिवा हीर मुणिंद ललणां । जलधि-पूर जिम चालीआं, नर-नारीना वृंद ललणां । हीर० ॥ १२६॥ ठाकरसी श्रवणे सुणी, आगम श्रीगुरु हीर ललणां । वेगे वंदणि आवीओ, जिम ते मेघ महावीर ललणां । हीर० ॥ १२७॥
"
गुरु - दरसनि मनि हरखीओ, जिउं घन दीठइ मोर ललणां । हीरजीसिउं चित लाई ओ, जइसिउं चंद चकोर । हीर० ॥ १२८ ॥
त्रण प्रदख्यणा देई करी, करी उत्तरासंग ताम ललणां ।
कर जोडी विधि स्तुति भणी, करइ पंचाग - प्रमाण ( प्रणाम ? ) । हीर० ॥ १२९ ॥
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कुंअर विवेकी निरखीओ, मनिं चीतवइ गणधार ललणां । जु ए चारित्र-लछि वरइ, तु होइ गछ-सिणगार ललणां । हीर० ॥१३०॥ विनय करी गुरु वंदिआ, बइसइ उचित प्रदेस ललणां । जय जंपइ भविअण सुणो, साचु गुरु उपदेश ललणां । हीर० ॥१३१।।
इति श्रीगुरुवर्णननी ढाल ॥६।।
दूहा ॥ राग केदारू ॥
जंगम तीरथ जागतुं, जंबूद्वीपमां हीर । जय जंपइ जस नामथी, पामीजइ भव-तीर ॥१३२।। . हीरजी-वांणि सुणंतडां, दुरित पणासइ दूरि । जय जंपइ सुख संपजइ, होइ लछि भरपूर ॥१३३।। श्रीहीरविजय सूरीसरू, चारित्र-गुण-मणि-खाणि । भविक जीव प्रतिबूझवइ, देसन मीठी वाणि ॥१३४॥
॥ ढाल ॥
गुरु देसन मीठी वाणी, भव-सायर-तरीअ-समांणी । उपसम-रस केरी खाणी, एकचिंति सुणु भवि प्राणी ! ॥१३५।। भव-जलही भीम अपारो, जीव भमीओ अनंती वारो । जीवा-ज्योनि लाख चोरासी, परतेकई जोई अभ्यासी ॥१३६।। ईणि जीवई जे भव कीधा, अवतार फिरी फिरी लीधा । ज्ञानवंति कह्या नवि जाइ, जीव सुखई न बइठु किहांइ ॥१३७।। जीव पाप करइ परकाजइं, सर्व कुटंब मिली धन खाजइ । जीव परभवि सहइ बहू पीडा, कोइ विहिंचणि नावइ नीडा ॥१३८।। पिंड पापिं कीधु मिइलु, जीव भमइ अनाथ एकीलु । कोइ कहिंनु सरण न होई, जनम-मरण करइ सवि कोइ ॥१३९।।
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अनुसन्धान-७०
जिम तरूअर केरी डाला, आवी बइसइ पंखि वीआला । ऊगमते ऊठी पलाइ, कोण जाणिइ कवण दिसिं जाइ ॥१४०॥ तिम स्वजन-कुटंब घरि मिलीया, पंच दिवस एकठा मिलीया । जुजूआ सहू ऊठी जासइ, माझं माझं मूढ प्रकासइ ॥१४१।। विहडइ पुत्र-कलत्र-धन-भाई, विहडइ नहीं धरम-सगाइ । मोह-माया-ममता छांडु, प्रीति अवहिड धरमसिउं मांडउं ॥१४२॥ विषया इंद्र-जाल-समाणा, इंम बोलइ सिद्धांत पुराणा । खिणि आवइ नई खिणि जाइ, कहु तास कवण पतीजाइ ॥१४३।। सरवारथसिद्ध-निवासी, अहमेंद्र-आउ खय जासी । जुउ सागर तेत्रीस झिझइ, बीजा नर कुण वात कहीजइ ॥१४४|| . मानव-भव पामी सारो, देस आरजि-कुलिं अवतारो । छांडो मिथ्या-मति कूडी, करो तत्त्वतणी मति रूडी ॥१४५।। त्रण तत्त्व जिणेसर भाषइ, देव-गुरु-धरम सुध दाखइ । एक एक तणा भेद जाणु, दोइ-तीन-च्यारि मनि आणो ॥१४६।। अरिहंत-सिद्ध-गुण गाउ, देव-तत्त्व दोइ भेद ध्यावु । सूरी-उवझाय-सुसाहू, गुरु-तत्त्व-भेद त्रण आहू ॥१४७।। दंसण-नाण-चरित-तप कहीइ, च्यार-भेदे धरम-तत्त्व लहीइ । ए नव-पद सासनिइं सार, सर्वे धर्म-रहस्य अवतार ॥१४८॥ जिनवर दोइ पंथ प्रकासई, भविअण-चित्त-अंतर वासइ । पहिलु शुद्ध-श्रमण-पंथ भणीइ, बीजु श्रावक-मारग सुणीइ ॥१४९॥ मोह-पंक माहिं जे खूता, सही ते नर घणूं विगूता । सुध ज्ञान-दृष्टि ऊघाडउ, करु धरम-सखाई गाढउ ॥१५०॥ मणि-रयण-सोवन पावडीआं, स्तंभ सहस सोवनमइ घडिआं । जो करइ जिन-घर बहूरि को, तेहथी तप-संयम अधिको ॥१५१।।
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जुलाई - २०१६
सावद्य जोग परिहरीइ, सुध साधु-धरम रंगि वरी ।
एक दिन जो चारित्र पालइ सोइ सिव- सुख त्वरित निहालइ ॥१५२॥
दीउ दान सीअल नित पालु, निज मानव-भव अजूआलु । तप तपीइ बार प्रकारिं, भावना भव- दुक्ख निवारइ ॥ १५३॥ इति सुणी उपदेस सोभागी, ठाकरसी होइ वइरागी । संवेग-रंग बहू आया, जय जंपदं नमू तस पाया ॥ १५४ ॥ इति गुरु-उपदेसनी ढाल ||७||
हा ॥ राग वइराडी ॥
दुक्ख - दावानल भय-करु, भव-काननई अपार । भंमइ जीव तिहां एकलु, कर्म-वसि पड्यु गमार ॥१५५॥
निश्चयइ सही ए जीवनई, पुण्य निं पाप सखाइ । पर-भवि हींडइ एकलु, बंधव केडि न जाइ ॥१५६॥ जे दुख भव-संबंधियां, सुख जे मुगति-निवास । जीव एकेलो भोगवई, स्वजनतणी कुण आस ॥१५७॥
॥ ढाल ॥
ठाकरकुंअर वइरागीओ, निज चितनई समझावइ रे । ए संसार असार पदारथ, अथिरपणि चित भावइ रे,
८३
ठाकर कुंअर वइरागियो || १५८ || आंचली ॥
जन्म-जरा-दुःख- पार न लहीइ, एह संसार किलेसो रे । राग-मरण-भय साथइं वहीइं, जिहां सुख नहीं लव- लेसो रे । ठाक० ॥१५९॥
खड्ग-पंजर माहिं जीव रमंतो, चतुरंग चमूं परवरीयो रे ।
रंकतणी परि ताणी लीज़इ, ज्यम किंकरि कर धरियो रे । ठाक० ॥ १६०॥
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अनुसन्धान-७०
चंचल तनु-धन-ज्योवन-जीवित-जुवतिजन-सुख-भोगा रे । मात-पिता-बंधन-स्वजनादिक, चंचल सवे संज्योगा रे । ठाक० ॥१६१।। कवण मात-पिता कुण बंधव, स्वजन-कुटंब-परिवार(रु) रे ।। जनमि जनमि बहू सगपण कीधां, सरण नहीं कोई ताहरु रे । ठाक० ॥१६२।। म म जांणिसिउं प्राणी! मनसीउं, पुत्र-कलत्र सुखदाई रे । . . निवड-बंधन तुं जाणे जीवन!, स्वजन-कुटंब भिण भाई रे । ठाक० ॥१६३।। सुर-सुख खीणां होवइ जीवन!, नर-सुखनी कुण वात रे । इंद्र-चंद्रादिक चवता दीसि, ए जिन-वात विख्यात रे । ठाक० ॥१६४।। धिन अहिमंता( अइमुत्ता )दिक जे मुनिवर, मोह-बंधन दूर कीधां रे । तप-संज्यम निरमल आराधी, अनंत शिव-सुख लीधां रे । ठाक० ॥१६५।। देह असुचि-मल-कृमि-कुल-मंदिर, अभ्र-पटल परि छीजइ रे । सार एतलूं जीव! देह जि मांहि, सोहन धरम करीजइ रे । ठाक० ॥१६६।। कर जोडी कुंअर एम बोलइ, मुझ मिलीओ गुरु न्यानी रे । हुं भव-भयथी बीहनो मागुं, द्यु दीख्या कल्याणी रे । ठाक० ॥१६७॥ एह वयण सुणी सुगुरु पयंपइ, वछ! एक वात सुणीजइ रे । जिण-वाणी इंणी परि बोलइ, धर्मि विलं[ब] न कीजइ रे । ठाक० ॥१६८।। श्रीगुरु-वयण सुणी इंम विनवइ, तां तुहो रहु गणधारी रे । मात-पिता तणी अनुमति लावू, जय जंपइ सुखकारी रे । ठाक० ॥१६९।।
॥ इति वइरागनी ढाल ॥
दूहा ॥ राग असावरी ॥ चरण-मनोरथ चीतवी, आवइ मात-समीप । कर जोडीनई वीनवइ, ठाकरसी कुल-दीप ॥१७०॥ चुगतिनां दुख अनुभव्यां, वार अनंत अनंत । न्यानवंत नर जु कहइ, तुहि न आवइ अंत ॥१७१।।
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जुलाई - २०१६
हुं भव- भयथी ऊसनु, वदइ वचन सुकुमार । अनुमति ह्युं मुझ वा (मा) तजी, वरीइ संज्यम - नारि ॥ १७२ ॥
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॥ ढाल ॥
कुअर ठाकरसी कहइ कर जोडी, प्रणमी जननी - पाय । मनि वइराग धरि तव बोलइ, अनुमति द्यु मुझ माय,
रे माडी! लेसिउं संज्यमसार इम जाणिउं अथिर संसार, जेणि लहीइ भव - जल - पार रे माडी० ॥ १७३॥ आंचली ॥ अनिष्ट वचन जव माई रे सांभलीयां, सुंदरि तनुं सुकुमाल । पुत्रतणई दुखि अति मूरछाणी, भूइं ट (ढ) ली ततकाल ।
रे जीवन ! संयम - विष अपार राखेवु सुध आचार, जीपेवु मोह - विकार रे ॥१७४॥ आंचली ॥ नयण नीर भरंती रे बोलइ, सुणि तुं मोरा रे पूत! । एक ज एक तुं निधी रे समाणु, वल्लभ जीवितभूत रे । जीवन० ॥१७५॥
ऊंबर-कुसुमतणी परि दुलहो, जाया तुं सुख - दाई ।
निश्चय तुझ विण रहीअ न सकाइ, तुझ विण घडीअ न जाइ रे । जीवन० ॥ १७६ ॥
जां अह्मो जीवु ता तूं रे जाया !, भोगविनां सुख भोग ।
अह्मनई सुर-सुख लीधा रे पूठई, भेजे तूं तप- ज्योग रे । जीवन० ॥१७७॥
I
वयण सुणी कुंअर माय केरां, पभणि सुणि मोरी मात! | कांम - भोग ए मानव केरा, असुचि अध्रुव खिण - पात रे । माडी० ॥१७८॥ अस्थिर जीवित मानवनां ए, आऊ ते खि[ण] खि[ण] जाय । कवण पहिलुं कुण पछइ रे चवेसइ, ति निश्चय ते न जणाय रे । माडी० ॥ १७९ ॥
वलतुं रे मात भणि सुणि जाया!, मोटां महा रे निधान
परियागत मणि-सोव्रण केरां, भोगविनां दइ दान रे । जीवन० ॥ १८० ॥
सुंदर गुख सचित्र पटसाला, अति ऊंचा रे आवास ।
पुत्र विना मुझनई प्रतिभासइं, ते सवे दुःख - निवास रे । जीवन० ॥१८२॥
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अनुसन्धान-७०
कुंअर भणिं महा-निधि-मणि-मंदिर, सुणीनइं असास्वतां तेह । चोर-अगनि-जल-नृपति-दायादिक, तास आयत कह्यां जेह रे । माडी० ॥१८२।। दस मसवाडा उअरिं धरीओ, प्रसवतणां दुख दीठ । पूतर पोसी कूजर कीधउ, हवि हुं हुई अरिष्ट रे । जीवन० ॥१८३॥ मोटइ मनोरथि मि तु रे जायु, धोया बहू मल-मूत । जाणिउं वडपणि विनय वहेसइ, राखेसे घर-सुत रे । जीवन० ॥१८४|| मात ऊवेखी जोय(व)न वीरिं, चारित्र ते नवि लीध । तुं मनिं मोह न आणिं रे मानो, ए तुझ कुणिं मति दीध रे । जीवन० ॥१८५॥ कुंवर थावच्चई दीख्या रे लीधी, मूंकी जणणी-मोह । जोनई वइरकुंअर लेई दीख्या, कुलनई चडाविओ सोह रे । माडी० ॥१८६॥ पाइं अणुहाणि विहार करेवा, करवा लोच समूल । दुर्धर पंच महाव्रत धरवां, परिसह महा-प्रतिकूल रे । जीवन० ॥१८७।। भूख-त्रिषा-सित-ताप सहेवा, भूतलि सयन करेवु । मीण-दसनि लोह-जव रे च्छोलेवा, बाहिं जलधि तरेवु रे । जीवन० ॥१८८॥ खड्ग-धार ऊपरि चालवू, वछ! तूं लघ-वइ बाल । वेलूं-कवल-समागूं रे संज्यम, पीवी हूतासन-झाल रे । जीवन० ॥१८९॥ कुंअर भणि सुणि कायर-नरनइं, चारित्र दुःकर जोई । जे परलोकतणा अभिलाषी, तास अनंत सुख होई रे । माडी० ॥१९०|| पुत्रतणुं मन नीश्चल जाणी, माता दिइ रे आदेस । जय जंपइ उत्सव दीख्यानां, ते हुं भावई भणेस रे । माडी० ॥१९१।।
इति अनुमतिनी ढाल ॥९॥
दूहा ॥ राग गुडी ॥
श्रीहीरविजयसूरीसरु, महि-मंडलि विचरंति । नयर महिसाणि सांचर्या, देखी लाभ अनंत(ति) ॥१९२।।
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जुलाई-२०१६
ठाकरसी मनि हरखीओ, पामी अनुमति आज । महिसाणिं मामा भणी, आवई मिलवा काजि ॥१९३।। महिसाणा-पुर-मंडणु, चंपकसाह सुजाण । साह-सोमदत दीख्यातणा, उछव करइ मंडाण ॥१९४।।
॥ ढाल ॥
संवेग-रसई संपूरु, दीख्या लेवा घन सूरु । तव सीहतणी परि कीधी, मोकलामण सवे जन दीधी ॥१९५।। वडूओ साह चंपक धीर, संसारदे घरणी गंभीर । . पुत्र दोइ वर धींग-सखाई, साह सोमदत्त-भीमजी सवाई ॥१९६।। धिन मामु सोमदत्त-नांम, करइ आदरसिउं सवे काम । वित वावइ अनोपम ठाण, करइ उछव भलइ मंडाणिइं ॥१९७।। महिसाणुं नयर सोहावइ, बहु नयर तणा लोक आवेइ । घरि घरि बहू उछव बाजइ, सुरपुरथी अधिक विराजइ ॥१९८।। सवे सजन मिली न्हवरावइ, ठाकर देखी सुख पावइ । पहिरावइ सवि सिणगार, सिर खूप रच्यु मनोहार ॥१९९।। कांनइ दोइ तूंगल दीपइ, जाणूं रवि-ससीअर जीपइ । ओपइ सिर तिलक विसाला, तंबोल भरे दोइ गाला ॥२००।। उरवर नव हार सोहावई, अंगि अंगिया लाल बनावइ । बांहिं दोइ बाजूबंधा, धरइ कुसुम-माल सुभ-गंधा ।।२०१।। कर-संपुट सिरिफल सोहइ, वरघोडे सब जग मोहइ । सब-जनकुं तिलक करीजइ, साजनकुं सिरिफल दीजइ ॥२०२।। ततख्यण बहू वाजिन वाजइ, प्रतिछंदइ अंबरु गाजइ । वाजइ तव ढोल-नीसाणा, बहू-थोकई करति पयाणा ॥२०३।।
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८८
अनुसन्धान-७०
वाजई पंच-सबद नफेरी, वाजइ बहू भूगल-भेरी । वाजइ मादल-सुरवीणा, गावति गुण गंध्रव लीणा ॥२०४।। बंदीजन कीरति बोलइ. नही को ठाकरसी-तोलइ ।' रूपई करी मयण-समान, देतु मणि-सोव्रण-दान ॥२०५।। 'जय जय' जंपति जन-वृंदा, 'चिर जीव तुं हर्षा-नंदा' । ससि-वयणी सुंदरी सरिखी, दीइ धवल-मंगल मनि हरखी ॥२०६।। धिन पुंजी रयण-सुत जायु, रंगई मणि-मोती वधायु । संवत सोल-सोल वैशाखी, वदि त्रीज दिवसि सहू सखी ॥२०७।। आवी सवे परिजन साथई, लीइ चारित्र हीरजी-हाथई । रूहूं कल्याणविजय नाम दीध, सही सकल मनोरथ सीध ॥२०८।। सहू लोकतणा वृंद जोवइ, सवे सजन नयण भरी रोवइ । आसीस दीइ वडी-आई, चिर पाले चरण सुख-दाई ॥२०९।। सुभ-ज्ञान-गजि तव चडीओ, सील-सबल-सनाह-दृढ-द्रढीओ । सुभ-ध्यान-खडग कर कीधु, संवेग-खेटक वर लीधु ॥२१०॥ गुरु-आण धरइ सिर-टोप, जीपइं क्रूर करम सकोप । . विचरइ गुरुहीर समीपई, जय जंपति पाप न छीपइ ॥२११।।
इति दीक्षानी ढाल ॥१०॥
दूहा ॥ राग मारुणी ॥ जुगतिं जोग वही सवे, कल्याणविजय मन-रंगि । दिन थोडइ बुद्धइं करी, भणीआं अंग-उपांग ॥२१२।। लक्षण-वेद-पुराण-मुखि, तर्क-छंद-सुविचार । चिंतामणि-प्रमुखा सवे, ग्रंथ भण्या तेणि वार ॥२१३|| संवत सोल चुवीसए, फागुण वदि थिर कीध । सातमि पाटण नयरमां, वाचक-पद गुरु दीध ॥२१४।।
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जुलाई-२०१६
॥ ढाल ॥
श्रीकल्याणविजय ऊवझाय, प्रणमई सुर-नर पाय । सुमति-गुपति-अलंकरीओ, ज्ञानादिक गुणे भरीओ ॥२१५|| अमृत-वाणी वखाण, सुभग-सिरोमणी जाण । आगम-अरथ प्रकासइ, भविअण-मनिं प्रतिभासइ ॥२१६।। लबधि गौतम-तोलइ, जस कीरति सहू बोलइ । जुओ उग्र-तप उग्र-विहारी, तारइ बहू नर-नारी ॥२१७॥ खंभाइत-अमदावादसहिरिं, दीइं उपदेस बहू नयरिं । पाटण नयर प्रसीध, बिब-प्रतिष्ठा ए कीध ॥२१८॥ . पोसह-सामाई-पडिकमणां, तप-जप-उपधान-ऊजमणां । सील-समकित-व्रत दीजइ, लाभ ते अतिघणा लीजइ ॥२१९।। वागड-मालव देस, श्रीपूज्य दीध आदेस । नयर मूंडासइए आदी, जीत्यु विप्रसिउं वाद ॥२२०।। वागडदेसइ सांचरीया, प्रणम्या देव आतरीआ । कीकारटू देसदाणी(?), श्रवणिं सुणी गुरु-वाणी ॥२२१।। श्रीजिनप्रसाद रचावइ, बिब-प्रतिष्ठा ए करावइ । देस जिमाडी रंगरोल, ऊपरि मुदा फरी तंबोल ॥२२२।। अनुक्रमई ऊजेणी पहूता, भागा सवे कुमती अछूता । पूरव पंथ अजूवालइ, कुमत पड्या बहू वालइ ॥२२३।। कीध उ[जेणी चुमास, पूरइ सवे संघतणी आस । मगसी यात्राइ संचलीया, संघ बहू देसना मिलीया ॥२२४|| धनइं करी धनद-समान, राय सोनपाल बहू-ज्ञान । वित वावइ सुभ-टाणइ, पूजइ गुरु सोव्रण-नाणइं ॥२२५।। करइ वली संघ-वाछल्ल्य, काढइ दुरितनां सल्ल्य । जलेबीइं त्रण जमणवार, जिमइ बार बार मानव हजार ॥२२६।।
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अनुसन्धान-७०
वीनवइ सोनपाल राय, प्रणमी गुरुतणा पाय ।। भवोदधि-तरिअनई सरिखी, दीख्या मागइ ए हरखी ॥२२७।। आयु-बल जोवइ मुनी-राय, आवइ ऊजेणीअ ठाय । दीख्या अनंशन दीध, नाथुजीइं उछव कीध ॥२२८॥ नव दिन अनशन पालइ, देवतणा सुख भालइ । सोहइ मांडवी मंडाण, कर्यु एकथी(?) पामइ वखाण ॥२२९।। मालवदेसमां विवेक, होवइ लाभ अनेक । नर-नारी गुण गावई, श्रावक भावना भावइ ॥२३०॥ सारंगपुरादिक खेत्र, श्रीगुरु कीध पवित्र । मंडपाचल महादुरग, जाणि अभिनवो स्वरग ॥२३१।। सुगुरु चुमासइए पधारइ, मंडपाचलदुर्ग मजारइ । कुण कुण सामहीयां कहीइ, कहिता पार न लहीइ ॥२३२।। भाइजी-सिंघजी ए जोडी, गंधी तेजपाल मती पोढी । यात्रा करावइ वडवाण, बिंब गज बावन प्रमाण ॥२३३॥ . खांनदेस केरुं ललाम, बरहानपुर पुर सूर-धाम । उवझाय रह्या चुमासिइ, यात्रा तणा फल प्रकासइ ॥२३४|| ततख्यण उठइ धनवंत, बोलइ भानुं सेठ महंत । धु मुझ वांसइए हाथ, संघ लेई आवू हुं साथ ॥२३५।। संघ सजाईई सांचरीओ, जाणई ऊलटीओ ए दरीओ । अंतरीख पास जूहारई, सफल करइ अवतार[इ] ॥२३६।। उवझाय निज-मनि उलसीया, देवगिरि चुमासइ वसीया । पुर पइठाण सुणी वात, जिहां मालातीरथ विख्यात ॥२३७।। चालइ गुरु तीरथ वंदेवा, जाणिं सुभ जस लेवा । जिहां मठ-वासी संन्यासी, जेणि बहू विद्या-अभ्यासी ॥२३८।।
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जुलाई-२०१६
बोलइ गुरु तेहसिउं प्रमाण, थापइ सासन सुजाण । उवझाय तीरथ वंदिइ, जय वरी आव्या आणंदई ॥२३९॥
ढाल ॥११॥
दूहा ॥ राग देशाख ॥ श्रीअकबर आलिम-धणी, जूवु अति-दुरवार । अह्म तेथु छइ तेहतj, एह वात निरधार ॥२४०॥ जाएवं अकबर भणी, ए अह्म निश्चइ आज । करि ऊतावलि आवजो, जु तुह्म मिलवा काजि ॥२४१|| लेख लिख्यु गुरु हीरनु, देखी श्रीकल्याण । जई सादडी गुरु वंदिया, कीध ते वचन प्रमाण ॥२४२।।
॥ ढाल ॥
भेट्या रे श्रीगुरुनइं उवज्झाय, ततख्यण हिअडलइ हरख न माय । नेह जिसठ दोइ सायर-चंद, तिम गुरु हीरजी-कल्याण मुणींद ॥२४३॥ सार सीखामण देई विसेस, थाप्या रे उवझाय गुर्जर-देस । श्रीविजयसेनसूरींद सुजाण, धरजो रे तास तणी सिर आण ॥२४४।। मिलीअ भली परई करजो रे काज, जिम वाधइ गछ केरी रे लाज । देई सीख तव कीध पयाण, चालइ रे गछपति मोटइ मंडाण ॥२४५।। पुहता रे सीकरी सयर मझार, मिलीआ रे अकबरनइं गणधार । बयसीनइं गोष्ठि करइ एक ठाम, कहि कुण धरम जु हइ अभिरांम ॥२४६।। बोलइ रे श्रीगुरु मधुरी ए वाणी, बूझो करी सब एकी ज प्राणी ।
खयर महिर ऊपरत न कोई, दिल पाकीवई धरम ज होइ ॥२४७॥ रंज्यु रे नरपति दीइ बहुमान, श्रीगुरु प्रणमी करइ गुण-गान । षटमासी तव दीध अमार, नाम जगत्त्रगुरु अति ऊदार ॥२४८।।
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अनुसन्धान-७०
गाय-बलद-भिंस कोउ न मारई, इनु बातई सोंगंध हमारइ । सेजा तिरथ सोउ तुह्म दीना, पेसकसी पुस्तक भी कीना ॥२४९।। करी फुरमान दीइ ततकाल, श्रीगुरु-आण वहइ निज-भाल । विनय कीरी बुलावइ सूरीस, दिन दिन बोधइ रे अधिक जगीस ॥२५०|| अकबर सीख ले(दे)ई जव वलीया, मन केरा मनोरथ सवे फलीया । श्रीपूज्य विहार करंता रे आवइ, नागुर नयर चुमासुं सुहावई ॥२५१॥ श्रीकल्याणविजय गुण-धीर, सनमुख जई प्रणमई गुरु हीर । भाव धरी रहइ श्रीगुरु-संगई, भगतइं सेव करइ मन-रंगिं ॥२५२॥ इणि अवसरि संघ-पती इंद्रराज, करइ विनती आवइ गुरु-राज । जिन-मुरति-प्रासाद कराया, कीजइ प्रतिष्ठा रे गछपति-राया ॥२५३।।
॥ इति श्रीहीरवीजयसूरि-अकबरप्रतिबोधनु ढाल ॥१२॥
____दूहा ॥ राग गुडी ॥ करवा प्रतिष्ठा जिनतणी, अह्मे आव्यु नवि जाय । पभणइं जगत्त्र-गुरु हीरजी, मोकलसिउं उवझाय ॥२५४॥ श्रीकल्याणविजय वाचकतणा, गुण जंपइ सूरीस । "एणि आवई अह्मे आवीया, ए जगि महा-मुनीस" ॥२५५।। देई आदेस चलावीया, श्रीउवझाय वइराट । करि सुप्रतिष्ठा आवजो, वेगि करी मुनिराट ॥२५६।।
॥ ढाल ॥
प्रणमी गुरु-पाय, श्रीकल्याणविजय उवझाय ।। चालइ चमकंतु, जिम गज-गति गज-राय ॥२५७॥ अतिशय महिमा करि, करतु खेम-कल्याण । रचतु महिमावन, लावन तणु रे निहाण ॥२५८।।
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जुलाई-२०१६
अनुक्रमिं संपूहतु, कहतु धरम-विचार । वइराट नयर-वर, दीर्छ नयणे ऊदार ॥२५९।। प्राकार-सुमंडित, कोटी-ध्वज-आवास । लक्खेसरि-लक्षित, बहू-व्यवहारि-निवास ॥२६०।। जिन-धरमई भावित, लीला-भोग-पुरिंद्र । भय-रहित विवेकी, वसइ लोकना वृंद ॥२६१।। जिन-भवन स-तोरण, भविअण-जन-विश्राम । कूआ-वावी-सरोवर-वाडी-वन अभिराम ॥२६२॥ जांणइं भू-भामिनी-भालई तिलक-समान । दीसे बहू सोभा-भासुर सुर-पुर-वान ॥२६३।। तिहां वसइ व्यवहारी, राज-मान रिधिवंत । संघ-पति भारहमल, सुत इंद्रराज पुण्यवंत ॥२६४।। गुरु-आगम निसुणी, हरख्यु मनि इंद्रराज । सामहीआं सपरेइं, करइ अतिघणइं दवाज ॥२६५।। बह सोभा नयरइं, देई आदेस करावइ । दर्पणमय तोरण, घरि घरि गुडीअ बंधावई ॥२६६।। सा बाला सोहइं, जाणइं देव-कुमार । बहू गज अलंकरीया, पाखरीया गति-सार ॥२६७|| नेजा बहू भातइं, राज-वाहण रथ कीध । बहु-सोहग सुंदरी, करि भंगार सुलीध ॥२६८।। केई हय-गय चडीया, करभ चड्या नर केवि । एक पालखि बइठा, बइठ सुखासन केवि ॥२६९।। वहिलई एक बइंठा, घम घम घूघर-माल । चकडोल एक बइठा, एक हीडइ नर पाला ॥२७०॥
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अनुसन्धान-७०
बोलइ बिरुदाली, भोजकनां बहू वृंद । गंध्रव गुण गावइ, नाटक नव नव छंद ॥२७१।। गाजइ गयणंगणि, मादलना धोंकार । पंच शबदां बाजई, भेरीतणा भेंकार ॥२७२।। सुरणाई नफेरी, वाजइ ढोल नीसाण । रणझणती कंसालां, भुंगल-नाद वखाण ॥२७३।। मणि-सोअण-भूषण-भूषित-तनुं सुकुमाल । सहि वदीइं मंगल, कोकिल-कंठी रसाल ॥२७४।। केई चडीया पाला, नर-नारीना वृंद । गुरु-वदन निहालइ, पूरु पुंनिमं चंद ॥२७५।। गुरु महीमा-मंदीर, कीधु नगर-प्रवेश । दिन दिन अति उछव, होवई नयर विसेस ॥२७६॥ मंडप बहू रचीया, जाणइं इंद्र-विमान । जल-जात्र-आडंबर, करइ सुर-नर गुण-गान ॥२७७॥ सुभ-दिन सुभ-लगनि, थापि इंद्र-विहार । श्रीविमल जिणेसर, मूल-नायक जयकार ॥२७८।। संघपति भारहमल, नामइं पास जिणंद । अजयराज अनोपम, पूजु पढम जिणंद ॥२७९।। छजू संघविण सुखकर, मुनिसुव्रत जिनदेवो । सुभ मुहुरत संठविय, सुर-नर करइ नित सेवो ॥२८०॥ वाचक-मुकता-मणि, श्रीकल्याणविजय उवझाय । करि हरखई प्रतिष्ठा, इंद्रादिक गुण गाय ॥२८१॥ इंद्र-विहार अनोपम, दीठइ हुइ आणंद । जाणइ इंद्र-भचनथी, अवतरीओ सुख-कंद ॥२८२।।
