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________________ जुलाई - २०१६ शुक्ति के साथ चक्षुरिन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर कभी कभी पूर्वकाल में अन्यत्र दृष्ट रजत के सादृश्य का उसमें दर्शन होता है । इस दर्शन से उस रजत के संस्कार उद्बुद्ध होते हैं, जिनसे रजत की स्मृति होती है । उस स्मृतिस्थ रजत का प्रमाता, इन्द्रिय आदि के दोषवशात् बहिर्देश में आरोप होकर प्रतिभास होता है । अर्थात् उपस्थित शुक्तिका स्मृतिस्थ रजतरूप में प्रतिभासित होती है । फलतः शुक्ति में 'इदं रजतम्' ऐसा भ्रमात्मक रजतज्ञान होता है । १४१ जिस पुरुष को पहेले कभी भी रजत का दर्शन हुआ ही नहीं, उसे ऐसा भ्रमात्मक ज्ञान नहीं होता । इससे सिद्ध होता है कि शुक्ति में भ्रमात्मक रजतज्ञान होने के लिए पूर्वदृष्ट रजत का स्मरण जरूरी है । उत्तरकालीन नैयायिकों ने उक्त स्मरण को ज्ञानलक्षण अलौकिक सन्निकर्ष समझकर भ्रम को अलौकिक प्रत्यक्ष गिना है । यद्यपि द्विचन्द्रज्ञान, अलातचक्रज्ञान, शङ्खपीतत्वज्ञान जैसे भ्रमात्मक ज्ञानों में उपस्थित वस्तु के सादृश्य की भूमिका नहीं भी होती, फिर भी वहाँ पर भी उपस्थित वस्तु के किसी विशिष्ट अंश के कारण उबुद्ध स्मरण के विषयभूत पदार्थ का दोषवशात् बहिर्भाग में आरोप अवश्य होता है । पूर्वोक्त ख्यातिओं से इस ख्याति का वैलक्षण्य स्पष्ट है । इस ख्याति के अनुसार शुक्ति में रजतज्ञान, रजतस्मृति से सहकृत प्रत्यक्षज्ञान है, न कि स्मृति; और वह भी दो ज्ञानों का भ्रमात्मक संयोजन न होकर स्वयं एक ज्ञान है । इस तरह विवेकाख्याति से इसका बडा भेद है । विपरीतख्याति के अनुसार बाह्य वस्तुएँ सर्वथा शून्यरूप, ज्ञानरूप या सद्रूप नहीं होने से, असत्ख्याति, आत्मख्याति या सत्ख्याति को यहाँ अवकाश नहीं है । इस वाद में बाह्य पदार्थों के विषय में लौकिकालौकिक या क्षणिक- व्यक्ताव्यक्त विभागीकरण न होने से, अलौकिकख्याति व प्रसिद्धार्थख्याति का भी सम्भव नहीं । और बाह्य पदार्थों का निर्वचन सम्भवित होने से अनिर्वचनीयख्याति भी शक्य नहीं । बाह्य पदार्थ को आलम्बनभूत मानने ★ जैन मत के अनुसार प्रत्यभिज्ञान
SR No.520571
Book TitleAnusandhan 2016 09 SrNo 70
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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