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________________ १४० अनुसन्धान-७० असदर्थविषयक भी हो सकता है तो किसी भी ज्ञान के विषय को परमार्थसत् मानने की आवश्यकता न रहने से शून्यवाद ही प्रसक्त होगा । २. भ्रमज्ञानोत्तरभावी बाधकज्ञान से भी स्मृतिप्रमोष की सिद्धि नहीं होती । क्यों कि बाधकप्रतीति से तो 'नेदं रजतम्' इस रूप में भ्रमज्ञान में भासित रजत की असद्रूपता ही सिद्ध होती है, न कि 'रजतप्रतिभासः प्रकृतः स्मृतिः' इस रूप में उसकी स्मृतिरूपता आवेदित होती है । इसलिए भ्रान्ति को स्मृतिप्रमोषगर्भित मान नहीं सकते । ३. भ्रान्ति में दो ज्ञान का भेदाग्रह मानने पर उसका स्वसंवेदन किस रूप में होगा - प्रत्यक्षरूप में या स्मृतिरूप में ? उभयात्मकरूप में स्वसंवेदन यानी आत्मप्रत्यक्ष तो अनुभवविरुद्ध है। ४. एकसाथ दो ज्ञान की सत्ता तो स्वयं प्रभाकर के मत में भी अनुभवविरुद्ध होने से अस्वीकृत है । तो भेदाग्रह होने के लिए अनिवार्य दो ज्ञानों की युगपत् सत्ता कहाँ से आएगी ? ५. प्रत्यभिज्ञा के बल से भी भ्रमज्ञान का एकत्व ही सिद्ध होता है । इस तरह उपरोक्त ख्यातियों की अभ्युपगम-अनर्हता को देखकर जैन दार्शनिकों के द्वारा अन्यथाख्याति यानी विपरीतख्याति का ही अभ्युपगम हुआ है, जो नैयायिक, वैशेषिक, कुमारिल भट्ट आदि को भी मान्य है । १०. जैन, नैयायिक आदि सम्मत अन्यथाख्याति एक वस्तु की अन्य वस्तु के रूप में प्रतीति को अन्यथाख्याति या विपरीतख्याति कहते हैं । विपर्यय का मतलब यह है कि अन्य आलम्बन में अन्य प्रत्यय का होना । शुक्ति में शुक्ति का प्रत्यय ही अविपरीत प्रत्यय है और रजतप्रत्यय विपरीत, जो कि क्रमशः इन्द्रियों के गुण-दोष का फल है । दोष के कारण शुक्ति का निज रूप से प्रत्यक्ष न होकर वह रजतरूप से दिखती है, यही भ्रान्ति है । शुक्ति भी सत् है व रजत भी सत् है । भ्रम में उस देश-काल में स्थित शुक्ति की जगह अन्य देश-काल में स्थित रजत का प्रत्यक्ष होता है । इसकी उत्पत्ति की प्रक्रिया ऐसी होती है -
SR No.520571
Book TitleAnusandhan 2016 09 SrNo 70
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2016
Total Pages170
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size11 MB
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