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जुलाई - २०१६
धिन धिन अवतारो, धिन इंद्रराज तोरु नाम । लछि
- लाहु जि लीधु, कीध अनोपम कांम ॥ २८३॥ संघ - भगति भली परि, करइ संघ- पति इंद्रराज । पट-कूल पहिरावइ, दीजइ भूषण सुभ-काज ॥२८४|| जाचक - जन मिलिया, संख्या सहस दस कीध । पंचामृत भोजन, टंका उपरि दोइ दीध ॥ २८५ ॥ श्रीकल्याणविजय गुरु, विचरइ जगि जयवंत । देसाउर फलीया, हूआ लाभ अनंत ॥२८६॥
इति श्रीकल्याणविजयवाचककृत वइराटप्रतिष्ठानु ढाल ||१३||
हा ॥ राग केदारो ॥
मोटों ओ जगि व्यापारीओ, कल्याणविजय मुनि - सीह । विवहार - सुधि वाणिज करइ, धरम न लोपइ लीह ॥ २८७॥
पंच महाव्रत सुध धरइ, नामई लेखइ जोइ ।
देस देस वाणिज करइ,
लाभ सवे गांठई करी, लेई बालद गूजर भणी,
पणि कहुं खोट न होइ ॥ २८८ ॥
-क्रियाण |
वणजी पुण्य - आवइ गुरु कल्याण ॥२८९॥
॥ ढाल ॥
विणजारा हो विणजारा, तई कीधउ सफल अवतार । कल्याणजी मोहनगारा, जगि साचो तुं विणजारा ॥
९५
विणजारा हो विणजारा ॥ २९०॥
श्रीकल्याणविजय धनवंतो, करइ वाणिज परिघल - चितो । विणज्यां सवि सुकृत-क्रियाणां वाचक- गुण मोती - दाणां ॥ विण० ॥२९१॥
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अनुसन्धान-७०
सिद्धांत-कोस वसि करीउ, नव-तत्त्व महा - मणि भरीउ । aणजीजइ साहस - धीरा, ज्ञान- दर्शन - चारित्र - हीरा । विण० ॥ २९२ ॥
सुविहित- गुण रयणे भरीआ, रथ सहस अढार जोतरीआ । चरण - करण- सुवर्ण समेटी, भरी लब्धि अठावीस पेटी ॥ विण० ॥ २९३॥
पंच संवर सार नगीना, अष्ट-जोग क्रिआणक लीना । नव ब्रहम - गुप्ति कस्तूरी, सुभ-लेस्या तेजमतूरी || विण० ||२९४ ॥
पंच सुमति - गुपति भरी खंडा, वीस थानक अगरू - करंडा । यति-धरम बावना-चंदनां, भरीआं बहू हरखा - नंदनां ॥ विण० ॥ २९५॥ बार भावना साकर- धूनी, बार भेदई भरी तप- गुणी ।
समकित सुध - गुल ग्रहीजइ, पंचाचार पोठ भरी लीजइ ॥ विण० ॥ २९६॥
सतरभेद संज्यम घनसारा, भरीआ बहू पोठी भारा ।
वेयावच दस कापड-तंगी, धरम-ध्यान केसर बहू - रंगी || विण० ॥२९७||
पचखाण दसे लाल तंबू, नवि भेदि मिथ्या-मति अंबू ।
षट आवश्यक मीठाई, दसविध सुख सबल भुंजाई ॥ विण० ॥ २९८॥
समता वणजारी संगइ, सुख-सेजिं रमइ मन - रंगई ।
मनभावइ करत पयाणा, वाजइ सज्झाय बहु नीसाणा || विण० ॥२९९॥ परिवार सबल मुनि धोरी, गुण गावइ अहनिशि गोरी । श्रीकल्याणविजय मुनि - राया, गूजर धरइ ठावइ पाया || विण० ॥ ३००॥
आयु षट - जीवन - प्रतिपाला, हूआ बहू पुण्य-सुगाला । वंद हीरर-चरण- अरविंदा, जय जंपर परमाणंदा || विण० ||३०१ ||
इति वणजारानी ढाल ||१४||
दूहा ॥ राग धन्यासी ॥
कल्याणजी गुरु वंदतां, लहीइ कांचन - कोडि । जय जंपइ प्रय ऊगतइ, वांदु बइ कर जोडि ||३०२||
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जुलाई-२०१६
कल्याणविजय कलपतरु, महीअलि मोहनगार । जय जंपइ भविअण सुणो, वांछित-फल-दातार ॥३०३।। कमनीय नाम कल्याणर्नु, जे मन-सुधइं ध्याइ । जय जंपइ तस सुख घणा, कमला घरि थिर थाइ ॥३०४॥
॥ ढाल ॥
साधु-शिरोमणि वंदीइ, श्रीकल्याणविजय उवझाय रे । ' दरशनि दुरित सवे टलइ, नामइं नव निधि थाय रे ॥३०५।। साधु-सिरोमनि वंदिइ, जस महिमा अभिराम रे । पुण्य-संजोगइ पामीओ, कल्याणजी रूडुं नाम रे सा० ॥३०६।। मूरती मोहनवेलडी, दीवड(दीठ)इ होइ आणंद रे । तप-गछ-गयणि सोहाकरु, वदन अनोपम चंद रे ॥ सा० ॥३०७|| सुर-तरु जिम वांछित दीइ, तिम गुरु-नाम प्रभाव रे । देस-विदेसई दीपतु, भव-जल-तारण-नाव रे ॥ सा० ॥३०८॥ जस घरि गुरु पगलां ठवइ, तस घरि फली सुर-वेल रे । कामकुंभ-चिंतामणि, वही आव्यां रंगि रेल रे ॥ सा० ॥३०९।। रोहण जिम रयणे भर्यु, सुरि भरिओ सुर-लोय रे । जल-निधि जीम जल-पूरीउ, तिम गुणे करी गुरु जोय रे ॥ सा० ॥३१०॥ गंगा-जलथी निरमला, तुह्म गुण-मणि उदार रे । सुर-गुरु जो संख्या करई, तुहे न पामइं पार रे ॥ सा० ॥३११॥ सुर-पति-सुर-गणमां रघु, ग्रह-गणमां जिम चंद रे । तिम संघ माहि कल्याणजी, बइठु सोहइ मुणिंद रे ॥ सा० ॥३१२॥ श्रीहीरविजय सूरी-राजीओ, कलि-युगि जुगह-प्रधान रे ।। साहि अकबर जिणें बूझवी, दीधुं जीव-अभय-दान रे ॥ सा० ॥३१३।।
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९८
अनुसन्धान-७०
जस पटि जेसंघजी जयु, गौतम-सम प्रतिरूप रे । प्रगट्यो सवाई-हीरलु, परिखीओ अकबर-भूप रे ॥ सा० ॥३१४।। हीरजी-सीस जगि-वल्लहो, श्रीकल्याणविजय गुण-गेह रे । वाचक-राय मई गाईओ, जंगम तीरथ एह रे ॥ सा० ॥३१५।। जव लगइं सेस मही धरई, जां सुर-गिरि थीर थाय रे । . . जां रवि-ससि-ग्रह-गण तपइ, तां प्रतिष मुनि-राय रे ॥ सा० ॥३१६।। संवत सोल पंचावना, वत्सर आसो मास रे । शुद्ध पख्य पंचमी दीने, रचीओ अनोपम रास रे ॥ सा० ॥३१७|| जगि जयवंता कल्याणजी, पूरा मनह जगीस रे । सेवा चलण-कमल तणी, मागइ जयविजय सीस रे ॥ सा० ॥३१८।। भणइं गुणई जि सांभलिं, गुरु-गुण एक-चित्त जाण रे । वांछित सवे सुख अनुभवइ, पांमइ ते कोडि कल्याण रे ॥ सा० ॥३१९।।
इति महोपाध्याय श्रीकल्याणविजयगणीनां रासः । कृतो गणिजयविजयेन चिरं नंदतु सदैव ।
अल्पपरिचित शब्दोना अर्थ
कडी शब्द
__ अर्थ १ बोहण प्रतिबोध
मिसि बहाने मछर मात्सर्य लघु शीघ्रपणे सपराणी पाडउ(?) महोल्लो
पोलि पोळ, द्वार २६ ओपइ शोभे छे २६ पोढां प्रौढ, विशाळ
कडी शब्द अर्थ २६ मालीयां माळवाळा २६ विलोपड़ झांखा पाडे छे २९ वसिनारि वेश्या ३२ कीला क्रीडा ३५ परीआ पर्याय, वंशज
संबल भातुं ३७ रमाकंत . लक्ष्मीवंत | ३८ लहिण | ३८ धाणधार प्रदेश- नाम( ?)
श्रेष्ठ
२५
ल्हाणी
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जुलाई-२०१६
file 13 3 3 38
४७
पोरवाड
९२
कडी शब्द अर्थ
कडी शब्द अर्थ ३८ परिपरि विविध रीते | ८३ कोडामणां अभिलाषाने पूरी ४० जवड़ जलदीथी
करनारो दोगंदिक एक महद्धिक देवजाति | ८५ हुगाइं ? किसां केवी
सरुपरि सर्वोपरी सत्रुकार सदाव्रत-सत्रागार
८७ कडली हाथना कांडानुं एक नृमान
आभूषण छेहलो छेडो-छल्लो
कणदोरु कंदोरो जाणि
फरंग जाणे
फिरंगी जेवी प्रागवंसि
तुंगल कुंडल जेवो
लाहि संकास
कापडनो एक
प्रकार(?) ५२ मनि रुली मनना उमंगथी
तनुजनम पुत्र ५२ अपवर्ग मोक्ष
मांगलां विवाह माटे मांगणी अभरि. पुष्कल
दसइ दसार दश दशार्ह ५५ मुहसाल मोसाळ
९५ रंगरोल मजा ५७ सोहग सौभाग्य
लीह रेखा ६१ । प्रेम जी जे पराणे प्रेम
आउलि आवळ मंडइ प्राणि उपजावे छे
१०१ महुत महत्त्व ६२ मस्कलडइ मलकार,
१०२ विवसा व्यवसाय आछा हास्यथी
विगूता निन्दित/निन्दनीय ६४ मधियामिनी मध्यरात्रे
१०३ छाला घेटा ६५ प्रय . प्रह, प्रभात
१०५ कह क्यां ६८ जसई ज्यारे
१०५ कहिने क्यांक ६८ तिसई त्यारे
१०५ सुगाला सुगाळवो ६९ ग्रभ गर्भ
१०६ सुखाला सुखमय प्राहुणु अतिथि
१०८ पाला पगपाला/पदाति ७२ फोफल सोपारी
१०९ भरह भरत, नृत्य-संगीत हेज हेत
१११ __ वरजती वर्ते छे ममणां कालां
११२ रामति रमत ८० पाउला चरण/पगलां ११३ महतीर मोटां पुतली पहोंची
११४ संघोडि जेवा ८२ जाऊं वारणिं ओवारणां लउं १२९ उत्तरासंग वंदन करती वेळा वस्त्रने कोर्डि होशपूर्वक
खभा पर गोठवq ते
१०१
१०३
HREEEEEEEEEEE
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अनुसन्धान-७०
कडी शब्द अर्थ
कडी शब्द . अर्थ १३५ असमांणी असाधारण
२१० सनाह बख्तर १३६ परतेकइं प्रत्यक्षथी
२१० खेटका ढाल १३८ नीडा निकट, नजीक २११ छीपइ स्पर्श १४० वीआला विकाल, सांजे २२१ आतरीआ स्थळनाम( ?), १४२ विहडइ विखुटुं पडे
अन्तरिक्षजी. १४२ अवहिड हवे
२२१ कीकारटू ? १४३ पतीजाइ प्रतीति करे
२२१ देसदाणी ? १५० खूता खूपी गया
२२९ मांडवी पालखी १५१ पावडीओ पगथियां
२४० आलिमधणी शहेनशाह १५१ बहूरि घणाक
२४७ खयर. खेर १६३ निवड निबिड, सज्जड
२४७ महिर दया १६६ छीजइ नाश पामे
२४७ दिल पाकी निर्मळ चित्त १६५ पयंपइ बोले
२४९ पेसकसी खंडणी, नजराणुं १७२ ऊसनु खिन्न
२६१ पुरिंद्र . पुरंदरं, इन्द्र १७४ विष दुःख
२६५ सपरेइं सारी रीते १७८ पात नाश
२६५ दवाज शोभा १८२ आयत अधीन
२६६ गुडीअ १८३ मसवाडा महिना
२६७ पाखरीआ घोडा १८३ अरिष्ट अणगमती
२६८ नेज वावटो १८७ अणुहाणि पगरखां विना १९५ मोकलामण विदायवेळाए
२६८ शृंगार कलश आपवानुं दान
२७० वहिल गाईं १९६ वडूओ मोटो
२७३ कंसाल कांसीजोडां १९६ धींग समर्थ
२७४ सेहि
सहि-सखी १९६ सखाई सहायकता
२८६ देसाउर परदेश १९९ खूप सहेरो
२८९ वणजी वेपार करीने २०१ लाल माणेक
२८९ क्रियाण करियाणां २०२ साजन स्वजन-सज्जन
२८९ बालद बलद २०३ प्रतिछंद पडघो
| २९१ परिघलचिंतो मोकळा मने २०३ नीसाण नोबत
२९४ नगीन - रल . २०३ थोक समूह
२९६ धूनी खाण(?) २०४ नफेरी शरणाई जेतुं वाद्य | २९७ तंगी नानो तंबू(?) २०४ मादल मृदङ्ग
धजा .
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वाचक राजरत्न कृत शत्रुञ्जय-चैत्यपरिवाडी स्तवन
- सं. जिज्ञान विशाल शाह
भूमिका उपाध्याय श्रीराजरत्नकृत "शत्रुञ्जय-चैत्यपरिवाडी" नामक रचना अत्रे प्रस्तुत करतां आनन्द अनुभवाय छे । कृतिनी अन्तिम कडीमां थयेला उल्लेख प्रमाणे संवत १७०४ मां आ रचना थई छे. कर्ता कविश्रीने शत्रुञ्जय तीर्थनी यात्रा करवानो मनोरथ थयो, अने तेमने यात्राए जई रहेला एक संघनो साथ मळी गयो, तेनी साथे पोते करेली यात्रानुं अने शत्रुञ्जय उपरना ते समयनां चैत्यो तथा बिम्बो तेमज धर्मस्थानोनुं आ कृतिमां तेमणे वर्णन आप्युं छे, जे इतिहासनी दृष्टिए घणुं महत्व- लागे छ । . उपा. राजरत्नजी तपागच्छना आ. लक्ष्मीसागरसूरि-विशालसोमसूरिनी परम्परामां १७मा सैकाना पश्चार्धमां थयेला साधु-कवि छे. तेमणे आ रचना उपरान्त बीजी पण विविध कृतिओ रची छे : १. अर्बुदगिरि चैत्यपरिपाटी, २. गिरनारमण्डन नेमिजिनस्तवन, ३. विशालसोमसूरि भास वगेरे ।
आ · कृतिनी बे पानानी एक हस्तप्रत कोबा - श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिरना संग्रहमांथी प्राप्त थई छे (झेरोक्स नकल) । तेमां प्रान्ते "इति श्रीचैत्यपरवाडिस्तवनं वीजापुरमध्ये लिखितं । रषि वनिसूंदर पठनार्थ" एटली ज पुष्पिका जोवा मळे छे, पण लेखनसंवत् नथी. सम्भव छे के कर्ताना पोताना हाथे ज लखायेली ए प्रत होय. लखावट अढारमा शतकनी अनुमानी शकाय तेम छे. आ प्रत आपवा बदल कोबा-संस्थाना व्यवस्थापकोनी आभारी छु ।
सं. २०७२ना पोष महिने महावीर जैन विद्यालयना उपक्रमे डो. धनवंत शाहना आयोजनमा 'जैन साहित्य समारोह' सोनगढ मुकामे योजायो हतो त्यारे आ रचनाने लईने निबन्धवांचन करेलुं. ते निबन्धना सार साथे ए रचना प्रगट करतां आनन्द थाय छे ।
शारद मनि समरीस हा रे लो, प्रणमि सहिगुरु पाय रे, चतुरनर चैत्यप्रवाडी सिद्धक्षेत्रनी रे लो, गायस्यु कवि सुखसाय रे, चतुरनर
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अनुसन्धान-७०
श्रीशेत्रुजासम को न हई रे लो, सकल तीरथ सदा देव रे, चतुरनर आगममही एहनो रे लो, ठामि ठामि अधिकार रे, चतुरनर
श्रीशेत्रुजा० (आकली) ॥१॥ श्रीसीमंधर श्रीमुखी रे लो, भाखी एहनुं प्रभाव रे... चतुर इंद्रादिक सुरनर सदहि रे लो, भवोदधि तारण नाथ रे... चतुर... श्री ॥२॥ सिद्धक्षेत्र एह शाश्वतु रे लो, भाखी सवि भगवंत रे... चतुर महीमा अति घणु सांभली रे लो, वंदन थयु मुज अंत रे... च... श्री ॥३|| जात्रा मनोरथ जव धर्यु रे, मनगमतुं मलो संघ रे... चतुर विधसुं छ'हरी पालतु रे लो, विषम पंथ उलांघि रे... चतुर श्री ॥४॥ दुरथी गिरिवर पेखीउ रे लो, उपर्नु अतिउमांहि रे... चतुर सोवन फुल मुगताफलि रे लो, वधावई नर नार रे... चतुर श्री i|५|| पालिताणि संघ आवीउ रे लो, जिंहा ललितसरोवर पालि रे... चतुर . डेरा देई सहु उतर्यु रे लो, वडनी छाह संभाली रे... चतुर... श्री ॥६॥ आदिजणंद जुहारीआ रे लो, पालीताणा माहि रे... चतुर... . . सतरभेद पूजा रचि रे लो, संघपति लई धन लाहु रे... चतुर... श्री ।।७।। धन खरची मुगतु कर्यु रे लो, सुंदर पिहर्या वेस रे... चतुर... हर्ष धरी सहु साचर्या रे लो, पाम्यु तलहटी देस रे... चतुर... श्री ।।८।। प्रभु पगला पूजीआ रे लो, अगर कपुरनु वास रे... चतुर पाजि चढता आरंभीउ रे लो, भामिनी गाय भास रे... चतुर... ॥९॥ मारगी वीसामा भला रे लो, घुला निला नाम रे... चतुर सोहलकुंमार दोय कुंड तिहा रे लो, चउकी शीतल ठाम रे... चतुर... श्री... ॥१०॥ साहस चढि पगल दुघडि रे लो, कादवी वलि घणी देह रे... चतुर हिंगलाजनुं हडु दुहिलु रे लो, चढतां हुई पातिक छेह रे... चतुर... श्री ॥११॥ अनुक्रमई परवत फरस्यु रे लो, जोव शेत्रुजा तीर रे... चतुर वाघिण पोलि आवीउ रे लो, उभा ऋषभ संघी रे... चतुर... श्री ॥१२॥
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वाघिणिनि प्रतिबोधता रे लो, देता सुरपद वास रे... चतुर क्षेत्रपालहनुं मत तहा रे लो, करतां आरंभ-नास रे... चतुर... श्री ॥१३।। पोलिमांहि चक्रेसरी रे लो, जागतु कवीड जक्ष रे... चतुर भगत तणी सानिध करि रे लो, विघन हरि परितक्ष रे... चतुर... श्री ॥१४|| सोहलावसती वांदीइ रे लो, टोडराविहार उदार रे... चतुर नेमिजिणंद चुरी जिहां रे, लो जिन चुवीस जुहारि रे... चतुर... श्री ॥१५॥ घोडा चुकी दीपती रे लो, खरतरवसही सार रे... चतुर नंदीसर रचना रची रे लो, हुवडवसही अग्यार रे... चतुर... श्री ॥१६।। डाबा जिमणा जिनतणा रे लो, चौमुख अति मनोहार रे... चतुर पूजो प्रणमी भावसु रे लो, आव्यु भुवन मजार रे... चतुर... श्री ॥१७॥ प्रथम प्रदक्षणा देयता रे लो, जिनना बिंब अनेक रे... चतुर फरसतां बीजी प्रदक्षणा रे लो, प्रतिमानु नहि खेक रे... चतुर... श्री ॥१८॥ प्रभु पगलां रायणि तलि रे लो, मोर नाग परसंग रे... चतुर सित्तिरिसु जिन पादुका रे लो, वांदु धरि बहु रंग रे... चतुर... श्री ॥१९॥ देहरी भद्रप्रसादिना रे लो, चउमुख मोटा ठाम रे... चतुर । भाव धरी उलट घणइ रे लो, ते सविहुं नई प्रणाम रे... चतुर ॥२०॥ मुलगा गभारा मांहि यु रे लो, दीठा ऋिषभजिणंद रे... चतुर मनह मनोरथ सवि फल्या रे लो, भागा भवसय दंद रे... चतुर... श्री ॥२१॥ विधिपूरवक जिन वांद्या रे लो, स्तवना करी वडी वार रे... चतुर दुरगतिं चंता सवि टली रे लो, उतर्यु भवोदधि पार रे... चतुर... श्री ॥२२॥ गजखंधि भरतेसरु रे लो, मरुदेवी मात जिन पास रे... चतुर नाहनी मोटी जिन तणी रे लो, प्रतिमा प्रणमु उल्लास रे... चतुर... श्री ॥२३।। साहमां पुंडरीक गणधरु रे लो, भेट्या तेहना पाय रे... चतुर । जनम कृतारथ मुज थयु रे लो, दुरि गया अंतराय रे... चतुर... श्री ॥२४॥
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अनुसन्धान-७०
गढ पाछलि जल पूरीया रे लो, सूरिज प्रमुख पांच कुंड रे... चतुर ते जोइ आगलि गयो रे लो, दीर्छ एक वनखंड रे... चतुर... श्री ॥२५।। शेत्रुजी नदी सूहामणी रे लो, जे नाही नरनार रे.... चतुर उलखा जोलि तिहा अभीनवी रे लो, चेलण तलावडी सूवाम रे... चतुर तिसवि तीर्थ भूमिका रे लो, सिधवडनुं आराम रे... चतुर... श्री ॥२६।।
आदिपुर पाजि वीसामीउ रे लो, बिंहु उघडीया विच्चार रे... चतुर वली आवी प्रभु भेटीया रे लो, हवई चाल्यु नीज गय(?) रे... चतुर... श्री ॥२७॥ अदबुद आदि जुहारीआ रे लो, पाछलि खोडिआरि देव रे... चतुर पांचई पांडव देहरी रे लो, तेह पणि जोइ तिणि खेवि रे... चतुर... श्री... ॥२८॥ बावन देहरी शोभतु रे लो, शिवा सोमजी प्रसादि रे... चतुर । चउमुख चहुंबारे करि रे लो, सुरगरसु करि वाद रे... चतुर--- श्री... ॥२९॥ ऋषभादिक जिन पूजता रे लो, उपसम्या कलिना कलेस रे... चतुर शांति जणेसर सोलमा रे लो, मरुदेवी भुवन नवेस रे... चतुर... श्री... ॥३०॥ अणजोण मुज वीसर्या रे लो, तीरथना अहिठाण रे... चतुर जीरण नवां सुरनर कर्या रे लो, ते सवि माहरि प्रमाण रे... चतुर ॥३१॥ चैत्यपरवाडि करी वलउ रे लो, पामतुं अधिक आनंद रे... चतुर श्री नीज नीज गामई सहु चलु रे लो, जेहना जनना बंद रे... चतुर... श्री... ॥३२।। तिरथ तप वधि करि रे लो, फरसि नवाणुं वार रे... चतुर दो अट्ठम सात छठ्ठसु रे लो, ते पामई सुख सार रे... चतुर... श्री ॥३३।। संवत सतर चीडोतरि रे लो, भेट्युं आदि जिनराय रे... चतुर भाव धरी उलट घणिई रे लो, कहि राजरत्न उवज्झाय रे... चतुरनर
श्री शेत्रुज सम को नहि रे लो... ॥३४॥ इति श्री चैत्यपरवाडि स्तवनं ॥ विजापुर मध्ये लखित ॥ ऋषि वनसूंदर पठनार्थ ॥ श्रीरस्तु कल्याणमस्तु ।
Clo १०४, जय फ्लेट, ३२, वसंतकुंज,
पालडी, अमदावाद-७
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स्वाध्याय
आचार्य कुन्दकुन्द (लगभग ६ठीं शती)
• प्रो. सागरमल जैन
आचार्य कुन्दकुन्द, दिगम्बर जैन साहित्याकाश के वे सूर्य हैं, जिनके आलोक से उनके परवर्ती काल का सम्पूर्ण जैन साहित्य आलोकित है । किन्तु दुर्भाग्य यह है कि अन्य भारतीय आचार्यों के समान ही उनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में कोई भी अधिकृत जानकारी उनके और उनके सहवर्ती साहित्य से हमें नहीं मिलती है । उनके और उनके सहवर्ती साहित्य के आधार पर मात्र अटकलें ही लगाई जाती है ।
उनका वास्तविक गृहीजीवन का नाम क्या था ?, उनके मातापिता कौन थे ? वे कब और किस काल में हुए इसकी अधिकृत जानकारी का प्रायः अभाव ही है । यद्यपि यह बात सही लगती है कि उनके जन्मस्थान या निवासस्थान कौण्डकौण्डपुर के आधार पर ही वे कुन्दकुन्द नाम से विख्यात हुए हैं । सामान्यतया उन्हें निम्न पाँच नामों से पहचाना जाता है कुन्दकुन्द, पद्मनन्दी, वक्रग्रीव, गृध्रपिच्छ और एलाचार्य । कहीं-कहीं उन्हें बलाकपिच्छ भी कहा गया है । इनमें परवर्ती चार नाम तो निश्चय ही उनकी मुनि अवस्था से सम्बन्धित हैं और प्रथम नाम उनके निवासस्थल कौण्डकौण्डपुर से सम्बन्धित है । आज भी दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में व्यक्तियों के गाँव या नगर के नाम उनके नाम का ही एक हिस्सा होते हैं । सम्भवतः कुन्दकुन्द के साथ भी ऐसा ही हुआ हो और अपने गाँव के नाम से ही वे प्रख्यात हुए हो । पद्मनन्दी नाम उनकी दीक्षित अवस्था का नाम हो, किन्तु दिगम्बर आम्नाय में पद्मनन्दी नाम के अनेक आचार्य ' हो गये हैं, अतः इस नाम से उनकी पहचान कर पाना कठिन ही है । यद्यपि नन्दी नामान्त से कुछ विद्वानों ने उन्हें दिगम्बर आम्नाय. के नन्दीसंघ से जोडने का प्रयास किया है, किन्तु यह बात
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अनुसन्धान-७०
कितनी प्रमाणिक है, यह सिद्ध कर पाना कठिन है । यद्यपि पूर्व में हार्नले द्वारा सम्पादित नन्दीसंघ पट्टावली में पांचवें क्रम पर कुन्दकुन्द का नाम दिया है, अन्य पट्टावलीयों में कुन्दकुन्द का नाम नहीं है। कुछ शिलालेखों मे कुन्दकुन्दान्वय का नाम मिलता है । शिलालेखों में भी उनके नाम कुन्दकुन्द या पद्मनन्दी उत्कीर्ण है । अतः इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम सहस्राब्दी में वे निश्चित हुए हैं । शिलालेखों में ईसा की सातवीं शती के बाद से कुन्दकुन्दान्वय के होने के कुछ प्रमाण उपलब्ध हैं । गृध्रपिच्छ यह नाम उनके द्वारा मयूरपिच्छ के स्थान पर गध्र के पंख की पिच्छी धारण करने से हुआ है । यही बलाकपिच्छ के सम्बन्ध में भी कथित है । और वक्रगीव उनके अत्यधिक लेखन और पठन करने से गर्दन टेडी हो जाने के कारण हुआ हो । ऐलाचार्य ऐसा उनका एक और भी नाम मिलता है । किन्तु ये तीनों विशेषण लगभग ईस्वी सन् की तेहरवीं शती से ही प्रचलन में देखे जाते है, अतः ये उनके ही विशेष नाम थे, यह सिद्ध कर पाना कठिन प्रतीत होता है । विद्वानों ने कुन्दकुन्द
और पद्मनन्दी इन दो नामों को ही प्रमाणिक माना है । किन्तु इतना निश्चित है कि वे दक्षिण भारतीय दिगम्बर परम्परा के जैनाचार्य हुए है जिन्होंने विपुल मात्रा में साहित्य की रचना की थी। गुरुपरम्परा और सम्प्रदाय ___ आचार्य कुन्दकुन्द के गुरु कौन थे, यह भी पूर्णतः एक विवादास्पद प्रश्न है । उन्होंने अपने ग्रन्थ पाहुड (प्राभृत) में अपने गुरु के रूप में भद्रबाहु का उल्लेख किया है । किन्तु भद्रबाहु नाम के भी अनेक आचार्य हुए हैं । उनके गुरु के रूप में उल्लेखित भद्रबाहु कौन से है, यह निर्णय कर पाना कठिन है । दिगम्बर विद्वानों ने दो भद्रबाहु की कल्पना की है - प्रथम भद्रबाहु जो पूर्वधर थे और भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् ई. पू. लगभग तीसरी शती में हुए हैं, वे आचार्य कुन्दकुन्द के वास्तविक गुरु नहीं हो सकते है, क्योंकि दोनों में काल का लम्बा अन्तराल है । दिगम्बर विद्वानोंने दूसरे भद्रबाहु की कल्पना ईसा की दूसरी शती में होनेकी की
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है । किन्तु उनके साथ पूर्वधर आदि होने के जो विशेषण दिये गये हैं, वे तो प्रथम भद्रबाहु के सम्बन्ध में ही युक्त या सुसंगत हो सकते हैं । पुनः कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भद्रबाहु प्रथम को ही गमक गुरु मानकर यह संगति बिठाई है, किन्तु यह वास्तविक संगति नहीं है । गमक गुरु मानने में कोई बाधा तो नही है, किन्तु इससे समकालिकता या प्राचीनता का निर्णय नहीं हो पाता है । क्यों कि आज भी भगवान महावीर या गौतम हमारे सब के गमक गुरु तो है ही । अस्तु । श्वेताम्बरों ने जिन दूसरे भद्रबाहु (वराहमिहिर के भाई) की कल्पना की है, उनका काल लगभग ईसा की सातवीं शती है । अतः उनसे भी कुन्दकुन्द की कालिक समरूपता ठीक से नहीं बैठती है । कुन्दकुन्द के गुरु के रूप में दूसरा नाम जिनचन्द्र का भी माना जाता है । किन्तु ये जिनचन्द्र कौन थे, कब हुए, इसका कोई भी सबल प्रमाण नहीं मिलता है । श्वेताम्बरों में जिनचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं, इनमें कुन्दकुन्द के गुरु कौन से जिनचन्द्र थे, यह निर्णय कर पाना कठिन है । सम्भवतः जिनचन्द्र नाम के आधार पर आचार्य हस्तीमलजी ने यह कल्पना कर ली हो कि कुन्दकुन्द पहले श्वेताम्बर परम्परा में दीक्षित हुए, फिर शिवभूति के प्रभाव से यापनीय या बोटिक हो गये और फिर दिगम्बर होकर मुनि की अचेलता का जोरों से समर्थन करने लगे । किन्तु इस सम्बन्ध में सबल प्रमाण खोज पाना कठिन है । अतः यह आचार्यश्री की स्वैर कल्पना ही हो सकती है । प्रमाणिक तौर पर निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कल्पना कर पाना कठिन ही है । इतना निश्चित ही है कि वे अपने लेखन के आधार पर तो दिगम्बर परम्परा के ही आचार्य सिद्ध होते हैं । दक्षिण में दिगम्बर परम्परा का ही बाहुल्य था, अतः यह निश्चित है कि उनका समस्त लेखन दिगम्बर परम्परा से प्रभावित रहा है । कुन्दकुन्द का काल ।
कुन्दकुन्द का समय क्या है ?, यह भी अत्यन्त ही विवादास्पद विषय रहा है । जहाँ कुछ दिगम्बर विद्वान् उन्हें ई.पू. प्रथम शताब्दी में
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अनुसन्धान-७०
रखते हैं, वही कुछ अन्य विद्वान् उन्हें विक्रम की सातवीं या आठवीं शती के मानते हैं । इनमें से किसे सत्य माना जाये, यह निर्णय अतिकठिन
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I
है । फिर भी उनके लेखन में प्रस्तुत संकेतों या' अवधारणाओं के आधार पर उनके कार्यकाल का निर्णय सम्भव है । सर्वप्रथम नन्दीसङ्घ- पट्टावली के आधार पर डॉ. रतनचंदजी और हार्नले आदि कुछ पश्चिमी विद्वानों ने उन्हें ई.पू. या ईसा की प्रथम शताब्दी का माना है, तो दूसरी ओर प्रो. ढाकी, दिगम्बर आचार्यों द्वारा सातवीं तक उनका उल्लेख भी नहीं करना, कुन्दकुन्दान्वय के सभी अभिलेखीय एवं साहित्यिक प्रमाण सातवीं शती के बाद के होने के आधार पर उन्हें विक्रम की सातवीं-आठवीं शती या उसके भी बाद के मानते हैं । मैंने भी अपने पूर्व लेखों में प्रो. ढाकी का समर्थन करते हुए और उनके द्वारा कथित सप्तभङ्गी, गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थान तथा इनके पारस्परिक सम्बन्ध की स्पष्टता के आधार पर इन्हें पांचवीं शती के बाद के ही माने हैं । कुछ दिगम्बर विद्वान उन्हें पूर्वापर दोनों तिथियों के मध्य रखते है । यथा प्रो. हीरालालजी ने उन्हें ईसा की द्वितीय शती के मानते हैं । पं. नाथूरामजी प्रेमी ने भी नियमसार की गाथा के 'लोकविभाग' शब्द को आधार बनाकर लगभग उनका समय विक्रम की छठीं शती स्वीकार किया है । पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ने यह माना है कि कुंन्दकुन्द ई. पूर्व सन् ८ से ई. सन् १६५ के बीच स्थित थे, अर्थात् ईसा की दूसरी शती में हुए । पं. कैलाशचन्दजी मर्करा अभिलेख के आधार पर उन्हें ईसा की तीसरी-चौथी शती के मानते हैं । वह पट्टावली, जिसके आधार पर कुन्दकुन्द को ई. पू. प्रथम शताब्दी में रखा जाता है, वह बहुत ही परवर्ती काल की है । उसका रचनाकाल विक्रम संवत् १८०० के आस-पास है । इस प्रकार अपने से अठारह सौ वर्ष पूर्व हुए व्यक्ति के सम्बन्ध में वह कितनी प्रामाणिक होगी, यह विचारणीय है । मैंने ही नहीं, अपितु दिगम्बर जैन विद्वान् पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ने भी इस पट्टावली को अप्रामाणिक माना है । वे लिखते हैं कि "इसमें प्राचीन आचार्यों का समय और क्रम बहुत कुछ
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गडबड में पाया जाता है । उदाहरण के लिए पूज्यपाद (देवनन्दी) के समय को ही लीजिये । पट्टावली में उनका समय वि. सं. २५८ से ३०८ तक दिया है । परन्तु इतिहास में वह ४५० के करीब आता है । इतिहास में वसुनन्दी का समय विक्रम की १२वीं शती माना जाता है । परन्तु पट्टावली में छठी शताब्दी (५२५-५३९) दिया गया है । मेरी दृष्टि में यह ६०० वर्ष की भूल प्रारम्भ से चली आ रही है ।" अतः पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार लिखते हैं - यह पट्टावली संदिग्ध अवस्था में है और केवल इसी के आधार पर किसी के समयादि का निर्णय कैसे किया जा सकता है ? । प्रो. हार्नले, डॉ. पिटर्सन ने इसी आधार पर कुन्दकुन्द को ईसा की पहली शती का विद्वान लिखा है और इससे यह मालूम होता है कि उन्होंने इस पट्टावली की कोई विशेष जाँच नहीं की ।" (देखें - स्वामी समन्तभद्र, पृ. १४५-१४६) । प्रो. रतनचन्दजी इसे प्रमाण मानकर कुन्दकुन्द को ई. पूर्वोत्तर प्रथम शती के मान रहे हैं, यह बात कितनी प्रामाणिक होगी ? । यदि यह पट्टावली अन्यों के बारे में भी समय की अपेक्षा अप्रामाणिक है, तो कुन्दकुन्द के बारे में प्रामाणिक कैसे होगी ?। वे भगवतीआराधना, मूलाचार आदि में समान गाथाएँ दिखाकर यह कैसे सिद्ध कर सकते है कि वे गाथाएँ या प्रसङ्ग कुन्दकुन्द से उनमें लिये गये है । यह भी हो सकता है, कि कुन्दकुन्द ने ये प्रसङ्ग वहाँ से लिये हो । कुन्दकुन्द के समय के सम्बन्ध में इन सभी विद्वानों के मत न केवल एक-दूसरे के विरोधी हैं अपितु समीक्ष्य भी हैं । मेरी दृष्टि में कुन्दकुन्द ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व के नहीं हो सकते है ।
(१) यदि वे ईसा की प्रथम से लेकर तीसरी, चौथी शती तक के भी होते तो कोई न कोई दिगम्बर आचार्य जो ईसा की ८वीं शती से पूर्व हुआ है, उनका निर्देश अवश्य करता । समन्तभद्र, जिनसेन प्रथम, अकलङ्क, विद्यानन्दी आदि कोई भी चाहे उनके पक्ष में हो या विपक्ष में हो, उनका निर्देश अवश्य करते । लेकिन आठवीं शती तक कोई भी दिगम्बर या श्वेताम्बर आचार्य उनका निर्देश नहीं करते हैं ।
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(२) आचार्य कुन्दकुन्द की अमर कृतियाँ समयसार, नियमसार, पञ्चास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि की अमृतचन्द्र के पूर्व तक टीका की बात तो अलग, किसी भी आचार्य ने उनका निर्देश तक क्यों नहीं किया ? | यदि वे उनके पक्षधर होते तो उनका निर्देश करते या उन पर टीका लिखते । और यदि उनके मन्तव्यों के विरोधी होते तो उनका खण्डन करते । किन्तु ईसा की आठवीं नवीं शती तक न तो उन कृतियों का कहीं कोई निर्देश मिलता है और न उन पर टीका ही लिखी गई है । यहाँ तक कि उनका नामस्मरण भी कोई नहीं करता है । जब कि अनेक पूर्व आचार्यों का नामनिर्देश आदरपूर्वक किया गया है ।
(३) मर्करा अभिलेख (शक सं. ३८८) जिसके आधार पर कुन्दकुन्द को ईसा की चौथी शती का भी माना जाता है, वह जाली है, प्रामाणिक नहीं है । प्रथमतः न केवल इतिहासविदों ने, अपितु स्वयं दिगम्बर विद्वानों ने भी उसे जाली लिखा है । ईसा की पाँचवी, छठीं शती के पूर्व के सभी अभिलेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि के मिलते है, जब कि यह अभिलेख संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि में है ।
(४) कुन्दकुन्द ने जो सुत्तपाहुड गाथा २२ - २३ में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है, उसका निर्देश आठवीं शती के पूर्ववर्ती किसी भी श्वेताम्बर या दिगम्बर मान्य ग्रन्थ में नहीं मिलता है । नवीं शताब्दी में दिगम्बर आचार्य वीरस्वामी मात्र उसका समर्थन करते हुए षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड के ९३ वें सूत्र की धवलाटीका में कहते हैं कि यहाँ मनुष्यनी का तात्पर्यभाव स्त्री है, जब कि आठवीं शती में श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने स्त्रीमुक्ति का निर्देश कर उस सम्बन्ध में यापनीय मान्यता का समर्थन किया है, जो अचेलकता की समर्थक होकर भी स्त्रीमुक्ति और केवलीभुक्ति की संपोषक रही है ।
(५) प्रो. रतनचन्द्रजी भी अपने ग्रन्थ 'जैन परम्परा और यापनीय सङ्घ' में कुन्दकुन्द के अनुल्लेख से सम्बन्धी इस प्रश्न का सीधा उत्तर न देकर मात्र विस्मृति का तर्क देकर छुट्टी पा लेते हैं । जबकि छठीं, सातवीं
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शती के अनेक दिगम्बर आचार्यों को अपने पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों के नाम स्मरण में रहे और उन्हें आदर-पूर्वक नमस्कार भी किया, वे कुन्दकुन्द जैसे महान आचार्य को कैसे भूल गये ? । मेरी दृष्टि में इसके दो ही कारण हो सकते हैं, या तो वे उन्हें अपनी परम्परा का न मानकर किसी अन्य परम्परा का मानते हो, या फिर उनके काल तक कुन्दकुन्द का अस्तित्व ही नहीं रहा हो । भाई श्रीरतनचन्द्रजी ने माना कि गुणस्थान के सम्बन्ध में मेरा मत परिवर्तित हुआ है, परन्तु ऐसा नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में न केवल गुणस्थान अपितु मार्गणास्थान और जीवस्थान की चर्चा भी है । न केवल चर्चा है, उनके पारस्परिक सहसम्बन्ध की ओर सङ्केत भी है । श्वेताम्बर आगमसाहित्य में भी एक अपवाद को छोडकर जहाँ उन्हें 'जीवठाण' कहा गया है, गुणस्थान की कोई चर्चा नहीं है । श्वेताम्बरों के समान षट्खण्डागम में भी प्रारम्भ में गुणस्थानों को 'जीवठाण' ही कहा गया है । तत्त्वार्थसूत्र में तो कहीं भी गुणस्थान की चर्चा नहीं है । जबकि कुन्दकुन्द उसकी चर्चा करते हैं । जिन दस अवस्थाओं का तत्त्वार्थ के ९ वें अध्याय में उल्लेख है, वे भी गुणस्थान की अवधारणा कि विकास के पूर्व की हैं, और षट्खण्डागम के कृतिअनुयोगद्वार के परिशिष्ट में पाई जाती हैं, वे ही दोनों गाथाएँ आचाराङ्गनियुक्ति में यथावत् है । मैं तो मात्र यह कहना चाहता हूँ कि यदि १४ गुणस्थानों की अवधारणा उमास्वाति के पूर्व थी, तो उन्होंने उसे क्यों नहीं अपनाया ? क्यों मात्र दस अवस्था की चर्चा की, चौदह की क्यों नहीं की ? । जैनदर्शन और उसकी तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा में अनेक अवधारणाएँ कालक्रम में विकसित हुई है । जैसे पञ्चास्तिकाय से षद्रव्य और तीन प्रमाणों से छह प्रमाणों की अवधारणादि । तीन त्रस और तीन स्थावर से पंच स्थावरों और एक त्रस की अवधारणा का भी कालक्रम में विकास हुआ है । अत: गुणस्थान, मार्गणास्थान, सप्तभङ्गी आदि की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द ईसा की छठी शती के बाद ही कभी हुए हैं । मर्करा अभिलेख को डॉ. हीरालालजी,
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प्रो. गुलाबचन्दजी चौधरी आदि ने जाली सिद्ध कर ही दिया है । यदि प्रो. रतनचन्द्रजी उसे आंशिक सत्य भी माने तो भी वह लेख शक संवत् का है और शक सं. ३८८ भी उसे (३८८ + ७८ + ५७ = ५२३ ई. सन्) ईसा की छठी शती के ही सिद्ध करता है । अतः केवल दिगम्बर विद्वानों की बात को ही माने तो भी कुन्दकुन्द का समय ई. सन् की छठी शती पूर्व नहीं ले जाया सकता है । मर्करा अभिलेख के अतिरिक्त अन्य अभिलेख जो शक संवत् ७१९ एवं ७२४ आदि के हैं, वे भी ईसा की ९वीं शती के ही हैं । यदि कुन्दकुन्दान्वय से कुन्दकुन्द का काल सौ वर्ष पूर्व भी मान लिया जाए तो भी कुन्दकुन्द का समय ईसा की छठीं शती से पूर्व नहीं जाता है।
प्रो. रतनचन्द्रजी ने सभी प्राचीन स्तर के ग्रन्थों अर्थात्, मूलाचार, भगवतीआराधना, षट्खण्डागम, तत्त्वार्थसूत्र आदि में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से गाथाएँ लेने का जो सङ्केत किया है, उस सम्बन्ध में मेरा एक ही प्रश्न है यदि इन सभी ग्रन्थकारों ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से गाथाएँ और अवधारणाएँ गृहीत की हैं, तो वे उनके नाम का उल्लेख क्यों नहीं करते हैं ?। गाथाएँ ले ले और नाम लेना भूल जाये, यह तो एक गृहस्थ के लिए भी उचित नहीं है, तो साधु और वह भी शुद्ध आचारवान् दिगम्बर मनियों के लिए कैसे क्षम्य होगा ?। यह विचारणीय अवश्य है । आदरणीय भाई रतनचन्द्रजी ने मेरे से असहमत होकर भी उनके ग्रन्थ में और लेखों में मेरे प्रति जो आदरभाव प्रकट किया है वही यह सङ्केत करता है कि पूज्य मुनिवरों ने जब कुन्दकुन्द के ग्रन्थों से अनेकों गाथाएँ
और सैद्धान्तिक अवधारणाएँ गृहीत की, तो वे आदरपूर्वक उनके नाम का स्मरण करना कैसे भूल गये ? । यदि हम पञ्चास्तिकाय के टीकाकार जयसेन और बालचन्द्रजी की बात को मानकर यह कहें कि कुन्दकुन्द ने समयसार महाराज शिवकुमार के लिए लिखा और ये शिवकुमार, शिवमृगेश वर्मा ही थे, जो शक संवत् ४५० में राज्य करते थे, तो भी कुन्दकुन्द का काल ईसा की छठी शती से पूर्व नहीं ले जाया सकता है ।
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इस प्रकार मेरी दृष्टि में कुन्दकुन्द के काल की अपर सीमा ई. सन् की छठी शती और निम्नतम सीमा ई. सन् की आठवीं शती मानी जा सकती है । आगे हम उनके साहित्यिक अवदान की चर्चा करेंगे । आचार्य कुन्दकुन्द का साहित्यिक अवदान -
आचार्य कुन्दकुन्द का साहित्यिक अवदान स्तर और ग्रन्थसङ्ख्या दोनों ही अपेक्षा से महान है । यह माना जाता है कि उनके २२ या २३ ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं । यद्यपि उन्हें ८४ पाहुडों (प्राभृतों) के लेखक माना जाता है तथापि आज वे सभी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । यदि अष्ट पाहुड को आठ, बारसाणुवेक्खा को बारह और दस भक्ति को दस स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाये तो आज भी यह सङ्ख्या लगभग ३५ के आसपास पहुँच जाती है । उनके उपलब्ध ग्रन्थों की सूची बनाते समय जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अष्ट प्राभृतों और दस भक्तियों को स्वतन्त्र ग्रन्थ माना है । उनके अनुसार यह सूचि निम्न है -
१. समयसार, २. नियमसार, ३. पञ्चास्तिकायसार, ४. प्रवचनसार, ५. बारसाणुवेक्खा, ६. दंसणपाहुड, ७. सुत्तपाहुड, ८. चारित्तपाहुड, ९. शीलपाहुड, १०. बोधपाहुड, ११. भावपाहुड, १२. मोक्खपाहुड, १३. लिंगपाहुड, १४. रयणसार, १५. सिद्धभक्ति, १६. श्रुतभक्ति, १७. योगीभक्ति, १८. चरित्रभक्ति, १९. आचार्यभक्ति, २०. निर्वाणभक्ति, २१. पंचगुरुभक्ति, २२. थोरसामिभक्ति । कुछ लोगों ने वट्टकेर के मूलाचार का कर्ता भी उन्हें माना है । इस प्रकार मुख्तारजी उनके ग्रन्थों की संख्या २२ या २३ बताते हैं । कुछ विद्वानों ने अष्टपाहुड, रयणसार और मूलाचार के उनके कर्तृत्व के सम्बन्ध में शङ्का भी उठाई है । यहाँ मैं इस विवाद में पडकर मात्र उनके इन ग्रन्थों का अति-संक्षिप्त परिचय दूंगा ।
(१) समयसार - आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में श्रेष्ठ आध्यात्मिक ग्रन्थ के रूप में समयसार का स्थान सर्वोपरि है । यह ग्रन्थ मूलतः शौरसेनी प्राकृत में उपलब्ध है । इसकी गाथा-सङ्ख्या विभिन्न संस्करणों में अलग-अलग है। यथा - अमृतचन्द्रजी की टीका में समयसार की गाथा
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संख्या ४१५ है, जब कि जयसेन की टीका में गाथासंख्या ४३६ है । यही स्थिति अन्य संस्करणों की भी है। जैसे - कहानजी स्वामी के संस्करण में ४१५ गाथाएँ है । इस ग्रन्थ में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि से आस्रव, पुण्य, पाप, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की अवस्थाओं का सुन्दर चित्रण है । वैदिक परम्परा में इसी प्रकार की दृष्टि को लेकर अष्टावक्रगीता नामक ग्रन्थ मिलता है । दोनो में आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत समरूपता है । यह तो निश्चित है कि अष्टावक्र उपनिषदकालीन ऋषि है । अतः उनकी अष्टावक्रगीता से या उनकी आध्यात्मिक दृष्टि से कुन्दकुन्द के समयसार का प्रभावित होना भी पूर्णतः अमान्य नहीं किया जा सकता है । यद्यपि समयसार में निश्चयनय की प्रधानता के अनेक कथन हैं, किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने कहीं भी व्यवहारनय की उपेक्षा नहीं की है। जब कि उनके टीकाकार अमृतचन्द्रजी ने व्यवहार की उपेक्षा कर निश्चय पर अधिक बल दिया है । अमृतचन्द्रजी की विशेषता यह है कि वे अपनी पतंग की डोर को जैनदर्शन के खूटे से बांधकर अपनी पतंग वेदान्त के आकाश में उडाते हैं । कुन्दकुन्द ने अनेक स्थलों पर श्वेताम्बरमान्य आगमों का आश्रय लिया है । जैसे गाथा संख्या १५ का अर्थ श्वेताम्बर आगम आचाराङ्ग के आधार पर ही ठीक बैठता है । कहानजी स्वामी के संस्करण में तो पाठ ही बदल दिया है। "अपदेस सुत्तमज्झं" के स्थान पर "अपदेस संत मज्झं" कर दिया है और उसका मूल अर्थ भी बदल दिया है । शास्त्र या आगम में (आचाराङ्गसूत्र-१।५।६ में) उसे अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्वचनीय कहा है। ___ (२) पञ्चास्तिकायसार – तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से यह भी आचार्यश्री का एक बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । यह भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत में रचित है । इसकी गाथा संख्या अमृतचन्द्रजी की टीका के अनुसार १७३ है, जब कि जयसेनाचार्य ने १८७ मानी है । इसमें जैनतत्त्वमीमांसा की एक महत्वपूर्ण अवधारणा अर्थात् पञ्चास्तिकायों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है । मेरी दृष्टि में जैनदर्शन में पञ्चास्तिकायों की अवधारणा मूल है और
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उसी से षद्रव्यों की अवधारणा का विकास हुआ है । पञ्चास्तिकाय हैं - १. जीवास्तिकाय, २. पुद्गलास्तिकाय, ३. धर्मास्तिकाय, ४. अधर्मास्तिकाय और ५. आकाशस्तिकाय । जैनदर्शन में प्राचीन काल में लोक को पञ्चास्तिकायरूप माना गया था और कालक्रम में उसमें अनस्तिकाय के रूप में काल को जोड कर ही षद्रव्यों की अवधारणा बनी है ।
(३) प्रवचनसार - आचार्य कुन्दकुन्द के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में प्रवचनसार का नाम आता है । यह ग्रन्थ भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत में रचित है । आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर अर्द्धमागधी एवं महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव होने से उनकी भाषा को अजैन विद्वानों ने जैन शौरसेनी भी कहा है । अमृतचन्द्रजी कृत टीका में इसकी गाथासंख्या २७५ है, जबकि जयसेनाचार्य कृत टीका में इसकी गाथासंख्या ३११ है । कहानजी स्वामी ने भी अमृतचन्द्रजी का अनुसरण कर गाथासंख्या २७५ ही. मानी है । इसके प्रथम ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन अधिकार के चार उप अधिकार है - १. शुद्धोपयोगाधिकार, २. ज्ञानाधिकार, ३. सुखाधिकार और ४. शुद्धपरिणामाधिकार । इसी प्रकार दूसरे ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन अधिकार को द्रव्य-सामान्य अधिकार और द्रव्य-विशेष अधिकार तथा ज्ञाता-ज्ञेय अधिकार ऐसे तीन भागों में विभाजित किया है । तीसरे चरणानुयोग चूलिका महाधिकार को भी चार अधिकारों में विभाजित किया गया है - १. आचरण प्रज्ञापनाधिकार, २. मोक्षमार्ग प्रज्ञापनाधिकार, ३. शुद्धोपयोग प्रज्ञापनाधिकार और ४. पञ्चरत्नाधिकार । सामान्यतया इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य मोक्षमार्ग ही है।
(४) नियमसार – यह शौरसेनी प्राकृत में रचित एक संक्षिप्त ग्रन्थ है । इसकी गाथासंख्या पद्मप्रभ के अनुसार १८७ है । इस पर अमृतचन्द्रजी और जयसेन की कोई टीकाएं नहीं है । पद्मप्रभ के अतिरिक्त इसकी अन्य टीकाएँ उपलब्ध नहीं होती है । इस ग्रन्थ का मूल विषय सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र एवं षद्रव्य ही हैं । जहाँ तक मेरी जानकारी हैं सामायिक आदि सम्बन्धी इसकी कुछ गाथाएं नन्दीसूत्र में
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भी उपलब्ध होती हैं । यद्यपि इनको किसने किससे लिया है यह विषय विवादास्पद ही रहा है । यदि हम कुन्दकुन्द को ईस्वी सन् की छठी शती का माने तो उनके द्वारा ये गाथाएँ नन्दीसूत्र से अवैतरित किया जाना सिद्ध हो सकता है, अन्यथा नहीं । इति अलम् ।
(५-१२) अष्टप्राभृत या अट्ठपाहुड - अष्टप्राभृत या अट्ठपाहुड वस्तुतः एक ग्रन्थ न होकर आठ ग्रन्थों का समूह है । इसके अन्तर्गत १. दंसणपाहुड, २. सुत्तपाहुड, ३. चारित्तपाहुड, ४. सीलपाहुड, ५. बोधपाहुड, ६. भावपाहुड, ७. लिंगपाहुड और ८. मोक्खपाहुड – ये छोटे छोटे आठ ग्रन्थ समाहित हैं । पं. मुख्तारजी के अनुसार प्रत्येक पाहुड की गाथासंख्या इस प्रकार है - दंसणपाहुड - ३६, सुत्तपाहुड - २७, चारित्तपाहुड - ४४, शीलपाहुड - ४०, बोधपाहुड - ६२, भावपाहुड - १६३, लिंगपाहुड - २२, और मोक्खपाहुड - १६ गाथाएँ है । कुछ विद्वान इन ग्रन्थों को अलग-अलग करके इन्हें आठ स्वतन्त्र ग्रन्थों में विभाजित करते हैं । कुछ विद्वानों ने मात्र छह पाहुडों को ही उनकी रचना मान कर उन्हें अलग से प्रकाशित भी किया हैं। । (१३) बारसाणुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा) - अनुप्रेक्षाएँ १२ मानी गई है, इन्हें भावनाएँ भी कहा जाता है । अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं की संख्या को लेकर जैन परम्परा में अनेक मत हैं - कुछ आचार्य मैत्री, प्रमोद, करुणा
और माध्यस्थ्य - ऐसी चार भावनाएँ मानते हैं । किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में निम्न १२ भावनाएं मानी गई है - १. अनित्य भावना, २. अशरण भावना, ३. एकत्व भावना, ४. अन्यत्व भावना, ५. संसार भावना, ६. लोक भावना, ७. अशुचि भावना, ८. आस्रव भावना, ९. संवर भावना, १०. निर्जरा भावना, ११. धर्म भावना और १२. बोधिदुर्लभ भावना । प्रकारान्तर से श्वे. आगमों में पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का उल्लेख भी मिलता है। फिर भी जैन परम्परा में भावनाओं को लेकर जो भी ग्रन्थ लिखे गये हैं उनमें उपरोक्त बारह भावनाओं की ही चर्चा हुई है । आचार्य कुन्दकुन्द ने उन्हीं का अनुसरण कर बारह
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भावनाओं की चर्चा की है । इस सम्बन्ध में एक अन्य ग्रन्थ स्वामी कार्तिकेय का भी है । श्वेताम्बर परम्परा में अनेक आचार्यों ने इन भावनाओं को आधार बनाकर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी आदि में अनेक ग्रन्थ लिखे हैं । . (१४-२१) दस भक्तियाँ – दस भक्तियों में जुगलकिशोरजी मुख्तार के अनुसार ८ भक्तियाँ ही आचार्य कुन्दकुन्दरचित हैं - १. थोरसामिदण्डक (अर्हत्भक्ति). २. सिद्धभक्ति, ३. आचार्यभक्ति, ४. पंचगुरुभक्ति, ५. श्रुतभक्ति, ६. योगीभक्ति, ७. चारित्रभक्ति और ८. सिद्धभक्ति । शेष दो भक्तिया किसके द्वारा रचित हैं, यह विचारणीय है । भक्तियों को स्वतन्त्र ग्रन्थ मानने में एक समस्या है । क्योंकि ये स्तुतिरूपं भक्तियाँ अतिसंक्षिप्त हैं । इस कारण कुछ आचार्य इन दस भक्तियों को भी एक ही ग्रन्थ मानते हैं । इनमें ८ भक्तियों कुन्दकुन्द द्वारा रचित मानी गई हैं ।
. इनके अतिरिक्त २२ रयणसार, २३ मूलाचार आदि अन्य कुछ ग्रन्थ भी कुन्दकुन्द रचित माने जाते हैं । यद्यपि इनका कुन्दकुन्दरचित होना विवादास्पद है । आचार्य कुन्दकुन्दरचित माने गये इन ग्रन्थों में श्वेताम्बर मान्य आगमों से कहाँ-कहाँ और कौनसी गाथाएँ समान हैं, यहाँ बताना भी विवाद को जन्म देगा, अतः इस चर्चा को विराम देकर इस विषय को यहीं समाप्त कर देना उचित होगा । यहाँ मेरा आशय यह है कि हम आचार्यश्री के साहित्यिक अवदान के महत्त्व को समझे यही उचित होगा ।
प्राच्य विद्यापीठ, दुपाडा रोड, शाजापुर (म.प्र.)
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तत्त्वबोधप्रवेशिका - २ ख्यातिवाद ,
_ - मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
[जैसा कि इस लेखश्रेणी के प्रथम चरण में निवेदित है, श्रीसिद्धसेन दिवाकर रचित सन्मतितर्कप्रकरण पर न्यायपञ्चानन श्रीअभयदेवसूरिजी प्रणीत 'तत्त्वबोधविधायिनी' वृत्ति में निविष्ट दुरूह और सुविस्तृत चर्चाओं में से कुछएक अतिमहत्त्वपूर्ण चर्चाओं को सरल शैली और सङ् क्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने का . यह एक प्रयास है । थोडे बहुत तुलनात्मक सन्दर्भो से मण्डित ऐसी प्रस्तुति विद्यार्थीओं के लिए प्रारम्भिक स्तर पर काफी उपयुक्त और रसप्रद हो सकती है ऐसी अनुभवपुष्ट भावना इस प्रयास से जुडी हुई है ।
श्रेणी का प्रथम लेख लेखक की मातृभाषा गुजराती में प्रकाशित था । लेख को देखकर गुरुजनों का सूचन हुआ कि ऐसा प्रयास यदि राष्ट्रभाषा में किया जाय तो अ-गुजराती लोग भी इससे लाभान्वित हो सके । लेखक द्वारा उस सूचन को आदेश समझकर शिरोधार्य किया गया है।
प्रथम लेख वृत्ति में प्रथमत: चर्चित प्रामाण्यवाद से सम्बन्धित था । वृत्ति में उसके बाद प्रेरणाबुद्धि का अप्रामाण्य, ज्ञातृव्यापार की असिद्धि, अभावप्रमाण की अनावश्यकता ऐसी मीमांसा दर्शन से जुडी हुई छोटी-बडी चर्चाए हैं । उसी में प्रसङ्गवशात् प्राभाकर-सम्मत स्मृतिप्रमोष का खण्डन है । यह स्मृतिप्रमोष भ्रमज्ञान की जनक एक प्रक्रिया है । भ्रमज्ञान की उत्पत्ति के विषय में ऐसी बहुत सारी प्रक्रियाओं का विभिन्न दार्शनिकों द्वारा निरूपण हुआ है, जो अलग-अलग ‘ख्याति' के नाम से पहचानी जाती हैं । दार्शनिक जगत में भ्रमज्ञान की जनक इन प्रक्रियाओं की चर्चा 'ख्यातिवाद' कहलाती है । इस बार इस विषय पर विमर्श प्रस्तुत है ।] ____ अप्रमाणभूत ज्ञान तीन प्रकार का हो सकता है : १. संशय २. अनध्यवसाय ३. विपर्यय । इनमें से तीसरे प्रकार का अप्रमाणात्मक ज्ञान, जो 'विपर्यय, मिथ्याज्ञान, अतत्त्वज्ञान, भ्रम, भ्रान्ति, विभ्रम, व्यभिचारिज्ञान, ज्ञानाभास' इत्यादि अनेक अभिधाओं से व्यञ्जित किया जाता है, वह भी दो तरीके का हो सकता है - १. पारमाथिक या परम भ्रम २. व्यावहारिक भ्रम ।
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परम भ्रम का सभी दार्शनिकों द्वारा निरूपण होने के बावजूद भी इसकी कोई एक निश्चित व्याख्या करना कठिन है । क्यों कि प्रत्येक दर्शन की दृष्टि में उसका स्वरूप विभिन्न होने के कारण उसका कोई एक लक्षण बन ही नहीं पाता । ___कहने का मतलब यह है कि सभी दार्शनिकों ने अपनी अपनी दृष्टिरुचि के मुताबिक तत्त्व की विवेचना की है । अतः आपस-आपस में तत्त्वनिरूपणों का सङ्घर्ष होना बिल्कुल स्वाभाविक है । और सभी दार्शनिक खुद के निरूपण को ही सच मानते हैं । हर दार्शनिक की सोच में दूसरा कुछ भी गलत ही होगा । सो प्रत्येक दर्शन की निगाह में खुद की तत्त्वविवेचना का बोध 'सम्यगज्ञान' कहलायेगा, जब कि दूसरों की तत्त्वविवेचना 'परम भ्रम' गिनी जायेगी । . उदाहरण के तौर पर देखे तो नैयायिकादि कहते हैं कि द्रव्य-गुण आदि का भेदज्ञान ही तत्त्वज्ञान है, तब इसके विरुद्ध अद्वैतवादी का कहना है कि उस भेदज्ञान से बढकर दूसरा कोई मिथ्याज्ञान नहीं । इस तरह यह परम भ्रम प्रस्थानभेद से नाना स्वरूपवाला हो जाता है, और कहीं मिथ्यात्व, कहीं अविद्या, कहीं वासना इत्यादि अभिधानों से पहचाना जाता है । सभी दार्शनिकों ने इस मिथ्याज्ञान के नाश से 'मोक्ष' होना स्वीकार किया है ।
इस परम भ्रम के विषय में जैन दर्शन का मन्तव्य सब से अलग है । यद्यपि उसके मत में भी ऐसे परम भ्रम का अस्तित्व है ही, और वह भी ऐसे मिथ्याज्ञान के धारक को मिथ्यात्वी ही कहता है । इतना ही नहीं, उसके मतानुसार ऐसे मिथ्याज्ञान के निरास के बिना मोक्षपथ पर प्रगति की कोई गुंजाईश भी नहीं । तथापि दूसरे दार्शनिकों के परम भ्रम से जैन दर्शन सम्मत परम भ्रम में महद् अन्तर है । जब अन्य सभी दर्शन खुद से भिन्न दर्शन की तत्त्वविभावना को मिथ्याज्ञान गिनते हैं, तब जैन दर्शन उनकी, 'हमारे अलावा दूसरों का तत्त्वनिरूपण गलत है' ऐसी सोच को 'परम भ्रम' समझता है । चूँकि वह सत्यनिष्ठ, तत्त्वान्वेषी व समन्वयशील है, अतः उसे अन्य सभी दर्शनों में सत्य की आंशिक सत्ता स्वीकृत है ।
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लेकिन जब कोई भी दर्शन खुद की अपूर्णता को नजरअन्दाज करके स्वयं को परिपूर्ण और एकमात्र सत्य समझने लगता है, और अन्य सभी के प्रति निम्नता का भाव धारण करता है तो वह अपने आप परम भ्रम हो जाता है। सम्यग् ज्ञान तो सभी दर्शनों में निहित सत्यांशों का आकलन करके उन सब का सुचारु रूप से समन्वय करने से, व अन्य सभी मिथ्या अभिनिवेशों का निरसन करने से ही मिल सकता है । सक्षेप में कहा जाय तो जैन मत के अनुसार सभी दर्शनों की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए अनेकान्तरूप से तत्त्वनिर्णय करना ही सम्यग् ज्ञान है, जब कि किसी एक मान्यता के आग्रहवश होने वाला अपूर्ण तत्त्वबोध यानी एकान्तवाद ही मिथ्याज्ञान या . परम भ्रम है, जो मोक्षमार्ग पर प्रगति का मुख्य प्रतिरोधक तत्त्व है ।
दूसरा भ्रम है व्यावहारिक भ्रम । भ्रान्ति के रूप में इस व्यावहारिक भ्रम का ही प्रमाणशास्त्रों में मुख्यतया विवेचन होता है, और यहाँ भी उसी का विवेचन अभिमत है । दार्शनिकों में इस भ्रम के अस्तित्व को लेकर ऐकमत्य है, और लोकव्यवहार में शुक्तिका में रजतज्ञान, मरुमरीचिका में जलज्ञान जैसे जितने ज्ञानों को भ्रम गिना जाता है, उन सभी ज्ञानों का व्यावहारिक भ्रम के रूप में स्वीकार करने में भी किसी को कोई आपत्ति नहीं । ____ यद्यपि मीमांसक प्रभाकर के 'सभी ज्ञान यथार्थ ही होते हैं' और तत्त्वोपप्लवसिंहकार भट्ट जयराशि के 'व्यभिचारी ज्ञान का अस्तित्व ही नहीं' इस मतलब के निरूपण को देखते हुए 'वे दोनों व्यावहारिक भ्रम का अस्वीकार कर रहे हैं' ऐसा आपाततः प्रतीत हो सकता है । लेकिन उन्होंने उपर्युक्त मिथ्याज्ञानों की उत्पत्ति की जो प्रक्रियाएं प्रदर्शित की है, उसे देखकर मालूम होता है कि उन दोनों ने अपनी-अपनी मान्यता को बचाए रखने के लिए ही, भ्रम का 'भ्रम' रूप में स्वीकार न करके, शब्दान्तर से उसे स्वीकृति दी है । मूलतत्त्व तो वही है यह आगे स्पष्ट किया जाएगा ।
___ दर्शनों में जो विवाद देखा जाता है वह इन भ्रमात्मक ज्ञानों की उत्पत्ति को लेकर है । जैसे कि शुक्ति में 'इदं रजतम्' ज्ञान को ले, तो
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यहाँ ज्ञान का विषयभूत पदार्थ व्यवहार में शुक्तिरूप में परिगणित शुक्ति ही है, रजत नहीं, उसमें (दोषवशात्) होनेवाला रजत का बोध गलत है; पश्चाद्भावी शुक्ति के सम्यग्ज्ञान से बाधित होने वाला वह बोध भ्रम गिना जाता है इन सभी बातों को लेकर दार्शनिकों में ऐकमत्य होने पर भी, 'ऐसा क्युं होता है ?' इस विषय में एकमत्य नहीं है । सभी दर्शन अपनी तत्त्वविभावना बाधित न हो इसी तरह प्रत्यक्षाभास की विवेचना प्रदर्शित करते हैं ।
सभी दार्शनिकों के सामने मुख्य प्रश्न यही है कि शुक्तिका में रजतप्रत्यय की उत्पत्ति का निमित्त क्या है ? जो उपस्थित है उसका ज्ञान नहीं और जिस के साथ नेत्र का कोई संसर्ग नहीं उसका ज्ञान ऐसा क्यों ? दोष किस का प्रमाता का ? इन्द्रिय का ? विषय का ? या फिर और किसी का ? इन दोषों की मीमांसा के समय सभी दार्शनिक दो विभागों में विभक्त हो जाते हैं । बाह्य पदार्थों की सत्ता जिन्हें स्वीकृत है उनके सामने यह प्रश्न है कि ज्ञान अर्थानुसारी हो तो फिर शुक्ति का अनुसरण न करके वह रजतावसायी कैसे बना ? जब कि अद्वैतवादियों, शून्यवादियों इत्यादि के समक्ष यह प्रश्न है कि शुक्ति और रजत इन दोनों का अस्तित्व न होते हुए भी वहां रजत क्यों दिखाई देता है ? । और शुक्ति में शुक्ति का ज्ञान, अभ्रान्त और रजत का ज्ञान भ्रान्त क्यों ? । जब कि अर्थाभाव दोनों स्थिति में समान है फिर भ्रान्ताभ्रान्त विवेक कैसे ?
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“आत्मख्यातिरसत्ख्यातिरख्यातिः ख्यातिरन्यथा । तथाऽनिर्वचनख्यातिरित्येतत् ख्यातिपञ्चकम् ॥
योगाचारा माध्यमिकास्तथा मीमांसका अपि । नैयायिका मायिनश्च पञ्च ख्यातीः क्रमाज्जगुः ॥ "
इन प्रश्नों के निराकरणस्वरूप विविध दार्शनिकों द्वारा सूचित भ्रमोत्पत्ति की प्रक्रियाएं 'ख्याति' कहलाती हैं । प्रमाणशास्त्र में ज्यादातर पाँच ख्यातियाँ प्रसिद्ध हैं
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लेकिन अनेक जगह आठ ख्याति का भी बयान है । जैसे - "अन्यथाख्यातिरख्यातिविवेकाख्यातिरेव च । असत्ख्यातिः प्रसिद्धार्थाख्यातिरेव च पञ्चमी || आत्मख्यातिस्तथा षष्ठी, ख्यातिः सप्तम्यलौकिकी । अष्टम्यवाच्यताख्यातिरित्यष्टौ नामतः स्मृताः ॥"
पर प्रमाणशास्त्रों में इनके अलावा भी ख्यातियाँ देखने मिलती हैं । यहाँ निम्नोक्त ख्यातियाँ और उन पर अन्यथाख्यातिवादियों के द्वारा किया गया विचार सङ्केप में प्रस्तुत किया जाएगा । चूंकि इन ख्यातियों में अन्यथाख्याति ही बलवती व प्रमाणभूत है, और जैन, नैयायिक, कुमारिल भट्ट इत्यादि के द्वारा स्वीकृत है, इसलिए उसीके द्वारा अन्य ख्यातिओं का खण्डन यहाँ प्रस्तुत है। ___ख्यातिनिरूपण निम्नोक्त क्रम से किया जाएगा - भ्रमज्ञान के विषयभूत बाह्यार्थ की सत्ता न स्वीकारने वाले दार्शनिकों की ख्यातियाँ : १. माध्यमिकों की असत्ख्याति २. योगाचारों की आत्मख्याति ३. ब्रह्माद्वैतवादियों की अनिर्वचनीयख्याति ४. चार्वाकों की अख्याति ५. न्यायटीकाकार आदि की विविध असत्संसर्गख्यातिया; ज्ञान में अविद्यमान का प्रतिभास न स्वीकारने वाले दार्शनिकों की ख्यातियाँ : ६. साङ्ख्यों की प्रसिद्धार्थख्याति ७. मीमांसकों की अलौकिकख्याति ८. रामानुजाचार्य आदि की विविध. सत्ख्यातियाँ; भ्रमज्ञान की अन्यथा विवेचना करने वाले दार्शनिकों की ख्यातियाँ : ९. प्राभाकरों की विवेकाख्याति १०. जैन, नैयायिक आदि की अन्यथाख्याति ११. विविध सदसत्ख्यातियाँ
क्रमशः निरूपण - १. माध्यमिक व सौत्रान्तिक सम्मत असत्ख्याति __ जिस ज्ञान में जिस अर्थ का प्रतिभास होता है उसीको उस ज्ञान का आलम्बन मानना उचित है - इस बात को मान लेने पर प्रश्न होगा कि भ्रमज्ञान में प्रतिभासमान वस्तु ज्ञानात्मक होती है या अर्थात्मक ? |
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ज्ञानात्मक तो वह नहीं हो सकती, क्यों कि तब तो शुक्ति में रजत का भ्रमात्मक ज्ञान 'अहं रजतम्' ऐसा होना चाहिए, यतः ज्ञान खुद को ही उस रूप में ग्रहण कर रहा है, पर ऐसा अनुभव कभी भी नहीं होता । अतः भ्रमज्ञान की विषयभूत वस्तु को बाह्य अर्थात्मक ही समझनी चाहिए, ज्ञानात्मक नहि । लेकिन वह बाह्य अर्थ 'सत्' तो हो नहीं सकता, क्यों कि यदि वह सत् होता तो उससे तत्साध्य अर्थक्रिया भी होनी चाहिए थी, जो नहीं ही होती । अतः अनायत्या भ्रमस्थल में हम असत् पदार्थ का ही बोध कर रहे हैं, ऐसा ही स्वीकार करना होगा । यही कहलाती है 'असत्ख्याति' ।
यह स्वीकार माध्यमिकों के लिए दोनों ओर से लाभदायी है । एक तो, ज्ञान को सालम्बन मानने पर भी यदि वे भ्रमज्ञान में किसी सद्भूत बाह्यार्थ को आलम्बन नहीं मानते हैं, तो एक तरह से निरालम्बनवाद ही सिद्ध होता है, जो कि उनको वस्तुतः अभीष्ट है । दूसरी ओर, असत् का भी ज्ञान हो सकता है यह स्वीकृत होने पर, प्रमाणबल से प्रमेय की व्यवस्था तूट जाने से, अपने आप शून्यवाद ही फलित होता है ।
सारांश यह है कि माध्यमिक सभी वस्तुओं को शून्य, असत्, निःस्वभाव ही समझते हैं । वे प्रथमतः सभी पदार्थों की व्यावहारिक सत्ता मानकर उनकी परीक्षा करते हैं, और अन्त में सभी की पारमाथिक असत्ता दिखाकर, उनको विषय बनाने वाले सभी ज्ञानों को 'भ्रम' सिद्ध करते हैं । उनके मत से ज्ञानों में जो भ्रमाभ्रम-विवेक होता है, उसका आधार व्यावहारिक सत्यता-असत्यता ही है; पारमार्थिक दृष्टि से तो एक निर्विकल्पज्ञान के सिवा सभी सविषयक ज्ञान असत् के ग्राहक होने से असत्ख्यात्यात्मक भ्रम ही हैं ।
वस्तुतः माध्यमिकों की दृष्टि में असत् शुक्ति में शुक्ति का ज्ञान हो या रजत का, दोनों ही असदालम्बन होने से परमार्थदृष्टि से अज्ञान ही हैं । अनादि वासना गत असत्प्रकाशन की शक्ति के कारण वे उद्भूत होते हैं ।
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जब वासना से विपरीतसंवादजनक असत्प्रकाशन होता है, तब हम उस असत्प्रकाशन को व्यावहारिक रूप में भ्रम गिनते हैं, अन्यथा सम्यक्संवाद-जनक असत्प्रकाशन व्यावहारिक सत्यता की कसौटी पर 'प्रमा' गिना जाता है । जब कि वास्तव में सभी मिथ्याज्ञान ही हैं ।
माध्यमिकों की इस असत्ख्याति के विरुद्ध अन्यथाख्याति के समर्थकों ने निम्नोक्त तर्क दिए हैं -
१. ज्ञान में असत् का प्रतिभास हो ही नहीं सकता । असत् का मतलब ही यह होता है कि किसी भी प्रतीति का आलम्बन वह न बने । अन्यथा शशशृङ्ग का प्रतिभास भी क्यों नहीं होता ? शून्यवादियों के मत में तो शशशृङ्ग हो या शुक्तिका - दोनों समान रूप से असत् हैं । फिर एक का प्रतिभास हो सकता है और एक का नहि इसमें नियामक क्या ? ।
२. ज्ञान में प्रतिभासित होना ही अर्थों का सत्त्व गिना जाता है । अब यदि ज्ञान ही असत् का ग्राहक हो गया, तो प्रमाण के बल से प्रमेयव्यवस्था नहीं बन पाएगी । आखिर तो माध्यमिकों को भी शून्यवाद की सिद्धि किसी ज्ञान से ही करनी होगी । लेकिन जब ज्ञान भी असत् का ग्राहक हो सकता है, तब तो शून्यवाद भी किसी ज्ञान से सिद्ध नहीं हो सकता । - ३. ज्ञान जब असत् का ही ग्राहक है, तो भ्रान्तिगत वैचित्र्य ही उपपन्न नहीं हो सकता । सत् के स्वभाव में वैविध्य होने से तद्ग्राहक ज्ञान में भी विभिन्नता हो सकती है । असत् तो खुद ही निःस्वभाव है, तो उसके ग्रहण में वैचित्र्य कैसे ? । .
४. भ्रान्ति के विषयभूत पदार्थ से कोई अर्थक्रिया निष्पन्न नहीं होने की वजह से वह असत् है यह बात भी ठीक नहि । वहाँ विशिष्ट अर्थक्रिया सम्पन्न न होने पर भी सामान्य अर्थक्रियाएँ तो होती ही है । जैसे रजतरूपेण ज्ञात शुक्ति से रजत की विशिष्ट अर्थक्रियाएँ नहीं होगी, परन्तु अभिलाप, ग्रहण, मोचन आदि सामान्य अर्थक्रियाएँ तो वहाँ भी होती हैं । यह क्रियाएँ शशशृङ्गादि असत् पदार्थो में तो
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सम्भवित नही हैं । तो उन क्रियाओं की कारक चीज को हम 'असत्' कैसे समझे ? । ___और भी बहुत सारे तर्क असत्ख्याति के विरुद्ध हो सकते हैं । शून्यवाद के खण्डन में की गई तमाम दलीलें यहाँ भी लागू होती हैं, यतः शून्यवाद और असत्ख्याति एक ही तत्त्व के दो पहेलू हैं ।
सौत्रान्तिकों का मन्तव्य भी इस बारे में माध्यमिकों से मिलता-झुलता ही है। २. योगाचार सम्मत आत्मख्याति
विज्ञानवादी बौद्धों के मत से समूचे विश्व में एक ही तत्त्व परिस्फुरायमान है और वह है विज्ञान । उससे अतिरिक्त किसी बाह्य तत्त्व का अस्तित्व ही नहीं है। वह स्वयंप्रकाश है और ग्राह्य-ग्राहक भाव से रहित है । उस आन्तरतत्त्व स्वरूप विज्ञान के विविध आकार ही बाह्य पदार्थ के रूप में प्रतिभासित होते हैं । अत एव सविषयक ज्ञानमात्र भ्रान्त हैं, क्यों कि वे बाह्यरूप से आरोपित अन्तस्तत्त्व का साक्षात्कार करते हैं । चूँकि अनादि वासना के उद्बोधन से ही प्रतिभासों में वैचित्र्य सम्भवित है, अतः प्रतिभासभेद की सङ्गति के लिए भी बाह्य पदार्थों की सत्ता का स्वीकार आवश्यक नहीं ।
योगाचार की उक्त दृष्टि से देखा जाय तो सिर्फ शुक्ति में रजत का ज्ञान नहि, अपितु सभी बाह्यार्थविषयक ज्ञान परमार्थतः भ्रान्त ही होते हैं । वस्तुतः उन बाह्यार्थविषयक ज्ञानों में ज्ञान के अपने ही आकारों का बोध होता है, अतः वहाँ 'आत्मख्याति' (-स्वयं का बोध) गिनी जाती है ।
प्रश्न यह होता है कि विज्ञानवाद में भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक कैसे होगा ? यदि सभी ऐन्द्रियक ज्ञान परमार्थतः भ्रान्त ही होंगे, तो शुक्ति में चाहे शुक्ति का ज्ञान हो चाहे रजत का ज्ञान हो, होंगे तो दोनों ही भ्रान्त ! फिर प्रमाअप्रमा की व्यवस्था कैसे बन पाएगी ? बाह्यरूप से आरोपित होने से भ्रान्त ज्ञानाकारों में सच-झूठ का विभागीकरण कैसे हो सकता है ? ।
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विज्ञानवादियों इसका उत्तर देते हुए बताते हैं कि व्यवहार में हमारी इन्द्रियों की जितनी शक्ति है उसके अनुसार ही, उसकी मर्यादा में रहकर ही, हम सभी अपने संवादि ज्ञानों को प्रमाणभूत मानकर प्रवृत्त होते हैं । जैसे दो दृष्टिरोगियों को परस्पर द्विचन्द्रदर्शन में संवाद होने से, उनको एकदूसरे की अपेक्षा से अपना-अपना ज्ञान अविसंवादी ही मालूम होता है; उसी प्रकार हम सभी पृथग्जनों की ऐन्द्रियक शक्तिमर्यादा करीब करीब एक सी होती है, अत एव एक हद तक, हम सभी, अपने कुछ ज्ञानों को भ्रान्त और कुछ को अभ्रान्त समझकर, अपना-अपना व्यवहार चलाते हैं । अतः पारमार्थिक दृष्टि से - वस्तुतः सभी ज्ञान भ्रान्त होने पर भी, दृश्य और प्राप्य के एकत्वारोप से होने वाले संवाद-विसंवाद के बल पर, व्यावहारिक स्तर पर हमारा काम चल जाता है । ___ सारांश यह है कि जितना भी वासना का कार्य है, चाहे वह संवादी हो या विसंवादी, वह सब वासनामूलक होने से परमार्थतः मिथ्या ही है । उन सभी प्रत्ययों में वासना से उबुद्ध ज्ञान के अपने आकारों की ही बाह्य अर्थों के रूप में प्रतीति होती है, अत: वहाँ 'आत्मख्याति' मानी जाती है । विज्ञान एकमात्र, शुद्ध और अविभाग होने से उसमें बाध्यबाधकभाव या भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक सम्भवित ही नहीं । व्यावहारिक दृष्टि से जो विज्ञानाकार अपने पूर्वोत्तर विज्ञानाकारों से संवादी होता है, वह अविपरीतवासना-प्रबोधमूलक ज्ञानाकार अभ्रान्त समझा जाता है । और एक ज्ञानाकार के पश्चात् यदि उससे विपरीत विज्ञानाकार की उत्पादक वासना का प्रबोध होता है तो वह विज्ञानाकार विसंवादी होने से व्यावहारिक दृष्टि से भ्रान्त गिना जाता है । एवं वासनाप्रभूतत्व से प्रतिबद्ध मिथ्यात्व सभी विज्ञानाकारों में समान रूप में होने पर भी, विपरीत और अविपरीत वासनामूलकत्व के निर्धारण से व्यावहारिक दृष्टि में भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक कर पाना सम्भव है ।
योगाचारसम्मत इस आत्मख्याति का अन्य दार्शनिकों द्वारा प्रबल खण्डन हुआ है । यह आत्मख्याति का सिद्धान्त पूर्णतः, बाह्य अर्थों के
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सर्वथा असत्त्व, एकमात्र अविभाज्य शुद्ध विज्ञान के अस्तित्व और वासना के उद्बोधन से होनेवाले विज्ञान के नानाकारत्व तन्नाम विज्ञानवाद पर आधारित है । और इस विज्ञानवाद का अन्य सभी दार्शनिकों द्वारा खण्डन होने पर, आत्मख्याति भी अपने आप खण्डित हो जाती है । बाह्य जगत् की वास्तविकी सत्ता और प्रामाणिकता स्वीकारने वाले दार्शनिकों के मत में, उसकी सिद्धि होने पर, आत्मख्याति खुद एक भ्रम हो जाती है ।
वैसे भी आन्तरतत्त्व स्वरूप विज्ञान के आकार का बाह्यरूप में ज्ञान होना वह एक तरह की अन्यथाख्याति ही कहलायेगी, आत्मख्याति नहीं । आत्मख्याति तो तब होती, जब ज्ञान खुद के आकार को, 'यह मैं हूं' या 'यह मेरा आकार है' इस रूप में ग्रहण करता । सो तो है नहीं, फिर उसे आत्मख्याति कैसे गिन सकते है ? |
ज्ञान में जो सम्भवित ही नहीं वैसे छेद, भेद, दाह इत्यादि भावों का ज्ञानांकार के रूप में स्वीकार भी युक्तियुक्त नहीं । तदुपरांत, व्यावहारिक भ्रान्ताभ्रान्त - विवेक के लिए आवश्यक वासना के वैपरीत्य-अवैपरीत्य का भी नियामक तत्त्व भी विज्ञानवाद में सम्भवित नहीं । अतः उस में भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक व बाध्यबाधकभाव के असम्भव की न्यूनता वैसी ही ही है ।
३. ब्रह्माद्वैतवादी सम्मत अनिर्वचनीयख्याति
ब्रह्माद्वैतवादियों का कहना है कि शुक्ति में रजतज्ञान का विषय जो रजत है वह सत् नहीं, क्योंकि वह सत् होता तो मिथ्या नहीं कहलाता । वह असत् भी नहीं, क्योंकि असत् से खपुष्प की तरह तद्विषयक ज्ञान या प्रवृत्ति ही सम्भवित नहीं । उक्त दोनों दोषों की आपत्ति होने से वह सदसद्रूप भी नहीं हो सकता । अतः ज्ञानप्रतिभासित उस रजत का सदसदादि किसी भी रूप से निर्वचन अशक्य होने से उसको अनिर्वचनीय ही मानना चाहिए । और उसके ज्ञान को 'अनिर्वचनीयख्याति' गिननी चाहिए |
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शाङ्कर अद्वैत अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही परम सत् है, अतः सद्रूप से निर्वचनीय है । बाकी सब अविद्याजन्य, अविद्यारूप, मायिक होने से मिथ्या है । परम सत् ब्रह्म के अधिष्ठान पर अविद्या मायिक जगत् के रूप में अपना प्रस्तार फैलाती है । अतः ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त जगत् के समूचे ज्ञान मिथ्या ज्ञान हैं, जो कि तत्त्वज्ञानस्वरूप ब्रह्मज्ञान से बाधित होते हैं । यह अविद्या और तद्रूप जगत् के सकल पदार्थ सत्-असत् विलक्षण हैं - अनिर्वचनीय हैं। वे तत्त्वज्ञान से बाध्य होने के कारण सत् भी नहीं, अर्थक्रियाव्याप्त होने से असत् भी नहीं, सत् - असत् में परस्पर विरोध होने
की वजह से उभयरूप भी नहीं । अतः वे सदादि किसी भी रूप से निर्वचन के योग्य न होने से अनिर्वचनीय गिने जाते हैं, और उनका ज्ञान 'अनिर्वचनीयख्याति' के नाम से पहचाना जाता है । इस रीति से देखें तो ब्रह्माद्वैतवाद में ब्रह्मज्ञान के अतिरिक्त ज्ञानमात्र अनिर्वचनीयख्यातिं ही हैं ।
लेकिन यह हुई परम भ्रम की बात । व्यवहार में तो प्रमा-अप्रमाअन्यतरात्मक ज्ञान होते हैं । अविद्या के मूल कार्य के ज्ञान को अभ्रान्त, और एक मूल कार्य पर ही दूसरे मूल कार्य का आरोप करके होने वाला ज्ञान भ्रान्त - यह व्यावहारिक भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक है। जैसे कि शुक्ति में रजत का भ्रम होता है । वहाँ अविद्या रजत का उपादानकारण व शुक्ति उसका अधिष्ठानकारण है । हम शुक्तिरूप अधिष्ठान में अविद्याजन्य रजत का दोषवशात् आरोपण करते हैं । और अन्तःकरण की रजताकार मिथ्या वृत्ति से 'इदं रजतम्' ऐसा आरोपित ज्ञान करते हैं । यही भ्रम है । पश्चात्काल में दोष के दूर होने पर, अन्तःकरण की सम्यक् वृत्ति से होने वाले शुक्ति के ज्ञान से रजत का ज्ञान बाधित होकर निवृत्त होता है । जैसे कि पहेले बताया जा चुका है, ज्ञान से प्रतिभासित यह रजत सत्-असत्-विलक्षण होने से अनिर्वचनीय है, एवं उसकी ज्ञप्ति अनिर्वचनीयख्याति है । . वस्तुतः देखा जाय तो विज्ञानवादियों की आत्मख्याति और अद्वैतवादियों की अनिर्वचनीयख्याति में नाममात्र का भेद है । दोनों बाह्य वस्तुओ को न सत् कहना चाहते हैं, न असत् । दोनों को आन्तर अमूर्त
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तत्त्व का ही बाह्य रूप से प्रतिभास मान्य है । वह तत्त्व एक ने विज्ञान माना, दूसरे ने अविद्या । एक के मत से विपरीत वासना के कारण एकरूप विज्ञान का द्वैधीभाव होकर उसकी ग्राह्य-ग्राहक भाव से प्रतीति होती है । दूसरे की दृष्टि में अविद्या की वजह से, ब्रह्म की चित्शक्ति, अविद्योपादानक रजत की प्रतीति में व्याप्त होती है । ____ द्वैतवादियों की ओर से अद्वैतवाद के विरुद्ध बहुत सारी दलीलें पेश की गई हैं । और अविद्या व ब्रह्म की नींव पे खडा किया गया अद्वैत का महल धराशायी किया गया है । इसलिए अद्वैत के सिद्धान्त पर अवलम्बित अनिर्वचनीयख्याति का भी स्वत: निरास हो जाता है । चूँकि विज्ञानवाद की आत्मख्याति से अद्वैतवाद की अनिर्वचनीयख्याति में कोई अन्तर नहीं, अत: आत्मख्याति के विरुद्ध किए गए तर्क यहाँ भी लागू होते हैं । ४. चार्वाक सम्मत अख्याति
चार्वाक का कहना है कि शुक्ति में होने वाला 'इदं रजतम्' यह भ्रमात्मक प्रत्यय किसको आलम्बन बनाता है ? । रजत को तो उसका विषय मान ही नहीं सकते, क्यों कि तब तो रजतरूप से रजत के ग्राहक उस ज्ञान को प्रमात्मक ज्ञान गिनना पडेगा, भ्रमात्मक नहीं । रजत का ज्ञान रजताभाव को भी विषय नहीं बना सकता । ज्ञान में प्रतिभासित न होनेवाली शक्ति भी रजतज्ञान का विषय नहीं हो सकती । और अन्य का अन्य आकार से ग्रहण अस्वीकार्य होने के कारण रजताकार से शुक्ति भी उस ज्ञान का विषय मानी नहीं जा सकती । इस तरह शुक्ति में रजतज्ञान का कोई आलम्बन न होने से उसे निरालम्बन मानना ही उचित है । चूँकि इस प्रत्यय में किसी भी वस्तु की ख्याति है ही नहीं, इस लिए यह अख्याति गिनी जाती है ।
विपर्यय को भी सालम्बन मानने वाले आचार्यों का कहना है कि - १. यदि विपरीत प्रत्यय निरालम्बन होता है, उसमें स्व या पर कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता, तो उसे 'रजतज्ञान, जलज्ञान' ऐसे अभिधान क्यों दिए जाते हैं ? ।
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२. दो भ्रमज्ञानों में परस्पर भेद भी नहि हो पाएगा । क्यों कि निरालम्बन ज्ञानों में विषयव्यवस्था ही नहीं बन पाती । और उसके सिवा ज्ञानों में भेदक तत्त्व भी क्या हो सकता है ? ।
३. चार्वाक के मत से तो सुप्तावस्था और भ्रम दोनों में कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता, तो दोनों अवस्थाओं में भेद क्या रहा ? |
वस्तुतः अख्यातिवाद के समर्थक चार्वाक भट्ट जयराशि का एकमात्र कार्य यह है कि दूसरे दार्शनिकों ने अपने अपने तर्कबल से जो कुछ सिद्ध समझ रखा है उसकी नितान्त असिद्धि उनको दिखलाना | दर्शनमात्र का प्रयोजन मिथ्या ज्ञान के नाश द्वारा मोक्ष प्राप्त करना है । यदि संसार से मिथ्याज्ञान का ही अस्तित्व मिट जाय तो दर्शन प्रयोजनहीन हो जाता है । अत एव दार्शनिकों द्वारा निरूपित मिथ्याज्ञान का भी खण्डन भट्ट जयराशि ने उचित समझा । उनका कहना है कि यदि मिथ्याज्ञान के विषय की व्यवस्था हो सके तो हम यह कह सकते हैं कि ज्ञान का आलम्बन अन्य है और प्रतीति किसी अन्य की हो रही है अत एव अमुक ज्ञान मिथ्या है । परन्तु जब वास्तव में ज्ञान के विषय की व्यवस्था ही नहीं बन पाती तब मिथ्याज्ञान का अस्तित्व कैसे सिद्ध होगा ? । इसलिए व्यभिचारी ज्ञान की सत्ता स्वीकृत नहीं की जा सकती ।
इस तरह से देंखे तो अख्याति का तात्पर्य भ्रमोत्पत्ति की कोई विशिष्ट प्रक्रिया या स्वरूप वर्णित करने में नहि, अपितु व्यावहारिक स्तर पर भ्रमज्ञान का अस्तित्व स्वीकृत करके भी दार्शनिक स्तर पर भ्रमज्ञान के उच्छेद में है । आगे बढकर भट्ट जयराशि ने तो ज्ञानमात्रं को निरालम्बन सिद्ध करने का प्रयास किया है, क्यों कि उन्हें दार्शनिकों को सम्मत 'प्रमाण के बल से प्रमेयव्यवस्था' को सिद्धान्त को तोडना था; पर 'प्रमेयकमलमार्तण्ड 'कार प्रभाचन्द्र जैसे दार्शनिकों ने उसका कडा प्रतीकार किया है । ५. वाचस्पति मिश्र व. की विविध असत्संसर्गख्यातियाँ
न्यायटीकाकार, वाचस्पति मिश्र आदि की दृष्टि में, देशान्तर में प्रसिद्ध रजतनिष्ठ रजतत्व का शुक्ति में जो अलीक समवाय सम्बन्ध है, उसका 'इदं
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रजतम्' इस ज्ञान में प्रतिभास होता है । यहाँ शुक्ति भी सत् है, रजतत्व भी सत् है । पर उन दोनों में जिस समवाय सम्बन्ध का अध्यास है, वह अलीक होने से यह 'असत्संसर्गख्याति' ( अलीक सम्बन्ध की ज्ञप्ति) गिनी जाती है । कितनेक आचार्यों का कहना है कि रजत तादात्म्य सम्बन्ध से रजत में रहता है, लेकिन असत् तादात्म्य के ग्रह से वह शुक्तिस्थल में भी प्रतिभासित होता है । यह भी अन्य प्रकार की असत्संसर्गख्याति ही है । इस तरह अलीक संसर्ग के ग्रहण से होने वाली अन्य असत्संसर्गख्यातियों का भी निरूपण मिलता है ।
रजत देशान्तर में तो सत् ही है और पुरोवर्ती अन्य सत् पदार्थ में उसका प्रतिभास हो रहा है यह बात अन्यथाख्याति और असत्संसर्गख्याति में समान ही है । फर्क सिर्फ इतना है कि असत्संसर्गख्याति में सत् के. उपराग से 'असत् सम्बन्ध का भान स्वीकृत है, जब कि अन्यथाख्याति अनुसार एक सत् दूसरे सत् के रूप में प्रतिभासित होता है ।
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असत् का प्रत्यक्षभान सम्भव नहीं, असत् कहीं सम्बद्ध नहीं हो सकता इत्यादि तर्क इस ख्याति के विरुद्ध दिए जाते हैं । वैसे भी संसर्ग को अलीक मानने पर, जिस चीज का उस संसर्ग से आभास हो रहा है उसकी पुरोवर्ती पदार्थ में सत्ता भी स्वीकृत करनी ही पडती है । उस सत्ता को सत्य समझने पर संत्ख्याति से, और अलीक समझने पर असत्ख्याति से इस ख्याति का कोई भेद ही नहीं रहता ।
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अब भ्रम के विषयभूत बाह्य पदार्थ की सत्ता जिनको सम्मत है ऐसे दार्शनिकों की ख्यातियाँ देखे । बाह्यार्थवादियों में दो पक्ष हैं । एक मत से ज्ञान में अविद्यमान का प्रतिभास हो यह सम्भवित ही नहीं । अतः सर्वत्र सर्व की सत्ता होती ही है और उस सत् का ही ग्रहण ज्ञानमात्र में होता है । इसलिए ज्ञानमात्र परमार्थतः अभ्रान्त ही होता है । कुछ ज्ञानों में जो भ्रान्तता का व्यवहार होता है वह स्थूल लोकव्यवहार से ही होता है । उस भ्रान्तता का व्यवहार किस तरह सम्भवित है यह दर्शाने वाली ख्यातियाँ
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६. साङ्ख्य सम्मत प्रसिद्धार्थख्याति
सत्कार्यवादी साङ्ख्यों के मत में किसी वस्तु का कहीं भी अभाव नहीं है। उनका कहना है कि वस्तु सर्वथा असत् हो तो आकाशकुसुमवत् वह प्रतिभास का विषय बन ही नहीं सकती । ज्ञान में जब और जहाँ अर्थ प्रतिभासित होता है तब और वहाँ वह अर्थ प्रमाणप्रसिद्ध ही है । अतः भ्रमस्थल में प्रसिद्ध अर्थ की ही ख्याति होने से वह 'प्रसिद्धार्थख्याति' है।
सत्कार्यवाद में अर्थों का उत्पाद-विनाश सम्भवित ही नहीं है । अर्थों का केवल व्यक्तीकरण-अव्यक्तीकरण होता रहता है । अर्थों के व्यक्तीभाव के दौरान हम उनको सत् समझते हैं, और अव्यक्तीभाव के समय उनका अभाव मान लेते हैं । लेकिन यह हमारी स्थूल व्यवहार दृष्टि है । वस्तु तो सर्वदा सर्वत्र सत् ही होती है - यह परमसत्य है । ___ भ्रमकाल में भी पुरोवर्ती स्थल में रजत् सत् और व्यक्त ही होता है और तभी हम उसका ग्रहण कर पाते हैं । परन्तु बाद में कारणवशात् उसके अव्यक्त हो जाने पर, व्यवहार में उसकी अनुपलब्धि होने से, हम पूर्वज्ञान को भ्रम समझ लेते हैं । और जहा पश्चात्काल में भी अर्थ व्यक्त ही रहता है वहाँ व्यवहार में उसकी उपलब्धि होने से, हम पूर्वज्ञान को अभ्रान्त समझते हैं । वस्तुतः दोनों ज्ञान अभ्रान्त ही होते हैं । विद्युत् आदि क्षणिक पदार्थ की तरह उत्तरकाल में रजत की उपलब्धि न होने पर भी, ज्ञानकाल में उसका अस्तित्व सिद्ध ही है। अन्यथा विद्युदादि के ज्ञानों को भी भ्रम मानना होगा ।
सत्कार्यवादियों की इस प्रसिद्धार्थख्याति के समक्ष निम्नोक्त समस्याएँ प्रस्तुत की जाती है -
१. पानी के सूख जाने के बाद भी, उसकी पूर्वकालीन सत्ता के सूचक भूमि की स्निग्धता आदि चिह्न उपलब्ध होते ही हैं । पानी का विद्युत् की तरह शीघ्र और निरन्वय विनाश सम्भवित ही नहीं । तो मरुमरीचिका में जल का जो भ्रमात्मक ज्ञान होता है, वहाँ पश्चात्काल में
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भूस्निग्धतादि चिह्नों की अनुपलब्धि होने से भ्रमकाल में उसका सत्त्व था ऐसा कैसे मान सकते हैं ? ।
२. विद्युत् देखने वालों को, उत्तरकाल में विद्युत् की उपलब्धि न होने पर भी, पूर्वकाल में एकसमान विद्युत् की प्रतीति होने से, एक-दूसरे की समान प्रतीति के बल पर, पूर्वज्ञान में प्रामाण्यनिश्चय हो सकता है । शुक्तिस्थल में हर दर्शक को एकसमान रजत की प्रतीति तो होती नहि, कि जिसके बल पर हम वहाँ रजत का व्यक्तीभाव समझ पाएँ ।
३. ज्ञान में भासित होने वाले हर पदार्थ का उस जगह उस काल में अस्तित्व व व्यक्तीभाव होता ही है ऐसा स्वीकार, एक ही जगह एक साथ रजत और शुक्ति दोनों का व्यक्तीभाव व अस्तित्व सिद्ध करेगा, क्यों कि एक ही शुक्ति में दो भिन्न व्यक्तियों को एकसाथ 'इदं रजतम्' और 'इयं शुक्तिः' ऐसे दो ज्ञान उत्पन्न हो सकते हैं । इस तरह एकसाथ एक ही जगह दो भिन्न अर्थों का प्रादुर्भाव स्वयं साङ्ख्यमत के विरुद्ध है । ७. मीमांसक सम्मत अलौकिकख्याति
कुछ मीमांसक अविद्यमान का प्रतिभास नहीं मानते । उनका कहना है कि ज्ञान में इस प्रकार का विपर्यय ही सम्भवित नहीं कि विषय कुछ और हो, प्रतिभासित कुछ और हो । मतलब कि सभी ज्ञान परमार्थतः सत्य ही होते हैं । व्यवहार की दृष्टि से ज्ञान में भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक होता है, लेकिन ज्ञानियों की दृष्टि में ऐसा विवेक ही खुद एक भ्रान्ति है ।
उनके मत से बाह्यार्थ दो तरह का होता है : १. व्यवहारसमर्थ २. व्यवहारासमर्थ । व्यवहारसमर्थ अर्थ लोकसम्मत होने से लौकिक गिना जाता है, जब कि दूसरा विकल्पबुद्धि का विषयभूत अर्थ लोकसम्मत न होने से अलौकिक समझा जाता है, जो शास्त्रविदों को सम्मत होने पर भी लोकव्यवहार में असमर्थ होता है । और इसी वजह से भ्रम का दूसरा नाम 'अलौकिकख्याति' है ।
शुक्ति में रजत का ज्ञान, जो लोकव्यवहार में भ्रान्तरूप में परिगणित हैं, उसमें लौकिक नहि, अपितु अलौकिक रजत आलम्बनभूत होता है ।
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अर्थात् सभी पदार्थों की हमेशा सर्वत्र सत्ता होती ही है, कहीं लौकिक रूप में तो कहीं अलौकिक रूप में । व्यवहार में लौकिकसत्ता का ग्रहण प्रमा, तो अलौकिकसत्ता का ग्रहण भ्रम गिना जाता है ।
मीमांसको के मत से, भ्रमज्ञान को निरालम्बन मानने पर शून्यवाद या विज्ञानवाद के समर्थन का भय है; तो उसके आलम्बन को असत् मानने पर भी, असत्ख्याति और उसके पीछे शून्यवाद ही चला आता है । और भ्रमज्ञान के आलम्बन को यदि सत् मान ले तो उसकी अनुपलब्धि सम्भवित नहीं होगी । इस परिस्थिति में मीमांसकों ने यह रास्ता ढूंढ निकाला कि भ्रमज्ञान के आलम्बन को सत् मानते हुए भी उसे अलौकिक मान लिया जाय । तब फलित यह होगा कि रजतरूप से प्रतिभासित शुक्तिस्थल में रजतसाध्य क्रिया का अभाव रजत की अलौकिकता के कारण से है, न कि रजत के अभाव के कारण से ।
इस अलौकिकख्याति के अस्वीकार में दार्शनिकों ने जो कारण दर्शाये हैं वे यह हैं
१. अलौकिकत्व का निर्वचन ही शक्य नहीं । व्यवहार में असमर्थ होना अलौकिकत्व की कसौटी नहीं बन सकता । क्यों कि तब तो अलौकिकत्व और असत्त्व में अन्तर ही क्या रह गया ? । वैसे भी शुक्ति में रजत को असत् समझे या अलौकिकसत् समझे, क्या फर्क होता है ? । और तब तो अलौकिकख्याति, असत्ख्याति का नामान्तर ही हुआ ।
२. शुक्ति में रजत का भ्रम करने वाला, अलौकिक रजत को लौकिक रजत समझकर उसमें प्रवृत्त होता है । तो यह एक तरह से अन्यथाख्याति ही हुई न ? |
३. पश्चाद्भावी ‘नेदं रजतम्' ज्ञान से क्या बाधित होता है ? रजतसामान्य का तो बाध हो नहि सकता, क्यों कि आपके मत से वह तो सदैव शक्तिस्थल में है ही । और लौकिक रजत का बाधं तो कभी प्रतीत नहीं होता । अतः बाध्यबाधकभाव भी अनुपपन्न होता है ।
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८. रामानुजाचार्य आदि की विभिन्न सत्ख्यातियाँ
रामानुजाचार्य आदि वेदान्ती आचार्यों के मत में, साङ्ख्यो की तरह ही, सर्वत्र सर्वदा सर्व की सत्ता होने से, ज्ञानमात्र परमार्थतः अभ्रान्त ही होता है । और व्यावहारिक भ्रमस्थल में भी वस्तुतः सत् की ही ज्ञप्ति होने से वहाँ ‘सत्ख्याति' गिनी जाती है । फिर भी व्यावहारिक भ्रान्ताभ्रान्तविवेक की सङ्गति वे इस तरह दिखाते हैं -
रामानुजाचार्य - जिसे हम शुक्ति समझते हैं, उसमें वस्तुतः रजतांश भी शुक्तिकांश की तरह है ही । केवल वहाँ शुक्तिकांश का बाहुल्य होने से वह 'शक्ति' के नाम से व्यवहृत होती है । अतः शुक्ति में जब 'इदं रजतम्' प्रत्यय होता है, तब वहाँ रजतांश के होने की वजह से वह प्रत्यय यथार्थ ही है। फिर भी व्यवहार में उसे मिथ्याज्ञान इसलिए कहा जाता है कि चक्षुरादि के दोष के कारण शुक्ति में सिर्फ रजतांश का ही दर्शन हुआ और जिसका बाहुल्य था वह शुक्तिकांश अन्तर्हित ही रह गया । बाद में दोषनिवृत्ति से शुक्तिकांश का दर्शन होने पर व उसका बाहुल्य ज्ञात होने पर 'इयं शुक्तिः' प्रत्यय उत्पन्न होता है व रजतज्ञान की निवृत्ति होती है ।
मध्वाचार्य - शुक्ति में 'इदं रजतम्' प्रत्यय के उत्तरकाल में शुक्ति का ज्ञान होने पर, उससे बाधित होकर रजतज्ञान निवृत्त होता है और 'मुझे असत् रजत प्रतिभासित हुआ' ऐसा बोध उत्पन्न होता है । चूंकि असत् के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध सम्भवित नहीं, अतः वहाँ चक्षु का असत् रजत के साथ सम्बन्ध स्वीकृत नहि किया जा सकता । वस्तुतः वहाँ चक्षु का संसर्ग तो शुक्ति के साथ ही होता है, परन्तु इन्द्रिय दोषवशात् शुक्ति में अत्यन्त असत् रजतरूप से अवगाहन करती है । माध्वमत में असत् रजत के साथ चक्षु का सन्निकर्ष न होने से असत्ख्याति नहीं गिनी जा सकती, अपितु सद्भूत शुक्ति के साथ ही इन्द्रियसंसर्ग होने के कारण एक प्रकार की सत्ख्याति ही है, केवल इन्द्रिय का अधिष्ठान में अवगाहन असदात्मना होता है । अलबत्त, द्वैतवादी माध्वमत में सर्वदा सर्वत्र सर्व पदार्थों की
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सत्ता स्वीकृत न होने से, परमार्थतः सभी ज्ञान अभ्रान्त ही होते हैं - ऐसा स्वीकार नहि किया गया । ___निम्बार्काचार्य - जीव, ईश्वर और सभी अचेतन पदार्थों में परस्पर भेदाभेद है । अतः शुक्ति और रजत में परस्पर भेद भी है व अभेद भी । शक्तिस्थल में होनेवाले 'इदं रजतम्' ज्ञान में, शुक्तितादात्म्येन रजत का प्रतिभास होने से, दोनों में अभेद का दर्शन करने वाला यह ज्ञान प्रमात्मक ही है । फिर भी वह ज्ञान भ्रमात्मक इसलिए कहा जाता है कि शुक्ति और रजत में जैसे अभेद है वैसे भेद भी है और वह ज्ञान भेद को न दिखाकर केवल अभेद दिखा रहा है । जब कि शुक्ति में शुक्ति का केवल अभेद है, और शक्तिस्थल में उत्पन्न 'इयं शुक्तिः' इस ज्ञान में वह अभेद ही अध्यवसित होता है, अतः इस ज्ञान को 'प्रमा' गिना जाता है ।
वल्लभाचार्य - जिनमें चित्त्व और आनन्दवत्त्व आवृत है ऐसे ब्रह्म के परिणाम ही जड पदार्थ कहे जाते हैं, लेकिन ब्रह्म का सत्त्व तो उनमें भी अनुस्यूत ही रहता है । ये जड परिणाम दो तरह के हो सकते हैं, एक कारणों की विकृति से जन्य, दूसरे कारणों में परिवर्तन न होने पर भी उत्पन्न होने वाले । शुक्तिरूप ब्रह्मपरिणाम अपने कारणों में परिवर्तन होने से उत्पन्न होता है (जैसे दूध से दहीं), और शुक्तिस्थल में कारणों में परिवर्तन की अपेक्षा न रखते हुए ही रजतात्मक ब्रह्मपरिणाम होता है । ये दोनों परिणाम सत्त्वात्मक ब्रह्म के होने से सत् ही हैं, उनका ग्रहण सत्ख्याति होने से परमार्थतः यथार्थ ही होता है । ज्ञानों में जो भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक होता है वह, ब्रह्मपरिणाम जिन कारणों की अपेक्षा से उद्भूत है उनकी विकृतिअविकृति को ध्यान में रखते हुए व्यावहारिक दृष्टि से किया जाता है । ___ इनके अलावा भी अचिन्त्यभेदाभेदवादी आदि आचार्यों की अपनी अपनी तत्त्वविभावना की अनुकूल ख्यातियाँ है । ये सब ख्यातियाँ किसी ना किसी तरह पूर्वोक्त ख्यातियों में समाविष्ट हो जाती हैं । अतः उनके खण्डन से इनका भी खण्डन हो जाने के कारण इनके खण्डन के लिए पृथक् प्रयास प्रायः दिखाई नहीं देता ।
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९. प्रभाकर सम्मत विवेकाख्याति
पूर्वोक्त सत्ख्याति, अलौकिकख्याति आदि के समर्थक आचार्यों के मत से परमार्थतः कोई भी ज्ञान अयथार्थ न होने पर भी, व्यावहारिक जगत् में भ्रान्तज्ञान का अस्तित्व तो स्वीकृत ही है । जब कि मीमांसक प्रभाकर को तो व्यावहारिक स्तर पर भी भ्रान्तज्ञान का अस्तित्व मान्य नहीं । उसके , मत में तो ज्ञानमात्र व्यवहार में भी यथार्थ ही होता है। ___मीमांसकों के एक पक्ष ने जो अलौकिकख्याति का मार्ग निकाला था, वह दोषबहुल होने से प्रभाकर को स्वीकार्य न था । तो वृद्ध मीमांसकों द्वारा स्वीकृत अन्यथाख्याति भी प्रभाकर को सम्मत न थी । उसका तर्क था कि यदि कोई ज्ञान अयथार्थ भी हो तो मीमांसकों का मुख्य सिद्धान्त स्वतःप्रामाण्य घट नहीं सकता । क्यों कि तब तो यथार्थ ज्ञान में भी सहज शङ्का का अवकाश रहेगा कि यह ज्ञान अयथार्थ तो नहीं ? । उक्त शङ्का को दूर करके यथार्थ ज्ञान को अबाधित सिद्ध करने के लिए संवाद आदि से बाधकाभाव का निश्चय आवश्यक हो जाता है । और तब तो उक्त निश्चय के सापेक्ष ही प्रामाण्यनिश्चय होने से, परतः प्रामाण्य सिद्ध होगा, न कि स्वतः । इस तरह यदि अन्यथाख्याति का स्वीकार करना है तो स्वतः प्रामाण्य-ज्ञप्ति को बर्खास्तगी ही देनी होगी ।
विपरीतख्याति के विरुद्ध प्रभाकर ने दूसरा तर्क यह दिया कि यदि अन्यदेशस्थ रजत का शुक्तिदेश में भान हो जाय तो शुक्तिदेश में शशशृङ्गादि अत्यन्त असत् का भी भान क्यों न हो ? । क्यों कि भ्रमस्थलीय विवक्षित देश में, अन्यत्र सत् और अत्यन्तासत् - दोनों का असत्त्व समान ही है । तब तो असत्ख्याति यानी शून्यवाद को ही अवलम्बन देना होगा ।
उक्त दोषों से बचने के लिए यदि भ्रमज्ञान के विषयभूत पदार्थ को सत् मान लिया जाय तो सत्ख्याति यानी सर्वत्र सर्व की सत्ता स्वीकारनी होगी, जो कतई सम्भवित नहीं । अतः प्रभाकर ने भ्रमोत्पत्ति का एक नया
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मार्ग खोज निकाला, जो अग्रहण, विवेकाग्रहण, अख्याति, विवेकाख्याति, भेदाग्रह, स्मृतिप्रमोष इत्यादि नामों से व्यवहृत होता है ।
प्रभाकर का कहना है कि चक्षुरादि इन्द्रिय का संयोग एक के साथ हो और प्रत्यक्ष किसी दूसरी चीज का हो यह सम्भव नहीं । क्यों कि असनिकृष्ट अर्थ को भी यदि प्रत्यक्ष का आलम्बन मान लिया जाय तो अन्ध पुरुष को भी शुक्ति में रजत का प्रतिभास होना चाहिए । कहने का मर्म यह है कि चक्षुष्मान् और अन्ध दोनों को शुक्तिस्थल में रजत का असन्निकर्ष समान रूप से होने पर भी, एक को रजतज्ञान होता है व दूसरे को नहीं होता इस बात से ही यह सिद्ध होता है कि रजतबुद्धि के लिए रजत का विषय होना अनिवार्य है । अर्थात् जिस ज्ञान में जिसका प्रतिभास हो वही उस ज्ञान का विषय हो सकता है, ज्ञान में अप्रतिभासित वस्तु को हम उस ज्ञान का विषय मान ही नहीं सकते । अतः शुक्ति में होनेवाले रजतज्ञान का विषय रजत ही है, शुक्ति नहीं । और इस तरह वह यथार्थ ही होता है, भ्रान्त नहीं ।
प्रश्न होता है कि यदि सभी ज्ञान यथार्थ ही होते हैं तो फिर शुक्ति में शुक्तिज्ञान अभ्रान्त और रजतज्ञान भ्रान्त क्यों गिना जाता है ? । अथवा शुक्ति में रजत का ज्ञान, जिसे लोक भ्रम गिनते हैं, उसकी उपपत्ति कैसे हो सकती है ? । प्रभाकर का कहना है कि जब कोई पुरुष रजतसदृश शुक्ति को देखता है, तब यदि वह इन्द्रियादि के दोष की वजह से रजत से शक्ति का जो वैलक्षण्य है उसका ग्रहण न करके केवल सादृश्य का ग्रहण करे, तो उसे तादृश प्रत्यक्ष से रजत का स्मरण होता है । वह पुरुष मनोदोषादि के कारण प्रत्यक्ष व स्मरण के बीच जो भेद है उसका और प्रत्यक्ष के विषयभूत शुक्ति और स्मर्यमाण रजत के बीच जो भेद है उसका ग्रहण नहीं कर पाता । वह दोनों ज्ञानों को और उन दो ज्ञानों की विषयभूत वस्तु को एक ही समझ लेता है । फलतः वह शुक्ति को रजत समझता है। लोग इसे भ्रम समझते हैं, पर वस्तुतः वह भ्रम न होकर, दो यथार्थ ज्ञानों के बीच रहे हुए भेद का अग्रह या विवेक(-वैलक्षण्य) की अज्ञप्ति(-अख्याति) ही है।
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सारांश यह है कि शुक्ति में रजत के भ्रमात्मक ज्ञान को अन्य सब दार्शनिक एक ज्ञान मानते हैं, तब प्रभाकर स्वतःप्रामाण्य के सिद्धान्त की रक्षा के लिए स्वीकृत ‘सभी ज्ञान यथार्थ ही होते हैं' इस सिद्धान्त के मुताबिक शुक्तिप्रत्यक्ष व रजतस्मरण - इन दो यथार्थ ज्ञानों के मिथ्या एकीकरण को भ्रम गिनते हैं । ऐसा करने से, उनकी सोच में, न तो परतःप्रामाण्य का सिद्धान्त पुरस्कृत होता है, न तो शून्यवाद को अवकाश मिलता है । पुनः शुक्तिदेश में रजत का असत्त्व ही होने से यहाँ सत्कार्यवाद भी खडा नहीं हो पाता ।
प्रभाकर की इस विवेकाख्याति का सभी दार्शनिकों ने प्रबल प्रतिवाद किया है । सन्मतितर्कवृत्ति में भी इसका विस्तृत खण्डन हुआ है । दार्शनिकों के द्वारा की गई अनेकानेक दलील में मुख्य ये हैं - . १. प्रभाकर ने परतःप्रामाण्यवाद और शून्यवाद के स्वीकार के भय से विपरीतख्याति का अभ्युपगम नहीं किया । लेकिन स्मृति-प्रमोष में भी स्मृति स्मृतिरूप में गृहीत न होकर अनुभवरूप में गृहीत होती है (तभी तो स्मृत रजत का इदन्त्वेन बोध होता है), तो यह विपरीतख्याति ही हुई न ? ।
तदुपरान्त स्मृतिप्रमोष में परतःप्रामाण्यवाद का भय भी तदवस्थ ही है । क्यों कि कालान्तर में रजतज्ञान होने पर यह आशङ्का होगी ही कि यहाँ स्मृतिप्रमोष होने से रजत का मिथ्या प्रतिभास हो रहा है या सच्चे रजत की ही अनुभूति है ? । इस आशङ्का के निराकरण के लिए संवादादि बाधकाभाव की खोज करनी ही होगी, सो परतःप्रामाण्यवाद ही आ गया, क्यों कि बाधकाभाव के निश्चय तक तो प्रामाण्यनिश्चय हो ही नहीं सकता ।
शून्यवाद की आपत्ति भी स्मृतिप्रमोष में बनी ही रहती है । क्यों कि शुक्तिस्थल में जायमान रजतज्ञान में जो रजताकार प्रतिभासित होता है, वह संनिहित रजत का है । और स्मृति से जो रजताकार प्रतिभासित होता है, वह असंनिहित रजत का है । अतः उस असंनिहित रजतसत्त्व का उक्त भ्रमज्ञान में कोई उपयोग नहीं है । तात्पर्यतः 'इदं रजतम्' इस भ्रमज्ञान में प्रतिभासित संनिहित रजत असत् ही हुआ । इस प्रकार ज्ञान जब
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असदर्थविषयक भी हो सकता है तो किसी भी ज्ञान के विषय को परमार्थसत् मानने की आवश्यकता न रहने से शून्यवाद ही प्रसक्त होगा ।
२. भ्रमज्ञानोत्तरभावी बाधकज्ञान से भी स्मृतिप्रमोष की सिद्धि नहीं होती । क्यों कि बाधकप्रतीति से तो 'नेदं रजतम्' इस रूप में भ्रमज्ञान में भासित रजत की असद्रूपता ही सिद्ध होती है, न कि 'रजतप्रतिभासः प्रकृतः स्मृतिः' इस रूप में उसकी स्मृतिरूपता आवेदित होती है । इसलिए भ्रान्ति को स्मृतिप्रमोषगर्भित मान नहीं सकते ।
३. भ्रान्ति में दो ज्ञान का भेदाग्रह मानने पर उसका स्वसंवेदन किस रूप में होगा - प्रत्यक्षरूप में या स्मृतिरूप में ? उभयात्मकरूप में स्वसंवेदन यानी आत्मप्रत्यक्ष तो अनुभवविरुद्ध है।
४. एकसाथ दो ज्ञान की सत्ता तो स्वयं प्रभाकर के मत में भी अनुभवविरुद्ध होने से अस्वीकृत है । तो भेदाग्रह होने के लिए अनिवार्य दो ज्ञानों की युगपत् सत्ता कहाँ से आएगी ?
५. प्रत्यभिज्ञा के बल से भी भ्रमज्ञान का एकत्व ही सिद्ध होता है ।
इस तरह उपरोक्त ख्यातियों की अभ्युपगम-अनर्हता को देखकर जैन दार्शनिकों के द्वारा अन्यथाख्याति यानी विपरीतख्याति का ही अभ्युपगम हुआ है, जो नैयायिक, वैशेषिक, कुमारिल भट्ट आदि को भी मान्य है । १०. जैन, नैयायिक आदि सम्मत अन्यथाख्याति
एक वस्तु की अन्य वस्तु के रूप में प्रतीति को अन्यथाख्याति या विपरीतख्याति कहते हैं । विपर्यय का मतलब यह है कि अन्य आलम्बन में अन्य प्रत्यय का होना । शुक्ति में शुक्ति का प्रत्यय ही अविपरीत प्रत्यय है और रजतप्रत्यय विपरीत, जो कि क्रमशः इन्द्रियों के गुण-दोष का फल है । दोष के कारण शुक्ति का निज रूप से प्रत्यक्ष न होकर वह रजतरूप से दिखती है, यही भ्रान्ति है । शुक्ति भी सत् है व रजत भी सत् है । भ्रम में उस देश-काल में स्थित शुक्ति की जगह अन्य देश-काल में स्थित रजत का प्रत्यक्ष होता है । इसकी उत्पत्ति की प्रक्रिया ऐसी होती है -
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शुक्ति के साथ चक्षुरिन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर कभी कभी पूर्वकाल में अन्यत्र दृष्ट रजत के सादृश्य का उसमें दर्शन होता है । इस दर्शन से उस रजत के संस्कार उद्बुद्ध होते हैं, जिनसे रजत की स्मृति होती है । उस स्मृतिस्थ रजत का प्रमाता, इन्द्रिय आदि के दोषवशात् बहिर्देश में आरोप होकर प्रतिभास होता है । अर्थात् उपस्थित शुक्तिका स्मृतिस्थ रजतरूप में प्रतिभासित होती है । फलतः शुक्ति में 'इदं रजतम्' ऐसा भ्रमात्मक रजतज्ञान होता है ।
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जिस पुरुष को पहेले कभी भी रजत का दर्शन हुआ ही नहीं, उसे ऐसा भ्रमात्मक ज्ञान नहीं होता । इससे सिद्ध होता है कि शुक्ति में भ्रमात्मक रजतज्ञान होने के लिए पूर्वदृष्ट रजत का स्मरण जरूरी है । उत्तरकालीन नैयायिकों ने उक्त स्मरण को ज्ञानलक्षण अलौकिक सन्निकर्ष समझकर भ्रम को अलौकिक प्रत्यक्ष गिना है । यद्यपि द्विचन्द्रज्ञान, अलातचक्रज्ञान, शङ्खपीतत्वज्ञान जैसे भ्रमात्मक ज्ञानों में उपस्थित वस्तु के सादृश्य की भूमिका नहीं भी होती, फिर भी वहाँ पर भी उपस्थित वस्तु के किसी विशिष्ट अंश के कारण उबुद्ध स्मरण के विषयभूत पदार्थ का दोषवशात् बहिर्भाग में आरोप अवश्य होता है ।
पूर्वोक्त ख्यातिओं से इस ख्याति का वैलक्षण्य स्पष्ट है । इस ख्याति के अनुसार शुक्ति में रजतज्ञान, रजतस्मृति से सहकृत प्रत्यक्षज्ञान है, न कि स्मृति; और वह भी दो ज्ञानों का भ्रमात्मक संयोजन न होकर स्वयं एक ज्ञान है । इस तरह विवेकाख्याति से इसका बडा भेद है । विपरीतख्याति के अनुसार बाह्य वस्तुएँ सर्वथा शून्यरूप, ज्ञानरूप या सद्रूप नहीं होने से, असत्ख्याति, आत्मख्याति या सत्ख्याति को यहाँ अवकाश नहीं है । इस वाद में बाह्य पदार्थों के विषय में लौकिकालौकिक या क्षणिक- व्यक्ताव्यक्त विभागीकरण न होने से, अलौकिकख्याति व प्रसिद्धार्थख्याति का भी सम्भव नहीं । और बाह्य पदार्थों का निर्वचन सम्भवित होने से अनिर्वचनीयख्याति भी शक्य नहीं । बाह्य पदार्थ को आलम्बनभूत मानने ★ जैन मत के अनुसार प्रत्यभिज्ञान
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से यह ख्याति अख्याति भी नहीं । और अन्यत्र सत् का अत्रत्य सत् में असत् संसर्ग का भान भी स्वीकृत न होने से असत्संसर्गख्याति से भी यह भिन्न है । इस ख्याति में तो भ्रमज्ञान में एक सत्ं का अन्य सत् के रूप में होने वाला अन्यथा या विपरीत दर्शन मान्य होने से यह अन्यथाख्याति या विपरीतख्याति के नाम से पहचानी जाती है ।
विपरीतख्याति के खण्डन में निम्नोक्त तर्क दिये जाते हैं।
१. भ्रमज्ञान का आलम्बन क्या है रजत या शुक्ति ? | यदि शुक्ति को उसका आलम्बन माने तो उसका ग्रहण रजताकार से क्यों होता है उसका स्पष्टीकरण अशक्य हो जाता है । यतः जो वस्तु जिस रूप से ज्ञान में प्रतिभासित हो उसी रूप को उस वस्तु का आकार समझना चाहिए । आलम्बन का आकार अन्य हो और अन्य आकार से उसका प्रतिभास भी हो ऐसा मानने पर तो किसी भी ज्ञान से किसी भी चीज का आकार तय नहीं हो पाएगा, क्यों कि तब तो हर ज्ञान में भासित आकार के विषय में शङ्का हो सकती है । प्रश्न तो यह भी है कि शुक्तिस्थल में शुक्ति को ही आलम्बन बनाने वाले ज्ञान को भ्रम ही क्यों गिना जाय ? ।
-
२. यदि भ्रमज्ञान रजत को आलम्बन बनाता है तो शुक्तिदेश में असद्भूत रजत को विषय बनाने वाला ज्ञान असत्ख्याति ही हुआ । यदि रजत का उस देश-काल में असत्त्व होने पर भी, भिन्न देश-काल में उसका सत्त्व होने से असत्ख्याति न होगी, तो प्रश्न होगा कि उस चक्षु से असन्निकृष्ट रजत का इदन्त्वेन चाक्षुषप्रत्यक्ष क्यों हो रहा है ? । यदि हम मान ले कि शुक्ति, जो इदन्त्वेन चाक्षुष प्रत्यक्ष का विषय है, उसमें, असन्निकृष्ट रजत का मिथ्या आरोप होता है; तो वहाँ जैसे रजत असन्निकृष्ट है वैसे समूचे विश्व के सारे पदार्थ असन्निकृष्ट हैं, उनका भान क्यों नहीं होता ?
३. 'इदं रजतम्' यह ज्ञान प्रत्यक्षात्मक होने से उसे स्मृति की अपेक्षा ही नहीं होती । तो उसमें स्मृतिस्थ पदार्थ का अवभासन कैसे हो सकता है ?
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इन समस्याओं का प्रभाचन्द्राचार्य ने 'न्यायकुमुदचन्द्र' में इस तरह समाधान दिया है -
असत्ख्याति में एकान्तेन असत् पदार्थ का प्रथन माना गया है, जब कि अन्यथाख्याति में भासित पदार्थ का अन्यत्र सत्त्व स्वीकृत है यह दोनों में महद् अन्तर है। ___असन्निकृष्ट रजत का दोषवशात् सन्निकृष्ट रूप में प्रत्यक्ष होना ही अन्यथाख्याति (जो रूप पदार्थ का नहीं है उस रूप में बोध) है, तो इसमें आपत्ति क्या ? और असन्निकृष्ट का ग्रहण मानने पर भी, सन्निकृष्ट में निहित सादृश्यादि से उबुद्ध स्मरण के विषयभूत पदार्थ का ही प्रत्यक्ष स्वीकारने से, विश्व के सभी पदार्थों के प्रत्यक्ष की आपत्ति भी नहीं आती ।
और स्मरण में परिस्फुरण जिसका हो रहा है उसी का बहिर्भान स्वीकारने पर भी, उस पदार्थ को सर्वथा ज्ञानरूप न मानकर उसकी अन्यत्र स्वतन्त्र सत्ता स्वीकारने से, आत्मख्याति का भी भय नहीं है।
वस्तुतः हम जैन दार्शनिक भ्रमात्मक 'इदं रजतम्' ज्ञान को प्रत्यक्षात्मक नहि, अपितु प्रत्यभिज्ञात्मक मानते हैं । उस ज्ञान में 'इदम्' अंश में दृश्यमान और 'रजतम्' अंश में दृष्ट का सङ्कलन होने से ‘स एवाऽयं देवदत्तः' इस ज्ञान की तरह वह प्रत्यभिज्ञा ही है। और वह प्रत्यभिज्ञात्मक होने से ही उसे दर्शन व स्मरण दोनों ज्ञानों की अपेक्षा रहती है, अन्यथा केवल प्रत्यक्षज्ञान में स्मरण की अपेक्षा नहीं होती । प्रभाकर ने भ्रमस्थान में दर्शन और स्मरण का मिथ्या एकीभाव माना है, जब कि यहाँ दर्शन
और स्मरण दोनों से जन्य एक स्वतन्त्र प्रत्यभिज्ञात्मक ज्ञान का स्वीकार है, यही स्मृतिप्रमोष और प्रत्यभिज्ञात्मक अन्यथाख्याति में अन्तर है ।
__उस भ्रमात्मक ज्ञान में जिसका अपना आकार निगूढ हो चुका है और रजताकार जिसने धारण किया है ऐसी शुक्ति ही आलम्बनभूत है । ज्ञान
* नैयायिक व जैनों की अन्यथाख्याति में यह एक सूक्ष्म अन्तर है । ऐसी और भी भिन्नता है जिसका जिक्र आगे किया गया है।
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रजताकार होने से शुक्ति उसका आलम्बन कैसे हो सकती है ऐसी शङ्का भी युक्त नहीं; क्यों कि अङ्गुलिनिर्देश करके जिसका ज्ञान के कर्मरूप में उल्लेख किया जाता है, उसे ही ज्ञान का आलम्बन गिना जाता है, फिर उसका प्रतिभास किसी भी रूप में हो । शुक्ति के अभाव में उक्त भ्रमज्ञान भी नहीं होता, अतः शुक्ति को ही उक्त भ्रमज्ञान का आलम्बन समझना उचित है । ११. विविध सदसत्ख्यातियाँ ___शङ्करचैतन्यभारती के ख्यातिवाद में जैनों को अन्यथाख्याति की जगह सदसत्ख्याति के समर्थक दिखाए गए हैं । वहाँ साङ्ख्यों और कुमारिल भट्ट को भी इसके ही पुरस्कर्ता बताये हैं । इसका कारण यह है कि "सदसत्ख्यातिर्बाधाबाधात्" इस सूत्र की विज्ञानभिक्षु कृत व्याख्या में "सर्व वस्तु नित्य होने से स्वरूप से बाधाभाव है, और संसर्ग असत् होने से बाध है" और "रजत दुकान में स्थित रूप से सत् है, और शुक्ति में अध्यस्त रूप से असत् है" ऐसा कहने से विज्ञानभिक्षु को सदसत्ख्याति मान्य है ऐसा समझा जाता है । चूँकि विज्ञानभिक्षु एक साङ्ख्याचार्य हैं, अतः ख्यातिवाद के कर्ता ने उक्त ख्याति को साङ्ख्यदर्शन सम्मत समझकर वर्णन किया हो ऐसा लगता है ।
नागेश भट्ट ने अपनी ‘मञ्जूषा' में उक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए एक विलक्षण प्रकार की सदसत्ख्याति का दर्शन कराया है । उनका कहना है कि शुक्ति में जब तक रजत का दर्शन होता है और अधिष्ठानभूत शुक्ति के सत्त्व के आरोप से बुद्धि में सद्भूत रजत का बहिर्देश में सद्रूप से अवभासन होता है, तब तक अबाध है, और उत्तरकाल में बाध होने से असत्त्व प्रतीत होता है इस तरह से सदसत्ख्याति समझनी चाहिए ।
भाट्ट मत में अभाव अधिकरणरूप होता है । अतः शुक्तिनिष्ठ रजत का अभाव भी शुक्तिरूप ही है । फलतः असद्भूत रजत शुक्तिरूप से तो बहिर्देश में वर्तमान ही है । लेकिन रजतरूप से उसका अभाव है । वस्तुतः जैन मत की तरह ही भाट्टों ने भी अभाव (-रजताभाव) का भावान्तरस्वरूप (-शुक्तिस्वरूप) ही स्वीकृत किया है । अर्थात् रजत
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रजतरूप से सत् है व शुक्तिरूप से असत् है । इसका मतलब यह हुआ कि शुक्तिदेश में भी रजत असद्रूपेण तो विद्यमान ही है। इसलिए शुक्ति में गृहीत होने वाला रजत, शुक्ति में असद्रूपेण विद्यमान व सद्रूपेण अविद्यमान होने से, उसका ग्रहण सदसत्ख्याति ही मानी जाएगी ।
___ जैनों ने भी पररूप से वस्तु का असत्त्व स्वीकार किया है । उसके मत से वस्तु सदसत्-उभयात्मक होती है । स्वरूप से सत्त्व जैसे उसका अंश है, वैसे पररूप से असत्त्व भी उसका ही अंश है । अतः शुक्तिदेश में स्वरूप से सत्त्व की विवक्षा से वह अविद्यमान होने पर भी, पररूप से असत्त्व की विवक्षा से वह विद्यमान ही है । भङ्ग्यन्तर से कहा जाय तो असत् रजत वहाँ शुक्तिरूपेण वर्तमान ही है । अत: उसका ग्रहण सदसत्ख्याति ही समझी जाएगी । . इस तरह से देखे तो विज्ञानभिक्षु, नागेश भट्ट, कुमारिल भट्ट व जैनों की ख्यातिनिरूपणा में वैलक्षण्य होने पर भी, भ्रम के विषयभूत पदार्थ का कथञ्चित् सत् और कथञ्चित् असत् होना चारों ख्यातियों में समान होने से वे एक समान ‘सदसत्ख्याति' के नाम से ख्यातिवाद में व्यवहृत की गई है । अलबत्त विज्ञानभिक्षु के मत से रजत का वहाँ स्वरूप से सत्त्व (-बाधाभाव) और अलीक संसर्ग का भान होने से असत्त्व (-बाध), नागेश भट्ट के मत से बाधाभावकाल में रजत का आरोपित सत्त्व और बाधकाल में (सहज) असत्त्व, भाट्ट मत में शुक्तिनिष्ठ रजताभाव शुक्तिस्वरूप होने से
और असत्त्व रजत का ही धर्म होने से, शुक्तिरूप से असत् रजत की विद्यमानता (-सत्त्व) और स्वरूप से सद्भूत रजत की अविद्यमानता (-असत्त्व), जैन मत में परस्वरूप से अभाव और स्वरूप से सद्भाव - दोनों वस्तु के ही धर्म होने से, शुक्तिदेश में पररूप से अभावात्मक रजत की विद्यमानता (-सत्त्व) और स्वरूप से सद्भावात्मक रजत की अविद्यमानता (-असत्त्व) होने से चारों सदसत्ख्यातियों में मूलगामी भेद है । फिर भी उस भेद की उपेक्षा करके वस्तु की सदसदात्मकता को विवेचित करते हुए, चारों ख्यातियाँ समान अभिधान प्राप्त करती हैं ।
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नैयायिकों ने शुक्तिदेश में रजत की कथञ्चित् सत्ता स्वीकृत नहीं की है । उनके मत से तो वहाँ रजत का सर्वथा असत्त्व ही है । इस अंश में नैयायिक व भाट्ट और जैनों में मतभेद होने पर भी, पुरःस्थ शुक्ति ही अन्यत्र स्वरूपेण सत् रजत के रूप में प्रतिभासित होती है इस अंश में उन तीनों के विचार समान होने से तीनों की ख्यातियाँ अन्यथाख्याति या विपरीतख्याति गिनी जाती है । नागेश भट्ट की सदसत्ख्याति नैयायिकों की अन्यथाख्याति से मिलतीझूलती ही है, और विज्ञानभिक्षु की सदसत्ख्याति व असत्संसर्गख्याति में नामभेद मात्र है, बाकी सब समान ही लगता है ।
किसी दार्शनिक ने भ्रमज्ञान को निर्दोष नहीं माना है । अतः सभी दार्शनिकों ने अपनी अपनी दृष्टि से दोषों की मीमांसा की है ।
नैयायिक-वैशेषिकों के मत से विपर्ययज्ञान में दोष द्रष्टा का या उसके साधन का होता है, अर्थ का कभी नहीं । जैसे इन्द्रिय से प्रथम मरीचिका का निर्विकल्प प्रत्यक्ष होने पर, जब सविकल्पज्ञान का अवसर आता है, तब मरीचिकागत जलसादृश्य के दर्शन से उपहत चक्षु अपना कार्य ठीक तरह से कर नहीं पाती और मरीचिका में जल का विपर्यय हो जाता है । इसमें दोष देखनेवाले का, उसके मन का या इन्द्रिय का हो सकता है । लेकिन ज्ञान की विषयभूत मरीचिका का क्या दोष ? | अगर वह दूषित होती, तो उसके सभी द्रष्टा को एकसमान विपर्यय होना चाहिए था, सो तो होता नहीं । इससे विरुद्ध, मीमांसा में द्रष्टा या साधन के ज्यों विषय का भी दोष गिनाया गया है। उनका कहना है कि विपर्यय उत्पन्न करने में अर्थगत सादृश्य, सौक्ष्म्य आदि का भी हिस्सा होता है ।
बोद्धों के मत से ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष में इन्द्रिय की मुख्यता होने से मिथ्याप्रत्यय में उसीका दोष मुख्य होता है । अन्य जितने भी दोष हो वे सभी मिलकर इन्द्रिय को ही विकृत करते हैं ।
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जैन दृष्टि से ज्ञानोत्पत्ति में आत्मा की मुख्यता है । अतः उसके अनुसार प्रमाता का ही दोष भ्रम का निमित्त है । प्रमाता में विकृति उत्पन्न करने में विषयादि गत दोष भले ही सहायक हो, मुख्य कार्य तो प्रमाता के पूर्वसञ्चित कर्मों के विपाक का ही होता है । ___अद्वैतवादियों ने कर्मविपाक की जगह अविद्या का अभ्युपगम किया है।
भ्रमज्ञान की उत्पत्ति के बाद जब तक उसका बाधकज्ञान नहीं होता तब तक वह निर्दोष ही गिना जाता है । और पुरुष उसे प्रमाण मानकर ही प्रवृत्त होता है । बाधकज्ञान से ही उसके मिथ्यात्व की प्रतीति होती है । ____ नव्यनैयायिकों ने स्पष्टता की है कि भ्रमज्ञान भी विशेष्य अंश में तो अभ्रान्त ही होता है । उदाहरणार्थ, 'इदं रजतम्' ज्ञान में, अभिमुख स्थित पदार्थ (शुक्ति) कि जो विशेष्यभूत है, उसका ही 'इदम्'रूप में यथार्थ संवेदन होने से, विशेष्य-अंश में तो उस ज्ञान को 'भ्रम' कहा नहीं जा सकता । उस ज्ञान की भ्रान्ति रजतत्वरूप विशेषण-अंश में ही है । नैयायिकों ने यहाँ एक ही ज्ञान को भ्रान्तभ्रान्त-उभयस्वरूप गिनकर स्याद्वाद का ही अभ्युपगम किया है, यह ध्यानपात्र बात है।
जैनों ने इससे भी आगे बढकर यह बताया है कि भ्रमज्ञान भी न केवल विशेष्यांश में, अपितु "मुझे 'इदं रजतम्' यह ज्ञान हुआ" ऐसे स्व-परप्रकाश प्रत्यय में, अथवा नैयायिकादि सम्मत अनुव्यवसायादि में, 'मझे' - प्रमातअंश, 'इदम्' - विशेष्यांश और 'यह ज्ञान' - प्रमितिअंश - इन तीनों अंशो में वह अभ्रान्त ही होता है । क्यों कि ज्ञान हुआ है, मुझे हुआ है और पुरोवर्ती पदार्थ को आलम्बन बनाकर हुआ है - इन तीनों बातों में तो वह मिथ्या नहीं ही है । उसका मिथ्यात्व केवल 'रजतम्' यह विशेषणांश में ही सीमित है ।
* जैन मत में कोई भी ज्ञान स्व-परप्रकाश न हो यह सम्भव नहीं ।
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जैन दार्शनिकों का कहना है कि ज्ञानों के विशेषणांश में भी . प्रामाण्येतर-व्यवस्था प्रायशः सङ्कीर्ण होती है । उदाहरणार्थ, इन्द्रियदोषजन्य चन्द्रद्वयदर्शन में सङ्ख्यांश के विषय में भ्रान्ति होने पर भी, चन्द्र के स्वरूपांश में तो वह सम्यग्ज्ञान ही है । उसी तरह एकचन्द्रदर्शन, जिसे हम प्रमा गिनते हैं वह भी, सङ्ख्यांश व स्वरूपांश में भले ही सम्यग् हो, चन्द्र को जितनी दूरी पर हम समझते हैं उससे वास्तव में बहुत ज्यादा दूरी पर होने से, उस अंश में तो वह भी मिथ्या है । इसलिए परमार्थतः तो कोई भी ऐन्द्रियक प्रत्यक्ष न तो केवल मिथ्या होता है, न तो केवल भ्रान्त ।
प्रश्न होता है कि सभी ऐन्द्रियक प्रत्यक्षों में यदि प्रामाण्य और अप्रामाण्य - दोनों संवलितरूप में होते हैं, तो भ्रान्ताभ्रान्त-विवेक कैसे सिद्ध होगा ? स्याद्वादियों का कहना है कि ज्ञानगत संवाद या विसंवाद के प्रकर्ष-अपकर्ष की अपेक्षा से ज्ञानों में प्रामाण्य या अप्रामाण्य का व्यवहार होता है । जैसे कस्तूरिकादि द्रव्यों में स्पर्शादिगुणों की अपेक्षा गन्धगुण की मात्रा उत्कट होने से वह गन्धद्रव्य कहा जाता है, वैसे ही जिस ज्ञान में संवाद की अपेक्षा विसंवाद की मात्रा अधिक हो उसे भ्रान्त व अप्रमाण गिना जाता है, जब कि संवाद के आधिक्य से व्यवहार में ज्ञान को प्रमाण समझा जाता है । इस तरह भ्रमज्ञान भी किसी अंश में सद्भूत का और किसी अंश में असद्भूत का ग्राहक होने से, सदसत्ख्याति ही सिद्ध होती है ।
ख्यातिवाद का यह निरूपण यहाँ समाप्त होता है । प्रमाण-ग्रंथो में इससे अतिरिक्त बहुत कुछ इस बारे में लिखा गया है व और भी लिखा जा सकता है । लेकिन सारल्य व सक्षेप, जो कि इस लेखश्रेणी के प्रमुख उद्देश हैं, उनकी रक्षा हेतु, वह यहाँ नहीं लिखा गया । लेखक की अपनी क्षमता की मर्यादा भी इसमें कारणभूत है । जिज्ञासुओं से प्रमाणग्रन्थों में अनेकशः चर्चित ख्यातिवाद देखने का अनुरोध है ।
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लेखश्रेणी के इस चरण में, पं. श्रीदलसुखभाई मालवणियाजी के द्वारा सम्पादित 'न्यायावतारवातिकवृत्ति' (प्र. सरस्वती पुस्तक भण्डार-अहमदाबाद) गत उनके ही द्वारा लिखित ख्यातिवाद से सम्बन्धित टिप्पणियाँ और पं. श्रीनगीनभाई शाह द्वारा लिखित 'षड्दर्शन, भाग-२, न्याय-वैशेषिक दर्शन' पुस्तक (प्र. - युनिवर्सिटी ग्रन्थनिर्माण बोर्ड) गत 'भ्रान्तज्ञान' इस प्रकरण से काफी सहायता मिली है । यदि ये दो साधन नहीं मिलते तो लेख का यह स्वरूप शायद नहीं बन पाता ।
इससे अतिरिक्त न्यायकुमुदचन्द्र (-प्रभाचन्द्राचार्य), प्रमेयकमलमार्तण्ड (-प्रभाचन्द्राचार्य) व अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरण (-उपाध्याय यशोविजयजी) गत ख्यातिवाद-प्रकरण और ख्यातिवाद (-शङ्करचैतन्यभारती) गत सदसत्ख्यातिप्रकरण व सत्ख्यातिप्रकरण का यहाँ बहुलता से उपयोग हुआ है । इनके अलावा भी कुछ ग्रन्थों का इसमें यथावकाश उपयोग किया गया है । लेखक उन सब ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का ऋणी है ।
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विहङ्गावलोकन
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उपा. भुवनचन्द्र
अनु. ६७
I
आ अङ्कनी प्रथम कृति 'कालविचारशतक' ए जैन ज्योतिषशास्त्र साथे सम्बन्धित रचना छे. सं. टिप्पण उपरान्त संशोधक द्वारा समजूती पण अपाई छे । ते पछीनी त्रण प्राञ्जल रचनाओ रसप्रद छे । आगळनी 'अहो वर ! बोलि' एक तद्दन नवीन प्रकारनी रचना छे । जान मांडवे आवी होय त्यारे कन्या पक्षवाळा पोताना कुलनी गौरवरूप वस्तुओनी घोषणा करता होय एवं आ रचनानुं स्वरूप छे । दरेक कण्डिकामां 'अहो वर' एवं सम्बोधन आवे छे । थोडी कण्डिकाओमां 'अहो शालिक' एवं साळा प्रत्येनुं सम्बोधन पण छे तेथी वरपक्षवाळा पण सामे घोषणा करता होय एवं लागे छे । पोतानी कुलपरम्परानी उत्तम वातोनी आवा प्रसंगे गौरवगाथा गावानी प्रथा क्यारेक हशे । पछी आ ज प्रथाए 'फटाणां'नुं रूप लीधुं होय एम बन्युं होय । पृ. ३० पर नीचेथी १० मी पं. मां ' आराधीता - पूजीता' छे ते कर्मणि व. कृ. नो प्रयोग छे. 'आराधाता - आराधवामां आवता' वो अर्थ छे । आ ज प्रकारना प्रयोग आगळ पण आवे छे पण त्यां वाचनभूलथी खोटुं छपायुं छे । पृ. ३१, पं. नीचेथी १३ मां 'वर्णवी तउ' एम छे ते 'वर्णवीतउ', पृ. ३२, पं. नीचेथी १२ मां 'आराध्यता' छे त्यां 'आराधीता' वांचवु जोईए । पं. २ मां 'रंढ रावण' छे त्यां 'रणरावण' होवानी शक्यता छे ।
'धरणविहार-युगादिस्तव' विद्वत्तापूर्ण प्रौढ स्तोत्रकृति छे । 'वृषभजिनस्तवन' पण एवी ज पाण्डित्यपूर्ण छतां रसिक रचना छे । ‘देलउलालङ्कार-ऋषभजिनस्तोत्र' घणा स्थाने अस्पष्ट रहे छे । श्लो. १७ मां 'क्षितिरुद्भविष्यति' एवो पाठ छे त्यां 'क्षतिरुद्भविष्यति' पाठ बेसे छे । 'वृषभजिनस्तवन' संस्कृत - प्राकृत बे भाषामां निबद्ध प्रासादिक रचना छे ।
I
'अषाढाभूतिप्रबन्ध' नामक रासकृतिमां तेना कर्ताए कथारसने घूंटवामां सफलता मेळवी छे । वाचना शुद्धप्रायः छे । क्यांक पाठ समजायो न
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होवाना कारणे भूल रहेवा पामी छे । क. ४३ मां 'सापदेसु यई उसीसई' छे ते वाचनभूल छ । 'साप दे सुयई उसीसइ' एम वांचतां अर्थ बेसी जाय छ । उंदरथी गभराय छे पण जरूर पडतां सापने ओशीके मूकीने सूई जाय छे - एवी नारीस्वभावनी विलक्षणतानी अहीं वात छ ।
'गजसिंघरायचरित्र रास' नामे दीर्घ रासकृतिनो अर्धभाग आ अंकमां प्रगट थयो छे । वाचना महदंशे शुद्ध छे । महो.यशोविजयजी म.ना शिष्य तत्त्वविजयजीनी पांच रचनाओ आ अङ्कमां प्रसिद्ध थई छे, ते कविनी प्रारम्भिक रचनाओ हशे एम जणाय छे । 'बार व्रतनी टीप' मां १२ व्रतोनी सङ्क्षिप्त व्याख्या जोवा मळे छ । __आ. श्रीरामलालजीना लेखमां आगमोना पाठनिर्णय वखते ऊभा थता प्रश्नो अने ते अंगेनां मार्गदर्शक बिन्दुओनी सुन्दर चर्चा थई छ । सागरजी महाराजे आगम प्रकाशननुं कार्य कर्यु तेने ते समयनी दृष्टिए भगीरथ कार्य कही शकाय । अशुद्ध पाठो अने पाठान्तरोनी समस्या वृत्तिकारो/चूर्णिकारो सामे पण हती, तेथी तेमना करेला कार्य- अवमूल्यन न करी शकाय; एवं ज सागरजी महाराजना कार्य विशे समजवू योग्य छे । अनु० ना सम्पादकजीए पोतानी टिप्पणीमां कडं के "आगमोमां परिवर्तन श्रीघासीलालजी महाराजे कर्यां हतां ते विशे आ. श्रीरामलालजीए कोई जिकर को नथी" - ए वात गम्भीर छ । श्रीरामलालजीना ध्यानमां आ वात हशे ज । आनन्दनी वात ए छे के स्थानकवासी, तेरापंथी वगेरे परम्पराओना विद्वान मुनिवरो चूर्णि/वृत्ति व. ना महत्त्वनो स्वीकार करता थया छे अने संशोधनसमीक्षणनी पद्धति जे हवे विकसित थई छे तेनो उपयोग करता थया छ । ___मस्करिन् / मक्खलि विषयक चर्चामां मुनिश्री त्रैलोक्यमण्डनविजयजीए उपस्थित करेला मुद्दा पण ध्यानार्ह छे । 'मङ्खलि'मांथी 'मस्करिन्' थq शब्दविकासनी दृष्टिए सम्भवित नथी ए मुनिश्रीने स्वीकार्य लागे छे । मक्खलि । मङ्खलिनो पूर्वज़ कोई शब्द प्राचीन संस्कृतमां होवो जोईए एवं मुनिश्री, सूचन ध्यानार्ह छे । एनी शोध चालू राखवा जेवी छ ।
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अनु. ६८ ___ आ अङ्कनी प्रमुख कृति छे 'जयतिहुयण'स्तोत्रना पद्यानुवादरूपे श्रीक्षमाकल्याण द्वारा रचित भाषा । अनुवादकृतिओ माटे एक तबक्के 'भाषा' संज्ञा प्रचलित थयेली । प्रस्तुत 'भाषा'मां मूल अपभ्रंश कृतिनो सरल छतां काव्यात्मक अनुवाद थयो छे । 'एक इतिहासपत्र'नुं महत्त्व स्वयंस्पष्ट छ । संशोधके एमांना बिन्दुओ पर चर्चा करी छे, साथे साथे समग्र पत्रनो गुजराती अनुवाद के सारांश आप्यो होत तो पत्रनी उपयोगिता वधत । 'शास्वतजिनस्तवन' अपभ्रंश भाषानी कृति छे । ___ श्रीविजयसेनसूरिजीना पत्रमांनां बिन्दुओ पर संशोधक / सम्पादकजीए पर्याप्त अवलोकनो करी पत्रनुं तात्पर्य रेखाङ्कित कयुं छे । पत्रमांनी विगत सेनसूरिजीना व्यक्तित्वने वधु उजागर करी जाय छे । ____ योगबिन्दुनी टीका अन्तर्गत संशोधनपात्र स्थानोनी चर्चा करतो लेख संशोधनक्षेत्रे काम करनाराओ माटे एक नवी ज कामगीरी करवानी वात चर्चे छ । संशोधकोए मात्र भाषा, इतिहास के लिपिना दृष्टिकोणथी ज नहि, ते ते विषयना सन्दर्भे पण कृतिनी परीक्षा करवी घटे - ए आ लेखनुं तात्पर्य छ ।
अनुसन्धाने जे विज्ञप्तिपत्रोना विशेषाङ्क कर्या तेमां तथा अन्यत्र प्रकाशित विज्ञप्तिपत्रोनी सविस्तर सूचि आ अङ्कमा छे । अनु० ना ५१ थी ६७ सुधीना अङ्कोमा प्रकाशित सामग्रीनी विषयवार सूचि पण अपाई छ ।
कुल १६४ रचनाओमा ४५ थी वधु तो सं. / प्रा. स्तोत्रात्मक कृतिओ प्रगट थई छ । कुल १३१ वि. प. आ विशेषाङ्कोमा प्रगट थया ।
अनु० ६९ ___ जैन स्तोत्रसाहित्यना अक्षयभण्डारमाथी वधु त्रण स्तोत्र आ अङ्कमां प्रकाशित थया छे । त्रणे रचनाओमां कंइक विशेष छे । प्रथम स्तोत्रमां शरणागतिनो भाव वियोगिनी छन्दमां चॅटायो छे । गौतमस्वामीनी स्तुतिमां संस्कृत व्याकरणना ओछा जाणीतां रूपो वणी लीधां छे । त्रीजी स्तुतिमां यमक (अक्षरसमूहना पुनरावर्तन)नी चमत्कृति जोवा मळे छ ।
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'विषमव्याख्याकाव्यानि'मां संस्कृत प्रहेलिका (कोयडा) छे । संस्कृत भाषानी सन्धि अने समासनी खूबीओनो उपयोग करीने कोयडा सर्जवामां आव्या छे । संस्कृतना अभ्यासीओने बौद्धिक कसरत करावे एवी रचनाओ छ । टिप्पणोथी उकेलमां मदद मळे छे । संशोधक मुनिश्रीए केटलाक उकेल शोधी आप्या छे । २९ मा श्लोकनो जे उकेल सूचव्यो छे ते साचो नथी । गौः + ईपदं एम सन्धि छूटी पाडतां कर्ता 'गौः' मळे छे । हजी अमुक प्रहेलिकाना उत्तर शोधवाना बाकी रहे छ ।
अक्षयचन्द्र वाचक पर प्रेषित लेखपत्र विद्वान मुनिओना उच्च बौद्धिक व्यायामनो नमूनो छे । आ वाचक नागोरी वड तपगच्छ (-पार्श्वचन्द्र गच्छ) ना हता ।
सकलचन्द्र गणिनी एक म. गु. रचना अहीं प्रथम वार प्रकाशित थई छ । क. १० मां 'स्यालीजई' छे त्यां 'स्या लीजई' एम छूटुं वांचq जोईए । क. १२ मां 'छपायु' छे त्यां 'पोताने केम छुपावी शकाय' एवो अर्थ छे, 'संताइने' नहीं । क. २९ मां 'पांतरिउ' नो अर्थ “भिन्न पडतुं', 'जुदी जातनुं' एवो थाय छे ।
__उदयसागरजी कृत 'थूलिभद्रचन्द्रायणा' मां शृङ्गाररस, पोषण कविए मुक्तहस्ते कयुं छे, अन्ते वैराग्यमां पर्यवज्ञान कयुं छे । संशोधक मुनिवरे नोध्युं छे के जै. गू. क, मां चन्द्रावला-चन्द्रायणा प्रकारनी एक ज कृति नोंधाई छ । परन्तु एम नथी; त्यां अलग अलग विषयना शीर्षक नीचे बेचार चन्द्रावला नोंधाया छे । जो के चन्द्रावला प्रकारनी कृतिओ ओछी छे ए वात साची छे । श्री जयंत कोठारीए जयवंतसूरि कृत स्थूलिभद्र चन्द्रावलां सम्पादित करीने फार्बस त्रैमासिकमां प्रगट करावेलां ! । चन्द्राउलामां प्रेम-शृङ्गार-विरह जेवा भाव व्यक्त थता, तेथी धर्म/भक्तिनी अभिव्यक्ति माटे एनुं माध्यम लेवानुं अनुकूल न बने । प्रेम-शृङ्गारनो विषय जेमां आवतो होय एवा प्रसंगो लईने त्याग/विरागनी प्रेरणा आपी शकाय त्यां ए माध्यम काम आवे । अने आवा विषयनी मावजत करवी अघरी छे, आथी चन्द्राउला प्रकारनी रचनाओ अत्यल्प प्रमाणमां थई छे एम कहेवामां वांधो नथी । प्रस्तुत रचनामांना केटलाक शब्दो :
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क. ३५ 'पाडी' : शब्दकोशमां संशोधके आनो अर्थ 'अधिकार' जणाव्यो छे, पण सन्दर्भ जोतां आ अर्थ बेसतो नथी । सखी कोशाने समजावे छे के 'इम नवि दीजइ आपण पाडी' पोतांनी जातने आम नीची न पाडी देवी - अर्थात् कोइना रूप व. गुणोथी आकर्षाइने जात सोंपी न देवी, धनने ज महत्त्व आपy - एवो भाव छ । क. ६९ 'कोरडि चावइ' नो अर्थ 'करोडो वातो संभलावे' एवो न थई शके; बारणामां ऊभी ऊभी कोरड (मठ) चावे छे - एवो अर्थ नीकळे छे । असंस्कारी स्त्री- वर्णन छे एटले आ बंधबेसतं थाय । क. ६१ मां ज 'बरबीय' छे, एनो अर्थ 'अभिमानी' एवो आप्यो छे तेने बदले 'अभिमानथी' समजवू जोईए । क. ७८ मांनो 'एकलसंथुई' शब्द वधु तपास मागे छ । संथउ = 'सेंथो' शब्द छे, ए उपरथी 'एक सेंथावाली' अर्थात् 'एक सरखी' एवो लाक्षणिक अर्थ थई शके । ___'गजसिंहकुमार चोपई' आ अंकमां पूरी थाय छे । वाचना शुद्धप्रायः छ । क्यांक समजफेर अथवा वाचनभूल थई छे। खं. ३, क. ५५ 'रघवलगी' छे त्यां 'रथवलगी' जोईए । खं. ४, क. ७३ मां 'सि उदेस' छपायुं छे त्यां 'सिउ देस' पाठ वांचवो ठीक लागे छे - 'शुं आपशो' एवो अर्थ बेसे छे । क. ८६ मा 'छोडावि वाते' ने स्थाने 'छोडाविवा ते' वांचवें घटे ।
आ अङ्कमां एक विशिष्ट कृति प्रगट थवा पामी छे । रामसनेही सम्प्रदायना एक महन्त उपर लखायेल काव्यमय विज्ञप्तिपत्र एक अजैन कृति छे । अनु० मां एने स्थान आपीने अनु० ना सम्पादकजीए पोतानी शुद्ध साहित्यिकनिष्ठानो परिचय कराव्यो छे । हस्तप्रत परथी आनी वाचना मुनिश्री सुयशविजयसुजसविजये तैयार करी छे । आनुं विवरण / अर्थघटन श्रीनिरंजन राज्यगुरुए कर्यु छे । रामसनेही सम्प्रदाय अने तेना महन्तो इत्यादि उपर राज्यगुरुए पर्याप्त पूरक माहिती आपी छे, जेथी कृतिनो आस्वाद सहु कोई पामी शकशे ।
क. ११९ अने १२० ना अर्थघटनमां थोडी मुश्केली अनुभवाई छे, परन्तु आवी रचनाओमां कविओ विनोद खातर शब्दरचना करता होय छे एवं ज अहीं पण छे । विशेष गूढता जेवू नथी ।
१. म.गु.को.मां 'पाडि'नो अर्थ 'अधिकारक्षेत्र' नोंधायेलो ज छे. सन्दर्भ प्रमाणे "अम आपणो अधिकार कोइने सोंपी न देवाय" अवो अर्थ पण सङ्गत थई शके छे. तात्पर्य तो सरखं जं छे । २. कोरडां - गांगडु अनाज ।
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क. ११९ : दिशानो आदि अक्षर अने कालीनो अन्त्य अक्षर मनमां विचारो अने उमरावसिंहनी विनन्ति छे के तेने पावन करो । (दि + ली = दिलीशहेर) । क. १२० : बत्रीश अक्षरमां प्रथम अक्षर = क; तेनी आगळ २७ मो अक्षर = र; पाण साथे एकवीशमो अक्षर = पा. करपा - कृपा । कृपा राखजो ।
'पञ्चपरमेष्ठी नमस्कारार्थ'मां थोडी वाचनभूलो रही जणाय छे । पृ. ११५, पं. ३ 'हुं' छे त्यां हु[उ] एवो सुधारो आवश्यक छ । पृ. ११७, पं. नीचेथी ८ - लोके छे, त्यां 'लोक' होय तो बेसे । पृ. ११८, पं. नीचेथी ११ - 'जीवरुलि वा नउ' ने स्थाने 'जीव रुलिवानउ' वांचवें घटे । नीचेथी पं. १ 'पांखीयानी'मां अनुस्वार न जोईए । - छ'रीपालित सङ्घ स्तवन तथा पावागिरि चैत्यप्रवाडि - ए बन्ने ऐतिहासिक रचनाओ सुन्दर रीते सम्पादित थई अहीं रजू थई छ । सम्पादिकाओए पूरक माहिती एकत्र करी आपी छे । पृ. १४८ पर 'वंदर (?) वालि' एम छे त्यां म. गू. शब्द छे जे खोटो वंचायो छे । मध्यकालीन कृतिओना न समजाता शब्दो माटे श्री जयंत कोठारीनो म. गू. कोश जोवानी टेव पाडवा जेवी छे, जेथी कृति शुद्ध करी शकाय; क्यारेक म. गू. को. मां न नोंधायो होय एवो शब्द मळी आवे तो शब्दोमां उमेरो पण थई शके । 'वंदरवालि' नो अर्थ छे : 'बारणे लटकावाता तोरण' । 'चैत्रप्रवाडि' मां 'भाषा' शीर्षकनो अर्थ 'ढाळ' थाय छे । क. १९ अने क. २४ थी पण ढाळ बदलाय छे, जे सम्पादके शोधीने सूचित करवानी जरूर रहे।
मुनि श्रीत्रैलोक्यमण्डनविजयजीना बे अभ्यासलेख शास्त्राभ्यासीओना कामना छे । क्रमिक, सुश्लिष्ट अने व्यापक सन्दर्भयुक्त चर्चा ए मुनिश्रीनी शैलीनां लक्षण बनवा जई रह्यां छे ।
डॉ. नलिनी बलवीरनुं वक्तव्य तेमनी विद्याप्रियता अने नम्रतार्नु निदर्शन करावी जाय छे । जैन साधु-साध्वीओ प्रत्येनो तेमनो आदरभाव जोईने साश्चर्य आनन्द थाय ।
जैन देरासर, नानी खाखर-३७०४३५,
जि. कच्छ, गुजरात
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sodof
ग्रन्थावलोकन
Piotr Balcerowicz, Early Asceticism in India Ājīvikism and Jainism. [362p., 20 figures, 1 table. London: Routledge, 2015 and New York, 2016. Hardbound. £ 90; $ 95.]
Review by Willem Bollée
After many preliminary studies the Warsaw Indologist herewith has given us a proper successor to Arthur Basham's up to now standard work on the Ājīvikas, which to a greater extent uses data from Buddhist than from Jinist sources. The disparity seems to have been dispelled with this new book in which the author (hereafter : PB) wishes to re-examine the relation between Pāsa ([U]pāśva[sena)'; “Pārsva”), Vardhamāna Mahāvīra and Gosāla Mankhaliputta, the older leaders known of the religious traditions in question. In the absence of Ājīvika scriptures we depend for their doctrines on Jain and Buddhist references. Gosāla's father may have been an itinerant bard who stayed for some time in a cow stall of the Brahmán Gobahula where Gosāla is said to have been born.?
In a table (p. 36) PB clearly pictures the complex relations between Gosāla and Mahāvīra, in which the former in the early Jain community was an important teacher, even
1 Bollée, Review of Kristi L. Wiley, Historical Dictionary of Jainism (2004). In: ZDMG 158,2 (2008): 507f.
2 PB appears to accept the meaning of the name Gosāla as born in a cow stall” (p. 35), which Reviewer) thinks odd and would rather take it to be a Māgadhism for “Gosāra, rich in cows' like Gobahula, the name of his landlord, or 'strong as an ox', for which cf. Gobala. Gosāla will not have been the only one born in a cow stall and that would therefore not be a reason to be called after.
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considered a tīrthamkara by his followers. Originally a disciple of Pasa and wearing cloths and using an alms bowl Mahāvīra after meeting Gosāla adopted nudity and eating from his cupped hands. Further, the Jains probably borrowed the idea of social classes (in the form of lesyās), and astrology and fortune telling from the Ājīvikas with whom in the beginning they may have shared a corpus of authoritative texts, the Puvvas, of which tradition the noncanonical Isibhāsiyāim perhaps became an offshoot (p. 78). These Puvvas may have contained the Mahanimittas of the Ajīvikas and were therefore probably forgotten deliberately.
PB also discusses several other beliefs and practices such as sallekhaṇā, determinism, syād-vāda/anekānta-vāda, the tripartite pattern of jīva, a-jīva and jivâjīva, and the art of the Ajivikas with many of his own photographs, and is certainly right in his last sentence: "Jainism and its contributions to Indian religious, ascetic and philosophical traditions would look quite different, had there not been Gosāla Mankhaliputta and the Ājīvikas."
The books stands out by precise analysis, is very readable despite its many learned excursions, and has an extensive bibliography and a good index. An early Indian edition is a must for Jains with real interest in the history and contents of their religion.
Prof. Dr. Willem Bollée
Don-Bosco-Str. 2 D-96047 Bamberg Tel. 0951-69481 willem.bollée@t-online.de
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अनुसन्धान-७०
( उपरना लखाणनो सारानुवाद) घणा बधा पूर्व अध्ययन बाद वोर्यो इन्डोलोजिस्टे आपणने आर्थर बाशमना आजीविको परना अत्यार सुधीना प्रमाणित कार्यनो एक योग्य वारसदार अहीं आप्यो छे, के जेणे जैन सन्दर्भो करतां बौद्ध सन्दर्भोनो वधु प्रमाणमां उपयोग कर्यो छे । जेमां विविध धर्मपरम्पराओना नायक एवा पास, वर्धमान महावीर अने गोशाल मंखलिपुत्र वच्चेना चर्चास्पद सम्बन्धो अंगे लेखक पुनः परीक्षण करवा इच्छे छे एवा आ पुस्तकथी घणी विषमताओ दूर थती जणाय छे । आजीविक साहित्यना अभावमां आपणे एमना धर्मसिद्धान्तोने समजवा माटे बौद्ध अने जैन सन्दर्भो पर ज आधार राखवो पडे छे । गोशालाना पिता कदाच एक यायावर भाट हता अने तेओ थोडाक समय माटे गोबहुल ब्राह्मणनी गोशाळामां रोकाया हता, ज्यां गोशालकनो जन्म थयो होवानुं कहेवाय छे ।
PB (लेखक) एक कोष्टकमां गोशाल अने महावीर वच्चेना जटिल सम्बन्धो विशे स्पष्टता करतां जणावे छे के गोशाल प्राचीन जैन समाजनो एक महत्त्वपूर्ण शिक्षक हतो अने एना अनुयायीओ एने 'तीर्थङ्कर' तरीके ओळखता हता । मूळभूत रीते 'पास'ना शिष्य, चीवरधारी. अने पात्रभोजी एवा महावीरे गोशालने मळ्या पछी नग्नता अपनावी अने करपात्री बन्या । त्यारबाद, संभवतः जैनोए लेश्या-आधारित सामाजिक वर्गीकरणनी कल्पना, ज्योतिष तेमज भविष्यकथनने सम्बन्धित विचारो आजीविको पासेथी उछीना लीधा । आ आजीविको साथे जैनोए शरुआतमां कदाच अधिकृत शास्त्रो के जे 'पूर्व' तरीके ओळखाय छे, तेमनो विनिमय को हतो । 'इसिभासियाई' आ पूर्वनी परम्परानो ज एक अनागमिक फणगो छ । आ पूर्वोनुं गठन कदाच आजीविकोनां महानिमित्तोना आधारे थयुं हतुं । अने सम्भवतः तेथी ज ते सम्पूर्णपणे भूलाई चूक्या छ । ___PB आ उपरांत संलेखना, नियतिवाद, स्याद्वाद/अनेकान्तवाद, जीवअजीव-जीवाजीव एम त्रण राशिमां विभाजन जेवी अन्य केटलीक मान्यताओ तेम ज. धर्मक्रियाओ अने पोताना घणा बधा फोटोग्राफ्स साथे
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जुलाई-२०१६
आजीविकोनी कला विशे पण चर्चा करे छे । ए- ए छेल्लुं विधान तद्दन साचुं छे के : “जो गोशाल मंखलिपुत्र अने आजीविको न होत तो जैनविद्या अने एनुं भारतीय धार्मिक अने दार्शनिक क्षेत्रे प्रदान कंईक जुएं ज देखातुं होत."
सम्पादकनी नोंध
विश्वनां अनेक विद्याकेन्द्रोमां तेमज स्वतन्त्र रूपे, अनेक विद्वानो, भारत ना धर्म, तत्त्वज्ञान, दर्शन, इतिहास वगेरे विषे अध्ययन तथा संशोधन कर्या करे छे । तेओ इन्डोलोजी, बौद्धोलोजीनी जेम ज जैनोलोजी विषे पण कार्य करता होय छे । तेमनां अध्ययनो समीक्षात्मक, तुलनात्मक के आलोचनात्मक एम विविध प्रकारना होय । - ते लोको जैन नथी । जैन परिपाटी के परम्परागत मान्यताओथी वाकेफ नथी अथवा वाकेफ होय तो पण ते बधुं तेमने मान्य होवू जरूरी नथी । तेओ तद्दन तटस्थ अने त्राहित अभ्यासु जन होवाना, अने पोताना स्वतन्त्र दृष्टिकोणथी ज बधुं जोवा-तपासवाना ।
ए वात जाणीती . छे के भगवान महावीरना समयमां अन्य ६ महात्माओ पण तीर्थङ्कर तरीके प्रख्यात हता; तेमनो पण सिद्धान्त, प्रभाव तथा अनुयायीगण हतो । तेमांना एक ते मंखलिपुत्र गोशाल । आपणा परम्परागत ग्रन्थोमां ते भगवान महावीरना जीवनमा एक खलनायक अथवा विदूषकरूपे आलेखाय छे, वर्णवाय छे । पर्युषण दरम्यान थतुं तेनुं वर्णन उपहासात्मक होय छे, जे विचारशील के व्यापक अभ्यास करनारा माटे अरुचिकर होय छे । परन्तु ज्यारे संसारमां ने समाजमां तेने पण एक तीर्थङ्कर के धर्मप्रवर्तक तरीके ख्याति अने स्वीकृति मळी होय त्यारे, तेम ज तेना प्रतिपादित सिद्धान्तोनु पण भारतीय तत्त्वदर्शनना सन्दर्भमां मूल्य अंकातुं होय त्यारे, तटस्थ के जैन न होय तेवा विद्वानो तेना अने भगवान
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अनुसन्धान- ७०
वरना सम्बन्धो विषे, सिद्धान्तो विषे, विविध दृष्टिकोणथी तथा इतिहासना परिप्रेक्ष्यमा चर्चा - विमर्श करे तो ते अभ्यास करवा योग्य विषय बनी रहे । आमां धार्मिक मान्यता के परम्पराने आडी न लवाय ।
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अलबत्त, एनो अर्थ एवो नहि के ते लोको जे कहे के लखे ते आपणे यथातथ मानी के स्वीकारी लीधुं छे के लईए छीए । आपणे तो तेमनी वातो जाणवानी छे। अने पछी आपणने खपतुं कांई होय तो ते अंगे विचारवानुं, अने अनुकूल न होय तो ते बधुं तेमना पुस्तकमां ज रहेवा देवानुं ।
कोईनुं लखाण छापवानो अर्थ 'तेनां प्रतिपादनोमां संमति' एवो न थई शके । मात्र मध्यस्थभावे आपणने अनुकूळ होय तेनी जेम ज, प्रतिकूळ होय तेवी वातोने पण सांभळतां अने अन्वेषक दृष्टिए तपासतां शीखवानुं छे ।
प्रा. विलियम बोली एक जर्मन विद्वान छे, इन्डोलोजी तथा जैनोलोजीना प्रकाण्ड अध्येता छे । तेमणे, विद्वान Piotr Balcerowicz नामना मित्रे लखेल शोधपूर्ण ग्रन्थ 'आजीविकिझम एन्ड जैनिझम' विषे पोतानुं अवलोकन 'अनुसन्धान' माटे पाठवेल छे । ते यथावंत्, अमारी नोंध साथे, प्रकट करवामां आवेल छे ।
शी.
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जुलाई-२०१६
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पाया छ -
सुधारो त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्यम् - भाग ३, पर्व ५-६-७ (सं. - पं. श्रीरमणीकविजयजी गणि, विजयशीलचन्द्रसूरि, प्र. - क.स. श्रीहेमचन्द्राचार्य न.ज. श.स्मृ.सं. शिक्षणनिधि - अमदावाद, सं. २०५७)मां रहेली एक क्षति तरफ मुनिश्री श्रुततिलकविजयजीए ध्यान दोर्यु छे. पर्व-७, सर्ग-१०, श्लोक ५२ आम छे -
"भ्रान्त्वा श्रीकान्तजीवोऽभून्मृणालकन्दपत्तने । राजसूनुर्वज्रकण्ठः, शम्भु-हेमवतीभवः ॥" . आमां त्रण पाठान्तर नोंधाया छे - “राज्ञः सूनु०, वज्रकन्दः, शम्भुर्तेम०"
अत्रे रावण, लक्ष्मण, सीता व.ना पूर्वभवोना वर्णन- प्रकरण छे. तेमां श्रीकान्तनो जीव शम्भु नामनो राजपुत्र थईने भवान्तरमां रावणरूपे जन्म ले छे तेवो सन्दर्भ छे. परन्तु उपरना श्लोकथी तो श्रीकान्तनो जीव 'शम्भु' नहि, पण शम्भुनो पुत्र 'वज्रकण्ठ' थयो एवं फलित थाय छे. जे असङ्गत छे.
मुनिश्री अत्रे अर्थसङ्गति माटे उत्तरार्ध आवो होई शके तेम सूचवे छे - "राज्ञः सूनुर्वज्रकम्बोः, शम्भुर्हेमवतीभवः ॥"
आमां जे त्रण सुधारा सूचवाया छे, तेमांथी बे तो (राज्ञः सूनु० अने शम्भुर्तेम०) पाठान्तररूपे मळे ज छे. अने 'वज्रकम्बोः'नुं लेखनदोषथी 'वज्रकण्ठः' थयुं होय ते पण शक्य छे. तेमज आ पाठ मुजब श्रीकान्तनो जीव वज्रकम्बु राजा अने हेमवती राणीनो पुत्र 'शम्भु' थयो तेवू फलित थाय छे, ते पण बराबर छे.
आ क्षतिनिर्देश करवा बदल मुनिश्रीना अमे आभारी छीए.
आ उपरान्त अन्य एक क्षति पण हमणां अमारा ध्यानमां आवी छ :
त्रिषष्टि० भाग-४, पृ. १८०, पर्व ९, सर्ग ३, श्लोक २६मां आवता 'राधा' शब्दनो अर्थ टिप्पणीमां 'अनुराधानक्षत्र' नोंधायो छे. तेने बदले 'विशाखानक्षत्र' थवो जोइए.
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अनुसन्धान-७०
डो. मधुसूदन ढांकी स्मृतिशेष विख्यात स्थापत्यविद्, पुरातत्त्वविद्, इतिहासविद्, डॉ. मधुसूदन ढांकी हवे आपणी वच्चे नथी रह्या !
ता. २९ जुलाई २०१६नी रात्रे ११-४०ना सुमारे, अमदावादमां डो. पारेखनी होस्पिटलमां डॉ. ढांकीए देहत्याग कर्यो, त्यारे तेओ तेमना आयुष्यना ८८मा वर्षनी पूर्णाहुतिना आरे हता. ता. ३१ जुलाईए तो तेमनो जन्मदिन हतो !
डॉ. ढांकी, तेमना, अमारा जेवा सेंकडो चाहको माटे, आदरणीय ढांकीसाहेब हता. तेओ समाजना तेमज साहित्यजगत्ना बाल, वृद्ध, युवान. - तमाम उमरना लोकोने पोताना मित्र बनावी शकता हता. साहित्य, ते गुजराती होय, हिन्दी होय के अंग्रेजी होय, सर्जनात्मक होय, समीक्षात्मक होय के संशोधनात्मक होय, तेनी तमाम विधाओना तथा प्रवाहोना सम्पर्कमां रहेवू, तेना शोधक-सर्जको साथे पण शक्य सम्पर्क धराववो, अने ते सघळा विषे, सहुने आश्चर्य थाय ते हदे, पोतानी टिप्पणी, प्रतिभाव अने विश्लेषण आपवा, आ तेमनी सहज-विलक्षण क्षमता हती. विद्यानी अगणित शाखाओमां तेमनी गति अने पहोंच हती. तेमनो शब्द, शोधजगत्मां प्रमाणभूत अने आखरी गणातो. माणस तरीके तेओ खूब मिलनसार, प्रेमाळ अने हसमुखा हता. टीखळ अथवा रमूज ए तेमना स्वभावनो एक मजानो हिस्सो हतो. तेमना विषे आq तो घणुं कही शकाय.
__ आवा सर्वप्रिय ढांकीसाहेबने गुजराते ओळख्या नहि, जैन समाजे तेमने पिछाण्या नहि, ए. केटलुं विचित्र लागे !
ढांकीसाहेबनी चिरविदायथी वैश्विक तेमज भारतीय विद्याविश्वमां कदी भरपाई न करी शकाय तेवी खोट पडी छे. तेमना विद्यापूत आत्माने माटे शान्ति प्रार्थीए. ___ढांकीसाहेबने अंजलिरूपे 'अनुसन्धान'नो हवे पछीनो अंक 'डॉ. ढांकी विशेषाङ्क' तरीके प्रगट करवामां आवशे. साहित्यकारो तथा संशोधक मित्रोने पोताना शोध-लेख अने स्मरण-लेख पाठववा विज्ञप्ति.
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